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घूँघट (Veil)
घूँघट (Veil) एक ऐसा शब्द जो हमें खींच कर ले जाता है बीते दिनों की ओर… घुमाता है हमें यादों के गलियारों में और छोड़ जाता है होठों पर एक मीठी सी मुस्कान…
शादी के बाद जब मैं ससुराल आयी तो घूँघट की ओट से सबको देखती और पहचानने की कोशिश करती, ससुराल परिवार काफी बढ़ा होनें की वजह से सबको पहचानने में थोड़ा वक्त लगा। तब मुझे साड़ी पहनना बिल्कुल नहीं आता था, ऐसे में घूँघट संभालना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल काम था। शुरू शरू में कुछ दिन मेरी जेठानी या सास मुझे साड़ी पहनाया करतीं, पर मुझे साड़ी पहनना पसंद था इसलिए मैं जल्दी ही सीख गई। जल्द ही मेरी घूँघट की ओट भी हट गई… मेरे सास ससुर नें मुझे साड़ी या सूट दोनों पहनने की इजाज़त दे दी इसलिए मुझे ज्यादा दिन घूँघट नहीं करना पड़ा।
मुझे याद है जब मैं शादी के बाद पहली बार अपनें पैतृक ससुराल गई तो वहाँ गाँव का माहौल होनें के कारण घूँघट करना बहुत जरूरी था। उस समय मैं वहाँ सबसे छोटी और नई बहू थी इसलिए मेरी सास नें मुझे पहले ही सारी बातें समझा दी थीं… हमेशा साड़ी पहनना होगा और घूँघट में रहना होगा, बाहर नहीं निकलना है, वगैरह वगैरह… मैं कभी गाँव नहीं गई थी इसलिए वो एक ख़ास और अलग अहसास था मेरे लिए… मुझे बड़ा अच्छा लगता ये सब।
वहाँ मेरे कुछ चचेरे देवर और ननद सब छोटे छोटे बच्चे जैसे थे उस समय, जो की भाभी भाभी करके मुझे घेरे रहते और खूब बातें करते… उनके साथ मैं भूल ही जाती की मैं ससुराल में हूँ। मेरे सबसे बड़े ससुर जी मुझे बहुत प्यार करते और प्यार से मेरा घूँघट पीछे से खींच देते , कहते तुम तो बेटी जैसी हो घूँघट मत करो। उनकी ये बात मुझे आज भी याद है और जब भी याद करती हूँ बहुत अच्छा लगता है, ससुराल में “बेटी जैसी हो ” अगर सुननें को मिल जाये तो इस से बड़ी खुशी की बात और क्या होगी।
आज इतनें सालों बाद वो सारी बातें अचानक फिर याद आ गईं…शायद आप सबको भी याद आयी होंगी पुरानी बातें। वक्त बदल गया और बदलते वक्त के साथ वो घूँघट भी कहीं खो गया जो बड़ों के प्रति आदर और सम्मान का प्रतीक हुआ करता था।
खैर, घूँघट भले न रहे पर हमारी नज़र में बड़ों का लिहाज़ और आदर जरूर रहना चाहिए। इन्हीं बातों के साथ विदा लेती हूँ….फिर मिलूँगी कुछ और बातों के साथ..सबको प्यार और आभार..
पापा
आज पिता दिवस है। मगर मैं बुत बनी बैठी हूँ , चुपचाप और निःशब्द। कितना कुछ है याद करनें और लिखने को पर शब्द कहीं खो से गए हैं। सोच रही हूं क्या सचमुच शब्दों में बांध पाऊँगी उन भावनाओं को जो पापा को याद करके महसूस करती हूँ।
बरसों पहले की बात याद आ रही है , तब जब मैं कॉलेज में गई थी और मेडिकल परीक्षा की तैयारी कर रही थी। मुझे डॉक्टर बनना था, पापा भी यही चाहते थे। वो अक्सर मेरी माँ को यह कहकर चिढ़ाया करते थे कि मैं तो बुढ़ापे में अपनी बेटी के साथ रहूँगा। माँ से कहते ” तुम रहना अपनें बेटों के साथ मगर मैं तो बेटी के साथ ही रहूँगा”। मुझसे कहते बेटा तुम डॉक्टर बन जाओगी तो मैं तुम्हारी मदद करूँगा ..कंपाउंडर बन जाऊँगा…हँसकर मुझसे पूछते रखोगी न मुझे अपने साथ? मगर माँ की पुरानी सोच थी, बेटी के घर रहनें की बात सुन वो चिढ़ जाती और फिर हम दोनों माँ को चिढ़ता देख खूब हँसते।
तब मुझे इन सब बातों की बिल्कुल समझ नहीं थी , ये भी न जानती की माँ क्यूँ गुस्सा हो जाती है। ख़ैर, सभी ख़्वाब पूरे नहीं होते , मेरा मेडिकल में एडमिशन लेना इक ख़्वाब बन कर रह गया। शादी हो गई और मैं पापा से अलग यहाँ आ गई और अपनी गृहस्थी में व्यस्त होती ही चली गई। पापा की मेरे साथ रहनें वाली बात बीच बीच मे याद आती तो उन्हें अपने पास आने को कहती , पर वो हँसकर “आऊँगा ” कहकर टाल देते। ऐसा नही है कि पापा कभी नही आये , आये जरूर लेकिन बस दो या तीन बार और वो भी 4-5 दिन से ज्यादा नही रुके। फिर कुछ साल इतनी इतनी तेजी से बीते की मुझे कुछ पता ही नहीं चला।
अब बच्चे थोड़े बड़े हो गए थे, और मेरे पास कुछ वक्त था पर तब पापा बीमार रहनें लगे। उनकी हालत देख मेरा बहुत मन होता कि वो कुछ दिन मेरे पास आकर रहते और मैं उनके लिए कुछ कर पाती। मैं अपनी गृहस्थी छोड़ 4-5 दिन से ज्यादा उनके पास रह नही पा रही थी। पर उस समय भी हर बार पापा अपनी खराब तबियत की बात कहकर टाल देते।
उनके जीवन के अंतिम छह महीनों में जब जब उनकी तबियत बिगड़ी मैं भाग भाग कर पटना जाती और उन्हें देख कर आती। कुछ महीनों बाद उनकी तबियत और खराब रहनें लगी। मैं बहुत डरी और घबड़ाई हुई थी , मैंने एक दिन फ़ोन पर एक तरह से ज़िद पकड़ ली उन्हें बुलाने की। तब उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा ” तुम्हारी बहुत सारी जिम्मेवारियाँ हैं बेटा, और में बहुत अस्वस्थ हूँ …तुम मुझे नहीं संभाल पाओगी”। मैं दुख और और गुस्से से रो पड़ी। मैंने कहा – क्यों नहीं संभाल पाऊँगी, आप आइए तो …मैं सब संभाल लूँगी।
पापा को भी शायद अपनें अंतिम दिनों का आभास हो चला था और वो मेरे पास आने को राजी भी हो गए थे पर वक्त नें दगा दे दिया। वो मेरे पास आने के पहले ही किसी और दुनिया मे जा बसे। मेरी किस्मत में नहीं था ज्यादा दिन उनकी सेवा करना। सचमुच कभी कभी वक्त और हालात की आगे हम कितनें मज़बूर हो जाते हैं।
चाहती तो थी आज पिता दिवस पर कोई अच्छी सी कविता लिखना पर आज इसके सिवा और कुछ लिख नहीं पाई, मन उदास है और शब्द बिखर जा रहे हैं…चलती हूँ, फिर मिलूँगी कुछ और बातों के साथ…
आप सबको पिता दिवस की ढेरों बधाई और शुभकामनाएं… सबको प्यार और आभार…
मिठास
हर बार की तरह इस बार भी ईद के दिन सुबह सुबह फ़ोन की घंटी बजी और शक़ील मामा का फ़ोन आ गया, उन्होंने ईद की ढेर सारी मुबारकबाद दी पर साथ ही साथ इस बार हमें ईद पर घर न बुला पानें के लिए अफ़सोस जता रहे थे।
आप सब सोच रहे होंगे कि कौन हैं ये शक़ील मामा और ये मेरे मामा कैसे हो गए ? दअरसल शकील मामा मेरी माँ (सासु माँ) के धर्म भाई हैं। ये रिश्ता कब और कैसे बना ये तो नहीं पता पर शुरू शुरू में काफी साल पहले मेरी सास ससुर और शक़ील मामा का परिवार एक ही कॉलोनी में रहा करता था। बस 2-3 क्वार्टर छोड़ कर ही उनका घर था। दोनों घरों में जानपहचान धीरे धीरे बढ़ी और शकील मामा नें मेरी सास को अपनी बड़ी बहन मान लिया और मेरी सास हर साल उन्हें राखी बाँधने लगीं।
कुछ साल बाद शक़ील मामा क़तर चले गए , वही उनकी नौकरी हो गई। पर ये राखी बाँधने का सिलसिला नहीं थमा। मेरी सास राखी के 15-20 दिन पहले ही सबसे पहले उन्हें राखी कुरियर करतीं। अगर किसी साल राखी समय से नहीं पहुँचती तो शकील मामा का तुरंत फ़ोन आ जाता कि दीदी आपकी राखी नहीं मिली। उनका पूरा परिवार यहीं था तो जब भी वापस इंडिया आते सबसे पहले हमलोग से मिलने जरूर आते।
मेरी शादी में बहुत खुश थे मामा। नाज़ मामी (उनकी पत्नी) मेरी बलाएँ लेती नहीं थकती थी और उनका मेरी सास को ख़ास अंदाज़ में बोलना “माशाअल्ला कितनी खूबसूरत दुल्हन है दीदी आपकी ” मुझे अब भी याद है। उनके बातें करने का लहज़ा हमलोग से थोड़ा अलग सा है …कुछ कुछ उर्दू के लफ्ज़ जो वो बोलतीं थी , वो मुझे बहुत अच्छा लगता। बाद में जब मेरी बेटी हुई तो मामा हर साल क़तर से मेरी बेटी के लिए खूब घेरे वाली फ्रॉक ले कर आते । 3-4 साल में मेरी बेटी भी उन्हें अच्छी तरह पहचान गई थी और अपनी तोतली आवाज़ में उन्हें “फ्रॉक वाले दादाजी” कहती और शक़ील मामा-मामी और हम सब खूब हँसते।
जब नाज़ मामी अपनें इकलौते बेटे की शादी तय कर रही थी तो मेरी सास से अक्सर कहा करती थी की “मुझे सलोनी (मेरे ससुराल में मेरा नाम सलोनी है) जैसी दुल्हन चाहिए दीदी” और मैं सुनकर झेंप जाया करती। आज इतनें साल बाद भी इस रिश्ते की मिठास फीकी नहीं पड़ी। अब मेरी सास अल्ज़ाइमर के कारण काफी कुछ भूल चुकी हैं पर मामा को पहचानती जरूर हैं। शक़ील मामा अब भी मेरी सास को उतना ही प्यार और इज़्ज़त देते हैं ।
हर साल होली में पूआ खाने जरूर आते हैं और डायबटीज होने के बावजूद पूआ खाते हैं। ये बात और है कि अब पूआ मेरी सास नहीं मैं बनाती हूँ। हम सबका उनके घर ईद में में हर साल ज़रूर जाना होता है, नाज़ मामी लाख दुआएँ देती हैं और बड़े प्यार से मीठी सेवई और बिरयानी खिलाती हैं। मुझे लगता है कि दिलों में अगर प्यार और अपनापन की मिठास हो तो पूआ हो या सेवई कोई फर्क नहीं पड़ता… इस उम्मीद के साथ कि हम सबके दिलों में भी प्यार की मिठास घुली रहे विदा लेती हूँ….. आप सबको ईद की ढेर सारी शुभकामनाएं….
रीना सिन्हा
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१- उल्लंघन
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