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बिखरे सपने (shattered dreams)
जीवन में सपने बेहद अहम् होते हैं… आज हम आपके लिए लेकर आये हैं एक कहानी बिखरे सपने (shattered dreams)… जिसकी लेखिका हैं प्रेरणा आर्यनाइक जी… प्रेरणा आर्यनाइक एक नवोदित लेखिका हैं… खास बात यह है कि प्रेरणा जी मोरिसस से हैं… और बेहद अच्छी हिंदी लिखती व बोलती हैं… पढाई के साथ-साथ लेखन में रूचि रखने वाली प्रेरणा जी को हिंदी से बेहद लगाव है… तो आइये पढ़ते हैं उनकी यह कहानी… बिखरे सपने…
बूढ़ी आंखों में एक सपना था अपनों की आस थी। मन और आत्मा दोनों जानते थे कि यह झूठी आस है, फिर भी रह-रह कर यादें उन्हीं अपनों के पास ले जातीं। यही मनोस्थिति थी तारा और महिमा की थी। उम्र की इस दहलीज़ पर आकर दोनों की बूढ़ी आँखे हर दिन अपनों की लालसा लिए बीत जाती थी। यही सोच कर कि “जिनके सहारे जीवन गुजारने की आस बाँधी थी आज उन्होंने ही हमें पराया कर दिया।”
“तारा जी, आप का फोन,” (तारा की निद्रा टूटी) वृद्धाश्रम के प्रबंधक श्रीवास्तव जी ने कहा।
‘मेरा फोन?’ तारा सोचने लगी, कौन हो सकता है।
“आज कोई ख़ास दिन है क्या, श्रीवास्तव जी?” तारा ने जिज्ञासा से पूछा।
“हाँ, आज तो आप लोगों का ही दिन है।”
“हमारा दिन?” कह तारा ने श्रीवास्तव जी से फ़ोन ले लिया, “हैलो।” “हैप्पी मदर्स डे, मम्मा,” सुरेंद्र का स्वर सुनाई दिया। तारा एक पल को रिसीवर हाथ में पकड़े स्तब्ध खड़ी रही। उस के मुंह से बोल भी नहीं फूट सके थे। बस, आंखें झरझर बह रही थीं, जिह्वा तालू से चिपक गई थी।
“क्या हुआ, मम्मा, आप ठीक तो हैं न? मैं आश्रम वालों को हर माह समय से पेमैंट भेज देता हूँ। ओके, टेक केयर,” और फ़ोन कट गया।
रिसीवर पकड़े हुए कुछ पल यों ही निशब्द बीत गए। सुरेंद्र ने न तो अपने बारे में कुछ बताया ना ही तारा के बारे में कुछ पुछा। बस दो टूक में बात ख़त्म हो गयी। भारी मन से फ़ोन को कान से लगाए हुए हतप्रत होकर वही सोफे पर बैठ गयी।
“हो गई बात?”
श्रीवास्तव जी के कहने पर ‘जी’ कह कर तारा ने फ़ोन रख दिया। भारी कदमों से चलती हुई वह अपने कमरे में आ गई।
“अरे क्या हुआ? क्या कनाडा से डिनर का निमंत्रण था?” महिमा ने चुटकी वाले अंदाज़ में कहा।
“हाँ, तो? तेरे लव और कुश ने नहीं बुलाया क्या? और बुलाएंगे भी क्यों, वे तो तेरे लिए फूलों का गुलदस्ता लाएंगे, घर से पकवान बनवा कर लाएंगे,” तारा ने भी महिमा को छेड़ने वाले अंदाज़ में कहा और दोनों ही हंसने लगीं।
तारा और महिमा दोनों आश्रम में रहती थीं और एकदूसरे की अभिन्न मित्र बन गई थीं। एक ही कमरे में दोनों रहती थीं। तारा ५ वर्षों से इस वृद्धाश्रम में रह रही थी। जब सुरेंद्र कनाडा जा रहा था तभी उस ने तारा को इस आश्रम में पहुँचा दिया था यह कह कर कि ‘मां, तुम अकेली कहाँ रहोगी। कैसे रहोगी। इस आश्रम में तुम्हारे सरीखे बहुत लोग हैं, मन भी लगा रहेगा और उचित अवसर मिलते ही मैं तुम्हें ले जाऊंगा।’ और फिर सुरेंद्र अपनी पत्नी तथा दोनों बच्चों को ले कर कनाडा चला गया। तब से तारा उस उचित अवसर की प्रतीक्षा कर रही थी जो शायद कभी नहीं आने वाला था।
कुछ यही हाल महिमा का भी था। वह दबंग क़िस्म की मुंहफट स्त्री थी। बिना सोचेसमझे किसी से कुछ भी कह देना उस की आदत में शामिल था। पर दिल की उतनी ही साफ़ और अच्छी थी। वह २ बेटों की माँ थी। दोनों माँ की आंखों के तारे थे और एक बेटी थी जिसकी शादी महिमा ने बहुत ही अच्छे घर में की थी। दोनों लड़को का विवाह महिमा ने बहुत ठोक-बजा कर अपनी पसंद की लड़कियों से कर दिया था। लेकिन जिस घड़े को वह इतना ठोकबजा कर लाई थी वही घड़ा पानी पड़ते ही रिसने लगा।
कहने को तो वह दो-दो बेटों की माँ थी लेकिन जब वृद्धावस्था आई तो उस का जीवन दयनीय हो गया। घर के जिस आंगन में दोनों बेटों की किलकारियाँ गूंजती थीं, हंसी के फौआरे छूटते थे वही विवाह के कुछ ही वर्षों बाद घर के दो टुकड़े करवा कर अलग-अलग रह रहे थे। वह अवाक् थी। किस के साथ वह रहे, दोनों ही तो उस के अपने थे, किंतु वह केवल यह सोच ही सकती थी। किसी बेटे ने यह नहीं कहा, ‘मां, तुम मेरे साथ रहोगी।’ वह जानती थी कि बेटे अपनी-अपनी पत्नियों के अधीन थे और वे वही करेंगे जो उन की पत्नियाँ कहेंगी। सबने माँ के खून पसीने के कमाई के हिस्से तो किये लेकिन माँ को भूल गए।
वह मौन रहकर सबकुछ अपने कक्ष से देखती थी किंतु कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं होती थी। क्या बेटे या बहुएँ, यह भूल जाते हैं कि कल जब उन की जीवनसंध्या हो रही होगी, जब वे भी अशक्त बूढ़े हो जाएंगे तब उन का भी यही हश्र हो सकता है। उसे यह भी नहीं पता होता था कि आज किस बेटे के घर से उस के लिए खाना आदि आएगा। कभी-कभी तो वह भूखी ही रह जाती थी। लेकिन किसी से कुछ न कहती। माँ का तो बंटवारा हुआ नहीं था, दोनों ही एकदूसरे पर माँ के लिए भोजन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी डाल देते थे। माँ की इस दुरावस्था का भान होते ही उस की बेटी नेहा उसे अपने घर ले कर चली गई। कुछ दिन तो वहाँ ठीक से बीते किंतु उस का भी भरापूरा परिवार था। घर में सासससुर भी थे जिन्हें अब उस की उपस्थिति अखर रही थी। इस बात को महिमा अब अच्छी तरह समझ रही थी, कहीं उस के कारण बेटी का जीवन अस्त-व्यस्त न हो जाए, बेटी के भले के लिए, उस ने समय रहते ही वहाँ से भी किनारा कर लिया और चुपचाप इस वृद्धाश्रम में आ गई।
महिमा अपने विचारों में मगन थी कि तारा ने उसे कंधे से झकझोर कर हिला दिया, “क्या हुआ? कहा खोयी हो! तुम खाने की घंटी नहीं सुनाई दे रही है? चल भोजनकक्ष में, सभी तो आ चुके हैं हम दोनों के सिवा। आज ठाकुरानी ने भरवां करेले बनाए हैं और खीर भी बनाई है जो तुझे बहुत पसंद है। आज तो खाने में मज़ा आ जाएगा,” तारा ने उसे गुदगुदाने वाले लहजे में कहा किंतु महिमा चुप थी।
यों तो आश्रम में सभी रहने वालों के अपने-अपने, किसी न किसी प्रकार के दुख थे किंतु इन दोनों की मित्रता, उन का आपसी सद्भावनापूर्ण व्यवहार उन दोनों को एकसूत्र में पिरोए था। दोनों को अपने घर लौटने की आशा थी। तारा कहती, “देख महिमा, जब मुझे मेरा बेटा लेने आएगा तब तू भी मेरे साथ चलेगी। मैं तुझे इस आश्रम में अकेला नहीं छोड़ने वाली समझ ले ठीक से इस बात को।”
“हाँ हाँ, क्यों नहीं, यदि मेरे बेटे मुझे लेने आएंगे, तब?” महिमा मन में सोचती कभी नहीं आएंगे, आना होता तो अब तक आ न गए होते। किंतु तारा की आशावादी दृष्टि उस में भी कहीं न कहीं आशा की एक किरण जलाए हुए थी कि शायद कभी उन के बेटों को उन की ज़रूरत महसूस हो। कभी किसी को उनकी याद आ जाए। कितनी बरसातें आईं, कितने सावन आए, कितनी होली-दीवाली आईं, पर वे न आए जिन की प्रतीक्षा थी।
हर वर्ष दीवाली पर तारा हर वह पटाखे खरीद कर लाती जो उस के बच्चों को पसंद थे। पर पटाखे बिना जले ही पड़े रह जाते थे और बाद में उन्ही पटाखों को देखकर बरबस ही उसकी आँखों में आसुओं का सैलाब आ जाता। हर वर्ष की होली बेरंग ही बीत रही थी, कहाँ गए वह अबीर-गुलाल, लाल-हरे रंग से भरी पिचकारियाँ? वह शोरगुल अठखेलिया सब गायब ठीक जैसे होली का मतलब ही बेमतलब हो गया हो। आश्रम में भी होली पर गुझिया बनतीं, अबीर-गुलाल भी आते किंतु उसे तो अपनी होली याद आती थी। १०-१५ दिन पहले से ही पापड़, चिप्स, चावल के सेव आदि बनते थे, एक सप्ताह पूर्व ही पकवान बनने शुरू हो जाते थे, मठरियाँ, काजू वाली दालमोंठ, तिलपूरी, गुझिया, दहीबड़े, भल्ले और भी न जाने क्याक्या। लोग आते थे उस के बनाए पकवानों को खा कर तारीफें करते थे और उस को लगता था कि उस की मेहनत सफल हो गई है और इतने दिनों की थकान पल भर में गायब हो जाती थी।
कहाँ गए वह सुनहरे दिन? क्या जीवनसंध्या इतनी भी बेरंग हो सकती थी, इस की तो उस ने जीवन में कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन अब तो यही सत्य उन दोनों के सामने मुंहबाये और बाहें फैलाये खड़ा था। दोनों ही अपने-अपने ग़म में डूबी रहती थीं परंतु कभी एकदूसरे का साथ नहीं छोड़ती थीं। जीवन के इस कड़वे सत्य को स्वीकारने के बाद भी उन दोनों का मोहभंग नहीं हुआ था। आशा और आशा, यादें और यादें…यही तो धरोहर थीं उन की।
“महिमा, मेरा एक काम करोगी?”
“क्या, बोल न, ऐसा कौन-सा कार्य बाक़ी रह गया है जो तुझे करना है?” महिमा ने ठिठोली की लेकिन तारा की ओर देख कर सहम गई। वह शून्य में निहार रही थी, जैसे इस दुनिया से बहुत दूर किसी अनजानी दुनिया में विचरण कर रही हो। उस ने महिमा की ठिठोली पर ध्यान नहीं दिया और बोलने लगी, ” मैं ने अपने पोते की बहू के लिए सोने के कड़े बनवाए थे। सोचा था, उस की मुंहदिखाई में दूंगी लेकिन ऐसा लगता है कि उस समय को आने में अभी बहुत देर है और अब तो मेरे पास समय भी नहीं है। सोचती हूँ, क्या कभी मेरे जीवन में वह सुअवसर आएगा।
“अच्छा तारा, एक बात बता, हम माताएँ अपने रक्त से अपने बच्चों की शिराओं को सींचती हैं, उन्हें जीवन प्रदान करती हैं, उन के सुख के लिए अपना सर्वस्व उत्सर्ग करने को तत्पर रहती हैं, कितनी राते बिना सोये बिता दी हो, सारे रिश्ते-नातों से उन का परिचय कराती हैं। क्या वही बच्चे इतने निर्मोही हो सकते हैं?” जिसे की अपनी जीवित माँ की सुध बुध भी ना हो, महिमा ने कहा।
तारा कुछ भी न कह सकी। वह केवल उस का हाथ पकड़ कर ढाढ़स देती रही। वह कर भी क्या सकती थी। दोनों की दशा भी तो बराबर ही थी, भला एक अंधा दूसरे अंधे को क्या रास्ता दिखा सकता है। उस ने महिमा को साथ लिया और अपने कमरे में आ गई। एक छोटा-सा डिब्बा खोला जिस में से नवजात शिशु के लिए छोटा-सा लाल रंग का स्वेटर निकाला, टोपी, छोटा-सा खिलौना तथा छोटी-छोटी जुराबें और एक छोटा-सा दूध का गिलास।
“देख महिमा, यह मेरे सुरेंद्र का थोड़ा-सा सामान है। मैं जब इन चीजों को छूती हूँ तो ऐसा लगता है जैसे छोटा, गदगदा-सा प्यारा गोल-मटोल सुरेंद्र मेरी गोद में खेल रहा है, बारबार आंचल हटा कर बगल में मुंह मारता है। अभी भी इन सामानों से कच्चे दूध की महक आती है। यही मेरी पूँजी है,” कह कर तारा बिलख पड़ी।
महिमा कुछ भी न कह सकी किंतु विचारों से प्रतिपल वह अपने अतीत में भटक रही थी। जीवन के इस कड़वे सत्य को स्वीकारना ही अब इन की नियति थी। किंतु मन, उस पर कभी किसी का ज़ोर चल पाया है कहीं, बार-बार बीते दिनों की ओर ही भागता है। एक संतान के लिए लोग कितने जतन करते हैं, क्याक्या नहीं करते हैं किंतु क्या दे देती हैं संतानें उन को, सिवा अवसाद, एकाकीपन के।
शाम का समय हो चुका था। सभी लोग हौल में उपस्थित थे। महिमा और तारा ने सब से बाद में प्रवेश किया। प्रबंधक श्रीवास्तव जी ने उन्हें घूर कर देखा, दोनों सहम-सी गईं क्योंकि वे विलंब से आई थीं बातों ही बातों में उन्हें समय का पता ही नहीं चला। आश्रम में श्रीवास्तव जी का सभी सम्मान करते थे। यों तो वे भी अपनी संतानों की उपेक्षा के शिकार हुए थे वह भी अपनों के ही सताए हुए थे, किंतु वे एक पुरुष थे और कर्मठ थे। उन्होंने हार नहीं मानी और इस आश्रम के प्रबंधक बना दिए गए। सभी उन का बहुत सम्मान कते थे, अनुशासनहीनता उन्हें बरदाश्त नहीं थी।
रात का भोजन शुरू हुआ। भोजनोपरांत सभी स्त्रियाँ महिमा को घेर कर खड़ी हो गईं। उन सभी में महिमा बहुत लोकप्रिय थी। वह किसी को कढ़ाई-बुनाई सिखाती तो किसी को लिखना-पढ़ना या फिर तरह-तरह के व्यंजन बनाना सिखाती थी। सभी स्त्रियाँ उसे अपना-अपना काम दिखा रही थीं। महिमा प्रसन्न हो कर सब के कामों को देख रही थी तथा तारीफें भी कर रही थी। इससे उनके हौसले भी बुलंद होते थे। तारा का मन नहीं लग रहा था, अपने ही उधेड़बुन में थी। वह अकेली ही अपने कमरे में चली आई और आते ही बत्ती बंद कर के सोने का उपक्रम करने लगी। महिमा ने आते ही बत्ती जला दी। “क्या करती है, सोने दे न,” तारा खीझ कर बोली।
“अच्छा, बड़ी जल्दी नींद आ गई, रोज़ तो रात में १२ बजे तक मेरा सिर खा जाती है बक-बक कर के और आज, नींद का बहाना मार रही है। चल उठ, अभी हम लोग दोदो हाथ रमी खेलेंगे।” किंतु तारा न उठी। चादर के भीतर उस ने अपना मुंह छिपा लिया था।
“ठीक है, मर, जो भी करना हो कर, मुझे क्या करना है। न जाने क्यों हर समय अपनी ही दुनिया में जीती है। अरे क्या, तुझे ही एक दुख है?” हम सभी दुखो के मारे हैं अपनों के हाँथो के सताए हुए हैं। हमारा दुःख भी किसी से कुछ कम है क्या?
किंतु तारा ने कोई उत्तर नहीं दिया। झक मार कर के महिमा भी सो गई। सुबह तारा जल्द ही उठ गई, देखा महिमा सो रही थी, “हुंह, अभी तक सो रही है, न जाने रात में क्या करती है।” उस ने उठ कर कमरे को ठीक किया, स्नान किया और ध्यान लगाने बैठ गई। तभी महिमा भी उठ गई। तैयार हो कर समय से दोनों कमरे से बाहर आईं। चायनाश्ते का समय हो चुका था।
“हाँ तो तारा, उन छोटे कपड़ों का क्या करना है तू ने बताया नहीं,” महिमा ने छेड़ा।
“यदि मेरी मौत हो जाए तो सुरेंद्र को सौंप देना। यह बता कर कि यह उस की पुत्र-वधू के लिए है,” तारा ने शांत स्वर में उत्तर दिया और दोनों चाय पीने लगीं।
दोपहर के भोजन का समय हो चुका था। महिमा ने आवाज़ लगाई, “चल खाना खाने, रोज़ तो तू मुझे याद दिलाती है लेकिन आज मैं तुझे बुला रही हूँ। देर होने पर पता नहीं क्या खाने को मिले, क्या न मिले, चल जल्दी,” लेकिन तारा ने नहीं में सिर हिला दिया। महिमा अकेली ही चली गई, “हुंह, न जाने क्या हो जाता है इस पगली को, न जाने किस जिजीविषा में जी रही है। अब इसे कौन समझाए की बेटे को आना होता तो अब तक आ न जाता, मुझे क्या करना है। मर जाकर” भोजनोपरांत महिमा कमरे में आ गयी। तारा उसी प्रकार बैठी थी द्वार की ओर टकटकी लगाए। अकस्मात वह पलटी और महिमा से बोली, “चल, अभी रमी खेलते हैं। आज मैं तुझे ख़ूब हराऊंगी देखना।”
महिमा मुस्कुरा उठी, “आखिर तू सामान्य हो गई, मैं तो डर ही गई थी कि कहीं तुझे पागलखाने न भेजना पड़े।” मैं तो पागाखाने को सूचित भी करने वाली थी,
“क्यों, मैं क्या तुझे पागल दिखती हूँ? अपने जैसी समझा है क्या मुझ को?” तारा ने भी तपाक से जवाब दिया। बहुत देर तक दोनों रमी खेलती रहीं हंसी मज़ाक का कार्यक्रम चलता रहा, फिर दोनों आराम करने लगीं।
“क्या तुझे अभी भी भूख नहीं है?” महिमा ने पूछा।
“न,” तारा ने संक्षिप्त उत्तर दिया।
सायंकाल के साढ़े ५ बज चुके थे। महिमा ने तारा से हौल में चलने को कहा किंतु तारा ने मना कर दिया। वह खिड़की से बाहर फाटक की ओर टकटकी लगाए बैठी रही।
“चल न, कब तक प्रतीक्षा करेगी, कोई नहीं आने वाला है,” और उस ने तारा के कंधे पर हाथ रख दिया किंतु तारा वहाँ थी ही कहाँ? वह तो इस आसार-संसार से दूर कहीं अनंत में विचरण कर रही थी। हाथ लगते ही उस का शरीर लुढ़क गया। महिमा हतप्रभ थी। सभी आश्रमवासी दौड़ते हुए कमरे में घुस आए। श्रीवास्तव जी ने तत्काल सुरेंद्र को फ़ोन मिला कर उसे यह शोक संदेश दे दिया। एक क्षण तो निस्तब्धता रही, फिर सुरेंद्र का स्वर आया, “दाहसंस्कार कर दीजिए, इतनी शीघ्र आना संभव नहीं है। जो भी व्यय हो, उसका मैं भुगतान कर दूँगा मुझे सूचित कर दीजिएगा,” और फ़ोन बंद हो गया।
श्रीवास्तव जी आश्चर्यचकित थे, कैसे-कैसे बच्चे होते हैं, क्या उन्हें मां-बाप का दर्द महसूस नहीं होता है। लेकिन वे तो प्रबंधक थे, अभी बहुत कुछ प्रबंध करना था उन्हें। रात्रि के पहले ही तारा का पार्थिव शरीर अग्नि को समर्पित हो चुका था। मनोरमा विह्वल हो रही थी। आंसू थे कि थमते ही नहीं थे। इतनी अंतरंग सखी जो चली गई थी। अब वह अकेली पड़ गई थी।
दूसरे दिन उस ने तारा का बौक्स खोला। सुरेंद्र के बचपन के कपड़ों का एक गट्ठर बनाया और श्रीवास्तव जी को दे कर बोली, “यह सुरेंद्र को कनाडा भेज दीजिएगा।” फिर वह आश्रम का काम करने वाली बाई को बुला कर बोली, “ये कड़े तुम अपनी बहू को दे देना।”
अब वह निश्चिंत हो कर अपने कमरे में आ गई। ‘तारा तुम्हारा बचा काम मैं ने कर दिया किंतु थोड़ा अलग तरीके से, देख नाराज न होना।’ और फिर स्वयं से हँस कर कहने लगी, ‘मैं ने कभी कोई ग़लत काम नहीं किया है।’
दोपहर के भोजन के लिए वह कमरे से बाहर न आई। सायंकाल और रात्रि के भोजन में भी वह अनुपस्थित थी। सब ने समझा शोक में डूबी है, इसलिए नहीं आई। किंतु प्रात: काल जब कमरे का दरवाज़ा नहीं खुला तब श्रीवास्तव जी कुछ शंकित हुए और उन के आदेशानुसार दरवाज़ा तोड़ा गया। महिमा का निर्जीव शरीर चारपाई पर पड़ा था। एक हाथ नीचे लटक रहा था, दूसरा सीने पर था और दोपहर बाद, उस आश्रम से एक और शवयात्रा निकल रही थी।
रास्ते में पत्थरो की कमी नहीं
मन में टूटे सपनो की कमी नहीं
चाहत थी अपनों के साथ जीने की
औलाद को माँ के लिये अब समय नहीं
प्रेरणा आर्यनाइक
रॉयल रोड, ला-रोजा
न्यू ग्रोव
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