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सच्ची होली (true holi)
true holi: लो बीता बरस फिर आ गई होली
रंग गए तन मन…भरी खुशियों से झोली
पर बस इक दिन ही क्यों होली हो?
हर दिन ही क्यूँ ना होली हो…
जब भूलें हम सब शिकवे गीले
दिल खोल के सारे लोग मिलें
जो दिल में हो वही ज़ुबाँ पर हो
जब हमसे कोई ख़फ़ा न हो
तब समझो सच्ची होली है
जब हर धर्म न भूले अपनी मर्यादा
बोलें सब भाईचारे की भाषा
जब मज़हब की दीवार गिरे
हर ओर प्रेम और प्यार पले
तब समझो सच्ची होली है
जब जात पात का भेद न हो
जब विचारों में मतभेद न हो
जब अपनाए नए विचारों को
पर न भूलें अपनें संस्कारों को
तब समझो सच्ची होली है
जब मंज़िल के रस्ते धूमिल न हों
जब सपनों पर बंदिश न हो
नाकाम कोई कोशिश न हो
जब नई उम्मीद के अबीर गुलाल उड़ें
तब समझो सच्ची होली है
जब होठों पर मीठी बोली हो
खुशियों से भरी हर झोली हो
जब दिलों में प्रेम का रंग मिले
मिल कर हम सब संग चलें
जब चढ़े खुशियों के भंग
रंगे मन अपनापन के रंग
तब समझो सच्ची होली है…
तब समझो सच्ची होली है…
अटल
कुछ वीर सरहद पर लड़ते हैं
दुश्मन के आगे अड़ते हैं
दे आहूति अपनीं साँसों की
रक्षा देश की करते हैं
कुछ कर्मवीर ऐसे भी होते हैं
जो सीमा के भीतर रहते हैं
बिन हथियारों के लड़ते हैं
होता है ध्येय अडिग उनका
देश की सेवा करते हैं
हर मुश्किल से जूझा करते हैं
ऐसे ही थे भारत माँ के लाल अटल
नव भारत के गौरवशाली इतिहास अटल
था देश प्रेम का भाव अटल
हैं भारत के अभिमान अटल
हर समस्या हर इक चुनौती को
काँटे की टक्कर देते थे
इरादे थे फौलादी उनके
पर अंदाज़ सुन्दर सरल निराला था
मृदु थे स्वभाव से किंतु
क्या प्रखर वक्ता… क्या ओजस्वी वाणी थी
जब बोला करते थे अपनी रौ में
इक सन्नाटा-सा छा जाता था
विरोधियों के खेमें को जैसे
साँप सूँघ-सा जाता था
सब सुननें वाले सोचा करते
किस शेर से पड़ गया पाला था
थे मानवता के प्रहरी
अपनी संस्कृति के पहचान थे वो
क्या पहनावे से, क्या विचारों से
भारतीयता की अमिट इक छाप थे वो
छवि में बसा था हिंदुत्व
और हिन्दी ही उनकी भाषा थी
कविता कहानी के लेखक थे
साहित्य संस्कारों के रक्षक थे
जन जन के प्यारे नेता थे
अद्भुद लोकप्रिय छवि उनकी
अपने दल की क्या बात करूँ
विरोधी दल भी उनके चाहने वाले थे
जन मानस के परम हितैषी थे
आधुनिकता के भी रखवाले थे
जय जवान जय किसान के नारे को
जय विज्ञान से जोड़ने वाले थे
थे सूझबूझ से भरे हुए
दूरदर्शिता थी विशेषता उनकी
थे आत्मविश्वास से भरे हुए
निर्णय लेने में अव्वल थे
देश के हित को आगे रख कर
सारा जीवन अपना होम किया
ऐसे भारत माँ के रतन को आज
सच्चे दिल से हम नमन करें
उनके सिद्धांतों पर चलने का प्रण करें
होगी सच्ची श्रद्धांजलि अगर
उनके विचारों को हम ग्रहण करें…
उनके विचारों को हम ग्रहण करें…
तीज
सावन अपने संग लाया है
तीज का पावन त्योहार
आओ मिलकर ख़ुशी मनाएँ
करके हमसब सोलह श्रृंगार
गोटा किनरी वाली चुनरी
पहनूँगी मैं साड़ी हरी हरी
देखकर तुमको ही खिलता है
रंग रूप मेरा हर बार
माँग में सिंदूर टीका शोभे
कजरारी अँखियाँ बाट है जोहे
जल्दी आना साजन तुम बिन
सूना सूना है मेरा संसार
मेहँदी रच गई हाँथों में
झूले पड़ गए बागों में
पर इन मतवाली अँखियों को है
कब से तुम्हारा ही इंतज़ार
चूड़ी बिंदिया कंगन पायल
सब कर देंगे तुमको घायल
छोड़ के आओ जल्दी से अब
सारे नौकरी और कारोबार
गजरा, लाली, मुंदरी बाली
ये सब मुझको लगती है प्यारी
पर उन सबसे प्यारा है मुझको
साजन तुम्हरा प्यार…
हाँ…साजन तुम्हरा प्यार…
गुरु
खुद दीपक-सा जल कर हमको
हर पल राह दिखता है
खुद अंधियारे में रह कर भी
हमको प्रकाश में लाता है
कभी सख़्ती से, कभी नरमी से
हमें सुमार्ग दिखलाता है
जब तक न मिले मंज़िल हमको
सर से आशीर्वाद का हाँथ न हटनें पाता है
हमारी हर एक सफलता पर सीना उनका
गर्व से दूना हो जाता है
जीवन की कठिन डगर को भी
कितना आसान बना कर जाता है
सब मुश्किल हालातों को हमको
हँस कर सहना भी सिखाता है
गुरु तो वह है जो बस ज्ञान नहीं
जीवन दर्शन भी हमें समझाता है
और गुरु की क्या दूँ परिभाषा
महिमा कैसे मैं लिख पाऊँ
कहाँ से लाऊँ वह भाषा
बस इतनी-सी है अभिलाषा
दूँ असीम आदर, वंदन करूँ
रख शीश चरणों में नमन करूँ
बरखा बहार
घुमड़ घुमड़ कर छाए बादल
संग पवन उड़ आये बादल
आयी लेकर रिमझिम रिमझिम
बूंदों की शीतल फुहार
देखो आ गई बरखा बहार
ऐसे छा गए कारे बादल
जैसे आँखों का फैला हो काजल
गरज गरज कर क्या कहते हैं
शायद गाते गीत मल्हार
देखो आ गई बरखा बहार
बारिश की बूँदें बड़ी सुहाती
कोई मधुर गीत हौले से गातीं
बिजली चमके ऐसे मचलकर
जैसे चमके कोई कटार
देखो आ गई बरखा बहार
बूँदें बरसे रिमझिम रिमझिम
जैसे पायल छमके रुनझुन रुनझुन
शीतल हो गए सबके तन मन
पड़ी ऐसी सावन की फुहार
देखो आ गई बरखा बहार
धुल गई आज सारी दिशाएँ
ऐसे झूमती चली तेज़ हवाएँ
जैसे गोरी का आँचल लहराए
धरती नें किया है आज श्रृंगार
देखो आ गई बरखा बहार
उफन उफन इतराते नदी नाले
बह चले फिर से झील और झरने
खेतो में लहराए धान की फसलें
पड़ी ऐसी ज़ोर बारिश की बौछार
देखो आ गई बरखा बहार
विदा हुए दिन तपते रूखे
भर गए ताल तलैया सूखे
नन्ही नन्ही बूँदों नें देखो
सुन ली प्यासी धरती की पुकार
देखो आ गई बरखा बहार
पुकार
सुनों ये धरती कहे पुकार
कर दो बस इतना उपकार
मत छीनों मेरा श्रृंगार
श्रीहीन ग़र हो जाऊँगी
कैसे तुमको कुछ दे पाऊँगी…
ये पर्वत ये लहराती नादिया
ये हैं जैसे मेरे चोली दामन
हुआ जो मेरा आँचल रीता
ना तुम न मैं ही जी पाऊँगी
कैसे तुमको कुछ दे पाऊँगी…
ये जंगल ये चंचल से झरने
ये सब तो हैं मेरे गहने
कटे जो जंगल सूखे जो झरनें
जीते जी मैं मर जाऊँगी
कैसे तुमको कुछ दे पाऊँगी…
ये मौसम ये शीतल पवन झकोरे
ये सब तो जैसे प्राण हैं मेरे
इन्हें बचालो समय के रहते
वरना प्राणहीन मैं हो जाऊँगी
कैसे तुमको कुछ दे पाऊँगी…
ये बादल बारिश और हरियाली
कितनी सुन्दर कितनी निराली
पर सूखी जो मेरी छाती
लौट के ये वापस न आनें वाली
उजड़ के बंजर हो जाऊँगी
कैसे तुमको कुछ दे पाऊँगी…
कैसे तुमको कुछ दे पाऊँगी…
रोटी
गर्म तवे से हालात और…
सिंकती रोटी-सी ज़िन्दगी
पेट की गर्म आग बुझानें
जूझती ही रही ज़िन्दगी
रोटी की भूख के आगे
बदनाम गलियों में
तन भी बिक जाए
कभी बिके लाज शर्म
कभी घूँघट भी पलट जाए
रोटी की भूख इसे
कहाँ कहाँ न भटकाए
पेट की खातिर देखो
धर्म ईमान भी बदल जाये
रोटी सिखलाती है
ज़िन्दगी का असली मर्म
ऊपर से रूखी-रूखी और गर्म
लेकिन है अंदर से नर्म
देखा जो चख के आज
तो लगा, कुछ तो है कमी
पर उम्मीद की चाशनी में
ज़रा डुबो कर देखिये ज़नाब
ऐसी बेस्वाद भी ये नहीं…
माँ
माँ तुम कितनी अच्छी लगती हो
धीरे धीरे चलती हो,
कुछ रुक-रुक कर और संभलकर,
कमज़ोर-सी थोड़ी लगती हो…
पर सबकी चिन्ता करती हो
माँ तुम कितनी अच्छी लगती हो।
बालों में चांदी के तार हैं अब
हाँ कच्चे पक्के बाल हैं सब,
खट्टे मीठे अनुभव जीवन के…
हम सब से बाँटा करती हो
माँ तुम कितनी अच्छी लगती हो।
आँखों पर चश्मा लगा हुआ
नजरें भी धुँधला गई हैं अब,
फिर भी मेरे सुख दुख सारे…
जाने कैसे पढ लेती हो
माँ तुम कितनी अच्छी लगती हो।
जाने क्या सोचा करती हो
कुछ चुप चुप-सी तुम रहती हो,
कभी कितनी ही बातें करती हो
मेरे बचपन के किस्सों को …
हँस हँस के मुझसे कहती हो
माँ तुम कितनी अच्छी लगती हो।
जब भी मिलने आऊँ तुमसे
लाख बलाएँ लेती हो,
बस मुझे निहारा करती हो
सौगात अगर ना दे पाओ …
दुआओं से आँचल भरती हो
माँ तुम कितनी अच्छी लगती हो।
जब बात ना तुमसे कर पाऊँ
जब हाल ना मेरा मिल पाये,
तो बच्चों-सी रुठा करती हो।
बिमार अगर मैं हो जाऊँ…
मेरी नज़र उतारा करती हो।
तबियत का हाल जो पूछू मैं,
तो हँस कर टाला करती हो
माँ तुम कितनी अच्छी लगती हो।
” छोड़ के तुम सबको एक दिन
मै भी तारा बन जाऊँगी,
दूर गगन में ही शायद
तेरे पापा से मिल पाऊँगी”
ऐसी दुख की बातें कह कर…
खुद रोती और रुलाती हो
माँ तुम कितनी अच्छी लगती हो।
माँ तेरे जाने की बात मुझे
रह रह कर सहमा जाती है,
फिर किसे बुलाऊँगी मैं “माँ”
यह बात रूला कर जाती है…
कभी छोड़ मुझे नहीं जाओगी,
ये वादा क्यों नहीं करती हो
माँ तुम कितनी अच्छी लगती हो।
बस थोड़ी दूर और
पैदल चलते-चलते थक कर
माँ के आँचल को खींच कर
छोटू ने पूछा…
माँ हम कहाँ जा रहे हैं?
हमारा घर तो बहुत पीछे छूट गया
माँ माँ चलो न वापस घर चलो
हम कब पहुँचेंगे माँ?
बहुत भूख लगी है
धूप भी बहुत तेज़ है।
माँ अब और नहीं चला जाता
ये सड़क तो ख़त्म ही नहीं होती,
माँ माँ दो न एक रोटी।
छोटू का मैला मुँह
आँचल से पोंछ वह बोली,
बस थोड़ी दूर और…
जबकी उसे पता है
चलना है अभी मीलों और।
आसमाँ आग उगलने लगे
छोटू के पाँव जलने लगे,
सड़कें हुई अंगारों-सी गर्म
और छोटू के पाँव नर्म नर्म,
पैरों में नहीं हैं चप्पल
पास में पानी भी है कम।
वो थोड़ी देर रुक गई
ज़िन्दगी थक कर बैठ गई,
छोटू को झपकी-सी आ गई
वो बैठी सोचने लगी,
क्या से क्या हो गया…
भूख लेकर आये थे शहर
भूख ही वापस ले चली,
खाली हाँथ…नंगे पाँव,
वापस लौट रहा है गाँव,
छोड़ शहर की बेदर्द गली।
एक गाँव कभी बसता था शहर में
जो उजड़ गया इस क़हर में,
बहुत कुछ दिया इस शहर को
बदले में क्या मिला इन सबको…
सर पर एक टूटी-सी छत थी
वो भी अब नहीं रही,
रोज़ी रोटी कब की छिन गई
जेबें हैं खाली,
और खानें को कुछ नहीं।
फिर भी उम्मीद है कि मरी नहीं
हौसले ने साथ छोड़ा नहीं,
शहर ने बेघर किया
पर गाँव नें फिर पुकार लिया।
छाले भरे क़दम लिए
छोटू को गोद में किये,
जान बचाने की ज़िद पर अड़ी
वो फिर से पैदल चल पड़ी।
अब छोटू जाग गया
भूख से रोने लगा,
उसने रोते हुए पूछा
माँ और कितनी दूर?
छोटू के आँसू और अपना पसीना पोंछ
धुँधला गई आँखों से
अंतहीन सड़क की ओर देख कर बोली
बस थोड़ी दूर और छोटू…
बस थोड़ी दूर और…
गुहार
करे मानवता करुण पुकार
सुन लो प्रभु सबकी गुहार
दया दृष्टि डालो हम पर
बन्द हो सृष्टि का संहार
आयी हम पर विपदा भारी
विध्वंस हो रही दुनिया सारी
रोको अब प्रलय लीला रघुरारी
कर जोड़ करूँ विनती तुम्हारी
कैसा समय का ये प्रहार
मचा हर ओर इक हाहाकार
कर दो बस इतना उपकार
जग को मिले नया रूप आकार
अब न दूजी कोई अभिलाषा
सुन लो मूक नयनों की भाषा
तुम चाहो अगर तो क्या है बाधा
दो नया जीवन नई आशा
नहीं क़बूल
ठोकरें खाई हैं बहुत
पर हम संभलेंगे ज़रूर
अभी मुश्किलें नहीं खत्म
लड़खड़ाए से है कदम
पर गिरना नहीं क़बूल
माना की आज ग़म है
मायूसियों का मौसम है
घुटन-सी है सीने में
और साँस भी कम है
पर मरना नहीं क़बूल
ज़िंदगी और मौत में
आज फासले चंद हैं
गमों की क़ैद में
खुशियाँ नज़रबन्द हैं
पर टूट कर बिखरना नहीं क़बूल
रौशनी की बाट जोहते अंधियारे
चुपचाप सहमे से सब नज़ारे
बेज़ार-सी खड़ी है जिंदगी
पर उजाड़ना नहीं क़बूल
देख उखड़ती साँसों का तमाशा
है अज़ब बेचैनी और हताशा
दर ब दर भटकती आंखें
पथरा गईं नम-सी आँखें
पर हारना नहीं क़बूल
है नाउम्मीदी के गहरे साये
जाएँ तो किधर जाएँ
परेशां है आज मन
नही गुलज़ार हैं गुलशन
पर वीराना नहीं क़बूल…
गर्दिश में है जहाँ
है हर शख़्स परेशां
थक गए कदम
पर कैसे जाएँ थम
हमें रुकना नहीं क़बूल…
मेरी दादागिरी
आजकल सुबह कुछ देर से उठती हूँ
पति को आफिस भेजनें की हड़बड़ी नहीं
बच्चों को स्कूल जानें कि जल्दी नहीं
तो पति को चाय पकड़ा
आराम से योगा भी कर लेती हूँ
पति को दिखा दिखाकर
दो तीन काम एक्स्ट्रा कर लेती हूँ
और फिर थक गई कहकर
बैठकर मोबाइल चलाती हूँ
और सबकी सहानुभूति भी पा लेती हूँ।
” देखो जी बड़ी नाज़ुक हूँ मैं
कोरोना हुआ तो मैं न बचूँगी”
ये कहकर प्यार जताती हूँ
और पति को झूठ मूठ का डराती हूँ
बेचारे पतिदेव डर के मारे
बाज़ार से सौदा ले आते हैं
काम में मेरा हाँथ भी बटाते हैं
और मेरी तबीयत की चिंता भी करते हैं
बच्चों को भी कुछ कम नहीं धमकाती
“ऑनलाइन क्लास के बड़े मजे हैं तुम्हारे”
कहकर ख़ूब चिढ़ाती हूँ
” दिनभर टीवी, लैपटॉप और मोबाइल
में मत रहा करो
कभी कुछ मेरी मदद भी किया करो”
ये कहकर डांट लगाती हूँ
बच्चों को डांट खाता देख
पति भी सहमें से रहते हैं
डर डर कर ही कुछ भी कहते हैं
” दिन भर कितनी चाय पीते हो
हर वक़्त फ़ोन में ही लगे रहते हो” …
‘ और ये तुम्हारी ऑनलाइन मीटिंग की बकबक,
इस से तो सर दुखता है मेरा”
कहकर मीठी झिड़की भी लगाती हूँ
” कितने दिनों से कोई साड़ी नहीं दिलाई
न ही शॉपिंग ही कराई”
” लॉकडाउन का अच्छा बहाना है
तुम्हें बस पैसे बचाना है”
कहकर ताना भी सुनाती हूँ
पति बेचारे सब चुपचाप सुनते हैं
किचन बन्द हो गया तो
खाने को तरस जाएँगे
बाहर से मँगाया तो
बीमार पड़ जाएँगे
तो बेचारे पतिदेव डर से
कुछ नहीं कहते हैं
मेरी हाँ में हाँ मिलाते हैं
और कभी-कभी मेरा सर भी दबाते हैं
आपलोग पढ़कर हँस लीजियेगा
असलियत कुछ और है,
बड़ी भोली भाली हूँ मैं
आपलोग ग़लत मत समझ लीजिएगा
साथ छूटे ना
देखो हाँथ छूटे ना कभो
साथ छूटे ना…
कदम क़दम संग बढ़ते जाएँ
हर आफत से लड़ते जाएँ
कैसी भी हो मुश्किल की घड़ी
देखो हाँथ छूटे ना कभी
साथ छूटे ना…
पत्थर मिलें या मिलें शूल
आये आंधी तूफान या दुख की धूल
पत्थर सब बन जाएंगे फूल
देखो हाँथ छूटे ना कभी
साथ छूटे ना…
जीवन है सुख दुख की लड़ी
मिले हाँथों से हाँथ तो बने कड़ी
इस कड़ी की ताकत है हर आफत से बड़ी
देखो हाँथ छूटे ना कभी
साथ छूटे ना
हैं अलग अलग, पर आज एक हो जायें
चलो आसमान पर छा जाए
मिल जायें तो क्या ना कर जाएँ
बस हाँथ छूटे ना कभी
देखो साथ छूटे ना…
ज़रूर
छाए बादल हैं घनघोर
कड़कती बिजली-सी चारों ओर
है अँधेरी स्याह रात
सूझता हाँथों को न हाँथ
पर देखना, चाँद निकलेगा ज़रूर…
मन हो रहा बेकल
जाने क्या होगा कल
ख्वाइशों पर पहरा है
घाव इस बार गहरा है
पर देखना, ये दिल संभलेगा ज़रूर…
लड़ाई है आर पार की
है फ़िक्र जीत हार की
मंज़िल है अभी दूर
हालातों से हैं मज़बूर
पर देखना, कोई राह निकलेगी ज़रूर…
ढूँढ रही है नज़र
मिले कोई अच्छी ख़बर
दिल कह रहा है मगर
बस कुछ देर और ठहर
फिर देखना, ये समा बदलेगा ज़रूर
रीना सिन्हा
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