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रंग भरा फागुन (colorful holi) आया है
रंग भरा फागुन (colorful holi) आया है
मैं गीत फागुन के गाऊंगा
आया है त्यौहार होली का
मै गीत होली के गाऊंगा…
तुम मुझे चाहो जो समझो
मैं तो ख़ूब भाँग चढाऊंगा
आया है त्यौहार होली का…
ओए ओए ओए… होए
दो साल खा गया कोरोना
अब नहीं कुछ रोना धोना
हो जाये वह लाल-पीली
मैं लाल पीला ही लगाऊंगा
रंगबिरंगा फागुन आया है
मैं गुंझिया ख़ूब उडाऊंगा
लाया मैं चाइना पिचकारी
रंग-गुलाल न्यारी न्यारी
चंग बजाये वह नाच-नाचके
मैं ख़ुद के गाल बजाऊँगा
तुम मेरे साथ होली खेलना
मैं मजे बहुत करवाऊंगा
होय होय-होय …होय होय
लाज मरती वह भागे क्यूं
पहले कहदूँ लव यू, लव यू
फागन में यह रंग-बसंती
मैं ज़ोर जोर से बरसाऊंगा
होली में बन रास-रसिया
हर रास ख़ूब ही रचाऊंगा
रंग चढेगा ज्यूं गहरा गहरा
लज्जा से लाल पडे चेहरा
वो भिगाये मुझे प्रेम रंग में
मैं सारी कसर निकालूंगा
इस बार होली ख़ास होगी
मैं सुख सारे वह पाऊंगा
आया है त्यौहार होली का
मै तो फागन गीत गाऊंगा
होय होय-होय होय
होली है होली है …
आदर्श हमारे
हमारे आदर्श जनों से गौरवान्वित था भारत वर्ष
पर आजकल के इस दौर में, बुरा हुआ है हश्र,
बुरा हुआ है हश्र, आदर्श नहीं ढूँढते अब ये नैन
हमने जिनको आदर्श कहा, लोग कहते फैन,
आधुनिक इस युग में, आदर्शो की हुई तिलाज॔ली
कह संजय देवेश, अब रक्षा करें बजरंग बली॥१॥
पिताजी अब डैड हुये, माताजी हुईं हैं माॅम
बहन डी, भाई ब्रो हुये, वाह ये नयी कौम,
वाह ये नयी कौम, अलग हुये आदर्श के मायने
आदर्शो की कोई बात करे तो, देते हैं ताने,
नेता, एक्टर, खिलाड़ी ही, अब होते आदर्श
कह संजय देवेश, जो पकडे हैं जनता की नस॥२॥
समाज गौण हुआ, लिव इन रिलेशन का साथ
शादी के अगले दिन ही, करें तलाक की बात,
करें तलाक की बात, कैसी है ये आधुनिकता
अब ज़माने में आदर्श, कौडी भाव है बिकता,
सत्य, मूल, न्याय, धर्म गया, गयी ईमानदारी
कह संजय देवेश, मानवता रोये है बेचारी॥३॥
राम, कृष्ण, रहीम से, गांधी तक का इतिहास
इन आदर्श जनों की, लगती बडी पुरानी बात,
लगती पुरानी बात, नये आदर्शो का है जमाना
जो साध ले उल्लू अपना, उसे ही आदर्श माना,
खुद का पता नहीं, कैसे आदर्श की हो खोज
कह संजय देवेश, समझ ना आये नयी सोच॥४॥
दिन रात मीडिया में, जो दिखाई देता है ख़ूब
चाहे जैसा भी हो, उस जैसा होने की भूख,
उस जैसा होने की भूख में, खो रहे स्व विवेक
अपने आदर्श बना रहे, इसको-उसको देख,
दवा दारू चाहते हैं, करके अपना बेडा गर्क
कह संजय देवेश, समझ भी तो आये मर्ज॥५॥
बहुत गडबड झाला है
चाइना ने बनाया है इस कोरोना को
छोड दिया सारी दुनिया को रोने को
शैतान हंसता, मुँह पर पडा ताला है
भोला देवेश पूछता क्या गडबड झाला है…
हम इठलाये जीत इसकी पहली लहर
दूसरी तीसरी ना जाने कितना है कहर
जाने ये कैसी मुसीबत में हमें डाला है
घबराया देवेश कहे बहुत गडबड झाला है …
लालचीयों की देखिये मति गयी मारी
प्रलय में करते जमाखोरी कालाबजारी
मानवता के दुश्मनों का, मुँह काला है
रोता देवेश कहे, तौबा गडबड झाला है …
जानते हैं सब, दो गज की दूरी रखिये
मास्क लगायें, सेनेटाइज करते रहिये
मानें ना दिमाग़ का दिवाला निकाला है
सिर पकड देवेश कहे सब गडबड झाला है …
महामारी से आदमी गया है अब टूट
लगता प्रभु जी! हम सबसे गये रूठ
तभी तो हमको क्यूं नहीं सम्भाला है
गुहार देवेश कि बचाऔ गडबड झाला है …
प्रश्न मरते जा रहे उत्तर कहाँ है
प्रश्न मरते जा रहे, उत्तर कहाँ है
अंधकार-सा दिखे, आस कहाँ है
तुम भी पूछ रहे हो किन लोगों से
शीश झुकाये हैं, ख़ामोश जुबाँ है
सोच विहीन हुये, चेहरे से बयाँ है
नियति मान बैठे क्या कुछ नया है
प्रश्न से अधिक डर, उत्तर का देखो
आँखो में बसी गुलामी की हया है
उत्तर को खोजने, चांद तक गया है
सागर जीत लिये यह वह खैवया है
कर्मों में अब विश्वास ही नहीं बचा
सोचते हैं, सब शनि की ही ढैया है
क्यूं हो रहा, क्या मानव सो गया है
जो उत्तर ढूँढता, वही तो खो गया है
इतना असहाय है, प्रश्नों को मारता
खुद का वज़ूद ही, प्रश्न हो गया है
प्रश्नों का जनाज़ा ले, चला कहाँ है
उत्तरों को तू, दफना आया कहाँ है
हत्या हुई है उत्तर की, प्रश्न से पहले
ये तो मरघट है, भला कोई जहाँ है
खामोशी-बेबसी अब प्रश्न हुआ है
उत्तर अब दिलों से ही उतर गया है
तेरी तो कट गयी है, फिर भी देवेश
तू छोड, लोग नये जमाना नया है।
राखी
एक दूजे पर जान छिड़कते, बचपन की लडाई में
भाई बहिन का प्रेम बसा एक दूजे की परछाई में
अबला सिसकती बहनों में वह प्रेम तू जगा सके
तो बंधवाना राखी बहनों से तू अपनी कलाई में।
समाज में शैतानों से मासूम बहनें जा रहीं सताई
क्यों भाइयों ने अपनी जिम्मेदारी नहीं है निभाई
मान-मर्यादा बहनों की बना सके अपनी पहचान
तो बंधवाना राखी बहनों से तू अपनी कलाई में।
समाज कंटक सर उठाते, समाज की ढिलाई में
बहनों पर अत्याचार का यही कारण गहराई में
करे खात्मा इनका, बहनों की लाज बचाने को
तो बंधवाना राखी बहनों से तू अपनी कलाई में।
बहुत कुछ करना है तुमको बहनों की भलाई में
चेहरे पर खुशियाँ लानी होगी, उनकी रूलाई में
भाई-धर्म का पालन कर सके तू उनकी रक्षा में
तो बंधवाना राखी बहनों से तू अपनी कलाई में।
रक्षाबंधन का आया त्यौहार रे
तू सदियों से मेरी, प्यारी बहिन है धरा
मैं वही छोटा भाई हूँ, प्यारा चांद तेरा
तेरे बच्चों को, मामा का बहुत प्यार रे
बहिना रक्षाबंधन का आया त्यौहार रे
बदली मेरी बहन, तू कभी नहीं बदली
खिलती हूँ तेरे साथ मैं भी चंचल कली
आ बाँधे, भैया को इन्द्रधनुष के नज़ारे
आसमां से बुला रहे, अपने भाई सितारे
बहना नदी है विदा, भाई पर्वत को छोड
इठलाती चली, प्रियतम सागर की ओर
आया राखी का त्यौहार, कर रही याद
सागर से उडी, करे पर्वत पर बरसात।
घर आँगन जहाँ, बीता दोनों का बचपन
ता उम्र याद रहें वह खुबसूरत वह क्षण
भाग दौड की जिंदगी, साल में एक बार
याद दिलाने आया, राखी का त्यौहार।
गुरू
गुरू पूर्णिमा के अवसर
माता पिता बने गुरु, शिक्षा अंकुर बोय
प्रथम ज्ञान इनसे मिले, बालक अच्छे होय,
बालक अच्छे होय, उन्हें संस्कार मिलते,
हो जाते हैं सफल, जीवन में सदा खिलते,
कह संजय देवेश, खेल में पढना भाता
लालन पालन सहित, सब सिखा जाती माता।
ज्ञान बिन सब पशु भये, वे कहलाये गँवार
जीवन को बस काट लें, कदम क़दम पर हार,
कदम क़दम पर हार, वे असफल सदा होते
लिया नहीं गुरु ज्ञान, अब पछताय क्यूँ रोते,
कह संजय देवेश, बडों की यह बात मान
करें गुरु की खोज, उनसे ही मिलता ज्ञान।
गुरू चरण सेवा करो, सबसे उत्तम काम
ज्ञान गंगा हमें मिले, पायें शिक्षा धाम,
पायें शिक्षा धाम, हो जाये पथ आलोकित
राह बने आसान, यही ज्ञान में समाहित,
कह संजय देवेश, मिल जाये इनकी शरण
जीवन हो यह सफल, भक्ति मेरी गुरु चरण।
मन का दीप जलाये रखना
जीत की आदत बनाना
मुझे जो उठने की लत लगी, वो गिरा-गिरा कर चूर हुये
मुझे जो जीतने की आदत पडी, वह फिर तो फुर्र हुये
हार ना मानने का जज्बा, जीतने की आदत बना मेरा
फिर तो मुझे शिकस्त देने की सोच वाले, मजबूर हुये।
तुम विजेता बन जाओगे, जीतने की आदत बनानी होगी
जो कुछ भी है तुम्हारे पास, उसको ताकत बनानी होगी
कोई काम नहीं है मुश्किल, कहते हैं यह जीतने वाले
कठिन से कठिन हो मंजिलें, राहें आसान बनानी होगी।
हारना है या जीतना है, बस फ़र्क़ ये नज़रिया हुआ है
वो रोता आधा खाली, तुमने कहा आधा भरा हुआ है
जीत अपने आप चलकर नहीं आयेगी, कुछ करना है
जीतते हैं उठने वाले, मुर्दा दिल ख़ाक जीया हुआ है।
ऐसे काम कर डालो, लगे जीवन जीत के लिये बना
शमा बनकर रौशन करो, हो चाहे फिर अँधेरा घना
आंधी, तूफान, बिजली, शत्रु, कितना भी कहर ढाले
सलाम करके यह कहकर जाये, तू फौलाद का बना।
तेरी आंखे मुझे बुलाती हैं
तेरी आंखे मुझे बुलाती हैं
तेरी आंखे मुझे बुलाती हैं
आ जाता जब पास प्रिये
तू बहाने क्यूँ बनाती है
तेरी आंखे मुझे बुलाती हैं
आंखो से देती है निमंत्रण
हिरणी-सा उछले यह मन
खींच आता इस जादू से
फिर मूंदे क्यूँ अपने नयन
नाहक लजाती शर्माती है
तेरी आंखे मुझे बुलाती हैं
आंसू देख मचल उठता
फिर मैं ना रूक सकता
देख कर आंखो में उदासी
फट जाये ये ज़िया करता
प्रेम अभिव्यक्ति जताती है
तेरी आंखे मुझे बुलाती हैं
तेरी आंखो से देखूं सपने
क्यूँ लगती है इनको ढँकने
अल्हड़ बाला-सी झूम रही
अब बारी दुल्हन-सी सजने
तेरी आंखिया चुगली करें
तू कैसे ये रातें बिताती है
तेरी आंखे मुझे बुलाती हैं
तेरी आंखे मुझे बुलाती हैं
दर्द पिता का जाने कौन
दर्द को दबाना और उमडते अश्रुऔं को छुपा जाना
वो चला जा रहा दूर राम और दशरथ का चला जाना,
सुना होगा धोखे से कर दिया पुत्र अभिमन्यु का संहार
पिता अर्जुन को लगा होगा, अपने जीने पर धिक्कार,
सिद्धार्थ ने कब सोचा होगा कि उनके दिल का टूकडा
महावीर उसे दुखी कर, मिटाने चला जग का दुखडा,
वासुदेव के आंसूऔं ने ला दी बाढ नदी पार करने में
कलेजा छलनी हो गया होगा कान्हा को दूर करने में,
नेत्रहीन था, पर आंखो से पुत्र मोह खुब दिखता था
कौरव संतान के भले के लिये, असहाय हो रोता था,
शहीद हुआ है जब जवान बेटा, सरहद पर वतन पर
टूट गया पिता पर खडा हो गया शहादत पर तन कर,
ये वह पिता हैं जो रह गये हैं अपने हर दुख में मौन
इतिहास भी ख़ामोश रहा, दर्द पिता का जाने कौन।
पिता तो घर-परिवार बाग़ का अकेला एक माली है
उसके जिम्मे ही गुलशन को रौशन की जिम्मेवारी है,
उसके चेहरे पर जो भी चिंता के सलवटें दिखते हैं
कयोकि उसके सीने में सभी के अरमान ही पलते हैं,
वो जानता है कि उसे भरी धूप में, खडा ही होना है
तभी तो उस छांव में, हर पौध को ख़ूब पनपना है,
उसे पता है कि उसके ख़ुद के, उसके सपने हैं नहीं
उसकी दुनिया है जंहा, खडे उसके अपने हैं वहीं,
जज्ब किये आंसू और रोक लेता है वह जज्बात
परिवार की मुस्कान में, भूलता तकलीफ की बात,
जिंदगी बीताता है पूरी करने को, औलाद की आरजू
हो गया ख़ुद से ही लावारिस-सा खो गयी जुस्तजु,
परिवार की हर बात में वह हाशिये पर हो गया गौण
सुख दुख एकाकार हुये, दर्द पिता का जाने कौन।
संवेदना
मानव अन्तर्मन में, जब उपजती है अनुभूति
संवेदना बन प्रकट होती है, इसकी परिणिती,
है इसकी परिणिती, वेदना, आक्रोश या प्रलाप
समाज का हर दुख दर्द, छोडता है एक छाप,
कह संजय देवेश, संवेदना बिन सब भयानक
दो शब्द बोल से ही, खुश हो जाता है मानव।
संवेदनशील इन्सान का हर जगह उडे मजाक
संवेदनायें दम तोड रहीं, यह क्या हो रहा आज,
क्या हो रहा आज, इस स्वार्थ ने सबको है घेरा
मन मन से कैसे बोलें, जब हो रहा तेरा-मेरा,
कह संजय देवेश, हल हो सकती हर मुश्किल
इन्सान इन्सान के प्रति बन जाये संवेदनशील।
समाज के ही तो अंग हैं, हम सभी मानव प्राणी
संवेदनाओं से भावनाओं की अभिव्यक्ति जानी,
अभिव्यक्ति जानी, मूक जीव जंतु भी यही करते
देख दुख परायों का भी, आंसू आखियन भरते,
कह संजय देवेश, संवेदनायें मर रही है आज
इसको बचाइये, वरना मर जायेगा यह समाज।
विरह की वेदना रखे, प्रेम संवेदना को जीवित
ये दो आखर प्रेम के, सबका मन कर दे हर्षित,
मन कर दे हर्षित, हर एक को ख़ूब यह भरमाये
भरोसा, संवेदना को, पैसे से खरीदा नहीं जाये,
कह संजय देवेश, हम जीयें इंसानों की तरह
संवेदना साथ हो तो, फिर कैसी पीडा-विरह।
बनना है तो दीपक बन
अरे मनुज! बनना है तो दीपक बन
प्रकाशित कर दे लोगों के बुझे मन
सर्व दिशाओं में अवतरित उजियारा
जगमग कर दो तुम सभी के जीवन।
त्याग तपस्या की जले दीये में बाती
दीप से दीप जलायें मिल सब साथी
हो प्रकाश तो दिखेगा सुंदर मधुबन
अरे मनुज! बनना है तो दीपक बन
अंधकार समाप्त हो प्रकाश हो जाये
दीपक प्रदीप्त है सत्य ही दिख जाये
रात्री अंधियारा नहीं लगता है गहन
अरे मनुज! बनना है तो दीपक बन
दीपक बनकर स्वयं प्रथम आहुति दे
मानव कल्याण की पश्चात संस्तुति दे
सत्य उजियारा देखेंगे सभी के नयन
अरे मनुज! बनना है तो दीपक बन।
संजय गुप्ता देवेश
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