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मातृभूमि (Homeland)
मातृभूमि (Homeland)
मातृभूमि (Homeland): अमृत बरसाते मेघ जहाँ माटी का कण-कण चंदन है।
शेष सिहासन जिस माता का उसको शत-शत वंदन है।
जिसके सिर पर शोभित होता पर्वतराज हिमालय है।
प्रस्तर पूजित होता जिसका हर पत्थर देवालय है।
करती शृंगार प्रकृति सारी सारे जग से है न्यारी।
हे मातृभूमि! बलिहारी जाऊँ हमको तू है जान से प्यारी।
नभ नीला परिधान छवि अति सुंदर है।
नित नित चरण पखार धन्य हुआ रत्नाकर है।
निर्मल नदियों की धार करती है पावन सबको।
उगा कर अन्न अनेक तृप्त कर देती है जग को।
धूली के कण-कण में सोना जो स्वर्ग से सुंदर है।
हे मातृभूमि! तुझको नमन तू तो प्रेम समंदर है।
तेरी गोदी में खेल कूद कर बड़े हुए हैं।
लोट लोट कर रज कण में हम खड़े हुए हैं।
खाकर तेरा अन्न जल पीकर नर कहलाए।
बाल्यकाल में देव तुल्य है सब सुख पाए।
माता तेरा ऋण बहुत क्या चुक पायेगा।
हे मातृभूमि! रक्षा में सिर जब कट जाएगा।
बेटा
तू है मेरी आंखों का तारा
मुझको लगता सबसे प्यारा
खुशियाँ सारी तुमसे ही पाई
मेरी दुनिया तुझमें ही समाई।
कई अंधेरी रातें गुजरी
आज हुआ है नया सवेरा
घर की सुंदर बगिया में
फूल खिला है आज सुनहरा।
मां तेरी हर्षित हुई कितनी
मातृत्व का उसने सुख पाया
मैं भी झुमा ख़ूब ख़ुशी से
पिता मैं तुझसे ही कहलाया।
किलकारी जब गूंजी तेरी
बन गया घर ये स्वर्ग समान
बाहों में जब तू आया मेरे
जिंदगी हो गई तेरे नाम।
आशीष दिया तुमको हर पल
स्वस्थ सुखी हो जीवन तेरा
आयु मेरी लग जाए तुम्हें
सार्थक हो जाए जीवन मेरा।
अपने कंधों पर तुम्हें बिठाकर
खूब खिलाया ख़ूब हंसाया
अपने घुटनों पर चल तुमको
घोड़ा बनकर ख़ूब घुमाया।
बहुत हर्ष होगा मुझको तब
जिस दिन तू बड़ा हो जाएगा
अपना हाथ धर निज कंधे पर
निश्चिंत रहो कह जाएगा।
हाथ पकड़ कर रखना मेरा
नाम वेदांश सार्थक करना
सब कुछ मेरा तुझसे है
अपने कंधे पर विदा करना।
जब ज़िन्दगी दस्तक देती है
खेलती है रोज़ नए-नए खेल यह जिंदगी
कभी ख़ुशी तो कभी ग़म भी देती है जिंदगी।
कर देती है आसान हर राह कभी
तो कभी पग-पग पर अश्रु दे जाती है।
रूठ जाती है मौत भी आती हुई
जब ज़िन्दगी नई दस्तक देती है।
पूरा करती है हर मकसद अपना यह जिंदगी
रुला कर भी रोज़ सर सहला देती है जिंदगी।
हो गई है बहुत तेज रफ़्तार इसकी
जिंदगी की खोज में खो गई है जिंदगी
पल एक भी नहीं बचा पाये तुम अपने लिए
बार-बार यही पुकारा करती है जिंदगी।
कभी अपने तो कभी अपनों के लिए गुजार दी जिंदगी
सुनी ही नहीं आवाज़ इसकी हमने दस्तक देती रही जिंदगी।
शब्द
खेल है शब्दों का ही सारा
चाहे मन में विष की धारा
मीठे शब्दों के मकड़जाल में
फंस जाता हर दिल बेचारा।
सुंदर चेहरा आकर्षित करता
शब्द सुंदर आनंदित करता
गहरे ज़ख़्म भी शब्द ही देता
वापस उनको शब्द ही भरता।
बिखरे शब्दों का मोल नहीं
होता जब तक गठजोड़ नहीं
शक्ति शब्दों की रहती ना इनमें
होता मन में जब तोल नहीं।
शब्द ही मित्र बनाता सबको
शब्द ही शत्रु बनाता जग को
पत्थर को भी तरल बना दे
अद्भुत शक्ति मिली है इसको।
विष अमृत शब्दों में मिलता
जो जैसे शब्दों को है बुनता
कोई शब्दों से अमृत पान कराता
कोई विष बाणों से घायल करता।
मर्यादित शब्दों का ले लो सहारा
आनंदित जीवन इनसे सारा
कड़वी बातें भाती है किसको
मर जाएगा सुन-सुन बेचारा।
अपनापन
जहाँ स्नेह मिल जाए सबको
संग मिले दो मीठे बोल
अनजाने रिश्ते बन जाते
अपनेपन का क्या है मोल।
अपनापन है शब्द जहाँ का
सबसे प्यारा मीठा अनमोल
पर अपनों ने कर दी इसकी
परिभाषा ही पूरी गोल।
सुरभित जीवन अपनेपन से
सम्बंधों की यह अविरल धारा
त्याग समर्पण से पुष्पित होता
अपनापन है सबसे न्यारा।
नीव हिल रही इस कलयुग में
सम्बंधों का हो रहा व्यापार
प्रीत की रीत अब हुई पुरानी
अपनापन भी हुआ लाचार।
घायल मानवता झूठे रिश्तो से
मतभेदों की होती बौछार
संस्कारों का गला घोट कर
अट्टहास करते सब गद्दार।
दया प्रेम निर्मल निर्झर मन
जग में जीवन का आधार
पीर पराई को जो समझे
अपनापन होता साकार।
रिश्तो का मेला
जियो तो ऐसे कि अगले पल जाना है
अच्छा और बुरा तो सिर्फ़ बहाना है
आए भी अकेले तो जाना भी अकेला है
जिंदगी तो केवल कुछ रिश्तो का मेला है।
कोई दोष नहीं होता इंसान का यहाँ
जगत के हर प्राणी ने यही तो झेला है
जन्म पर हंसाना और मौत पर रुलाना
अब तक यही तो सभी ने खेल खेला है।
यूं तो रिश्ते बहुत बनते हैं ज़िन्दगी में
कभी पुत्र भाई पति और पिता होता है
वक्त के अनुसार पद बदल देते हैं हम
हर किरदार का अपना महत्त्व होता है।
हर मानव की अपनी कहानी होती है
भीड़ में रहकर भी अंदर से अकेला है
रिश्तो को बचाने की मजबूरी है उसकी
भीड़ में रहकर रिश्तो की जाना अकेला है।
रूपए पैसे की ललक भी कैसे दिन दिखाती है
मां बाप है तन्हा रहते उधर बेटा भी अकेला है
रिश्तो के इस मेले में कहाँ प्रेम दिखता है
जानता है वही जिसमें यह दर्द झेला है।
असफलता
असफलता तुम्हारा दर्पण है इसमें ख़ुद को देखो तुम
कहाँ कमी थी मुझ में ख़ुद से पूछो परखो तुम
इस आंधी से संघर्ष करो मत डर कर भागो तुम
जब तक इसकी हार ना हो सुख चैन को त्यागो तुम।
कटु अनुभव भी आएंगे इनसे मुख ना मोड़ो तुम
असफलता का स्वाद चखो पर आस कभी ना छोड़ो तुम
लाखों फूल खिलते बागों में और लाखों झड़ते होंगे
इनसे कई गुना फल तो कांटो में भी फलते होंगे।
टूटने के भय से क्या कलश मिट्टी के बन सकते
गिरने का भय पाल ह्रदय में क्या हम भी थे चल सकते
असफलता हवा का झोंका है इसमें उड़ ना जाओ तुम
अंगद पांव धरो धरती पर और अचल हो जाओ तुम।
लहरों के तांडव को साहिल निर्भय हो सह जाता है
एक अकेली धारा में तिनका डर कर बह जाता है
हिम्मत हार गया मांझी तो नौका पार नहीं होती
असफलता के भय से तो देहरी घर की भी पार नहीं होती।
निराश नहीं होकर जो प्राणी कोशिश फिर से करता है
कहाँ कमी सुधार सकूं मैं हर गुंजाइश पूरी करता है
हार से अपनी सबक सीख कर इतिहास नहीं दोहराता है
मंजिल मिल जाती उसको गुमराह नहीं हो पाता है।
असफलताएँ रोज़ हमें सबक नया सिखा देती
विचलित होते मन में भी नव उत्साह जगा देती
एक विफलता से ख़ुद को कमजोर ना इतना समझो तुम
ध्वस्त करो भ्रम की दीवारें और सफल कहलाओ तुम।
ज़िन्दगी से दोस्ती कर लीजिए
जब कुछ भी नहीं है अपना
तो क्यों इतनी फ़िक्र कीजिए
खोलिए खिड़कियाँ सुकून की
और ज़िन्दगी का मज़ा लीजिए।
मिलती है ये अपने नसीबों से
राह पर चला तो सही कीजिए
क्यों शिकायत है इस ज़माने से
जिंदगी से दोस्ती कर लीजिए।
कभी फूल तो कभी कांटे भी होंगे
पथरीली राहों में चला कीजिए
मुस्कुराने की क़ीमत नहीं कोई
कभी बेवजह भी मुस्कुरा लीजिए।
ये दौलत, शोहरत और इज्जत
नशा है ये इसे उतार दीजिए
हर वक़्त लेता है वक़्त भी करवट
थोड़ा वक़्त तो रिश्तो को दीजिए।
जब लिखना हो नया कुछ
पुराना सब पौंछा कीजिए
गुजर जाती है उम्र तन्हा एक ज़ख़्म से
जिंदगी से दोस्ती कर लीजिए।
गाँव
जहाँ प्रेम की फसलें होती
भावों की बरसाते होती
स्वार्थ बुलबुले यूं मिट जाते
जब आपस में दो मिल जाते।
हरी भरी रहती चौपाले
मिलते थे कुछ कम ही ताले
घर कच्चे पर मन पक्के थे
मेरे गाँव के लोग भले थे।
गांव की बातें गाँव में रहती
मुश्किल बातें यहीं सुलझती
कोर्ट कचहरी किसने जानी
मेरे गाँव की अजब कहानी।
बाहर था एक बड़ा शिवाला
पुजारी उसका बड़ा निराला
रोज सुनाता कथा रूहानी
मेरे गाँव की प्रथा पुरानी।
शाम सुहानी मेरे गाँव की
छम छम पायल गोरी पांव की
मनमोहक रस्में अपनेपन की
याद दिलाती अपने प्रियजन की।
मेरा गाँव सुंदर अति प्यारा
है मुझको वह बहुत दुलारा
स्मृतियाँ शेष वहाँ बचपन की
उम्र चाहे हो जाए पचपन की।
कलमकार
गुढ अर्थ पिरो कर शब्दों में
मानव की पीड़ा कह देता
हृदयों के गहरे अंधकार को
अपनी उर्जा से हर लेता।
शब्द बहुत छोटे हैं उसके
अर्थ उजाले के भर देता
कलमकार गागर में सारा
ज्ञान का सागर भर देता।
अपने शब्दों के बल से जो
आग लगा दे सागर में
अपने लेखन की धारा से
रक्त सजा दे अंबर में।
कलमकार की कविता सुनकर
गूंगे भी हंस देते हैं
अंडे से निकले चूजे भी
बाजो से लड़ लेते हैं।
श्रृंगार वीर और हास्य रसों की
कविताएँ कर जाता है।
शब्दों में देवत्व जगा वह
कलमकार कहलाता है।
कलमकार की भाषा से तो
भरा हुआ पूरा इतिहास
अपने गहन विचारों से जो
देता हमें सुखद एहसास।
अबला नहीं सबला हूँ मैं
दिवस का अवसान नहीं मैं
सूर्योदय की शुभ बेला हूँ
जीवन नीव का प्रथम प्रस्तर
अबला नहीं मैं सबला हूँ।
ममता का भाव छिपा मुझ में
सागर क्षमता का अलबेला हूँ
सक्षम हूँ उच्च शिखर पर भी
अबला नहीं मैं सबला हूँ।
कभी धीर बनी कभी वीर बनी
रखती सृष्टि सदा गतिमान
मुश्किल में अग्र पंक्ति में रहती
बस चाहूँ थोड़ा सम्मान।
जन्म मुझी से लेते हो तुम
जीवन रस मुझसे पाते हो
माता, बहन, पत्नी रूप का
हर प्रेम मुझी से पाते हो।
घर की दहलीज़ की मर्यादा की
सुंदर शोभित शशि कला हूँ मैं
अन्याय शोषण को नहीं सहूंगी
अबला नहीं सबला हूँ मैं।
रामायण की सीता माता
झांसी की रानी लक्ष्मी हूँ
कलयुग के घोर अंधेरे में
नवयुग की पहली रश्मी हूँ।
रोज़ मनाए हिन्दी दिवस
हिंदी मेरी रग-रग में, मेरे प्राणों में है हिंदी
हिंदुस्तानी मिट्टी का मैं, भाषा मेरी है हिंदी
गर्व करो इस भाषा पर, ज़ुबान प्यारी है हिंदी
राष्ट्रभाषा ये भारत की, सब का गौरव है हिंदी।
एक सूत्र में बाँधे रखती, पहचान दिलाती है हिंदी
राष्ट्र एकता की मिसाल ये, बड़ी महान ये है हिंदी
संस्कारों का प्रतिबिंब है, संस्कृति की पहचान है हिंदी
बड़ी सरलता है इसमें, अतुल्य ज्ञान भंडार है हिंदी।
हिंदुस्तानी परंपरा की, अनुपम गौरव गाथा है
सूर, जायसी, तुलसी जैसे, कवियों की इसमें कथा है
समृद्ध साहित्य समाया इसमें, भारत की यह जान है
स्वाभिमानी इस भाषा पर, हम सबको अभिमान है।
निज भाषा पर गर्व हमें है, सबसे सुंदर भाषा है
इससे है पहचान हमारी, उन्नति की परिभाषा है
विशिष्टता ही शान है इसकी, यह माथे की है बिंदी
भाषाओं की सरिताओं में, विशाल सागर है हिंदी।
विशेषता इस हिन्दी की, मेरी भाषा है अनमोल
कई अर्थ बनते शब्दों के, एक शब्द के कई विलोम
लिपि वैज्ञानिक उच्चारण भी, शब्द शक्तियाँ बिंब अनूठे
नहीं मिलेंगे पर भाषा में, दावे कर लो कितने झूठे।
आओ हिन्दी का सम्मान करें, यही हमारी भाषा है
ह्रदय जोड़ती हम सबके, पूरी हर अभिलाषा है
आओ मिलकर प्रण करें, ना हो हिन्दी का अपमान
रोज मनाए हिन्दी दिवस, हो हृदयों में इसका सम्मान।
मेरा देश
मेरा देश है कितना प्यारा, नदियों और पहाड़ों वाला
सोंधी सोंधी माटी की खुशबू, मीठे जल के झरनों वाला
उत्तर की सीमा का रक्षक, बना हुआ है अटल हिमाला
सागर जिसके चरण पखारे, ऐसा मेरा देश निराला।
गंगा यमुना हार गले का, शीतल पावन जल की धारा
माटी इसकी चंदन है, हर मानव को है इसने तारा
भिन्न भिन्न संस्कृतियाँ इसकी, सब ने आकर इसे निहारा
सौंदर्य सुहाना इस धरती का, जैसे स्वर्ग समाया सारा।
पूरे जग को राह दिखाता, विश्व गुरु कहलाता देश
विश्व शांति है नारा इसका, यही इसका पावन संदेश
सत्य, अहिंसा, दया, धर्म का, बना हुआ सुंदर परिवेश
स्वर्ग से सुंदर मेरा देश, हम सबका है यह प्राणेश।
हुई सभ्यता शुरू जहाँ से, जिसने दुनिया को ज्ञान दिया
मानवता का मान बढ़ाने, ईश्वर ने अवतार लिया
संस्कार बसे हैं सबके मन में, अतिथि को सम्मान दिया
मेरा देश है बड़ा निराला, दुश्मन को जीवनदान दिया।
राम, कृष्ण, मीरा, सीता की, जन्म भूमि यह देश
रणभूमि में गीता गाए, रणबांकुरे वीरों का देश
अरमान यही फिर बन जाए, सोने की चिड़िया मेरा देश
दूर-दूर गांवों में बसता, कितना प्यारा मेरा देश।
श्री कृष्ण जन्माष्टमी
जब थी रात काली अंधियारी
तब जन्मे थे कृष्ण मुरारी।
खुली बेड़ियाँ मात-पिता की
जब जन्मे थे नर अवतारी।
वसुदेव देवकी धन्य हो गए
जीवन में थी खुशियाँ आई।
पापी कंस का इस धरती से
अंत करन की बारी आई।
कारागार के खुल गए ताले
सो गए थे सारे दरबारी।
कान्हा ने गोकुल जाने की
कर ली थी पूरी तैयारी।
छायी चारों ओर घटाएँ
मूसलाधार हुई बरसाते।
यमुना का जल धीरे-धीरे
अपना कद थे सतत बढ़ाते।
वसुदेव कान्हा को सिर पर थामे
बढ़ते जल में हिम्मत ना हारे।
शेषनाग थे बन गए छाता
बन कर के उनके रखवारे।
पहुँचे गोकुल में जब कान्हा
सबको निद्रा में थे पाए।
लिटा कृष्ण को यशोदा के संग
उठा बेटी उनकी ले आए।
नई सृष्टि
बहुत दिनों के बाद,
बहुत जतनों के बाद,
बहुत खतरों के बाद भी,
तुझे आना ही था, और
मुझे इस तरह हराना ही था।
खैर,
मैं हारा और वह जीत गई,
परंतु,
इस हार में भी मेरी जीत भई।
वो अनजान थी इस दुनिया से,
पर उसे आना ही था इस जहाँ में,
देने लगी दस्तक वह।
मां कराह उठी,
रोई, छटपटाई, परंतु
थी बेख़बर वह।
उसे क्या पता था कि
वो मेरे आने के इंतज़ार में थी।
पाते ही आहट मेरी, बढ़ाया क़दम उसने भी
मेरे करीब आने को ना जाने कब से बेताब थी वह।
आखिर आई,
सांस ली, आंखें खोली,
हुंकार भरी।
इस ज़माने से क़दम मिलाने वह तैयार खड़ी।
वो होश में ना थी,
परंतु
मुझे देखकर मुस्काई,
क्योंकि
उसकी जीत पर उसे गर्व था।
मुझे भी अपनी हार का था अभिमान।
इस जीत हार में सब कड़वाहट धूल गई।
जब उसे निहारा,
उठाया,
गोद में लिया,
चूमा,
पुचकारा
तो उस नन्हीं कली की किलकारी भी गूंज गई।
उसके वह गहरे गुलाबी अधर,
उभरी अलसाई आंखें,
बिखरे मुलायम बाल,
पतली कोमल अंगुलियाँ,
रक्तिम गद्दीदार पगतलियाँ,
बयाँ कर रही थी उस पावन गाह का
जहाँ से होता है सृष्टि का आरंभ।
सावन का महीना
महादेव की भक्ति कर लो
आया है महीना सावन का
धरती ने शृंगार किया है
मौसम हुआ मनभावन का।
शिव मंदिर में भीड़ लगी है
करने अभिषेक की तैयारी
मंदिरों में दीप जल रहे
फूलों से लद गई फुलवारी।
सोलह शृंगार किया राधा ने
कान्हा की आंखों की प्यारी
कृष्ण राधिका झूला झूले
झूम उठी है प्रकृति सारी।
दादुर मोर पपीहा कोयल
बोल रहे लेकर अंगड़ाई
बादल गरजे बिजली चमके
विरही सब व्याकुल हो जाई।
आम लदे पेड़ों पर कितने
झूम रही हर डाली डाली
मेघ बरसते उमड़ घुमड़ कर
चारों ओर फैली हरियाली।
हरियाला सावन
घनघोर घटाएँ बादल की
फैली है दसों दिशाओं में
रिमझिम रिमझिम बरस रहा
सोंधी ख़ुशबू है फिजाओं में
मन प्रफुल्लित सब सखियों का
सावन हरियाला है मनभावन
मद मस्त फुहारें शीतल बूंदें
तन मन भिगो रहा है सावन।
मेंढक, मोर, पपीहे, कोयल
बोल रहे पुलकित मन से
प्यास बुझाने धरती की
मूसलाधार बरसा नभ से।
इंद्र धरा का मधुर मिलन
जैसे हाला की हो प्याली
प्रकृति शृंगारित हुई सारी
फैली सावन की हरियाली।
अंकुरित हुआ गर्भ फिर भू का
बीजों ने ली फिर अंगड़ाई
नवांकुरों ने पांव पसारे
फैली सावन की हरियाली।
निलेश जोशी “विनायका”
बाली, पाली, राजस्थान
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