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किसान आंदोलन (Farmer movement)
केंद्र सरकार के 26 मई यानी बुधवार को 2 साल पूरे हो रहे है औऱ किसान आंदोलन (Farmer movement) के छः महीने। मीडिया में मोदी सरकार के 7 सालों के गुणों का बखान किया जा रहा है पर मैं मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के दो साल की ही बात करूँगा क्योंकि पहले कार्यकाल में मोदी सरकार की रीति नीति पर जनता ने मोहर लगा दी है।
केंद्र सरकार औऱ किसान दोंनों के लिए 26 मई है खास पर मनाने का तरीका अलग अलग है। केंद्र सरकार अपने दो साल का जश्न मनाएगी, देश की जनता के सामने अपनी उपलब्धियों को रखेगी तो किसान पिछले छः महिनों से सरकार द्वारा सुनवाई नहीं करने का अलाप कर काला दिवस मना रहें है।
किसानों का मुद्दा हाथ आया है तो भुनाना तो सब चाहेंगे
किसान संयुक्त मोर्चा की तरफ से बुधवार को मनाए जाने वाले काले दिवस के लिए बारह राजनैतिक दलों ने भी समर्थन दिया है। उनका समर्थन तो मिलना ही था क्योंकि मोदी का विरोध करने का यह भी एक अवसर है जो हाथ से गवाना नहीं चाहते थे। विरोध करना लोकतांत्रिक अधिकार है उसका फायदा कोरोना जैसी वैश्विक महामारी में भी विभिन्न राजनैतिक दलों ने उठाया वो चाहे विपक्ष हो या सत्ता पक्ष।
किसानों का मुद्दा हाथ आया है तो भुनाना तो सब चाहेंगे अन्यथा अगर यह तीन बिल खराब है तो इसका मतलब पिछले सात दशकों में किसानों के लिए अच्छे कानून थे तो फिर किसान आत्महत्या क्यों कर रहे थे, अब तक किसानों की हालत क्यों नहीं सुधरी। बार बार एमएसपी का हवाला दिया जा रहा है यह किसानो को भी पता जो आज उनकों समर्थन दे रहें उन्होंने कभी इसके ऊपर मंथन भी नहीं किया औऱ किसानों के लिए बनी स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को लागू नहीं किया।
राजनैतिक दलों से समर्थन लेने से परहेज करना चाहिए
किसानों को अपने आंदोलन की शुद्धता बनाये रखने के लिए राजनैतिक दलों से समर्थन लेने से परहेज करना चाहिए। उनकी लड़ाई कृषि कानूनों को लेकर है किसी विचारधारा को लेकर नही। किसान बार बार कह रहे है कि सरकार हमारे से बात नहीं कर रही है औऱ सरकार की तरफ से बार बार यहीं दलील की हमने लगभग बारह दौर की बात कर ली है।
किसान तीन कानूनों को वापस लेने के अलावा सुधारों पर बात करें तो सरकार तैयार है। न किसान पीछे हटने को तैयार न सरकार। सरकार स्पष्ट कर चुकी है एमएसपी की प्रक्रिया यथावत रहेगी, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग विकल्प के रूप में रहेगी, किसान अपनी पैदावार पूरे हिंदुस्तान में कही भी बेच सकता है औऱ समय समय पर सरकार भी खरीद कर सकेगी इन सबके बावजूद भी सरकार ने डेढ़ साल तक कानूनों को स्थगित करने की घोषणा कर दी है।
सुप्रीम कोर्ट ने बना दी है कमेटी
सुप्रीम कोर्ट ने एक कमेटी बना दी है जो इन कानूनों की कमियों के बारे में सीधा सुप्रीम को ही बन्द लिफाफे में अपनी रिपोर्ट सौपेंगे। यह बात नहीं है कि मोदी सरकार औऱ कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने कोई कोशिश नहीं कि लेकिन जब कोई अड़ियल रवैया अपना ले तो उसमें कोई फैसला होने की आशा रखना बेईमानी हो जाता है। यहीं इस आंदोलन में हो रहा है। सरकार ने कानून संसद में बनाये है लोकतांत्रिक व्यवस्था में आंदोलन का जितना महत्व है उतना ही संसद का भी महत्व है। उससे भी बढ़कर अगर आपत्ति है तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में सर्वोच्च न्यायालय है जिसने कई बार अपनी महत्वपूर्ण भूमिका सिद्ध की है।
हमे लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भरोसा रखना होगा। जिस तरह दोनों तरफ से बयानबाजी हो रहीं है उससे मुझे तो कोई समझौते की गुजाइस नजर नहीं आती है। किसानों के प्रवक्ता राकेश टिकैत तो अपने हर बयान औऱ रेलियों के सम्बोधन में साफ साफ कह चुके है कि जब तक कानून वापस नहीं होंगे तब तक दिल्ली की सरहद से किसानो की जाजम नहीं उठेगी दूसरी तरफ स्वयं कृषि मंत्री औऱ प्रधानमंत्री तीनो कृषि कानूनों को वापस लेने की सम्भावनाओ से इनकार कर चुके है।
क्या है सरकार की स्थिति
कृषि विशेषज्ञों औऱ कानून के जानकारों के बीच भी आये दिन बहस हो रही है पर समाधान का कोई सार्थक रास्ता नहीं निकल रहा है। सरकार के सामने यह भी दिक्कत है कि कुछ किसान संगठनों के आंदोलन से अगर कानून वापस लिये तो जो इसका समर्थन कर रहे है उनकों क्या दलिल देंगे। कानून के जानकार यह भी बताते है कि अगर ससंद में बने कानून सड़कों पर धरने से वापस लिए गए तो आने वाले समय मे फिर संसद में बने कानूनों की कोई महत्ता नहीं रहेंगी।
एक बात तो साफ है सरकार के दो सालो के कार्यकाल पर किसान आंदोलन छाया जरूर नजर आ रहीं है। सरकार के लिए अब यह तीनों कृषि कानून न निगलते बन रहे है न उगलते बन रहे हैं। सरकार औऱ किसान दोनों से अपील है को कोरोना काल जैसी वैश्विक महामारी में जनहानि नहीं हो इस लिहाज से भी दोनों सकारात्मक बात करके कोई न कोई समाधान निकाले। बातचीत के जरिये विकट से विकट समस्याओं को सुलझाया जा सकता है।
गुलाब कुमावत खिमेल
सांचौर, राजस्थान
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