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मोगरे की झोली (Mogra’s bag)
मोगरे की झोली (Mogra’s bag): बात उन दिनों की है, जब मैं कक्षा चौथी की विद्यार्थी थी। वर्ष भर स्कूल के लिये सुबह उठने में बहुत आनाकानी किया करती। माँ के अपने सिद्धांत और अनुशासन थे; जिसके तहत घर के सभी सदस्य, सुबह साढ़े पाँच बजे ही बिस्तर छोड़ दिया करते थे। संभवतः इसके पीछे सबके अच्छे स्वास्थ्य, सभी को सुविधा और बचपन में ही समय के महत्त्व को जान लेने की, अच्छी आदत का विकास ही, माँ की सोच के केंद्र में रहा हो। जो भी हो; माँ इसका कड़ाई से पालन करवातीं।
उन दिनों, तीस अप्रैल को परिणाम घोषित होने के बाद, गर्मियों में पूरे दो महीने के लिए शालाओं में अवकाश घोषित हो जाता। तब बच्चे; सुबह शाम तो आउटडोर गेम जैसे-पिट्टुक, टीम, छुपन छुपाई, चाय की पत्ती पोषंपा, लंगडी, कबड्डी, सायकिल दौड़ना और सूर्य के चढ़ने के बाद दिन में, इनडोर गेम जैसे-सांप सीढ़ी, लूडो, ताश, कैरम, गुट्टे, शतरंज आदि का भरपूर आनंद लेने में एक पल भी ज़ाया नहीं करते थे। बीच-बीच में चने-मुरमुरे और रसना की पार्टी भी चलती रहती। दिनभर मटके का ठंडा पानी।
आजकल तो देशी आम और बड़ा तरबूज़ देखने नहीं मिलते। जब एक बड़ा तरबूज़, माँ काटने बैठती, तो उत्सुकता से हम भाई बहन, माँ को चारों ओर घेरकर बैठ जाते और फिर—अहा! मजेदार पार्टी! दोपहर भर आइस्क्रीम-कुल्फी वाले निकलते। पाँच पैसे में आइस्क्रीम! मिन्नत करते हुए माँ के आगे पीछे घूमते रहते, जैसे ही माँ पैसे देती तब धूप दिखती, न बाहर के बर्फ से गला खराब होता। —आज के बच्चों को ज़िन्दगी का इतना मज़ा कहाँ सुलभ है?
साल-भर सुबह उठने में आनाकानी करने वाली मैं, गर्मियों में पाँच बजे ही उठ बैठती और बाहर उजाला होने की प्रतीक्षा करती। पौ फटते ही आस पास के सब बच्चे मिलकर दूर नदी तक घूमने जाते। रास्ते में आम के पेड़ों पर पत्थर मारकर छोटी केरियाँ इकट्ठा कर लेते, तो कभी चम्पा और चाँदनी के फूल तोड़ लेते। कभी दौड़ लगाते तो कभी किसी बड़े पत्थर पर बैठने की होड़ में यदि लुढ़क जाते तो ज़ोर का ठहाका! कितना स्वच्छंद, सुरक्षित और निश्चिंत बचपन था तब! अब तो बाहरी भय के कारण बचपन घरों क़ैद हो गया है।
एक दिन मैंने एक आंटी के घर, मोगरे का बगीचा देख लिया। बस क्या था, बालसुलभ मन; उन मोगरों को पाने लालायित हो उठा। अगली सुबह, नींद खुलते ही, मेरे नन्हे क़दम बगीचे की ओर बढ चले। धीरे से बगीचे का दरवाज़ा खोल मैं अंदर पहुँच गई। इतने सारे मोगरे! उनकी बेहद मादक ख़ुशबू! और केवल मैं! उस समय यदि कोई मेरी तस्वीर लेता, तो वह मेरे जीवन की; शायद सबसे खूबसूरत भावों वाली तस्वीर होती। कोई जाग न जाए! इस डर से मैंने जल्दी-जल्दी मोगरे चुनना शुरू कर दिया। नन्हें हाथों की अंजुरी शीघ्र ही मोगरों से भर गई। पर मन नहीं भरा। फूल हथेलियों से बाहर बिखरने लगे। अब फ्राॅक के घेर की झोली बना कर उसमें फूल डालने लगी। जब झोली फूलों से भर गई तो मैंने जल्दी से चलने को क़दम बढ़ाया; पर चप्पल गीली मिट्टी चिपक जाने से भारी हो गई।
किसी तरह घर पहुँची और फ़र्श पर झोली पलट दी। फूलों का बड़ा ढेर देख कर उसके चारों ओर ख़ुशी से उछलने लगी। फिर माँ को उंगली पकड़ कर खींच लाई। इतने फूल देख माँ नाराज़ हुई और इस तरीके से इतने फूल न तोड़ने की हिदायत दी, पर बाल मन कहाँ मानता?
अगले दिन फिर बगीचे में। कल की घटना याद थी इसलिए चप्पल सूखी जगह में ही उतारी। मोगरों से झोली भर ली। घर के दरवाजे तक पहुँची ही थी कि माँ की हिदायत याद आ गई, चुपके से सारे फूल, पास के गलियारे में छुपा आई। पूरा ध्यान फूलों पर। थोड़ी-थोड़ी देर में उन्हें झाँक आती, उनकी ख़ुशबू ले आती और वे यथावत हैं, यह देख संतुष्ट हो जाती।
यह क्रम कई दिनों तक चला। वह आंटी रोज़ ज़ोर-ज़ोरे चिल्लाती कि-जाने कौन, रोज़ सुबह मोगरे तोड़ ले जाता है। किन्तु रोज़ सुबह नींद खुलते ही बगीचे के मोगरे की चाह; आंटी की डाँट और माँ की हिदायत पर भारी पड़ जाती और मैं स्वयं को बगीचे में खड़ा पाती।
आज, मोगरों से झोली भर कर, ज्यों ही मैं मुड़ी तो यह क्या? चप्पलें गायब! इधर-उधर नज़र दौड़ाई तो देखा कुत्ते के तीन चार चंचल पिल्ले चप्पल से खेल रहे हैं। उसे खींच रहे हैं, काट रहे हैं, तोड़ रहे हैं। मेरी हालत यह थी; कि किसी के जाग जाने के भय से; आवाज़ करके उन पिल्लों को भगा भी नहीं सकती थी।
मुझे एहसास हो गया कि इंसान को उसकी गलतियाँ प्रतिफल तो मिलता ही है। फिर कभी उस बगीचे में न आने की सौगंध ले कर, मैं नंगे पैर ही घर लौट आई।
आज उस मधुर घटना को याद करते हुए, कविवर मैथिली शरण गुप्त की काव्य पंक्तियाँ सहज ही स्मरण हो आती हैं-
अनजानी भूलों पर भी,
वह अदय दंड तो देती है।
पर बूढों को भी बच्चों-सा,
सदय भाव से सेती है।
वंदना दुबे
धार, मध्य प्रदेश
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