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बचपन का सावन (childhood sawan)
सावन का महीना आते ही मेरा मन बचपन की यादों की गलियों में घूमने निकल पड़ता है। यादें बचपन के सावन (childhood sawan) की, सावन के झूलों की, मेंहदी की, पतंगों की और अनगिनत यादें। तब के सावन की बात ही कुछ और थी। तब पूरा मोहल्ला एक परिवार होता था और सारे त्यौहार भी साझे होते थे। सावन में एक बहुप्रतीक्षित कार्यक्रम होता था मेंहदी लगाने का।
तब मेंहदी कौन में नहीं आती थी बल्कि मेंहदी की ताज़ी हरी पत्तियाँ सिलबट्टे पर पीसी जाती थीं और उसकी ख़ुशबू हम सबको मेंहदी लगवाने का निमंत्रण दे जाती थी और सभी सहेलियाँ किसी एक के आंगन में इकट्ठी हो जाती थीं। दो तीन घंटों में हम सब की हथेलियाँ लकड़ी की बारीक डंडी से बनाए गए बेल बूटों से सज जाती थीं।
अब सबसे मुश्किल काम होता था उसे सुरक्षित रखकर सुखाना। मेंहदी अच्छी रचे इसके सभी जतन किए जाते थे, कभी नींबू चीनी का लेप लगता था तो कभी सरसों का तेल। उस दिन भाई से काम करवाने का बहाना भी मिल जाता था। मेंहदी का रंग दूसरे दिन चढ़ता है इसलिए दूसरे दिन उठते ही ध्यान हाथों की तरफ़ जाता था यह देखने के लिए कि कितना गहरा रंग चढ़ा है। उससे भी अधिक मन बेताब होता था सहेलियों की हथेलियाँ देखने के लिए।
दोपहर को सभी सहेलियाँ एकत्रित होकर एक दूसरे की मेंहदी का रंग मिलाती थीं और किसकी सास उसे ज़्यादा प्यार करेगी इसकी घोषणा भी कर दी जाती थी। फिर पूरी टोली पहुँचती थी किसी आंगन में बंधे झूले पर झूलने के लिए। मेंहदी रचे हाथों से झूले की रस्सी पकड़कर, सावन के गीत गाते हुए जब हम पींगे बढ़ाते थे तो झूले के साथ-साथ हमारे सपने भी मानो आसमान छूते थे। झूलने की सबकी बारी तय होती थी।
उत्तर प्रदेश में रक्षाबंधन के पर्व पर पतंग उड़ाने की परंपरा है इसलिए उस दिन पूरा आसमान रंग बिरंगी पतंगों से भरा होता था। राखी में मिले उपहार के बदले मुझे भाई के साथ मांझे की लटाई पकड़ने का काम करना होता था। तब ना तो लोगों के दिलों में फासले थे और ना ही घरों की छतों में इसलिए जैसे ही कोई पतंग कटती थी सभी छतों से बच्चे उसे लूटने के लिए दौड़ पड़ते थे।
अब ना तो घरों में सिलबट्टे हैं, ना आंगन और ना ही वैसे झूले जिसपर आमने सामने बैठकर झूल सकें। इसलिए हर सावन में मैं बचपन की यादों की उन गलियों में अवश्य घूमकर आती हूँ और इन सारे दृश्यों को सालभर के लिए मन में सहेज लेती हूँ।
मनीषा शेखर जोशी
पुणे, महाराष्ट्र
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