Table of Contents
गाँव और शहर (Village and City)
Village and City: गाँव की पगडंडी
कच्ची भले ही हो
मगर
स्नेह-प्रीत के रंगों से
भरे होते हैं मन वहाँ।
शहर की सड़कें
पक्की है गाँव की पगडंडियों से
मगर
विश्वास-प्रेम की बातों से रहित
मन कच्चा है वहाँ।
गाँव में पूरा पश्चिम
नही आया है अभी
कुछ लोग रोक रहे हैं
यूं अंगुली पकड़
पहुँचा पकड़ने से उसे।
मालूम है उन्हें
ये पश्चिम चमकता बहुत है
लेकिन भीतर उसके
घोर अँधेरा है।
शहर के लोग
पढ़ लिख गए हैं बहुत
लेकिन पढ़कर भी
समझ नहीं पाते
गाँव के लोगों की बात।
विडंबना है ये
सोचनीय
समझ नहीं पाता है गाँव
या फिर कमी
शहर की नज़र नहीं आती है।
देखा मैने गाँव-शहर
दोनों को ही।
शहर चल रहा है
दौड़ रहा है
पीछे उसके शोर
भाग रहा है
गाँव देख शहर को
हर पल उदास
हो रहा है।
गाँव की ठंडी बयार
गर्म होते मगज को
शीतल कर जाती है।
इसीलिए तो
गाँव की याद
शहर के लोगों को
उदास कर जाती है॥
मुस्कान खो रही है
चुपके चुपके आई उदासी
मुस्कां होंठों की खो रही है।
सोचा उसको कुछ पल रोके
रात घनेरी सो रही है॥
जाने न दे क्षण भर उसको
जान हमारी वह रही है।
कैसे कह दूं उसको झुककर
शान हमारी वह रही है॥
शबनम टपके फूल से ऐसे
प्रीत पुष्प की वह रही है।
मुस्कां मेरी शबनम जैसी
चुपके चुपके खो रही है॥
धीरे धीरे ज़र होता कैदी
तरुणाई हर पल खो रही है।
सोचा उसको रोकू पल भर
प्रीत हिय की रो रही है॥
पीड़ा तन की मन को चुभती
पीर मन की सो रही है।
मुस्काने को आतुर खुशियाँ
मुस्कां अधरों की खो रही है॥
देखा मैने सबको हंसते
व्यथा दिल की रो रही है।
होंठ खुले थे सबके लेकिन
आंखें सबकी रो रही है॥
मेरी मुस्कां मेरे अपने
आंखें रह-रह उनको ताक रही है।
चुपके चुपके आई उदासी
जाने मुस्कां होंठों की कहाँ खो रही है?
पहला कवि और कविता
पहला कविवर होगा प्रेमी
नित प्रेम में रहा वह मग्न।
निश्छल प्रीत को जब छुआ अयस ने
उसके भी अवगुण बन गए सरस॥
चलते फिरते रच दिए काव्य महाकाव्य
भर डाले उसमें संसार के नवरस।
सजे रंग जब क़लम में उसके
इंद्रधनुषी रंगो से सज गया जीवन नीरस॥
जब देखा जगती अखंड जोत को
इक ज्योति उदय हुई होगी हृदय में।
बनके मोती भाव हिय के
उतरे कागज़ पर जब
जगा गए वह एक आस सोती॥
कह न पाए होंगे वह अपनी पीड़ा
सभ्यता से भरे जब इस समाज में।
कागज क़लम को सखा बनाया
कह डाली तब अपनी वेदना
शब्दों में ढल प्रियवर बनके॥
देखी होगी जब चाह उसने
अपने लिए किसी की आंखों में
उपजी होगी प्रीत यूं ही
दिल के किसी अनछुए झरोखों में॥
कह न पाए जब अपनी प्रीत को
राह क़लम की ली होगी।
उर का प्रेम बहा जब निर्झर
उस प्रेमी की व्यथा शांत हुई होगी॥
वो प्रेमी नर-नारी, बाल-बाला
या फिर कोई ऋषि मुनि रहा होगा।
पहला कविवर ज़रूर कोई
राम-रहीम का अंश रहा होगा॥
प्रेम उसका जिससे भी हुआ
वो तो अद्भुत रहा होगा।
अहसास उसे भी जब हुआ प्रीत का
अंधेरे से भरे कमरे में
उजाला हुआ होगा॥
सुखा-सा ये चमन फूलों से भर गया होगा
जब पहला कविवर प्रीत में रोया होगा।
बसा हुआ था जो घट में निश्छल प्रेम
बनकर झरना ज़रूर बह गया होगा॥
पहला कविवर होगा निश्छल प्रेमी
निश्छल प्रीत में बना होगा पारस।
अक्षर शब्द और शब्द वाक्य बन गए
नवरसों से भरकर उदय हुई कविता सरस॥
नर और नारी
देखा मैने एक दीपक को
जलती उसमें बाती थी
किया ग़ौर तो मैने पाया
दीपक बन पुरुष बैठा था
जलती उसमें एक नारी थी।
दीपक होना भी तो
कहाँ सरल था
न चाह कर भी तो पल पल
पीना गरल था
घिसकर पिटकर लेकर
आकार दीपक का
उसको भी तो पल पल
संग बाती के जलना था॥
देखा मैने एक पतंग को
संग डोर के उड़ता था
किया ग़ौर तो मैने पाया
डोर बनी नारी थामे थी उसको
बन पुरुष पतंग
नभ में इठलाता था।
बनकर डोर थामे रखना
हर पल कठिन होता है
बन पतंग नभ में उड़ना
ये भी तो कहाँ सरल होता है॥
देखा मैने एक मटके को
भीतर उसके शीतल पानी था
किया ग़ौर तो मैने पाया
बन मटका पुरुष बैठा था
पानी बनी बैठी नारी को
भीतर अपने समाया था।
हाथों से दबकर
अंगारों में तपकर
शीतल पानी को रखना
बसकर किसी के हृदय में
खुद को शीतल-सा रखना
हुनर अनोखा दोनों ने पाया था॥
देखा मैने एक कंगन को
मोती उसमें इक चमका था
किया ग़ौर तो मैने पाया
कंगन बन नारी खनकी यूं
मोती बन नर चमका था।
कंगन बनना उस पर खनकना
नारी के लिए नहीं आसां होता है
मोती बनना उस पर चमकना
हर घड़ी जीवन इम्तिहाँ होता है॥
देखा मैने एक मंदिर को
बनी ईश्वर मूरत थी उसमें
किया ग़ौर तो मैने पाया
रुप लिए मंदिर का
पुरुष खड़ा था कर छाया
खुद को रखकर मौन नारी
मूरत बन बैठी थी रचकर माया।
धूप में तपना
उस पर अविचल खड़े रहना
देकर सबको सुख भरी छाया
बन पत्थर जड़ रहना
पुरुष के लिए कहाँ सरल होता है?
वाचाल है वो, जीवित भी है
लेकिन ख़ुद को रखकर मौन और जड़
होंठों पर हँसी, आंखों में खुशी
यूं हर पल निश्चेतन रहना भी तो
नारी के लिए कहाँ सरल होता है?
इक सिक्के के पहलू दो
इक नर तो दूजा नारी
एक अधूरा दूजे के बिन
दोनों के बिन दुनियाँ अंधियारी
फूल है नर तो ख़ुशबू नारी
संग दोनों के गूंजे किलकारी
पुरुष धूप है तो छाया नारी
संग दोनों के चले है दुनियाँ सारी॥
घरौंदा
नदी किनारे सांझ संवेरे
वो प्यास बुझाने आती है।
जाते जाते चुनकर तिनके
प्यारा-सा घरौंदा वह बनाती है॥
मां है वह अपने बच्चों की
दिल में रहते उसके अपने।
आशाओं के दीप जलाती
मन में पलते अगनित सपने॥
सपनों की खातिर वो
खुद को हर पल जलाती है।
जहाँ बैठे सब मिलकर अपने
छोटा-सा घरौंदा वह बनाती है॥
जल न पाए धूप में तन
खिले खिले रहे सबके मन
तरु-सााघरौंदा वह बनाती है॥
उसके मन की वह ही जाने
पर दिल सबका बहलाती है।
देख के काले बादल नभ में
छांव भरा घरौंदा वह बनाती है॥
नदी किनारे एक गिलहरी
पानी पीने आती है।
जाते जाते दो बूंद पानी की
संग अपने ले जाती है॥
शिक्षा
आते जाते सबने रोका
हर पल मुझको सबने टोका।
बातें करती हैं बड़ी बड़ी
बता ज़रा हमको क्या है शिक्षा?
बात सुनी तो हंसना आया
कैसे बताऊँ क्या होती है शिक्षा?
कर न पाए जब कोई उपेक्षा
ऐसी अमूल्य धरोहर होती है शिक्षा।
सड़क किनारे नन्हें बच्चों को
लेते देखा उनको भिक्षा।
उन्हें बना दे सबके काबिल
कुछ ऐसी होती है शिक्षा॥
देता जन्म विधाता सबको
हर पल करता सबकी रक्षा।
कठिन दौर जब जीवन का हो
हम भी कर पाए सबकी सुरक्षा॥
कांटों भरा जब जग में मग हो
चुभते कटु तानों से कर पाए आत्मरक्षा।
धैर्य से भरी हो अपनी प्रतीक्षा
सुकोमल भावों से सजी होती है शिक्षा॥
माता पिता ने संसार दिखाया
लेता जग हर पल अग्निपरीक्षा।
गिरने न दे वह खाई में
डोरी संस्कारों की होती शिक्षा॥
पंख फैला दे इतने ऊपर
जितना आसमां है ऊंचा।
अपनी वज़ह से न कोई देखे नीचा
खुद की नजरों में सम्मान दिलाए वह है शिक्षा॥
उजाले के मायने
अखबार वाले की आँख खुली
घड़ी चार बजा रही थी
जग न जाए उसकी आहट से कोई
देखा इधर-उधर और
बोला वह ख़ुद से
अब तो उठना होगा
उसके लिए उजाला हो गयाथा।
शहर के बीचों बीच
एक अदने से कमरे मे
दो विद्यार्थी उठ बैठे
अलार्म बजते-बजते सवा चार
बजा गए थे
मन में सफलता की कर आशा
पुस्तक हाथों में ले बैठ गए थे
उनके लिए उजाला हो गया था।
प्लेटफार्म की कुर्सी पर
सो रहा था हाथ सिरहाने दिए कुली
सुविधाएँ तो साथ ना थी
बेदर्दी नींद भी परीक्षा पर तुली
साढ़े चार वाली गाड़ी की आवाज़ से
उसकी निद्रा यूं भंग हुई
उसके लिए उजाला हो गया था।
बस स्टैंड पर एक आदमी
टिफिन लिए हाथों में खड़ा था
मेहनत मजदूरी कर
परिवार का पालन पोषण करना था
छः बजे वाली बस से उसको
अपने कार्य स्थल पर पहुँचना था
उसके लिए उजाला हो गया था।
एक रईस का बेटा
आठ बजे भी गद्दे पर सोया था
चाय नाश्ता ठंडा हो रहा है
ये कहकर माँ ने जगाया था
उसके लिए उजाला हो गया था।
एक नेता पार्टी से थक कर
सोए आधी रात में
सोने का पलंग
इत्र से भरा कमरा
उसको स्वर्ग की सैर करा रहे थे
सुन बच्चों का लड़ाई झगड़ा
जागे जब वह सुबह के दस बज रहे थे
उनके लिए उजाला हो गया था।
एक नशेड़ी नशे में चूर होकर
पी भांग मदिरा मन भर कर
दिन के बारह बजे भी
पड़ा रहा वह सड़क पर
थक हार कर बीवी ने तब
पानी गिराया ठंडा उस पर
उसके लिए उजाला हो गया था।
एक चोर देख अंधेरें को उठा
रात के दस बज रहे थे
किया ख़ुद को खा पीकर तैयार
आज रात को कर चोरी मोटी
जाना सुबह विदेश में
उसके लिए उजाला हो गया था।
बैठा एक युगल था प्रेमी
थे मग्न वह प्रेम में
दुनियाँ से छुपकर आए थे
कुछ देर रहना था संग में
चांद का ढलना उनको अपना
गंतव्य दिखा रहा था
उनके लिए उजाला हो गया था।
एक उदास बैठी थी नारी
थी मन में उसके आशा भारी
काले बादल तकलीफों के
बिखर गए वह इधर उधर
जब आई सूरज संग रोशनी
उसके लिए उजाला हो गया था।
कागज़-क़लम
उड़ता-उड़ता एक कागज़
पहुँच गया क़लम के पास।
थकी पड़ी थी कब से वो
स्पर्श लगा तो हुआ आभास॥
जागी वह उनींदी-सी
किया ज़ोर से अट्टहास।
नयनों को खोल कर देखा
किसने छुआ मुझे यूं अनायास।
पाकर दृष्टि प्रीत—सी क़लम की
कागज़ का मन पहुँचा कल्प-वास।
अरज करी उसने क़लम से
मुझको रहने दो तुम अपने आस पास॥
प्रणय निवेदन सुन कागज़ का
प्रीत ने किया क़लम के हिय में वास।
अधिमास-चातुर्मास मिलकर के
बह निकले कागज़ पर अक्षर विन्यास॥
अक्षर मिलकर शब्द बने जब
शब्दों से जुड़कर बन गया उपन्यास।
बोली क़लम कागज़ से यूं
भीतर तुम रखना अपने विश्वास॥
विचार भले ही अलग-अलग हो
हो भले ही विरोधाभास।
ज्ञान भले ही थोड़ा-सा रखना
लेकीन मत रखना अंधविश्वास॥
भीगा अंतर्मन कागज़ का
बोला खोल कर निज आयास।
रहना मेरे साथ तुम हरदम
बिन तेरे जीवन होगा सन्यास॥
तुम संग जीवन है बसंत-सा
नही रही शेष कोई अभिलास।
बनकर अक्षर उपजे प्रेम
संग तेरे ही पूर्ण हो अंतिम श्वांस॥
चांद और चांदनी
इक रोज़ शाम ढलते ढलते
छत पर आकर बैठी कुछ करते करते।
ढ़ल गया था सूरज यूं चलते चलते
चुप मैं भी हो गई कुछ कहते कहते॥
पवन मध्दम—सी कुछ कह कर गई
सांसों के तार को यूं छूकर गई।
चांद और चांदनी थे नभ में
ये बात वह कानों में कह कर गई॥
देखा मैने चंदा को जब
थी चांदनी उसके चारों ओर।
दृश्य हिय को लगा वह प्यारा
चाहा मैने न हो कभी भी भोर॥
था अँधेरा गगन में ऐसे
जैसे जीवन काला स्याह हो।
उसमें चांद-चांदनी का साथ था ऐसा
जैसे बंद कमरे में दीपक और पतंगा हो॥
नभ में खड़ा चांद अकेला
घटे-बढ़े ख़ुद के ढंग से।
रहे चांदनी उसके संग में
देख चांद को शांत मन से॥
लेता परीक्षा चांद भी उसकी
बिन बोले कुछ भी कह जाता है।
खुद को रखकर निश्छल चांदनी
उसका प्यारा-सा दिल सब सह जाता है॥
आती अमावस चांद पर जब
चांदनी चांद के साथ ही रह जाती है।
देख प्रेम के गहरे बंधन को
हार अंधेरे की क़िस्मत जाती है॥
साथ पाया जब चांदनी का
साहस चांद के मन भर जाता है।
संग में रखकर निश्छल चांदनी
पूरण मासी को वह चमक जाता है॥
सम्बंध हमारा रहे निश्छल
चांद चांदनी—सा हो रिश्ता।
एक अधूरा दूजे के बिन
संग सुख-दुःख के चले आहिस्ता॥
कहते कहते भोर हो गई
आंख खुली तो हुआ सवेरा।
चांद-चांदनी चले गए संग में
सूरज ने हर लिया अंधेरा॥
हवा और पानी
तेरा मुझसे मिलना निशदिन
जैसे छूकर बहना हवा सा।
मेरा तुझसे बातें करना
जैसे स्पर्श निर्मल पानी सा॥
छूकर जैसे ही तुम निकले
सर्द मेरा ये मन हुआ।
मेरा छूना भी तो तुमको
अंदर तक भिगो गया॥
पाकर सूरज की गर्मी को
सर्द बर्फ़ था पिघल गया।
मेरा तो अस्तित्व ही पानी
छुआ तुम्हें जो बिखर गया॥
अब तक तो महसूस किया था
आज यकीनन स्पर्श किया।
अब तक तो समझी वहम था
आज ख़ुद पर यकीं किया॥
मिलना हमारा रहे सदा ही
यूं ही हरदम हवा पानी सा।
मै छूकर तुमको बयाँ हो जाऊँ
तुम मुझको छूकर बन जाओ पानी सा॥
कर्म पथ पर बहती रहे
जीवन नैया संग हवा के।
तेरा मेरा साथ हो ऐसा
जैसे रहे पानी संग हवा के॥
दुनियाँ तेरी है सागर सी
उसमें रहूँ मैं निर्मल बनकर पानी सी।
अदृश्य रहे तू भले ही हवा सा
मै तुझमें बसी रहूँ पानी सी॥
तुम ऐसे ही न चली जाना
मेरी थकी पलकों को तुम आराम दे जाना
हल्के हाथों से उनको तुम सहला जाना।
लेकिन निशा…
तुम ऐसे ही न चली जाना॥
जाग रही वह एक अरसे से
कुछ ख़्वाब अधूरे तरसे से
उन ख्वाबों को तुम पूरा कर जाना।
लेकिन निशा…
तुम ऐसे ही न चली जाना॥
मै गोद में तुम्हारी निर्भीक सोऊ
आहट कोई जगा न पाए
तुम आंचल को मुझ पर फैला जाना।
लेकिन निशा…
तुम ऐसे ही न चली जाना॥
निर्जन वन में शोर है गहरा
बंद नयनों के ख्वाबों पर भी पहरा
उन ख्वाबों को तुम उजागर करके जाना।
लेकिन निशा…
तुम ऐसे ही न चली जाना॥
आयी हो तुम अपनी विवशता में
लेकिन फिर भी स्वागत तुम्हारा मेरे इस जीवन में
तुम रहकर संग मेरे आनंद से भरकर जाना।
लेकिन निशा…
तुम ऐसे ही न चली जाना॥
कांपता हृदय इन बोझिल रातों में
कट जाए रात यूं ही संग तेरे बातों-बातों में
तुम बेखौफ शांत चित्त कर जाना।
लेकिन निशा…
तुम ऐसे ही न चली जाना॥
जाओ तुम जब उजाला हृदय में करके जाना
जब अहम सूर्य के सिर चढ़ आए तो तुम वापस आ जाना।
लेकिन निशा…
तुम ऐसे ही न चली जाना॥
इन तपती आंखों को कुछ शीतल कर जाना।
अंधियारी इन रातों में गीत नया-सा गाकर जाना।
भोर में जब आंखे खोंलू सुबह खुशियों की देकर जाना।
लेकिन निशा…
तुम ऐसे ही न चली जाना॥
अबकी बादल ऐसा बरस जा
निर्निमेष देख रही है वो
अनिमेष ताक रही है वो
खुली आंखों से बादल की ओर
टकटकी लगाए देख रही है वो
अबकी बादल ऐसा बरस जा
जन्मों-जनम की प्यास बुझा जा
जो बीज पड़ा है बरसों से अनछुआ
उसको भी तू वृक्ष बना जा
अबकी बादल ऐसा बरस जा
जन्मों-जनम की प्यास बुझा जा
वो प्यासी चिड़िया ताक रही है
उसको भी तुझसे इक आस रही है
वो धरा तुम्हे ही पुकार रही है
प्रेम में तुम्हारे पगला रही है
सुधा बन चिड़िया की प्यास बुझा जा
उसकी इस आस को सफल बना जा
प्रेम धरा का निश्छल अटूट
ये धरा को बरस कर दिखला जा
अबकी बादल ऐसा बरस जा
जन्मों-जनम की प्यास बुझा जा
वो हरी लता सूख रही है
वियोग में तुम्हारे सिकुड़ रही है
उसको हरियाली की चादर से ढक जा
प्रेम से अपने हष्ट पुष्ट बना जा
जीवन अपना सौप देगी तुम्हे
एक बार उसको गले लगा जा
अबकी बादल ऐसा बरस जा
जन्मों-जनम की प्यास बुझा जा
वो झील मिलन को तरस रही है
प्यासी मीन दरश को तरस रही है
झील को तू सागर बना जा
मीन को नवजीवन दे जा
अबकी बादल ऐसा बरस जा
जन्मों-जनम की प्यास बुझा जा॥
ऐसा तुम करना
चाहते छोटी-ही सही
अपनी कोशिशें ज़रूर बड़ी रखना
रास्ता कठिन-ही सही
पैरों में अपने हिम्मत ज़रूर रखना।
हक की बात के लिए
लड़ाइयाँ अनेक लड़ना
बोलचाल बन्द न होने देना
चाहे इमारतें खड़ी करना।
राहें चाहे अलग-थलग रखना
दरवाज़े भले-ही बंद रखना
तुम उसे वह तुम्हे देख सके
घर में ऐसी खिड़कियाँ ज़रूर रखना।
ज़रूरी नहीं कि उसके हर ख़्याल से
तुम्हारा भी ख़्याल मिले
लेकिन जहा हो रिश्तों का अंतिम छोर
वहा विचारों में एकरूपता ज़रूर रखना।
नश्वर इस दुनिया में मीलों दूरी
भले ही दरमियान रखना
लेकिन जहा ज़रूरत दूरी से ज्यादा
नजदीकियों की हो
वहा कंधे से कन्धा जोड़े रखना।
माना ये जहाँ स्वार्थ से भरा हुआ
पग-पग पर धोखा-कपट-छलावा यहाँ
लेकिन हृदय में तुम अपने निश्छल-प्रेम रखना
एक क़दम वह बढ़ाए तो दो क़दम तुम रखना।
गुस्सा होठों पर आंखों में परवाह रखना
जो हो आपके हितकारी सीने में उनकी चाह रखना
पैसा-पद कितना भी हो पास अपने
उनका न तनिक गुमान रखना।
चाहते छोटी-ही सही
अपनी कोशिशें ज़रूर बड़ी रखना॥
प्यारा बचपन
सांझ ढली कि हवा चली
यादों की पुरवाई बही।
कानों में इक शोर घुला
एक तरंग—सी हृदय में बही॥
वो बचपन भी कितना प्यारा था
अद्भुत अनोखा न्यारा था।
न भविष्य की चिंता थी
न अतीत का किस्सा था॥
बारिश की बूंदे उमंग भर देती
पोखर ही सागर बन जाते।
उसमें कश्ती हमारी चलती
हम भी जहाज़ के मालिक होते॥
खेल बेशक छोटे होते
पर उसमे भी हम राजा होते।
छोटी-बड़ी लड़ाइयाँ होती
पर न्याय अजब-गज़ब के होते॥
न जाने कैसे बीत गया
पोखर का पानी था वह सूख गया।
कश्ती भंवर में जा उलझी
वो बचपन कहा रीत गया॥
गुड़िया थी वह रानी हो गई
खुली जुल्फों की कहानी ख़तम हो गई।
बहती हवा संग उड़ती थी जो चूनर
अब वहीं उसकी इज़्ज़त हो गई॥
गुड्डा था वह अफ़सर बन गया
एक मोटर और दो कार का मालिक हो गया।
कल तक वह घर का राजा था
आज सबका गुलाम हो गया॥
बच्चों को देख बचपन याद आ गया
वो टिफिन की रोटी बांटकर खाना सुकून दे गया।
आज भी जब याद आते है वह हंसी पल
बचपन का निश्छल प्रेम एक अहसास दे गया॥
आशा
जीने की जिजीविषा मे
पीयूष स्रोत बह रहे मन में।
कैसी भी हो चाहे कठिनाई
पार कर मैं पहुँच जाऊ घर में॥
मन में विश्वास अचल अडिग
पैरों में बल महावीर-सा।
विधाता भले ही हो निष्ठुर
उसका साहस है पहाड़-सा॥
कैसे वलित हो हृदय के भाव
इंतज़ार में बैठा है।
मै मिल भी पाऊंगा अपनों से
इसी विचार में रूठा है॥
तपती सड़क अंगारों-सी
पर ऊष्मा उसके सीने में है।
सब तरफ़ से हारा ज़रूर
पर एक आशा उसके मन में है॥
अपने आंसू किसे दिखाएँ
सोच के आंखे ढक लेता है।
यहाँ घूंघट की ओट में सब
घूम रहे जो नेता है॥
क्यूं देख के आंखे मूंद रहे सब
वो भी तो अपने घर का ही हिस्सा है।
हमारी थाली में रोटी उसके ही तो कारण है
फ़िर क्यूं लाचारी-मज़बूरी उसके जीवन का किस्सा है॥
हम आज भी यू पत्थर बने रहे
तो सच मानो कभी न इंसां बन पाएंगे।
सुंदर-सलोने, विकसित भारत के सपने को
हम मूर्तरूप कभी न दे पाएंगे॥
इंद्रा
श्रीमती राधा रा. उ. प्रा. वि. बिंजवाड़िया, तिंवरी, जोधपुर (राज)
यह भी पढ़ें-
२- शिक्षक
1 thought on “गाँव और शहर (Village and City) : इंद्रा भाटी”