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मीठे जहर का जाल (sweet poison trap)
नारकोटिक्स विभाग की सक्रियता ने फ़िल्म-जगत में हलचलें बढ़ा दी हैं। सुपर स्टार शाहरूख़ ख़ान के बेटे आर्यन ख़ान की ड्रग्स (sweet poison) मामलें में गिरफ्तारी के बाद़ खब़रों का बाज़ार एक़ बार फिर गर्मां गया है। फ़िल्मी दुनिया हो या कोई भी राज्य इस वक्त़ सभी परेशान हैं नशे के कारोबार से। पिछले काफ़ी समय से फ़िल्म एवं मनोरंजन जगत से कईं नामचीन हस्तियों को इसकी वजह़ से शर्मसार होना पड़ा है।
दर्शकों के बीच उनकी चमक़ फीकी पड़ती जा रही है और वर्तमान में स्टार किड्स का नशे से जुड़ाव फिर से बॉलीवुड के सम्बन्ध नशे के व्यापारियों से दर्शाता दिखायी दे रहा है और सवाल खड़े करता है कि क्या रोशनी से चकाचौंध यह दुनिया नशे के व्यापार का बहुत बड़ा केन्द्र बन चुकी है?
इससे अलग जब राज्यों के छोटे शहरों की बात करें तो नशे का व्यापार यहाँ भी कम नहीं है। चरस, स्मैक, कोकेन, हेरोइन, गांजा, भांग और भी ना जानें किस-किस तरह के नशीलें पदार्थों का सेवन युवाओं से लेकर उम्रदराज लोग बड़े शौंक से करते हैं। चोरी छिपे हुक्का-बार पार्टीयाँ की जाती हैं। गरीब़ हो अमीऱ किसी भी तरह से इससे दूर नहीं है।
अखबाऱ प्रतिदिन खब़र देता है कि आज़ नशा करते लोग पकड़े गये, नशा बेचते लोग पकड़े गये। हर दिन ये घटनाएँ और इनके द्वारा होने वाली वारदातें बढ़ती ही जा रही हैं। तस्करों का गिरोह छोटे तमगे का नहीं ब्लकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैला है। अभी हाल ही में देश में एक बहुत भारी मात्रा में करोड़ों रूपये की ड्रग्स एक बड़े बंदरगाह से पकड़ी गयी, इसके अलावा भी पड़ोसी देशों से हमारें देश में भारी संख्या में नशे के पदार्थ मंगाये जाते हैं।
खेल-जगत, फ़िल्म एवं छोटे परदे की दुनिया, राजनीतिक लोग हों या देश का सामान्य निवासी इस कारोबार के जाल में सभी फंसे दिखायी पड़ते है। कारोबार को बढ़ावा देनें में पुरूष ही नहीं महिलाएँ भी संलिप्त हैं।
मीठे जह़र के असर से बचा हुआ कोई नहीं है और इसकी लत में पड़कर ग़लत करनें से भी उन्हें कोई परहेज नहीं है। नशे के सेवन से ना वें होश में रहते हैं और ना ही समझ पाते हैं। बुद्धि, विवेक, संयम, समझदारी, प्रवृति, व्यक्तित्व, अच्छे विचारों एवं गुणों के साथ-साथ चारित्रिक पतन का कारण है नशा। मिलें तो बुरा और ना मिलें तो और भी बुरा, हिंसात्मक रैवेया, चोरी, दुष्कर्मं जैसी घटनाओं को भी इससे बढ़ावा मिला है। इससे अलग युवाओं में अवसाद, ग़लत संगति और आत्महत्या जैसी घटनाएँ भी बढ़ी हैं।
देश का युवा एक ओर जहाँ तरक्क़ी की राह पर दौड़ रहा है वहीं एक वर्ग खोया है नशे की दुनियाँ में। फ़िल्म स्टार की संतान हो या एक सामान्य व्यक्ति की संतान नशा दोनों को समान नुक़सान पहुँचाता है। हमारे राष्ट्र की सरकार को नशे के इस कारोबार को पूर्णतया अवैध घोषित कर एक सख्त़ विधेयक लाना चाहिए जिसमें नशे के व्यापारियों को सख्त़ से सख्त़ सजा का प्रावधान हो और सभी सुमदायों एवं वर्गों के लोगों को भी नशे के व्यापार के खिलाफ़ एकजुट होकर लड़ाई लड़नी होगी। एक अच्छे नागरिक होनें का परिचय देते हुये सभी को इस मीठे जह़र के जाल को तोड़ना ही होगा, वरना यह हमारे वर्तमान ही नहीं भविष्य को भी निगल जायेगा। क्या आप सहमत हैं?
आत्महत्या
आत्महत्या-एक ऐसा शब्द जिसको सुनकर भी रूह़ कांप जाती है। एक भयावह, दर्दनाक दृश्य घूम जाता है, आँखों के आगे। जिसकी कल्पना मात्र से ही धड़कन स्वतः तेज-सी हो जाती है। एक ऐसी क्रूर स्थिती जहाँ इंसान जब़ सारी परिस्थितियों से हार जाता है, जब़ उसको सुनने समझने वाला कोईं नहीं रहता तब़ वह एक अप्राकृतिक माध्यम द्वारा जीवन लीला समाप्त कर एक अदृश्य मार्ग पर चल पड़ता है। ना जानें प्रतिवर्ष कितनें ही इंसान फांसी लगाकर, जहऱ खा कर, नस को काट कर और भी ना जानें कितनें ही विकल्पों का सहारा लेकर स्वयं के लिए एक मुक्ति मार्ग ढूँढ लेते हैं।
जब कोईं व्यक्ति आत्महत्या करता है तो लोग अपनी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करते हैं-ग़लत किया, बोलना चाहिए था, हिम्मत नहीं थी लड़नें की, कायरता का कार्य किया, परिवार वालें बोलते हैं कि हमें क्यों नहीं कहा? ना जानें कितनें ही विचार, तर्क दिये जाते हैं इस पर। पर यकीनं मानिये आत्महत्या करने वाले से बहादुऱ शायद़ ही कोईं हो क्योंकि किसी दूसरे को मारना तो फिऱ भी एक पल के लिए आसान लगे परन्तु खुद़ को खुद़ के हाथों से ख़त्म करना बेहद़ कठिन कार्य है।
“अवसाद” (Depression) सबसे मुख्य कारण बनता है, आत्महत्या का। बहुत कम लोग इससे बाहर आ पाते हैं। जीवन चक्र में इंसान तरक्क़ी तो हासिल करता आ रहा है किन्तु इस दौड़ में खुद़ से व अपनों से दूर होता जा रहा है। इंसान क्या है-हाड़ माँस का ये पिंजरा इंसान नहीं है, इंसान है इस पिंजरें में क़ैद एक पंछी जिसको हम रूह़ कहते हैं। जब़ तक यह पंछी पिंजरें में है इस पिंजरें की कीमत़ है वरना यह अनुपयोगी है। जब़ रूह़ घायल हो जाती है तब़ स्थिती आती है अकेलेपन की और अवसाद उत्पन्न हो जाता है।
प्रत्येक मनुष्य जीवन काल में परेशान है। गरीब़ गरीब़ी से, अमीऱ अकेलेपन से, कोईं परिवार से परेशान है तो कहीं किसी से परिवार परेशान है। विद्यार्थी परेशान है, कोईं नौकरी ना मिलने से परेशान है तो कोईं नौकरी पर मिलनें वाले दबाव से दुःखी है। कहीं कोईं प्यार ना मिलने से दुःखी है, कोई पाकऱ खो देने से। कुल मिलाकर हर किसी की भावनाएँ आहत हैं किसी ना किसी वजह़ से और प्रत्येक मनुष्य एक मनोविकार का शिकार है वह स्वयं से बातें करता है, सवाल जवाब करता है। अकेलेपन की यही दुनियाँ है अवसाद का घर।
जीवन में यह समस्या तब़ आती है, जब़ हम अपनी बात कह नहीं पाते। एक विकट स्थिती होती है, जब़ मन में तूफाऩ उमड़ रहे होते हैं, ऐसा लगता है सब कुछ हाथों से फिसल रहा है पल-पल। घर परिवार वालें साथ नहीं देते, बतानें पर आपको अनसुना कर दिया जाता है, मर्जियाँ थोंप दी जाती है आपके जीवन पर। इंसान वहीं से टूटना शुरू हो जाता है। जीवन में आपके सुनने वाले भी नज़रदांज करने लगते हैं, सबसे बुऱा दौऱ तब आता जब इंसान के जीवन से वह व्यक्ति जाता है जिस पर उसको सबसे ज़्यादा विश्वास होता है और सबसे ज़्यादा प्यार जिसको करता है। एक वही होता है सुनने वाला, समझने वाला, समझाने और सम्भालने वाला और जब़ वही इंसान ना रहे तो आग में घी का काम करता है यह। वह इंसान कोईं भी हो सकता है-माँ, बाप, भाई, बहन, गुरू, दोस्त, बच्चा, प्रेमी / प्रेमिका कोईं भी।
मेरा यह मानना है कोईं भी मनुष्य कायर नहीं होता और ना ही आत्महत्या समस्याओं का हल होता है परन्तु यह मानसिक तनाव की एक विकट स्थिती है। कौन चाहता या सोचता है कि वह स्वयं को खत्म़ करेगा? आत्मा की हत्या तो उसी पल हो जाती है जब कोईं इंसान भरीं दुनियाँ में अपनों में अकेला पड़ जाता है, मन की कह नहीं पाता, स्वयं के लिए कुछ कर नहीं पाता, वक्त़ के हाथों की एक कठपुतली बन तमाशा किये जाता है। यकीनं मानिये बेहद ही गम्भीर हालात होते हैं वह जहाँ इंसान स्वयं में उलझा रहता है, हर एक ग़लत के लिए स्वयं को ही ज़िम्मेदार मानता है, घुटता है पल-पल और हर एक पल कोशिश करता है सब कुछ सम्भालने की सुधारने की। उस आत्मा की पीड़ा तब़ कोईं समझ नहीं पाता और जब़ कोईं विकल्प नहीं रह जाता उसके पास तो वह स्वयं को इस पीड़ा से मुक्ति दिलाने के लिए करता है-आत्महत्या॥
जय हिन्द जय हिन्दी
” इसके सिवा समझ़ कुछ़ नहीं आता है,
हर जर्रे में एह़सास इसका ही आता है,
बोली बोलें कितनी ही हम देश में,
गर्व होता है जब कहतें हैं,
हिन्दी हमारी राष्ट्र भाषा है”
“माँ भारती” के देश में हम़ जन्में इस पर गर्व महसूस होता है। सीना खुद़-ब-खुद़ फूल़ जाता है, जब़ हमें हिंदुस्तानी कह कर सम्बोधित किया जाता है। भारतवर्ष एक विशाल और महान देश है जिसका गौरवमयी इतिहास पौराणिक काल से हमें प्रेरित करता आ रहा है। अनेक प्रान्त हैं, अनेक जातियों, धर्मावंलबी और अनेक भाषा-भाषी निवास करते हैं। संविधान में हमारे देश को धर्म-निरपेक्ष घोषित किया गया है जिसका अर्थ है-कि यहाँ विभिन्न धर्मों के लोग अपनी श्रृद्वानुसार धर्माचरण करने के लिए स्वतंत्र है।
देश एक है लेकिन इस एक देश में अनेक प्रांत हैं और अनेक भाषा-भाषी हैं ऐसे में एक देश में धार्मिक एकरूपता स्थापित कर पाना कठिन कार्य है परन्तु सभी कठिनाइयों के बीच एकता स्थापित करने का एकमात्र साधन “भाषा” ही है। भाषा में एकता स्थापित करने की अद्भूत शक्ति है। प्राचीन काल में भी विभिन्न भाषा-भाषी के मनुष्य थे परन्तु संस्कृत ने उन सभी को एक सूत्र से जोड़ रखा था। उस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष में संस्कृत भाषा ही बोली, लिखी और समझी जाती थी। हमारे वेद, पुराण, उपनिषद, महाकाव्य भी संस्कृत भाषा में ही लिखित है।
पौराणिक काल से लेकर अंग्रेज़ी शासन काल तक भाषा में कईं परिवर्तन हुए हैं। इन्हीं परिवर्तनों का परिणाम है कि आज सम्पूर्ण भारतवर्ष में हिन्दी भाषा ने संस्कृत भाषा का स्थान ले लिया है। १५ अगस्त १९४७ में भारतवर्ष अंग्रेज़ी शासन से आजाद़ हुआ तब़ तक हिन्दी सभी की भाषा बन चुकी थी। १४ सितम्बर १९४९ संविधान सभा द्वारा हिन्दी भाषा को भारतवर्ष की आधिकारिक भाषा माना गया। ऐसा इसलिये किया गया क्योंकि हिन्दी उस समय तक सर्वाधिक लोगों द्वारा बोल-चाल में लायी जाने लगी थी तथा इससे शासकीय कार्य एवं प्रचार-प्रसार हिन्दी भाषा के माध्यम से आसानी से किया जा सकता था। इस प्रकार कईं वर्षों का एक लम्बा सफ़र तय करने पश्चात् हिन्दी भाषा हमारे राष्ट्र की राष्ट्रीय भाषा हिन्दी बन गयी।
प्रत्येक वर्ष १४ सितम्बर के दिन हम़ हिन्दी दिवस मनाते हैं। गर्व महसूस होता है जब़ कहते हैं हमारी “राष्ट्रभाषा हिन्दी” है। प्रचार-प्रसार का एक आसान साधन, एक ऐसा माध्यम जिसके द्वारा सभी एक सूत्र से जुड़े हैं। देश का कोई भी कार्य हो चाहे वह मनोरंजन का हो, राष्ट्रीय कार्यक्रम हो, शासकीय कार्य हो हिन्दी के प्रयोग बिना अधूरें हैं। २९ राज्यों ०८ केन्द्रशासित प्रदेशों में सभी की अपनी एक भाषा होने के बावजूद़ भी हिन्दी भाषा का स्थान सर्वोपरि है। विदेशों में भी लोग हमारी हिन्दी भाषा के प्रभाव से अछूते नहीं हैं, यहाँ आकर वें लोग भी हिन्दी पढ़ते हैं, सीखते हैं और कुछ भक्ति रस में डूब कर हिन्दी अपनाकर यहीं के होकर रह जाते हैं।
वर्तमान युग में हिन्दी भाषा राष्ट्रीय भाषा होने के बाद भी अपना स्थान गंवाती जा रही है। मशीनी युग ने शिक्षा, नौकरी, व्यापार के क्षेत्रों में कब्ज़ा कर “अंग्रेजी भाषा” को ज्याद़ा महत्त्व देना शुरू कर दिया है। अंग्रेज़ी भाषा का अगर आपको ज्ञान नहीं है तो आप शिक्षावान, क्षमतावान, प्रतिभावान होकर भी लायक़ नहीं है। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी, नौकरी चाहिए अंग्रेज़ी चाहिए, बोलचाल का माध्यम भी अंग्रेज़ी ही होता जा रहा है। अंग्रेज़ी नहीं आती तो आप पढ़े-लिखे अनपढ़ समान हैं। यही कारण है कि वर्तमान में हिन्दी भाषा का महत्त्व कम होता जा रहा है।
किन्तु लोगों को यह़ भी याद़ रखना चाहिए कि हिन्दोस्ताँ है यह और हम हिन्दी। अंग्रेज़ी मात्र एक भाषा है जबकि हिन्दी भाषा नहीं एक संस्कृति, एक संस्कार या कहिए स्वयं में सारा हिन्दुस्तान है। हिन्दी यहाँ जुबाँ से निकलती ही नहीं अपितु सीनों में बसती है, लहू-सी रंगो में बहती है। हम हिन्दुस्तानियों की शान है, गौरव है। सभी देशवासियों को इसके गौरव को बचानें एवं इसका स्थान वापिस दिलानें में अपना सम्पूर्णं प्रयास करना चाहिए जिससे हमारी राष्ट्रीय भाषा सूर्य समान प्रकाशवान होकर जगमगाये॥
जय हिन्द जय हिन्दी…!
विधवा पुर्नविवाह
” कोई ना समझे पीड़ा उसकी,
कोई ना समझे उसका दर्द…
खुशियों की है वह भी अधिकारी,
अचानक छिन जाये जिनसे रंग…”
जीवन एक पानी का बुलबुला मात्र है, जो अचानक से कब फूट जाये इसकी कोई कल्पना नहीं की जा सकती। मनुष्य जीवन में ना जानें कितने कार्यों का चिंतन करता है पर परमेश्वर की इच्छा के आगे मानव बेबस और लाचार है।
हमारा समाज प्राचीन काल से ही विभिन्न कुरीतियों से जकड़ा रहा है। उन्हीं में से एक है-विधवा होना एक अभिशाप। किसी लड़की या स्त्री का पति मृत्युलोक को प्राप्त हो जाए तो समाज में उसको विधवा शब्द़ से सम्बोधित किया जाता है। जीवन और मृत्यु दोनों ही परमात्मा की इच्छा पर निर्भर है अब़ अग़र किसी का पति यानी सुहाग मर जाये तो इसमें उसका क्या दोष है? उसकी तो इसमें कोई इच्छा नहीं होती, वह तो माँग में सिंदूर सजाएँ एक नई दुनियाँ में आती है, नएँ सपने, नईं उमंगें होती है उसकी, अब अगऱ वह विधवा हो जाएँ तो मुझे नहीं लगता इसमें उसका कोई दोष है।
फिऱ भी उसको सारी खुशियों से वंचित कर दिया जाता है। सभी रंग उसके जीवन से छीन लिए जाते हैं, एक खोखला, रंगहीन, संवेदनाहीन जीवन जीने पर मजबूर कर दिया जाता है उसको और यह आज़ से नहीं प्राचीन कालों से चली आ रही परम्पराएँ है। वर्तमान एवं ईश्वर चन्द्र विद्यासागर जी के अथक प्रयासों के बाद ब्रिटिश भारत में सन् १८५६ ई. विधवा पुर्नविवाह अधिनियम के बाद से इसमें सुधार आएँ हैं नहीं तो समाज ने प्राचीन समय में “सती प्रथा” जैसी भयावह सज़ा भी विधवाओं के लिए चुनीं हुईं थी।
सती प्रथा को सजा़ कहना ही सही होगा क्योंकि किसी स्त्री की इच्छा हो या ना हो पर पतिवर्ता धर्मं निभाने के नाम पर उसको शव के साथ ही जलना होता था, एक बेजाऩ शरीर के साथ एक जीवित शरीर, इंसान को अकारण जलाना ना तो योग्य व्यवस्था थी और ना ही योग्य नीति।
बाल विवाह किसी स्त्री या लड़की के विधवा होने का एक और अहम् कारण है। कम उम्र में विवाह होने के कारण शारीरिक एवं मानसिक विकारों की वज़ह से भी कम उम्र में ही लड़कियों को यह यातना झेलनी पड़ती थी। इतना ही नहीं मुंडन करवा कर रहना पड़ता था, केश बढ़ा नहीं सकती थी, एक समय भोजन वह भी रूखा-सूखा खाक़र जीवन जीना होता था। जैसे खूद़ विधवा हुईं हो और बेड़ियों में जकड़ा दिया हो स्वयं को। समाज ने यह व्यवस्था सभी वर्गों पर ही थोंप रखी थी प्राचीन काल में।
हमारे समाज की यह एक भयानक, कुरूप तस्वीर ही है जिसमें विधवा को शुभ नहीं माना जाता है, किसी शुभ कार्य में वह शामिल नहीं हो सकती, हसँ नहीं सकती, अपनी इच्छा से जी नहीं सकती। जीवन होकर भी मृत्यु समान ही होता है उसका। उसकी दशा को दुर्दशा में बदल दिया जाता है। सम्मान की हक़दार होकर भी उसको हीन दृष्टि से ही देखा जाता है। भूखे भेडियों की नज़रें सदैव उसको खाने को ताकती रहती है।
फलस्वरूप कईं मर्तबा विधवाओं का शोषण भी किया जाता है। नौकरी, सहारा एवं साथ के नाम पर उनको शारीरिक एवं मानसिक शोषण से गुजरना पड़ता है जिसमें विकृत मानसिकता के नरभक्षी दानव उनको स्वयं के लिए ही नहीं ब्लकि कईं बार स्वयं के फायदे के लिए भी दूसरों के सामनें परोस देते हैं और उनका शोषण ऐसे किया जाता है जैसे कोई झुंड अपने शिकार की चीर-फाड़ करता है।
शायद़ यही सब़ पूर्व में भी होता होगा जिससे त्रस्त होकर ईश्वर चन्द्र विद्यासागर जी ने इसका विरोध किया और विधवा पुर्नविवाह का पुरजोर समर्थन किया और उन्हीं के प्रयासों से यह अधिनियम पास भी हो सका।
विधवा जीवन सुधारने हेतू लाया गया यह अधिनियम वर्तमान में भी प्रचलन में है। एक विधवा लड़की या स्त्री को पूरा अधिकार है दोबारा से विवाह कर के एक सु: खमय जीवन जीने का। उसका पूरा हक़ बनता है खुलकर जीने का, जीवन में आगे बढ़ने का, तरक्क़ी करने का, सपने देखने का, उनको पूरा करने का।
नारी सशक्तिकरण के नजरिये से अग़र कहे तो पुर्नविवाह करना है या नहीं यह निर्णय लेने का अधिकार पूर्णतया उस नारी का ही होना चाहिए, अग़र वह शिक्षित है और जीवन में उसकी कुछ महत्त्वकाक्षाएँ है तो उसको इन्हें पूर्ण करने का अधिकार है, अग़र तो वह अशिक्षित है तब़ सभी का यह दायित्व बनता है कि उसको शिक्षा के प्रति जागरूक करें जिससे उसको एक सबल एवं योग्य व्यक्तित्व बनने की प्रेरणा मिलें। वर्तमान में भी बहुत-सी स्त्रियाँ ऐसी है जिन्होनें विधवा हो जानें के बाद पुर्नविवाह ना कर समाज में अपना नाम अपने अच्छे कार्यों से एक मिसाल बन कर किया। एक सशक्त नारी का उदाहरण प्रस्तुत कर घर, परिवार, बच्चों को संभाला साथ ही स्वयं को बनाया अपनें कार्य को भी किया। ऐसी स्त्रियाँ हृदय से सम्मान की हक़दार है।
पुर्नविवाह एक व्यवस्था मात्र ही है, एक विधवा स्त्री के जीवन को सुधारने के प्रयास की। इसके अन्तर्गत एक विधवा स्त्री का पुर्नविवाह करा उसके रंगहीन हो चुके जीवन को पुनः खुशियों से भरने का प्रयास किया जाता है। भविष्य में सु: खमय जीवन जीने की कल्पना पर निर्मित यह एक संस्कार ही है जिससे ख़त्म हो चुके एक जीवन को पुर्ननिर्माण के मार्ग पऱ प्रशस्त किया जाता है ताकि एक विधवा स्त्री समाज में फिर से अपना जीवन खुशियों में जी सके। समाज में सम्मान पा सके और बेरंग तस्वीर-सा उसका जीवन फिर से सुंदर हो सके।
इसके लिए देश, समाज, युवावर्ग के साथ़-साथ़ ससुराल पक्ष एवं कन्या पक्ष सभी को ऐसी स्थिति से निपटनें के लिए तैयार होना होगा एक रंगहीन जीवन को एक सुन्दर तस्वीर बनाने में, क्योंकि यहाँ पर सब यही सोचतें हैं कि लोग क्या कहेगें यह समाज क्या बोलेगा, जीवन की खुशियाँ मान-सम्मान का मुद्दा बन जाती है, इस सबसे ऊपर उठ कर समाज के सभी वर्गों को सामूहिक प्रयास करने होगें नारी उत्थान की इस व्यवस्था में…॥
आओं मिलजुल कर प्रयास करें, एक जीवन में रंग भरें, स्त्री का ना शोषण हो, विधवा पुर्नविवाह का समर्थन करें॥
वृद्धाश्रम
” रूप में इनके रब़ दिखता है, फिऱ क्यूं रब़ द़र-द़र भटकता है,
जन्मदाता पालक़ है जो हमारे, फिऱ क्यूं उनका बुढ़ापा वृद्धाश्रम—सा कटता है…”
आज़ का यह आलेख एक़ बेहद़ ही भावुक़, संवेदनशील और सामाजिक समस्या पऱ आधारित है। एक़ ऐसा विषय जो वर्तमान समय़ में हमारे देश ही नहीं, सम़ाज और लगभग़ प्रत्येक घऱ की समस्या बन गया है।
माता-पिता जिन्हें भगवान का दर्जां दिया जाता है। संतान के लिए उस माली के जैसे होते हैं जाे एक नन्हें बीज़ को जीवन देकर, उसको पालते है, देखभाल करते है, संभालते है, फिर जीवन के सबसे अहम् सम़य पऱ वें अकेले क्यों रह़ जाते है? क्यों वृद्धावस्था में वें अकेलेपन का शिकार हो जाते है? क्यों उन्हें जीवन रूपी इस स्पर्धां में एक़ कमज़ोर खिलाड़ी समझ़ लिया जाता है?
माता-पिता उस वृक्ष के समान होते हैं अपनी संतान के जीवन में जो छाया भी देता है, फल़ भी देता है औऱ जिसकी परछाईंं तले संतान जीवन के आरम्भ से लेकर स्वयं वृद्धावस्था तक़ पहुँच जाती है। तमाम़ उम्र बच्चों के खर्चें पूरें करतें हैं, शिक्षित़ करते हैं, बिमारियों में देखभाल़ करते हैं, प्यार-दुलार करते हैं, छोटी से छोटी ज़रूरतों को पूरा करते हैं, शादी-ब्याह़ कराते हैं, बच्चों के बच्चें भी संभालते है, जो भी कमाते हैं बच्चों पर खर्चं करते है और अन्त में भी जाे भी ज़मा पूँजी उनके पास़ बचती है उसको भी संतान को सौंप कर जब़ आराम़ करने के इच्छुक़ होते हैं तो ज्याद़ातर मौकों पऱ घऱ बनानें वालों को ही बेघर कऱ दिया जाता है जहाँ से वें पहुँच जाते हैं वृद्धाश्रम।
एक़ ऐसा घ़र जहाँ कोई अपना नहीं होता है लेक़िन सभी का दर्द एक़ ही होता है-सभी छलें गयें होते हैं अपनी संतानों के द्वारा। हऱ कोईं किसी ना किसी वजह़ से ही मौजूद़ होता वृद्धाश्रम में। कोईं बोझ़ बऩ चुका होता है तो कोईं नाकाबिल़ हो चुका होता है। यहाँ तक़ कि बुढ़ापे में जहाँ माता-पिता औलाद़ की ओर सहारे के लिए ताकतें हैं वही औलाद़ उनको बेसहाऱा कऱ त्याग देती है।
पश्चिम की सभ्यता का असऱ कहिए या पीढ़ीयों का टकराव़ कहिए। माता-पिता का स्थान जाे भगवान समान है, आज़ के समय़ में यह स्थान कहीं खो गया है। वैचारिक मतभेद़ सभी घर-परिवारों में होते हैं परन्तु इसका यह अर्थं कदापि नहीं होता है कि माता-पिता से गृह का त्याग ही करा लिया जायें। ऐसी परिस्थितियों को क्यों उत्पन्न किया जाता है जिनमें जन्मदाता दऱ-दऱ भटकने को मज़बूर होजाते है। अपना स्वयं का बनाया हुआ आशियाना छोड़कर वृद्धाश्रम जानें को मज़बूर हो जाते हैं। पैसे हैं तो मूल्य है माता-पिता का और जहाँ उनसे मिला तो उनका स्थान खत्म़।
हृदय द्रवित हो जाता है जब़ ऐसी स्थितियों से रूबरू होता हूँ। बहुत से सवाल़ उमड़ आते हैं मन रूपी समुन्द्र में। आख़िर ज़िम्मेदार कौन है इस सब का? कहाँ से आ रहे हैं ये संस्कार और सभ्यताएँ और हम क्यूं पाश्चातय सभ्यता की ओर दौड़े जा रहे है? संस्कारों की कमी ने भी बुर्जुगों से उनका मान सम्मान छीन लिया है। उनकी अमीरी के साथी तो सभी है लेकिऩ उनके मुश्किल समय का साथी कोईं नहीं बनना चाहता। निर्णय लिये जाते हैं कौन साथ रखेगा? दवा कौन करेगा? कौन कितनें वक़्त तक रखेगा?
माता-पिता थाली के बैंगन जैसे इधर से उधर भटकते रहते है और अंत में थक कर ख़ुद के घऱ के रूप में चुन लेते हैं-वृद्धाश्रम आधुनिकता और मशीनीकरण ने शायद़ इंसानों के दिल भी मशीनी बना दिये हैं जहाँ पैसे के आगे, संस्कार, सभ्यता और रिश्तें कमजोर एवं फीकें होने लगे हैं। समय की कमी, समय से प्रतिस्पर्धा के दौर में व्यस्तता इतनी हो गयी है इन्सानों में कि उनके पास समय ही नहीं है और इसी वज़ह से माता-पिता तक से मिलने का समय नहीं है, संयुक्त परिवारों की कमी से भी सभी एक दूसरे से दूर रहने लगे है जिसके फलस्वरूप बुर्जुग अकेलेपन और अवसाद का शिकार हो जाते हैं और परिणाम यह है कि वृद्धाश्रम प्रत्येक शहर में ही मिलने लगें हैं।
माता-पिता का स्थान सर्वोपरि है और रहेगा भी। इसके विपरित वर्तमान में भी कईं परिवार आज भी ऐसे हैं जो इस सभ्यता से परें अपने माता-पिता का ख्याल़ करतें है, ध्याऩ रखते हैं। विदेशों की सभ्यता भारत़ देश़ के संस्कारों पऱ पूर्णत: हावी नहीं हो सकती है।
” उनके रहते उनकी कद्र कर लो,
फिर वह लौट कर ना आयेंगें,
बीतते वक़्त में गुज़र जायेगें वह इस जहान से,
बाद उनके बैठ उनकी जग़ह वृद्धाश्रम में,
एक़ दिऩ आप बहुत़ पछतायेगें”॥
२१वीं सदी का समृद्ध भारत
” विश्व पटल पर सितारे-सा जगमगा रहा है,
विकास पथ अपना भारत बढ़ता जा रहा है,
२१ वीं सदी के भारत की ये कहानी है,
नयें आयाम हर दिन ये छूता आ रहा है॥”
विकास मार्ग पर बढ़ते हुये सम्पूर्ण विश्व में एक अलग पहचान पा चुका एक विकासशील राष्ट्र है भारत। २१वीं सदी में नित नये कारनामों को अंजाम देते हुये निरतंर प्रगति करते हुये बढ़ता जा रहा है। गौरवान्वित महसूस करता हूँ कि एक ऐसे राष्ट्र में जन्मा जिसका इतिहास जब़ पढ़ते और सुनतें हैं तो दिल़ सजद़े में झुक जाता हैं।
एक राष्ट्र जो अपनें अतीत में सोने की चिड़िया कहलाया जाता था। ना जानें कितनी बाऱ लूटा गया इसको, कितनी बार उजाड़ा गया हमारें इस राष्ट्र को लेकिऩ अपनें जज्ब़े और हौंसलें के दम़ पर ब्रिटिश शासन की गुलामी सहने के बावजूद़ भी हमारा परचम सम्पूर्ण विश्व में आसमाँ बनकर छा रहा है। इसका संघर्ष एक प्रेरणा स्रोत ही तो है जो दिन-रात प्रेरित करता है कि पिछड़ने के बाद़ भी सफल़ता के मार्ग पर कैसे चलना हैं, स्वयं के दूसरों के मुकाबलें में बेहतर किस प्रकार बनाना है और दूसरों के लिए स्वयं को एक प्रभावशाली उदाहरण कैसे दिखाना है।
अपनें अतीत से उभरते हुये २१ वीं सदी में भारत एक महाशक्ति बनकर कर उभरा है। पहला ऐसा राष्ट्र जिसनें जितनी भी लड़ाईयाँ लड़ी सिर्फ़ अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए, ना किसी राष्ट्र से बैर, ना किसी से लड़ाई, शान्ति का प्रतीक बनकर विकास मार्ग पर प्रशस्त है अपना राष्ट्र।
वर्तमान समय में भारतवर्ष किसी भी क्षेत्र में दुनियाँ से पीछे नहीं है। अंतरिक्ष में चाँद को छूना हो या मंगल पर पहुँचने वाले प्रथम राष्ट्र का गौरव हासिल करना विश्व भर में सैन्य शक्ति के मामलें में हम तीसरे स्थान पर है, चिकित्सा एवं विज्ञान के क्षेत्र में हम दुनियाँ में दूसरे स्थान पर काबिज़ है। वर्ष २००० के बाद़ से हमने तकनीकी एवं शिक्षा जगत में भी अद्भुत तरक्क़ी की है। विश्व के मानचित्र पर हमारा देश आज भी दूसरों के लिए एक सहारा है। हम़ आज़ भी स्वयं घायल होकऱ दूसरों का थाम लेते हैं। अमेरिका जैसी महाशक्ति को भी कोरोना जैसी त्रासदी में हमारी मदद़ की आवश्यकता पड़ी। ये हमारी उपलब्धि ही तो है कि एक विकसित राष्ट्र और उसके लगभग सभी विकसित एवं विकासशील राष्ट्र जब़ इस घातक वायरस के आगे घुटने टेक चुके थे तब़ हम़ सबको मदद़ पहुँचा रहे थे।
वर्तमान में एक कुशल नेतृत्व भी भारत को विश्व पटल पर एक़ अलग पहचान दिला रहा है। २१ वीं सदी का भारत वह भारत है जो विकासशील होकर भी विकसित राष्ट्रों से कम नहीं है। एक मजबूत़ अर्थव्यवस्था, कुशल संचालन, बेहतऱ नीतियों के बल पर दिन-रात तरक्क़ी करता जा रहा है। शायद़ ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहाँ हम़ ना पहुँचे हों और भविष्य में हम़ ऐसा करते भी रहेंगें।
खूबियों के साथ कहीं ना कहीं कमियाँ भी होती हैं। हमें भी बहुत से क्षेत्रों में अपनीं कमियों पर कार्य करने हैं, प्रत्येक नागरिक को अपनी जिम्मेदारी को सही से निभाना होगा तभी यह संभव होगा। अभी कमियाँ बहुत बाक़ी हैं हमारें राष्ट्र के भीतर। अग़र भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, प्रलोभन, धर्म एवं जाति की लड़ाईयाँ भी ख़त्म हो जायें तो हमें सर्वोच्च बनने से कोई नहीं रोक सकता॥
” सोने की चिड़िया बनकर एक बार फिर उड़ान लगायेगें,
हर क्षेत्र में पहुँचेगे हम नाम कमायेंगें,
विकास पथ पर लगातार हम़ अग्रसर हैं,
मेहनत़ से एक दिन विकसित भी बन जायेगें॥”
अलविदा २०२१
समय़ चक्र चलते हुये इस़ वर्षं के अन्तिम पड़ाव पर आ पहुँचा है। दिसम्बर जा रहा है और एक़ नववर्ष में प्रवेश करने जा रहे हैं हम़ सभी। वर्षं २०२१ में क्या पाया, क्या गंवाया इसी पर केन्द्रित आलेख है अलविदा २०२१.
वर्ष का आरंभ
इस वर्ष का आरम्भ जब हो रहा था तो २०२० में मिली पारिवारिक क्षति से उभरनें का प्रयत्न कर रहा था, परन्तु प्रथम सप्ताह ही एक दुर्घटना से जुड़ गया जहाँ एक विद्यार्थी को खो दिया, परन्तु यह जीवन तो एक रणक्षेत्र है मेरे लिए जहाँ कदम-कदम पर समस्याओं से जूझना है मुझे। इस जुझारूपन ने एक मज़बूत व्यक्तित्व दिया है मुझे।
कोरोना काल
बात़ अग़र देश की करूँ तो पहली बात़ कोरोना की करूँगा क्योंकि सभी सोचकर बैठें थे कि कोरोना चला जायेगा लेकिन हुआ इसका उलट पूरा विश्व कोरोना की चपेट में था और दूसरी लहर अपना कहऱ बरपा रही थी। भारत में भी इसके प्रभाव से शायद़ ही कोई शहऱ बचा हो। मृत्यु का ऐसा रौद्र रूप प्रथम बार देखा मैंने जहाँ एक़ साथ़ चार-पाँच प्रत्येक गली से जा रहे थे। ताड़व चल रहा था, शमशानों, कब्रिस्तानों में भी कतारें लगी थी, शवों को भी इंतज़ार था अपनें अन्तिम संस्कार का। कुछ़ को संस्कार मिला तो ना जानें कितनों को सिर्फ़ नदियों की गोद़ ही नसीब हुई। इसी बीच भारतवासियों नें एक़ बार फिर से लॉकडाउन देखा। मृत्यु और देश बंदी के बीच ऑक्सीजन को लोग तरसते भी दिखे।
टीकाकरण
दूसरी बात़ करते हैं-टीकाकरण की, भारत में एक़ बड़े स्तर पर टीकाकरण अभियान चलाया गया। प्रथम चरण में जहाँ सिर्फ़ कोरोना योद्धाओं को इसका लाभ मिला वहीं दूसरे चरण में आम़ नागरिकों को इसका लाभ दिया गया। युद्ध-स्तर पर भारत में टीकाकरण के प्रति जागरूकता अभियान चलाये गये, लोगों के बीच फैली भ्रान्तियों को दूर कर उन्हें जागरूक किया गया और टीकाकरण को सफल बनाया गया।
बरसात का मौसम
बरसात का मौसम भी कम़ दुःखदायी नहीं रहा सभी के लिये। नदियाँ-नहरें अपनें पूरे उफाऩ पर थीं। कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक, पहाड़ हों या मैदान पूरी तबाही मची हुयी थी। बाढ़ नें ना जानें कितनें ही घर और लोगों का जीवन ख़त्म किया। पहाड़ सरक रहे थे, रास्तें, सड़कें ढ़ह रहे थें। पुल बह गये, टूट गये, कोरोना के सताये लोगों को बाढ़ों ने भी खूब़ रुलाया।
टोकियो ओलम्पिक
खेल जगत में जहाँ टोकियो ओलम्पिक में भारतवर्ष ने विभिन्न खेलों में अद्भुत प्रदर्शन किया वहीं क्रिकेट २०-२० विश्वकप में भारतीय टीम पहली बार पाकिस्तान से पराजित हुयी।
किसान आंदोलन
किसान आंदोलन इस वर्ष ख़ूब चर्चा में रहा। यह आंदोलन साक्षी बना शान्ति प्रचार, उग्र प्रदर्शन, किसानों पर जानलेवा हमले और लालकिले पर तिरंगे के अपमान का और इसका अंत सरकार द्वारा किसानों की मांगों को स्वीकार किये जाने के साथ हुआ।
मंहगाई
मंहगाई भी अपनें चरम पर ही रही। खाद्य-तेल, पैट्रोल, डीजल से लेकर रसोई गैस तक़ ने आम़ आदमी को परेशान किया। पैट्रोल जहाँ ₹१०७ भी पार हुआ तो रसोई गैस भी ₹९५० पर पहुँच गयी। कुल मिलाकर इस वर्ष मंहगाई का बोलबाला रहा।
इसके अलावा इस वर्ष में चर्चा में रहें… क्रूज पार्टी के नाम पर ड्रग्स प्रकरण के लिये, पंजाब में प्रथम दलित मुख्यमंत्री, कैप्टन सरकार का बदलाव, कश्मीर में आम़ नागरिकों पर हमला, आजादी का अमृत महोत्सव साथ़ ही यह वर्ष याद़ किया जायेगा सबसे दुःखद घटना के लिये जिसमें भारत के प्रथम सी.डी.एस बिपिन रावत, उनकी पत्नी समेत सभी जवान हवाई दुर्घटना के शिकार हुए। कानपुर इत्र कारोबरी के यहाँ से मिलने वाला काला धन भी सुर्ख़ियों में है। इधर चुनावी बिगुल बज चुका है, सभी प्रमुख पार्टीयाँ पूरे जोर-शोर से अपना प्रचार तथा एक-दूसरे से खींचतान में व्यस्त हैं उधर कोरोना ने ओमीक्रॉन के रूप में एक बार फिर से धमाकेदार वापसी की है। कुछ समय की खामोशी को तोड़ते हुए इस बार फिर से दुनियाँ की रफ्ताऱ को धीमा कर दिया है।
संकट अभी टला नहीं है बढ़ गया है और इसके गवाह़ हैं वह लोग जो दोनों डोज लगवाने के बाद़ भी संक्रमित हो रहे हैं इसलिये कोरोना को हल्के में आंकनें की भूल ना करें क्योंकि यह अति गम्भीर विषय है सभी के स्वास्थ्य के लिये। कोरोना के नियमों की अनदेखी ना करें सख्ती से इसके नियमों का पालन करें और सभी को इसके प्रति जागरूक़ करें।
वर्ष २०२१ अपनें अन्तिम चरण में है। व्यक्तिगत् रूप से इस वर्ष ने मुझे अवसऱ दिया स्वयं को सफल, सबल़, सक्षम और समृद्ध करने का। सफलता का सफऱ शुरू किया है विभिन्न क्षेत्रों में। एक़ शिक्षक के किरदाऱ में, व्यवसायी के रूप़ में और लेखन जगत में भी स्वयं को बेहतर करते देखना थोड़ा रोमांचित करने वाला था खासकऱ तब-जब आपको अच्छा करते देख सुकून पाने वाले कम़ हो आपके आस-पास। आनंद आ रहा है, समय़ के साथ़ बढ़ते जाना है, इस़ वर्ष नें कुछ़ नयें स्वपन दिखाएँ हैं जिनको अगलें वर्ष में पूर्ण करनें का प्रयास रहेगा।
अंत में यही प्रार्थना है कि यह वर्ष किसी के लिए कैसा भी रहा हो आने वाला वर्ष सभी के जीवन में शान्ति, खुशहाली, समृद्धि एवं तरक्क़ी लेकर आये। कोरोना से मुक्ति मिलें, सभी स्वास्थ्य का लाभ पायें और सदा खुश़ रहें॥
वरूण राज ढलौत्रा
सहारनपुर
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