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रत्ना (Ratna)
ये कहानी है रत्ना (Ratna) की, रत्ना जो बचपन से ही एक सहज व सरल व्यक्तित्व की लड़की थी, जो जानती थी जीवन के उन मूल्यों को जिसे संजोना बचपन से ही उसे सिखाया गया था। परिवार के नाम पर थी लंबी चौङी फेहरिस्त… अर्थात एक संयुक्त परिवार जो हमारे भारत की शान हुआ करता था, एक ही घर में अलग-अलग विचारधारा के लोगों का रहना…
मानो आज के दौर में अलग-अलग पार्टी के लोग जो गठबंधन से चलते ज़रूर हैं किंतु विचारों का तालमेल न के बराबर होना, लेकिन एक बात थी वह ये कि विचारों के मतभेद के बावजूद अखंडता में एकता थी। खैर बात तो रत्ना (Ratna) की हो रही थी। आज रत्ना २५ वर्ष की हो गई है। सभी बहुत खुश हैं और खुश हों क्यूँ नहीं सबकी लाडो जो है रत्ना।
आज उसने सबका आशीर्वाद लिया सास, ससुर ननद देवर जेठ-जेठानी, क्या हुआ चौक क्यूँ गए? हाँ आप सही सोच रहे हैं रत्ना (Ratna) अपने मायके में नहीं बल्कि अपने ससुराल में है, जहाँ उसे बेटी की तरह रखा गया है। उसे कोई दुःख नहीं सिवाए इसके कि उसका पति रमेश अब इस दुनिया में नहीं है। मात्र १८ वर्ष की उम्र में रत्ना की शादी बहुत ही धूम-धाम से कानपुर के माड़वारी परिवार में हुई थी। सारा समाज इस रिश्ते को देख कर हार्दिक प्रसन्न था मानों दो परिवार आए ही हैं इस पृथ्वी पर इस विवाह के लिए। ख़ुशी खुशी शादी भी हुई और भारी मन से रत्ना (Ratna) की विदाई भी…
जिस तरह रत्ना ने अपने मायके को माहक रखा था, ससुराल आते ही उसने ससुराल को भी अपने स्नेह व समर्पण से खिला दिया था। इतनी चहकती रहती कि शांता काकी हमेशा कहा करती कि रत्ना इतना मत हँस अपनी ही नज़र लग जाएगी ये सुन कर रत्ना (Ratna) कहती कि नज़र नहीं लगेगी काकी, माँ अम्बे रक्षा करेंगी। बहरहाल समय बीतता गया अपना प्रेम व तपस्या से रत्ना ने अपना नया घर इस प्रकार संभाल लिया था मानो वह उसी के लिए बनी हो। ससुराल वाले भी रत्ना (Ratna) को इतना प्यार करते थे कि उसे कभी ये एहसास नहीं हुआ कि वह मायके में है या ससुराल में?
रमेश के साथ रत्ना बहुत खुश थी, हो भी क्यूँ न जान छिड़कता था रमेश रत्ना पर। सब कुछ अच्छा चल रहा था, वह दिन भी आखिरकार आ ही गया जब रत्ना को वह खुशखबरी मिली जिसके लिए हर औरत व्याकुल रहती है, रत्ना (Ratna) माँ बनने वाली थी, घर में सभी बहुत खुश थे ख़ास कर रमेश पहली बार बाप जो बनने वाला था। रमेश के बाबूजी का बहुत बड़ा ज़ेवरों का कारोबार था, घर में किसी भी चीज़ की कमी नहीं थी बस एक नन्हें बच्चे की किलकारी के सिवा। अब तो वह भी कमी पूरी होने जा रही थी।
समय बीतता गया वह दिन भी आ गया जब रत्ना (Ratna) ने एक चाँदनी को जन्म देकर घर को रोशन किया, जैसे ही सभी को पता चला कि लड़की हुई है सभी ख़ुशी से पागल हो गए क्योंकि पिछले चार पुश्तों से किसी के भी घर में बेटी पैदा नहीं हुई थी। ख़ुशी खुशी रत्ना (Ratna) व बच्ची का भव्य स्वागत किया गया।
इसी बीच रमेश को किसी काम से दूसरे शहर जाना पड़ा था उसे रास्ते में ही बेटी के होने की सूचना मिल चुकी थी, वह जल्दी-जल्दी घर आ जाना चाहता था इसी अफ़रातफ़्री में गाड़ी का संतुलन बिगड़ गया और वह अनहोनी हो गई जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। रमेश की दुर्घटना में मौत हो गई। पूरा परिवार शोक में डूब गया रत्ना (Ratna) की तो दुनिया ही उजड़ गई, चहकती रहने वाली रत्ना तो जैसे बोलना भी भूल गई थी, हँसना तो दूर की बात थी। आज शांता काकी की बात सच हो गई थी, उसकी खुशियों को नज़र ही लग गई थी और अम्बे माँ ने भी इस नज़र से बचाया नहीं।
समय तो समय है अपनी गति से चलता ही रहेगा…
आज इस बात को बीते पाँच वर्ष हो चुके हैं, फ़िर भी दिल में कसक-सी उठती रहती है। घर वाले भी इस बात को याद नहीं दिलाना चाहते ताकि उसके दिल को कभी ठेस न लगे। रत्ना (Ratna) के ससुर जी रमाकान्त बहुत ही सुलझे हुए थे और समाज में उनकी काफ़ी प्रतिष्ठा भी थी। हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी माड़वारी समाज के द्वारा निबंध प्रतियोगिता आयोजित की गई जिसमें सभी परिवार के बच्चों ने बढ़ चढ़ कर प्रतिभाग लिया।
जो भी निबंध प्रतियोगिता में अव्वल आता उसे ग्यारह हज़ार नकद का पुरस्कार प्रदान किया जाता। रमाकान्त जी को ही निबंध पढ़ कर परिणाम घोषित करना था। प्रतियोगिता का दिन आया सभी निबंध रमाकान्त जी के पास लाया गया, वह एक-एक करके सभी बच्चों के निबंध पढ़ रहे थे तभी एक निबंध ने रमाकान्त जी को झकझोड़ कर रख दिया, उस निबंध में एक ऐसे विषय पर चर्चा की गई जिसके विषय में कभी कोई सोचता ही नहीं। वह विषय था “विधवा पुनर्विवाह” रमाकान्त जी ने इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया था, न सोचा ही था। निबंध पढ़कर उनकी नींद और चैन दोनों हराम हो चुकी थी वह यह सोचकर आत्मग्लानी में जीने लगे थे कि ये बात एक ग्यारवीं कक्षा के बच्चे को समझ में आई और उन्होंने क्यूँ नहीं सोचा इस बारे में…?
बहरहाल उस बच्चे को उन्होनें प्रथम पुरस्कार दिया और उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उन्हें ये पता चला कि जिस बच्चे को वह प्रथम पुरस्कार देने वाले थे उसका नाम रमेश था… मानो उनका ख़ुद का बेटा उनके सामने आ गया हो और कह रहा हो कि बाबूजी जिस बहू को बेटी बना कर आपने रखा है, अब समय आ गया है, उसे बेटी बना कर विदा करने का। इस बात से काफ़ी परेशान रहने लगे थे वे, घरवालों को जब उनकी इस परेशानी का कारण पता चला तो सब ने मिलकर एक निर्णय लिया कि रत्ना का पुनर्विवाह कर दिया जाए, यह सुनकर रमाकान्त जी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। अब सबसे बड़ी समस्या तो ये थी कि रत्ना (Ratna) को कैसे समझाया जाए?
सभी परिवार वालों ने तय किया कि आज जन्मदिन के उपलक्ष्य में ही बात की जाए और रत्ना को कोई तोह्फ़ा न देकर उससे ही वचन रूप में तोह्फ़ा लिया जाए। सभी लोग बैठक में मौजूद थे, फिर रत्ना से उसके ससुर जी के कहा कि बेटा आज जन्मदिन के शुभ अवसर पर मैं तुमसे कुछ मागना चाहता हूँ दोगी? रत्ना ने आँखों में आँसू लाते हुए कहा कि क्या चाहिए बाबूजी आपको? मैं क्या दे सकती हूँ? रमाकान्त जी ने कहा कि मुझे एक वचन दो कि मैं जो कहूँगा वह करोगी। रत्ना (Ratna) का मानों दिल बैठा जा रहा था कि पता नहीं बाबूजी क्या करने को कहें?
फ़िर भारी मन से रत्ना ने वचन दे दिया, फिर क्या था सभी ख़ुशी से झूमने लगे मानों दुनिया की दौलत मिल गई हो, रत्ना के समझ में कुछ नहीं आ रहा था फ़िर रत्ना (Ratna) को उसके ससुर जी ने समझाया कि हम हमेशा तुम्हारे साथ नहीं रह पाएँगे इसलिए अपने लिए न सही गुड़िया के लिए ही तुम्हें दूसरी शादी कर लेनी चाहिए, अपने पिता समान ससुर के मुँह से ऐसी बात सुन कर अविरल आँसू उसकी आँखों से बहने लगे…
रमेश की यादों को इस क़दर उसने अपनी साड़ी में गाँठ बाँध कर रखा हुआ था कि उसे खोलना आसान नहीं था, किंतु उसके ससुराल वाले भी कहाँ मानने वाले थे उन्होंने अपनी समझदारी से धीऱे-धीरे प्रयास करके उस गाँठ को खोल ही दिया और कानपुर के ही एक प्रतिष्ठित परिवार के होनहार लड़के से रत्ना की शादी कर दी गई, फ़िर से रत्ना के सूने जीवन में बहार आ गई और सबसे अच्छी बात तो ये थी कि उसकी पाँच वर्ष की बच्ची के साथ उसकी विदाई हुई और रत्ना का ख़ुशी खुशी पुनर्विवाह हो गया।
किन्तु प्रश्न यह है कि इस देश व समाज में कितनी ऐसी रत्ना है, जिसका जीवन नित्य प्रति दिन बर्बाद हो रहा है और कितने रमाकान्त जी हैं जो अपनी बेटी अथवा बहू का पुनर्विवाह करवाते हैं या करवाना चाहते हैं? इसका उत्तर हममें से किसी के पास संतोषजनक नहीं है क्योंकि आज भी देश व समाज में रमाकान्त जी जैसे लोग नहीं के बराबर हैं।
पुनर्विवाह करवाना तो दूर की बात है विधवा होने के ताने दे-दे कर ही लोग जीने नहीं देते। लेकिन समाज व देश में रमाकान्त जी जैसे लोग भी हैं जिन्होंने इंसानियत को ज़िंदा रखा है। सलाम है रमाकान्त जी को और उनके आदर्श परिवार को…
विभा राज
नई दिल्ली
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