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कोविड-१९ का क़हर (The havoc of covid-19)
कोविड-१९ का कहर (The havoc of covid-19) जारी है,
भारत देश पर विपदा भारी है।
स्वच्छता का रखकर ध्यान,
ख़त्म करनी महामारी है।
ना निकलो घरों से अपने,
सरकार की अपील जारी है।
बहुत से देशों में कहर बरपाया,
अब भारत की बारी है।
सरकार करे अपील घरों में रहो
क्योंकिं कोरोना सब पर भारी है।
सम्पर्क में आकर फैलने वाली
ये घातक बीमारी है।
करो हिफ़ाज़तअपनों की,
खुद अपना भी ध्यान रखो।
इंसान हो इंसानियत की,
यही बड़ी जिम्मेदारी है।
सफाई सैनिक डॉक्टर, नर्स पुलिस,
सब ये देश बचाने निकले हैं।
इन सब कोरोना दूतों को,
दिल से सैल्यूट हमारी है।
बचाना है हर देशवासी को
तभी बचेगी तिरंगे की शान हमारी है।
मैं इंसान हूँ
मैं हिन्दू नहीं ना सीख हूँ,
ना ईसाई ना मुसलमान हूँ।
जन्मा हूँ इसी देश में,
इतना काफ़ी है साहब,
मैं इस देश का इंसान हूँ।
मैंने पढ़ा नहीं गीता को,
ना बाईबिल ना गुरु ग्रंथ साहिब को।
ना पढ़ी मैंने कुरान,
मैं पढ़ता संविधान हूँ।
इतना काफ़ी है साहब,
मैं इस देश का इंसान हूं॥
मैंने जाना इंसानियत को,
मेरा मज़हब कहता है मेैं इंसान हूँ।
मैं बंटता नहीं हूँ धर्मों में,
धर्मो में बंटने वाले क्यों,
कहते हैं मैं महान हूँ?
इतना काफ़ी है साहब,
मैं इस देश का इंसान हूं॥
मेरे लिए मंदिर हो या गिर्जा घर,
या गुरुद्वारे या मस्जिद,
सब को सर झुकाता।
गली में घूमता गुमनाम हूँ।
इतना काफ़ी है साहब,
मैं इस देश का इंसान हूँ।
मैं हिन्दू की शादी में जाता,
सिक्ख के घर में भंगड़ा पाता।
ईसाइयों की ख़ुशी और गम,
दोनों में शरीक होता।
मुस्लिम के निकाह में मेहमान हूँ।
इतना काफ़ी है साहब,
मैं इस देश का इंसान हूँ॥
मेरा धर्म वतन है मेरा,
मैं भारत की पहचान हूँ,
इतना काफ़ी है साहब,
मैं इस देश का इंसान हूँ॥
लाकडाउन में कमाल हो गया
सोचा कभी ना था वह काम हो गया,
प्रदूषणमुक्त हो साफ-सुथरी हुई नहरें नदियाँ।
लॉकडाउन में प्रदूषण से,
आजाद मेरा देश महान हो गया।
पक्षियों की चहचहाट सुनी है मैंने,
जानवर भी पानी नहर का पीकर,
हैरान हो गया।
हर साल बनाया जाता था करोड़ों का बजट,
नहरों नदियों को प्रदूषणमुक्त कर साफ़ करने का,
पर होता कुछ नहीं था,
आज बिना मेहनत किए ही ये काम हो गया।
हवाओं का भी ज़हर ख़त्म हुआ,
प्रदूषण का कहर नाकाम हो गया,
हो गया नदियों का पानी साफ,
नदियों में से ज़हर का,
ख़त्म नामो-निशान हो गया।
पहाड़ भी दुरियाँ हुई नजदीकियाँ,
आसमान भी आसमानी की पहचान हो गया।
इंसान तेरे क़ैद होने पर,
बहुत खूबसूरत ये जहान हो गया।
पशु-पक्षियों के ख़ुशी का ठिकाना नहीं,
पर बन्द देश मैं इन्सान परेशान हो गया।
अब कुछ दिन मैं फिर से,
श्रृद्धा की आंधी आएगी,
मूर्ख जनता अपने घरों का,
कूड़ा ले नदियों में बहाएगी।
गाड़ियों का ख़ूब शोर आएगा,
फिर से देश में प्रदूषण बढ़ जाएगा।
फैक्ट्रियों से पानी आने लगेगा नदियों में
फिर से देश मेरा बीमार हो जाएगा।
इस बात को सोच कर में परेशान हो गया,
सोचा कभी ना था वह काम हो गया।
भूख का दर्द
मेरे देश में आज दिन ऐसा आया है।
कोरोना और भूख का ता्डव छाया है।
कुछ लोग कोरोना से मर रहे हैं
तो कुछ गरीबों पर भूूख का दर्दनाक साया है।
बहुत से लोग घर में छुपे हैं
तो कुछ के नसीब में पैदल
चलना आया है।
किसी ने उठाया जहाज़ का लुत्फ,
किसी ने आपनी गृहस्थी
को सिर पर उठाया है।
हमने की अपने खाने की फ़िक्र
तो किसी इंसान ने
इंसानियत का कर्ज़ निभाया है।
गरीब मज़दूर नहीं गया कभी विदेश
पर क्यों गरीब इसकी
चपेट में आया है।
इतने बुरे हालातो से गुजर रहे थे सब
पर क्यों मीडिया ने इसे
मज़हब बताया है।
जिनको कभी सम्मान नहीं
दिया ज़माने ने
वो किन्नरों ने सब भूखो को
खाना खिलाया है।
मिलकर रहनाहो गया था मुश्किल,
हुआ दूरी से जान बचाना,
आसान है।
हम सब ने काटे दिन घर बैठ कर
तो कुछ ने अपने सर कफ़न बाध हमें बचाया है।
परिवार में वैसे ही दूरियाँ थीं बहुत,
कोरोना से मरे हुएमाँ बाप को,
अब बेटे ने हाथ भी ना लगाया है।
ये दिन गुजर रहे थे ऐसे
जैसे,
मौत का हर पल गहरा साया है।
ऐसा मौत का ख़ौफ़ नहीं
देखा किसी ने
जहाँ कोरोना ने घर-घर
कोहराम मचाया है।
मुसीबत में इंसान है
सड़क गलियाँ वीरान है
खुला आँसमान है
कोई भूखा ना रह जाए यहाँ
आज कोई मज़हब नहीं
मुसीबत में इंसान है
निकलो ना घर से कोई
आज वरना लुटता इंसान है
कोरोना के कहर से लूटता हर देश
पर कोरोना पर कॉमेडी करता भारत का इंसान है
इस मुसीबत की घड़ी में है हर कोई
पर भूखा मरता पैदल चलता गरीब इंसान है
आज के दौर में घुटन बनी इंसान की परेशानी
पर आज पंछी जानवर घूमता,
ना मिलता खाना उसको मौत खींचती जानवर परेशान है
आज खुली हवाओं में भी ज़हर घुला है।
बाहर निकल कर एक दूजे से क्यों
मिलता इंसान है
आज निकले है सर से
कफ़न बाधे,
कुछ लोग तुझे बचाने।
क्यों तू घर ना बैठता क्या तू नालायक इंसान है।
अगर ये कोई राजनीतिक आखाड़ा होता तो
सभी आ जाते बड़ी-बड़ी बाते करने
पर आज क्यों छोड़ दिया मरता इंसान है।
आज दुखद समय में साथ दिया अभिनेताओं ने
कहाँ गए वह नेता जो बनता,
इस देश का महान इंसान है
अपनी कृपा करो दाता करुणा बरसा दो
माफ़ करदो ये नादान इंसान है
ये दौर मेरे देश में कैसा आया है
ये दौर मेरे देश में कैसा आया हैं,
चारों तरफ़ मौत का साया हैं।
सरकारें सभी नाक़ाम हुई,
ऑक्सीजन तक भी ना मिल पाया हैं।
करते थे अन्तिम संस्कार मिलकर सभी,
आज लाशों को पानी में बहाया हैं।
कोई परेशान हैं इलाज़ से,
किसी पर विपदा भारी हैं।
कोई खाएँ पेट भर खाना,
किसी की भूख़ से मरने की तैयारी हैं।
चारों तरफ़ हा-हा कार मचा हैं,
कोई बिन इलाज़ के मरा,
कोई पैदल तो, कोई रेल से कटा हैं।
कोरोना काल से देश मेरा घबरा हैं।
कूछ इंसानों ने निभाया अपने फ़र्ज को,
भूखें प्यासे को खाना खिला,
निभाया इंसानियत के कर्ज़ को।
अस्पताल में जाना नहीं हुआ आसान,
किसी को बे मौत मारा,
जिन्दा पैक किया कफ़न में इंसान।
अस्पताल ने भी गन्दा नाच नचाया हैं।
वो घरों क्यूँ निकले जिनके इंतज़ाम पूरा हैं,
जिनका रोज़ कामना, रोज़ खाना,
बिन घर से निकले जीवन उनका अधूरा हैं।
बेबस लाचार इंसान हैं यहाँ,
स्वास्थ्य एजुकेशन बेकार यहाँ।
पहले भी छुआछूत थी मग़र,
अब दूर भगता इंसान से इंसान यहाँ।
श्मसानों जलाने को जगह नहीं,
ये देख मेरा मनभर आया हैं॥।
ये दौर मेरे देश में कैसा आया हैं,
चारों तरफ़ मौतों का साया हैं।
मनीषा जातिवाद का शिकार हुई
मेरी बेटी तू मेरी आँखों का तारा थी,
मेरी बेटी तू जीने का सहारा थी।
क्यों फिर तेरी आबरू को लूटा गया,
बाजरे के खेत मैं घसीटा गया।
तेरी गर्दन की हड्डी को तोड़ा गया,
तेरी जिह्वा काटने के लिए मरोड़ा गया।
तेरे बलात्कार को कुछ लोग झूठ बता रहें हैं
क्यों फिर रातों रात जला अपना गुनाह छिपा रहें हैं
माँ वह दरिंदे चार थे मेरा बस ना चल पाया,
पहले रौंदा उन्होंने मेरी इज़्ज़त को,
फिर दरिन्दों ने मेरा गला दबाया।
तोड़ डाली मेरी रीढ़ की हड्डी,
मेरे अंग-अंग को जख्मी बनाया,
आज उन्हें कुछ लोग बेगुनाह बता रहें है।
क्यों फिर रातों रात जला अपना गुनाह छिपा रहें हैं।
फिर से मेरे लिएँ मोमबत्ती जलाई गई,
मेरे शरीर को रातो रात जला,
अपनी नाकामी छुपाई गई।
कहतें है जातिवाद कुछ नहीँ,
क्यों फिर मेरे बाबा के छाती पर लात मारी गई।
आज जातिवाद नहीं है ये हमें समझा रहें हैं,
क्यों फिर सारे सबूतों को मिटाकर
अपना गुनाह छिपा रहें हैं।
मेरे देशवासियों मैं चली दुनिया छोड़,
कुछ मन की कहना चाहती हूँ।
ना लुटे किसी की बहन बेटी की आबरू,
संभाल कर रखना अपनी बेटियोँ को,
बस इतना ही समझाना चाहती हूँ।
जली जिसकी बेटी फिर उसीका घर जला रहें हैं,
क्यों फिर सारे सबूतों को मिटाकर,
अपना गुनाह छिपा रहें हैं।
हों जाओ सब एक ना जाती देखों ना धर्म,
मिलकर लड़ो दरिन्दों से जंग,
निभाओ इन्सानियत का कर्म।
मुझे लड़ना है माँ उनसें जो इंसाफ नहीं होंने देंगे,
मुझे और मेरे घरवालों कों ज़ख़्म दिएँ जिसनें,
बार बार कुरेद जख्मों कों पर घाव ठीक नहीं होंने देंगे।
कुछ न्यूज चैनल भी बेटी को,
इंसाफ दिलानें मैं अपनी भूमिका निभा रहें है।
कुछ चाटुकार पत्रकार अपना राग अलाप रहें हैं,
देकर साथ दरिंदों का सभी अपना गुनाह छिपा रहें हैं।
मैं शिक्षा हूँ
मैं शिक्षा हूँ मुँझे अपना कर दों देखों,
जीवन मैं सम्मान सें सर ऊँचा करदूँगी,
मुँझे आजमा कर दों देँखो।
बाँटेगा हर तिनका-तिनका पर मैं
ना बट पाऊँगी,
जहाँ-जहाँ चलेंगा तू तेरा साँथ निभाऊंगी।
मैं जीवन सें तेरे अन्धकार मिटाती हूँ,
तेरें जीवन को सवार तुँझे विद्वान बनाती हूँ।
मुँझे पाकर ही लोंगो को विश्व मैं पहचान मिली,
इज्जत मिली शोहरत मिली एक दलित की शान बनी।
एक इन्सान नें हाँथ थामी क़लम अपनें,
साकार किएँ हर एक सपनें।
दिलाई आजादी बहन बेटी हर व्यक्ति कों,
ना लड़ा वों लाठी तलवार से,
उसने नमन कियाँ क़लम की सक्ति कों।
शिक्षा कें बारें मैं किसी नें ज्ञानी सुखी,
ज्ञानी कों बलवान कहाँ।
किसी नें शिक्षा कों शेरनी दूध कहाँ,
और शेर की दहाड़ कहाँ।
सृष्टिकर्ता के हाँथ मैं हर पल रहीँ मेरी शान बनी,
इस संसार मैं मेरी पहचान बनी।
मुँझे बनायाँ था एक पंछी के पंख से,
उनकी कृपा से इस संसार मैं मेरी उड़ान बनी।
मुँझे पाकर ही कोई आई पी एस जज बकील बना,
कोई डाँ कोई सिपाई कोई न्यायधीश कानून बना।
कोई प्रधानमंत्री कोई सांसद कोई राष्टीयपति था चुना।
क्या लिखा मेरे प्रति विद्वानों ने पढ़ कर तो देखो,
जीवन मैं सम्मान सें सर ऊँचा करदूँगी,
मुँझे अजमा कर तो देखो॥
भूख से तड़पते देखा है
मैंने भूख से हर एक दिन,
बच्चों को लड़ते देखा है।
खाने की आरजू में,
उनको तड़पते देखा है।
चाहते थे पेट भर खाना,
पर पेट को पानी से भरते देखा है॥
हर दिन क़तरा-क़तरा मरे हैं,
वो जीने की चाहे में।
मैने भूख से उन्हें,
कई बार मरते देखा है।
मैने भूख से हर दिन,
बच्चो को लड़ते देखा है।
तन पर कपड़े नहीं थे उनके,
पैरो में भी जूता चप्पल न दिखे
मैंने उनको ठंड से भी, सिकुड़ते देखा है।
मैने भूख से हर दिन,
बच्चो को लड़ते देखा है॥
एक बच्चे की आवाज़ आई,
खाना है क्या मेरी माई?
माँ के अाँसुओं को सैलाब की,
तरहा से बहते देखा है।
मैने भूख हर दिन,
बच्चो को लड़ते देखा है॥
कई लोगों के परिवार को,
थोड़े में चलते देखा है।
अाधी-आधी रोटी में पूरे,
परिवार को पलते देखा है,
मैंने भूख से हर दिन,
बच्चो को लड़ते देखा है॥
सर छुपाने के लिए,
एकमात्र छत थी उनकी।
पर खाने के खातिर उनकी,
छत को बिकते देखा है।
मैने भूख से हर दिन,
बच्चो को लड़ते देखा है।
क्या कसूर है इन बच्चो का,
जो ये दिन देखने पड़े।
अभावों का जीवन जीते,
नन्हें मासूमों को देखा है।
मैने भूख से हर दिन,
बच्चो को लड़ते देखा है।
उनकी भूख ने मेरा तन मन,
बुरी तरह झिंझोड दिया।
उठा क़लम उनकी दशा पर,
लिखने का प्रयास किया।
आज मैने अपने आपको,
लिखते हुए रोते देखा है॥
गाय चुनाव में ही माता क्यों?
मैं बैठी-बैठी बिलख रही,
भूखी प्यासी तड़प रही।
बेबस और लाचार पड़ी हूँ,
तन पर मक्खियाँ भिनक रही॥
जीते जी मेरे जख्मों को,
कागा चुन-चुन खा रहा।
मैं सोच रही कोई आए बचाने,
पर सत्ताधारी अपनी सत्ता,
मेरे नाम से भुना रहा।
मैं अपनी बेबसी पर रो-रो मर रही,
मैं बैठी-बैठी बिलख रही,
भूखी-प्यासी तड़फ रही॥
सरकार मेरे नाम से,
बड़े-बड़े दावे कर रही।
खोल दी गौशालाऐं कितनी,
और झोली अपनी भर रही।
चारा पानी भी ना मिल पा रहा,
मेरी साथी की देह पड़ी-पड़ी सड़ रही।
मैं बैठी-बैठी बिलख रही,
भूखी प्यासी तड़प रही॥
मैं आप बीती आपको सुना रही,
अपने दर्द कों अमित मेघनाद की,
कलम से लिखवा रही।
माँ का दर्जा देने से क्या मिला?
मैं गंद खा कर पेट भर रही॥
नाली मौैरी से पानी पी रही।
मैं बैठी-बैठी बिलख रही,
भूखी प्यासी तड़प रही।
मेरे नाम से आज इंसान इंसानियत को मार रहा।
मैं पल-पल रोऊँ आँसू बहाऊँ,
क्यों तू इस देश को शर्मसार कर रहा?
मैं सिर छिपाने की खातिर,
यहाँ-वहाँ भटक रही।
मेैं बैठी-बैठी बिलख रही,
भूखी-प्यासी तड़प रही।
अमित मेघनाद
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