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रिश्ता (relationship) टूट गया
रिश्ता (relationship) टूट गया: और बस चल पड़ी…उसने खिड़की से बाहर देखा, इस उम्मीद में कि भैया बाहर ही होंगे। गर्दन खिड़की से निकाल कर देखा तो भैया मोड़ पर पहुँच गए थे। बस उनका स्कूटर और पीठ दिखाई दी। पूर्णिमा का हाथ अपने आप उठ गया। हाथ हिलाते हुए मन में बुदबुदाई, “पापा का ख़्याल रखना भैया।” दो दिन में घटी सारी बातें फ़िल्म की तरह उसकी आँखों में तैरने लगीं।
पापा लंबे समय से बीमार थे। माँ वृद्धावस्था के बावजूद उनका पूरा ध्यान रखती थीं। खाना, नहलाना, दवा और सब कुछ जिसकी एक बीमार व्यक्ति को ज़रूरत थी। भैया-भाभी को कभी पापा की वज़ह से परेशानी नहीं होने दी। लेकिन पिछले बरस एकाएक माँ चल बसीं। कमज़ोर शरीर आख़िर कब तक बर्दाश्त करता। काश पापा… पहले चले …जाते। बेटी हो कर भी मन में ये विचार आ जाता। माँ के जाने के बाद पापा-पापा नहीं रहे, बोझ हो गए। फ़ोन पर भैया से बात करती तो रूखे-रूखे जवाब देते। पापा से बात करवाने को कहती तो हर बार वही जवाब-सो रहे हैं।
कल रक्षा बंधन था तो आ गयी, यह सोचकर कि पापा से मिलना हो जाएगा। घर में किसी ने गर्मजोशी से स्वागत नहीं किया।
भैया बोले, “अचानक कैसे? सब ठीक है पुन्नू?”। दिल बैठ-सा गया। मायके आने के लिए कारण चाहिए क्या। बुझे मन से कहा, “आप सब से मिलने का मन कर रहा था। कल रक्षाबंधन भी है, इसलिए।” पापा सो रहे थे। उठे, तो पहचाना भी नहीं। मन किया ज़ोर-ज़ोर से रोऊँ। भैया बात-बात पर खीज रहे थे- इनकी याददाश्त खराब हो गयी है। परेशान करके रखा हुआ है।”
रात भर पूर्णिमा करवटें बदलती रही। जब छोटी थी तो यही भैया उस पर जान छिड़कते थे। पापा को अपना हीरो कहते थे। कितनी जल्दी बदल जाते हैं ये रिश्ते!
सुबह राखी जैसे औपचारिक रस्म लगी। राखी के बाद पैसे हाथ में थमाते हुए भैया बोले, ” एक नई बस शुरू हुई है। नॉनस्टॉप। बुक करवा दूँ तेरा टिकट पुन्नू? लंच करके चलेगी तो डिनर के वक़्त पहुँच जाएगी अपने घर।
“जी भैया, करवा दीजिये”, न चाहते हुए भी मुहँ से अपने आप निकल गया।
बस की ज़ोर से ब्रेक लगी तो जैसे होश-सा आया। लगा कुछ टूट गया था…
…शायद एक रिश्ता!
जोड़ी सलामत रहे
इस बार रुचि बहुत उदास थी। एक तो ससुर जी का दो महीने पहले देहान्त हो गया और अब अगले हफ्ते रक्षाबंधन है। साल में एक ही त्यौहार पर तो जाती है वह मायके! बस रक्षाबंधन पर। वरना शादी के बाद कड़क सासू माँ ने निर्णय सुना दिया था कि बहू को दीवाली, दशहरा, होली आदि हर त्यौहार अपनी ससुराल में मनाना होता है न कि मायके जा कर। बस एक रक्षाबंधन पर वह पूरे हफ्ते मायके में रहती है।
पुरानी सहेलियों से मिलना, उनके साथ गप्पे मारना, माँ के उसकी पसन्द के जी भर पकवान बनाना, एक हफ्ता कैसे गुज़र जाता है पता ही नहीं चलता। पर चारा क्या है, इस साल तो मन को मनाना ही होगा। आख़िर लोक व्यवहार वगैरह का भी तो ध्यान रखना पड़ता है। न माँजी ने उस से कुछ पूछा न ही प्रवीण ने। ज़ाहिर-सी बात थी अभी एक साल कोई त्यौहार नहीं मनाया जाएगा। फिर अभी तो दो महीना ही हुआ है। रुचि मायूस हो गयी।
रक्षाबंधन भी आ पहुँचा। सुबह से रुचि चुप चुप-सी है। प्रवीण ने पूछा भी लेकिन नेहा ने ‘कुछ नहीं’ कह कर टाल दिया। चिपकू की बड़ी याद आ रही है। उस से पूरा दस साल छोटा है उसका भाई वरदान! लेकिन बचपन से ही उस से दिदु-दिदु करता चिपका रहता था सो रुचि उसे चिपकू बुलाने लगी। अब इस साल अठारह का हो गया है लेकिन रुचि से उतना ही लगाव है।
सुबह नहा धो कर डरते-डरते धीरे से रुचि ने सासू जी से पूछा, “माँजी, लड्डू गोपाल जी को एक मौली चिपकू के नाम की बाँध दूँ” ?
“चिपकू की राखी गोपाल जी को क्यों बाँधेगी? गोपाल को गोपाल की मौली बाँध, चिपकू की नहीं” , माँजी ने सख्ती से उत्तर दिया।
“जी” , कहती हुई रुचि दूसरी मंज़िल पर बने मंदिर में पूजा करने बैठ गयी। मन ही मन कड़क सासू माँ पर गुस्सा भी आ रहा था। आरती में भी मन नहीं लगा।
रुचि को बार-बार कानों में चिपकू की आवाज़ आ रही थी… दिदु… दिदु… आ भी जाओ!
रुचि को रुलाई आ गयी। आंखे पोंछती हुई ज्यूँ ही नीचे ड्राइंगरूम में पहुँची चिपकू भाग कर गले लग गया।
“क्या दिदु, इतनी देर पूजा में लगा दी? कब से बुला रहा हूँ।”
“चिपकू, तू कब आया भैया? अरे! मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा! लेकिन… हमने तो … इस बार … राखी नहीं मनानी भैया!”-रुचि की आंखों से गंगा जमुना बह रही थी।
” लेकिन… एक फ़ोन तो कर देता। मैं माँ जी से पूछ लेती।
” अरे, माँजी ने तुम्हे नहीं बताया? उन्होंने ही तो माँ को फ़ोन किया था कि इस बार रुचि नहीं आ पाएगी, चिपकू को भेज देना। , चिपकू ने हैरानी से कहा।
रुचि ने कृतज्ञता से माँजी को देखा। रुचि की नज़रों का प्रश्न अनुभवी सास ने पढ़ लिया। वह रुचि के सिर पर हाथ फिराते बोली-पता है रुचि, जब तक तेरे ससुर जीये उनकी बड़ी बहन हर राखी पर आती रही। एक बार उनके घर में भी किसी की मृत्यु हो गयी तो तेरे बाबू जी ख़ुद पहुँच गए बहन के पास राखी बंधवाने। कहते थे कौन माई का लाल मुझे रोक सकता है मुझे अपनी बहन से राखी बंधवाने से!
अब तुम ही बताओ मैं कौन होती हूँ तुम दोनों भाई बहन को मिलने से रोकने वाली। इसी लिए चिपकू को बुला किया। और फिर ये तो स्नेह का त्यौहार है। पवित्र बंधन है। चलो-चलो रुचि, रक्षाबंधन का मुहूर्त निकला जा रहा है। जल्दी से राखी बाँध दे। मिठाई तो नहीं है ऐसा कर मंदिर से गोपाल जी के प्रसाद वाली मिश्री ले आ। “
रुचि की आंखे फिर बरस पड़ी। कड़क सास का यह रूप आज ही देखा। जा कर फौरन सासू माँ के पाँव छुए।
माँजी बोली, “खुश रहो! भाई बहन की जोड़ी सलामत रहे!”
धीरजा शर्मा
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