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जुनून (Passion)
यू ही नहि जलता
कोई आग में
ग़ुरूर की आँधी
अभी आना बाक़ी हैं
रुक बेसब्र बन जा
तेरा वजूद अभी
बनना बाक़ी हैं…॥॥
तु चलता रह
चलता रह
कभी थकना नहि
किताबों के पन्नो
से ज़्यादा अभी
क़िस्मत के पन्नो को
पलटना बाक़ी है
गुज़रती चली जाएगी
रवानगि यू हि
तुझे पार चलना
अभी बाक़ी हैं
तुझे पार चलना
अभी बाक़ी हैं॥
वो रेत का
साया भी
कुछ नहि
बिगाड़ सकता तेरा
तुझे अभी
इक पहचान
बनाना बाक़ी हैं
तुझे इक पहचान
बनाना बाक़ी हैं॥।
मन-समुन्दर
समुन्दर की इन लहरों की जैसे,
मैं भी कुछ इस क़दर घायल हूँ।
जब भी देखती हूँ इन्हें,
ख़ुद को पा लेती हूँ।
ज़िन्दगी के इन उतार चढ़ाव में,
मैं भी ऐसे मचलती हूँ।
कभी ये लहरें मुझमें,
कभी मैं इनमे,
ऐसे ही समाते हैं।
जैसे वह लहरें नहि,
ज़िन्दगी हो मेरी।
और कह रही हो,
मंज़िल में राहतों और
इन चाहतों के सफ़र में,
तूँ भी इस क़दर हैरान हैं
और मैं भी।
मुझे भी देख सभी,
मज़े लेते हैं…
और तुझे भी देख…
यूँ हि…
बस यूँ हि सब हँसते हैं। ।
हिसाब ना लगा अपना यहाँ,
ये ज़िन्दगी हैं तेरी।
ख़रीदार बहुत हैं यहाँ,
बस बिकना नहि।
वरना इस समुन्दर की तरह,
तूँ भी वीरान हो जाएगा।
बस हलचल अपनी,
यूँ हि बरक़रार रख। …
अभी और मचलना हैं,
अभी और तुझे चलना हैं। ।
तूँ बस यूँ हि,
अपना सफ़र बनाता चल…
तूँ बस यूँ हि,
अपनी राहों पर चलता चल…
तूँ बस यूँ हि मचलता चल,
तूँ बस यूँ हि चलता चल…॥।
मरण दिवस
एक वक़्त,
मुझमें ख़ामोश,
कुछ ऐसे गुज़रा…
फिर कभी ना आया
जब मैं ज़िया,
ख़ुद के सपनो को,
आज जीता हूँ अपनो को,
वो वक़्त और मेरी साँसें थम गईं…
उसके दूसरे पल,
मुझे जोकर बना गई…
तमाशा इस खेल का,
मैं कुछ ऐसे बन गई …
बस ख़ुद की ही याद में,
आज एक तस्वीर मिल गई.।
मेरी मौत की तक़दीर मिल गई…
गुरू मंत्र निराला
मेरे पथ का साथी हैं,
पाखी मेरे हूनूर का…
गुरु संग क़दम बढ़ाते चल,
गुरु द्रोण की तस्वीर बन…
मैं मुसाफ़िर, मँझधार में…
मेरे उड़ान को भरते चल…
क़िस्मत का खेल ना बन,
कर्म का भाग्य बन। ।
मैं उदय हो जाऊँ सूरज सा,
ऐसा उत्साह भरता चल…
तूँ परछाईं बनाता चले,
मै संग रास्ते चलता चलूँ। । ।
गुरु हैं सफ़लता का मंत्र,
थामे उसका हाथ चल। ।
मेरे ज़ुनून की आग को,
पाक नज़रो ने तराशा हैं…
मैं हीरा तेरे कक्ष का,
मंज़िल का साथी बन। ।
क़िस्मत की आँखे दिए,
हवाओं को सन्न करता चल…
गड़गड़ाहटों के दोर का,
मेरा हिस्सा बनता चल…
क़लम तूने सिखाई हैं,
हवाओं में रूत आइ हैं…
छेड़खानिया मेरे सपनो से,
शैतानिया बढ़ाई हैं। ।
तूँ संग मेरे जलता गया,
मैं लोहे जेसे पिघलता गया। ।
मैं हथियार, तेरी धार का…
तेरा नाम जहांन में करता गया…
तेरा नाम जहान में करता गया। । ।
गुरू इत्र महकाता हैं,
सपनो को अपने सजाता है…
पतवार लिए नोका अपनी,
गुरू शिष्य को चमकाता हैं।
गुरू शिष्य को महकाता हैं।
की गुरु शिष्य को चमकाता हैं॥।
सावन लाया मेरे चाहत की बदरिया
बड़ी मुद्दतो के बाद बारिश आई हैं,
झरना नदियाँ संग मुझे भीगा गई हैं।
इस सावन के मधुर प्यार भरे गीतों में,
हर क्षण मुझे तेरी पल-पल याद आई हैं।
चाहत की बदरिया मेरी,
मुझे इस सावन में झूमा गई हैं।
छम छम करती बारिशें,
पल पल बढ़ती चाहतें,
भांग चढ़ा मुझे भी
शिव का प्याला पिला मुझे भी,
इस कावड। युग संग,
झुलो पर गीत सुहाने अपने बरसा रही हैं॥।
हरियाली होती प्रकृति की
हरियाली होती मेरे प्यार की
तीज सुनहरी आई हैं,
छम छम करती बारिशें
चाहत की बदरिया लाई हैं॥
सावन के पावन माह में
हर कोई करता व्रत हैं
भोला जहाँ पूज्य हैं
भक्त वहाँ धन्य हैं॥
सावन में झूमे संग हम,
नदियों की प्यास बुझाईं हैं।
धोरा जहाँ सूखी हुईं,
सींचा उसे पानी-पानी हैं॥
हैं झूमते किसान यहाँ,
ढोल मृदंग बजाईं हैं।
हैं माह शिव तेरा,
अमृत का रसपान कराईं हैं॥
पवने यहाँ शोर करें,
नाचें मोर संग प्राणि हैं।
धरा यहाँ मचल उठी,
सावन की रूत आई हैं।
सावन की रूत आई हैं॥
रुठे बिछड़े दिलो को मिलाने,
सावन झूम के आया है।
विष कलश पी कैलाशपती,
चाहत की बदरिया लाई है।
चाहत की बदरिया लाईं हैं॥
शोषण
छलनी करके बदन को,
मुझसे तूँ खेल गया…
ज़रा भी ना सोचा,
मैं कौन हूँ?
तुझे भी कोई,
अधिकार नहि
जीने का’
जो मुझे नोच खाया हैं॥
कभी इज़्ज़त को मेरे,
कभी आबरू को,
अपने गन्दे मेले,
हाँथों से छूकर,
मुझे लूट खाया हैं। ।
इतना निर्दयी, क्रूर तूँ,
मेरी आत्मा को मुझसे
अलग कर गया हैं…
मेरा जीवन,
खाकर तूँ…
भूखे,
तूँ अपनी
हवस की आग
बुझा गया हैं। ।
पल पल इसमें,
मैं मरूँगा…
तूँ तो,
हर पल अपनी
भूख शान्त करेगा। ।
तूँ तो हर पल अपनी
भूख शान्त करेगा…॥।
जो तुम ये सब,
अधर्म-कुकर्म करते हो
कभी बहला-फुसलाकर
कभी ज़ोर ज़बरदस्ती से…
हर बच्चे को,
हर नारी को,
हर देवी को,
हर शरीर को,
हर प्राणी को,
छलनी छलनी
करते हो…
शर्म-हया,
सब बेच खाये हो…
तुम बेशर्म-बेहया,
पापी को,
जीने का हक़ नहि। ।
तुम्हारी सोच, तुम्हारी गन्दगी,
इसे पलने का, बाटने का,
क्षय नहि॥
जब भी तुम बलात्कारीयों को,
भरी अदालत में पुकारा जाता हैं…
आवाज़ तुम्हारी नहि,
पीड़ित की दब जाती हैं। । ।
तुम बड़ी शान से,
गर्व से,
अपना सीना तान,
खड़े रहते हो। ।
लज्जा तो पीड़ित को,
उसके परिवार को होती हैं॥।
जब जब तरह-तरह के सवाल
किए जाते हैं,
पीड़ित शर्म से चूर
हो आता हैं। । ।
तुम्हारे चेहरे पर पापी
वही हँसी हमेशा बनी होती हैं॥
ऐसा क्या जीवन?
जो पीड़ित को,
पीसता जाता हैं। ।
और तुम्हें सींचता जाता हैं। । ।
ये जो सोच तुम्हारी होती हैं,
नारी तुम छोटे कपड़े
क्यों पहनती हो?
ये जो सोच तुम्हारी होती हैं,
शाम ढलने बाद
घर से क्यों
निकलती हों?
ये सोच तुम्हारी _
नीच हैं मूर्ख,
फिर भी
फिर भी
एक १ साल की बच्ची को,
अपना शिकार बनाते हो।। ।
वो जो अभी
उदय भी नहि हुआ…
जिसने अभी अभी
उँगली थामना सिखा हैं,
वो कौनसा बाहर गई,
चलना उसे कहा आया हैं!
पापी मूर्ख बेशर्म
वो कौनसा समझदार हुईं!
वो कौनसा समझदार हुईं!
अरे तुम तो,
बच्ची हो या बच्चा
सभी पर गन्दी नज़र अपनी
डालते हो॥।
मूर्ख तुम,
उन्हें धमका कर,
बहला फुसलाकर,
उनका बार-बार हर बार,
शोषण करते हो॥
काश ऐसा कोई
साथ तुम्हारे भी करता,
तो दर्द से रूबरू
तुम भी हो आते॥।
किसी का,
ज़िन्दगी
छिनने का दर्द,
तुम्हें भी बया हो आता॥।
कुछ आवाज़ें,
जो अब भी ख़ामोश हैं…
इज़्ज़त की आबरू में,
छुप गई हैं…
कुछ जो आवाज़ें,
उठ गई थी…
उन्हें निर्म्मता से,
तुमने मार दिया हैं…
कुछ जो ये सब,
सहन करता हैं…
समाज उन्हें भी,
ठोकर देकर
गाली देता हैं॥।
क्या क़ुसूर है उसका,
वो भी यहाँ
सबकी तरह
सामान्य इन्सान हैं॥।
पर इस पापी
दुनिया ने,
उससे उसका वजूद छिना हैं॥
उससे उसका ग़ुरूर छिना हैं॥।
जब भी चल पड़ेंगे वो,
तब भी इन
नज़रो का शिकार
पल पल बन बेठैंगे॥।
ये जो सोच,
तुम्हारी गन्दी हैं…
सब गुनाह,
इन गन्दगी भरी
नज़रो का हैं…
शरीर-शरीर को,
नोच रहा हैं…
आज इंसान,
जानवर से भी
बुरा बन रहा हैं…
एक चिर हरण
द्रोपदि का हुआ,
एक आवाज़
कृष्ण ने सुनी॥
आज सुनता
कोई नहि…
उसे भी भरी सभा में
नग्न करना चाहा॥।
कहते सुना हैं
रघुकुल रीत
सदा चली आई
ऐसे चलेगी
पता ना थी!
जानवर तो फिर भी
भगवान हैं
इन्सान तूँ तो
शैतान का हथियार हैं…
तूँ तो दानवो का
संसार हैं…॥॥
तूँ तो दानवो का
संसार हैं॥
असहनीय पीड़ा
सुना हैं
मैं बेज़ुबान जानवर हूँ!
बहुत विस्मय की बात हैं ना?
जहाँ मानुष जीवन हैं
वहाँ मेरा भी अस्तित्व हैं
सुनो ना!
मैं भी भूखा हूँ
मुझे भी खाना चाहिए
मुझे भी खिलाओ ना
खिलाओगे ना?
मैंने तो जंगल में
ख़ूब ढूँढा
पर सब सूखा हैं
मानुष ने अपने लिए
वृक्षों की कटाई जो की हैं॥॥।
देखो ना
वहाँ कुछ मानुष हैं
लगता हैं भले लोग हैं
अब मेरी भूख प्यास मिट जाएँगीं
हैं ना!
देखो वह आ रहे हैं
साथ अपने
कुछ ला रहे हैं️
मालिक मुझे खिलाओ ना
बहुत भूखा हूँ
मालिक हाँ
खिलाता हूँ॥॥।
मैं सब खा गया
उनका ज़िन्दगी भर का
क़र्ज़दार बन गया…
कब तक?
आह
मानुष ये क्या किया?
मुझे इतनी पीड़ा क्यूँ
मुझसे सहन नहि हो रही…
ये मुझे मार देगी
हँस रहे हो?
मानुष ऐसा क्यों किया…
मेरी हत्या क्यों कि?
मानुष तुमने ये क्या किया!
हाहाहाहाहा…॥…
ये मेरी ख़ुशी
मेरी भूख मिटाएँगीं
तेरी मौत
आख़िर
मेरा खाना बन जाएँगीं॥॥
हाहाहाहा। । । ।
हे मानुष
मानवता से भरोसा
उठ जाएगा…
तेरा भोजन मैं नहि
तेरा भोजन
हर भूखा बेबस लाचार
जानवर हैं
आख़िर क्यों?
क्यों हमें जीने
का अधिकार नहि
क्यों मानुष
तुम हमें ऐसे
कब तक धिक्कारते रहोगे
आख़िर कब
हमें भी स्वतंत्रता मिलेंगी
आख़िर कब?
मानुष—
कभी ना
मिलेगी स्वतंत्रता
तुम्हारी बिरादरी को
हम मानुष
तुम्हें नोच खाएँगे
हम मानुष
अपनी भूख मिटाएँगे…
मानवता शर्मशार
हो जाएँगीं
हम तो फिर भी
अपना भोजन
तुमसे पकाएँगे
तुम हमारी ज़रूरत
हमारा अधिकार
बस और कुछ नहि
यहीं हम सब मानुष
तुम्हें बतलाएँगे
हरपल बतलाएँगे
आहहहह…॥॥
ईश्वर ये कैसा
न्याय तेरा
बेज़ुबान को मार रहा हैं
हे ईश्वर …
मानुष की भूल को
क्षमा करो
ये अनजान, नादान हैं
मानुष का
पथ प्रदर्श करों…
हे ईश्वर
कल्याण करो
हमारा भी पालन हार करो…
हे ईश्वर
ऐसी दर्दनाक मौत का
भागी हमें ना करों…
हम तो वफ़ादार
चंचल,
साफ़ दिल दिलदार हैं
हमारे प्राण यूँ ना
बरबाद करो…
हे मानुष
कृपा करों
कृपा करों
हमारा भी ख़्याल करों
हमारा भी लालन पालन करों
हे ईश्वर
हमारा भी नैया पार करों
पार करों
पार करों
आभार करो
आभार करों
अलविदा… (आह… प्राण त्याग दिए) …
अनमोल रक्षाबन्धन
ये धागा महज़ बहाना हैं,
वचन में बाँधने का …
एक भाई को बहन का ख़्याल,
हरपल रहता हैं।
मैं जहाँ कही रहूँ,
भाई मेरे, मेरे साथ रहते हैं।
चाहे हो दूरियाँ कई,
दिल में सिर्फ़ वही ख़ास रहते हैं।
मेरी राखी का कोई मोल नहीं,
भैया की कलाई पर ये जो सँवरती हैं।
सावन के इस पावन माह में,
भाई बहन का अनमोल प्यार बरसता हैं।
वचनों को याद दिला,
ये राखी मेरी,
हरपल दीर्घायु,
यश कीर्ति की कामना करती हैं।
ये अनूठा बन्धन,
अपने रिश्तों का,
राखी से और सँवरता हैं।
मैं जो तिलक लगा,
भाई की पूजा करती हूँ।
मैं जो चुनर ओढ,
मीठा मुँह करा,
कलाई पर राखी बाँधती हूँ॥
कर जेब ख़ाली अपनी,
नेक अदा करते हों।
इस बहन को गले लगा,
दुःख सारे दूर उसके करते हो।
ये अनूठा बन्धन अपना,
सबसे प्यारा सबसे निराला।
जग में कोई ना दूजा प्यारा॥
भाई मेरे सबसे प्यारे,
उनकी आँखो का तारा मैं।
पलकों पर उनकी सँवरती हूँ,
हरपल मेरी ख़्वाहिशों से,
ख़ुशियाँ मेरी लाते हो।
हैं बहन भाई की जोड़ी ऐसी,
डाँट से सवके बचाते हो।
झटपट होती नोक झोंक दोनों की,
चुटकी में एक दूजे को मनाते हो।
चुटकी में एक दूजे को मनाते हो।
हैं अनूठा बन्धन ऐसा,
राखी को कलाई पर सँवारते हो
राखी को कलाई पर सँवारते हो॥
अंजली सांकृत्या
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