
नया साल
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कोरोना (Corona)
बहस हो रही हैलोगों में
चर्चा का माहौल गर्म है
क्या सचमुच है कोरोना (Corona)
या उसकी रफ़्तार ये कम है
मरने वाले पूछ रहे हैं
कुछ करो सहायता हमारी
अगर तुम्हारी आंखों जो
बची हुई है कुछ शर्म है
बस इस उम्मीद ने फिर
लाया हमें है आपके दरवाजे
अभी बाक़ी है कुछ उम्मीदें
अभी बाक़ी कुछ भरम है।
तुमने कभी खोया है अपने
आंखों के तारों को
तो तुम सियासत नहीं करते
और निष्ठा से निभाते उसको
जो आपका सही धर्म है
देखो तो फिर संकट के बादल
छाने को है
और नेता जी उस बात को।
ही झूठलाने को है
फेसबुक पर
मिलते हैं ज्ञानी फ़ेसबुक पर
अपने ज्ञान को बरसते हुए।
बात बात में लड़ते हैं।
जाने कितना अकड़ते है
समय समय पर करते हैं बातें
मुलाक़ात से कतराते हैं
और अगर टोको उनको
तो हमको गरयाते है
कहते हैं तुमको
नहीं है कोई समझ
तुम क्या क्रांति लाओगे
तुम मुर्ख हो मुर्ख ही रहोगे
कहाँ ज्ञानी कहलाओगे।
अरे पगले हमारी वाल
पर आकर देखो
तुम्हारे बंद नयन ख़ुद वा
खुद खुल जाएंगे
साहित्य कार कैसे
बना जाता है यहाँ
ये बात हम ही तुमको बतलाएंगे
कभी आओ मुझसे जुड़ो
मुझको फालो करो
इसी में आपकी भलाई है
मेरी इतनी-सी बात
तुम्हारी समझ में तो आई है
मैं जहाँ कुछ लिख दूं
तो वह महाकाव्य बन जाता है
और अज्ञानी मुर्ख तुझको
ये क्यो नहीं भाता है
मनाई हमने आजादी
मनाई हमने आजादी
मगर जिसमें मंहगाई ने परेशान किया
महंगा यहाँ हर सामान किया
जो राशन दुकान से आता है
उसको हम नहीं वह हमें खाता है
चावाल और आटा दाल ने
खूब घूम मचाई है
हमने तो फिर भी महंगी
दाल खाई बनाईं है
और कोसा है
उस दुकानदार को
जहाँ से आई है
बहुत ठगने लगा है वह आजकल
ये बात माँ आज हमें बताई है
ये आज़ादी भी चलकर
महंगाई तक आई है
मन में दुःख को क्यो भरता है
मन में दुःख को क्यो भरता है
मायूसी कि बातों क्यो करता है
जीवन अमृत की गागर है जब
उसको विष का प्याला क्यो करता है
सभी से प्यार से रहना सीखो
बोल मीठे तुम कहना सीखों
सुना भी कहो कुछ बोल अपनों को
चुप भी थोड़ा रहना सीखो
दोस्त बना लो तुम भी कुछ
फिर तंन्हाई भी नहीं सताएगी
दोस्त संभलेंगे तुझको जब
दुनिया नहीं रूला पाएंगी
अपना बात भी कहना सीखों
झूठों में आवाज़ तुम कर ऊंची
सची की बात को कहना सीखों
आपस की तकरार
आपस की तकरार में
प्यार कहीं खो गया
और मिलता ही नहीं है
उसका निशान कोई
मिट चुका है
दिलों पर था कभी किसी के
अब नफरतों वाले रहा करते हैं
और नहीं मिलता है जो सबसे
प्यार करने को कहता था
मिलकर रहने को कहता था
जानता था वह कि एकता को कभी
तोड़ा नहीं जा सकता और
जिनको इकट्ठा रहना नहीं आता
वो ग़ुलाम बना लिए जाते हैं
और किया जाता है
उन पर अत्याचार
और उनके किया जाता है
विवश इतना कि जन्म नहीं ले पाएँ
उनमें आजाद होना का कोई विचार
कहाँ है वह खबरें
कहाँ है वह खबरें
जिसमें झलकती थी
सच्चाई उनसे
नहीं होती थी उनमें दिखावट
या बनावटी शब्दों का मेला
सच ही मिलता है उनमें
लेकिन
वो अब खल गया है
और अब वह खबरों से
बाहर निकल गया है
जिसको पढ़के कोई जान लेता
कि सच क्या है
और उनके लिए
ये बुरा होता
इसलिए गायब हैं तमाम खबरें
जो थी हकीकत
अब वहीं छपेंगी जिनको पढ़कर
नहीं हो कोई ख़तरा
किसी को कुछ भी
तमाशा
नहीं कोई तमाशा देखना है
किसी कि बेबसी का
तमाशा ख़ूब देखा है
मैंने ज़िन्दगी का
किसी के आंसू
जो उसकी आंखों से
बाहर आ रहें हैं
आये है क्यो
मैं पूछूं
तो मुझे बता रहे हैं
कि हम ख़ुशी नहीं निकलें है
हम निकले हैं किसी कि पीड़ा के
शब्द बनकर
हमें छुपा नहीं पाया
छुपने वाला
हम आंखों से बाहर आ रहें हैं
कोई पंक्षी
कोई पंक्षी जो गुंजन कर रहा है
उसे सुनने का मन कर रहा है
तेरी यादें तो कब की मर चुकी है
अब दिल उनका विसर्जन कर रहा है
बहुत गूंजते हैं अब शब्द उसके
वो दिल से तेरा गुंजन कर रहा है
तुम करते हो जैसे सुबह मंजन
वो वैसे ही यादों का मंजन कर रहा है
तुम जिसको कभी सुनती ही नहीं हो
तुम्हारा वह तो कीर्तन कर रहा है
हमारे दिल से तुम जाती नहीं हो
अब तुझको विदा करने का मन कर रहा है।
बिछड़ना अब नहीं तुम उससे कभी वो
तुम्हारे नाम अपना जीवन कर रहा है
कहानी
चलो सुनाते हैं तुमको इक कहानी सी
नयी नहीं है वह है थोड़ी पुरानी सी
अजब नशा है जिसको चढ़ा उतरा नहीं
चढ़ी रहीं हैं हमेशा उसे जवानी सी
गहरी बातें मन बैरागी हाल दीवाना
हालात उसकी अब लगने लगीं है ज्ञानी सी
जरा-सा तल्ख लहजा कर लिया है
गमों को और गहरा कर लिया है
हर बात चीखकर करते हुए तुमने
शहर में बहुत लोगों को बहरा कर दिया है
दिसम्बर
अब किसे याद दिसम्बर आएगा।
बस नयी जनवरी का जश्न मनाने लगे लोग
किसी का साथ छूट गया किसी दिल टूटा
ये दिसम्बर तूने सभी को ज़ख़्म दिए हैं जाते हुए
सभी खो गये जनवरी के स्वागत में
अब दिसम्बर तू किसी को क्या याद रहेगा
अभी तो ग़म नहीं निकला है दिल से हमारे
अभी ये दिसम्बर बाक़ी है कुछ ज़ख़्म और देने के लिए
समय का फेर है दिसम्बर और बीता हुआ ये वक्त
अभी देखना भूल जाएंगे सबकुछ ये जश्न को मनाते हुए
अभी देखा है हमने दिसम्बर अभी देखने को बाक़ी है बहुत कुछ
अभी जनवरी भी देखना तुझे कि तू क्या गुल को खिलाती है
सुबह का आना
सुबह का आना तय है शाम का जाना भी
और फिर से जीवन का चक्र चलेगा
कोई बिछड़ा कभी तो मिलेगा
बस यही आश लिए
मन जीता है वनवास लिए
उस वनवास का ख़त्म होना भी तय
तुम्हारे आगमन के बाद वनवास का लक्ष्य
तुम हो जिसकी आश में काट देता है
कोई दुःख भरे दिनों को
जो पहाड़ जैसे लंबे हैं
लेकिन आश के सहारे
उनको काटा जा सकता है
भले कितनी गहरी ही क्यो न हो
खाई पाटा जा सकता है
एक उम्मीद के पुल को बनाकर
उस पर जिस पर चलकर
तुम मुझ तक पहुँचोगे
जैसे किसी ने किसी के लिए
पार किया था उसको
दिन सदा एक से नहीं रहते बदलते रहते हैं
और हम भी इसी उम्मीद पर बहलते रहते हैं
पंक्षी के लिए ज़रूरी है सुबह
वो रात में कभी भी सफ़र नहीं करते
किसी पेड़ पर गुजार देते हैं रात को
सुबह की उम्मीद लिए सुबह तो आती ही है
किसी की उम्मीद के लिए उसको आना होता है
किसान
हाँ वह किसान है
जो अपनों से परेशान हैं
दिन-रात जूत रहा है
अपने खेत पर
खुद से अंजान है
और उसे सबका ध्यान है
इक कानून से
उसे कुछ निराशा ही हो गयी
भयभीत हो गया है वो
और सड़कों पर आ गया
छलता ही रहा है वो
अपनो के हाथों से
अपनों ही की वह बातों मैं आ गया
बढ़ने लगा है उस पर
अब बाक़ी लगान है
वो किसान है
कर्मों का लिखा हुआ भोगता है वो
अपनों कि बेरूखी को देखता है वो
अपने के किये से बहुत परेशान हैं
देखता है राह की कहीं से कोई आएगा
दुखों का ये लिखा हुआ कोई मिटाएगा
सचमुच वह बहुत परेशान हैं
वो किसान है
मज़बूरी
नहीं चाहा उनने कि मिल जाएँ उन्हे
मिल जाएँ खजाना कोई
नहीं खोलना चाहते हैं
वो किसी दरवाजों को आवाज़ देकर
वो चाहते हैं कि उन्हें
वो मिल जाएँ जिनको पाने
का वह पूरा हक़ रखते हैं
अपने अधिकारों को मांगना
कोई विरोध थोड़ी कहलाता है
वो बिना कोई हथियार उठाए
अपने बात को रखना चाहते हैं
और आशा करते हैं कि कोई हल निकले
परेशान नहीं करना चाहते हैं
वो तो मजबूरी है जो ऐसा करना पड़ रहा है
सुनने वाले को जरा ऊंचा सुनाई देता है
सो उन्होंने भी आवाज़ को जरा-सा ऊंचा कर लिया है
वो ग़ज़लें
तन्हा बैठकें कह लेते हैं वह ग़ज़लें
फिर महफ़िल में शेर सुनाना होता है
कहते तो है शेर मगर उसमें हमको
अपना सारा दर्द छुपाना होता है
जाने कैसे हो जातें है शेर यहाँ
शायर भी शायद दीवाना होता है
यार से हमको धोका खाना होता है
होश गंवाकर होश में आना होता है
हम तन्हा से हो जाते है चलते हुए
गैर के संग तो सारा जमाना होता है
सच मुच
कड़वा होता है सच लेकिन
उसके अंदर छल नहीं रहता है शेष
जैसे आइने में दिखता है साफ़ साफ़
झूठ उसे भी बहुत नहीं भाता है
आइना सच को दिखाता है
और देखने वालों को चुभता है
नहीं भाता है उसको
जो भी दिखता है
वो तोड़ देता है आइना
मगर वह टूटकर सच्ची शक्ल
हज़ार बना देता है
देखने वालों को
लाचार बना देता है
फिर बढी है लापरवाही
फिर दिखने लगें हैं मरीज़
और हम वहीं खड़े हुए हैं
जहाँ से कि थी शुरूआत
इसमें है हमारी मात
और भोगना पड़ेगा हमारा किया
जिसके ज़िम्मेदार है हम
और भोग रहें हैं हम
दुखों को और उसकी वेदनाएँ
बड़ी आघात है जो ज़ख़्म दे रहीं हैं
अब कोई मरहम लगाने आ जाएँ
खत्म दुनिया दारी हो
झूठों से न यारों हो
जब भी हो वह अपने हो
पूरी जिम्मेदारी हो
दिल वालों कि दुनिया में
राह न अब सरकारी हो
जिसको जी कर हम जी ले
कुछ यादें तो प्रणाली हो
तुम्हारे होठों से तो सदा
बात सिर्फ़ हमारी हो
रावण हंस रहा है
किसको जला रहे हैं
मैं अंदर हूँ तुम्हारे
और वहीं से देख रहा हूँ
तुम्हारा नाटक को
कि किस तरह तुम एक पुतले
को खड़ा करते हो
और आग लगा देते हो
लेकिन मुझे अपने अंदर
शरण लेते हो
मुझे पालते हो
जबकि मुझ से खतरनाक
हैं तुम्हारे अंदर का रावण
जो अभी तक जिंदा
और जो मर चुका है
उसे हर बार
जलाया जाता है
मगर इस बार मैंने
अपनी चेतना को तुम्हारे अंदर पाया है
क्या हुआ जो जलगयी मेरी काया है
सोचो और विचार करो
तुमने किसे जलाया है
मैंने तो तुम्हारे
अंदर नया जीवन पाया है
अभिषेक जैन
पथरिया दमोह मध्यप्रदेश
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२- योग दिवस