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सूनी दीवारें (deserted walls)
आदमी सो गया है चिर निद्रा में
आज सूनी दीवारें (deserted walls) जाग रही है
खुली खिड़कियाँ घड-घड कर रही
कुन्दियाँ उनकी आज काँप रही है
जर्जर दीवारों की अब उम्र न रही
जाने कब नीचे गिर गए
गिद्ध काँवले मंडरा रहे नभ में
जाने कब नीचे उतर आये
हाहाकार अब सिमट गया है
चीत्कारे भी है निद्रा में
हाल बिगाड़ दिया है हैवान ने
इंसान हो गया हैवानी तन्द्रा में
खौफ कूद रहा है उछल उछल
अपना नंगा नाच दिखा रहा है
आदमी के करतूतों का रैला
आदमियत को ठेंगा दिखा रहा है
बेदर्द बेशर्म हो गया है आदमी
उससे इंसानियत मरे जा रही है
आदमी सो गया है चिरनिद्रा में
आज सूनी दीवारें जाग रही है
साथ अगर देंगे
जो नीचे झांकते है झरोखों से
नीचे वालों को कुछ समझते नहीं
यह बेरुखी उनकी ख़बर उन्हें दे रही है
ऊपर वाले भी न आ जाये नीचे कहीं
साथ अगर देदे वह मजलूमों का
तो नीचे वाले भी कुछ बन जायेंगे
चहक उठेगी नीचे वालों की ज़िन्दगी
तभी ऊचें लोग इंसान कहाये जायेंगे
आज भी ऐसे बहुत है लोग ऊचें
जो अपने को ऊचां समझते नहीं
गरीबों की सेवा में जुटे हुए हैं
इसको वे किसी से कहते नहीं
जो मदद करते है नीचे वालों की
दुनिया में वे दुःख कभी पाते नहीं
जो बन के कंगूरे नींव को सताते है
वे नियति की सजा से अब दूर नहीं
खुशियाँ जन्म लेती रहें
न हो किसी की कभी आँखें नम
किसी के दिल में न छुपा हो ग़म
नित नयी खुशियाँ जन्म लेती रहे
न हो कहीं कभी उल्लास कम
काश संवर आये मंज़र ऐसा
न हो किसी के हाथों में खंज़र
गन्दगी का आलम नज़र न आये कहीं
स्वच्छ रहे सदा ज़मीं आसमाँ समंदर।
हवा रहे स्वच्छ और निर्मल रहे पानी
इनसे न किसी का कभी घुटे दम
न हो किसी की कभी आँखें नम
किसी के दिल में न छुपा हो गम
अनाचार का कहीं दिखे न निशां
सब पर हो मालिक का रहमों करम
क्रोध और उग्रता जाने नहीं कोई
दिल रहे सबका कोमल नरम
सब रहें बराबर न हो कहीं छोटा बड़ा
ऐसा करने को कमर अपनी कस ले हम
आचरण सभी का हो सरस और शांत
न हो किसी की कभी आंखें नम
नजर न आये कहीं ग़म के आँसू
मनमुटाव छोड़ सब रहे बन के हमदम
इंसानियत पर कभी आये न आँच
न रहे कभी किसी की आँखे नम
चरित्र सबका सदा बना ही रहे उच्च
कभी न डिगे किसी का ईमान धरम
न हो किसी की कभी आँखें नम
किसी के दिल में न छुपा हो ग़म
तू बिखरना नहीं
जोड़ना भले तुझको आता नहीं
पर तू कभी बिखरना नहीं
जो लकीरें लाती है अलगाव को
ऐसी लकीरें तू कभी खेंचना नहीं
मनका माला ए अवाम का है तू
इस माला को तू न बिखरने देना
छिटकना नहीं तू कभी इससे
इसकी सुंदरता को निखरने देना
बाँधे रखेंगी ये मालाएँ सबको
फिर कोई कमजोर रहेगा नहीं
यतीम कोई न रह पायेगा कहीं
कहीं कोहराम का शोर होगा नहीं
अमन की ज़िन्दगी जीता रह तू
किसी के चैन को तू हरना नहीं
जोड़ना भले तुझको आता नहीं
पर तू कभी बिखरना नहीं
फूल बिछाने वालों
फूल बिछाने वालों देख लो ज़रा
कहीं काटें तो बिखरे पड़े नहीं है
सतर्क रहना है मुकाबले के लिए
कहीं सामने दुर्जन तो खड़े नहीं है
दुर्जनों को बस कांटे बिछाना आता
फुलवारी उन्हें अच्छी नहीं लगती
गुलजार चमन इन्हे भाता नहीं है
दलदल की जगह इन्हे अच्छी लगती
तुम वहाँ बिछा दो फूलों को
जहाँ फूलों के पेड़ लगे नहीं है
फूल बिछाने वालों देख लो ज़रा
कहीं काटें तो बिखरे पड़े नहीं है
तुमसे ही फिर महकेगा गुलशन
रौशनी भी वहाँ जगमगा जाएगी
बेसुरे हैं जो मानवता के दुश्मन
कभी उनको भी शर्म आ जाएगी
दुष्टों को अब सोच बदलनी होगी
जो दुखदायी सोच में रचे पड़े है
फूल बिछाने वालों देख लो ज़रा
कहीं काटें तो बिखरे पड़े नहीं है
सेवा कर तू
तू खोल के रख अपने दिल की ऑंखें
देख तेरे आस पास है कोई दुखी तो नहीं
अभावों से घिरा हुआ कोई है तो नहीं
या रूग्णता से ग्रस्त या भूखा है तो नहीं
यथा शक्ति सेवा करते जा तू उनकी
जिन्हे ज़रूरत है मदद की उनकी तू कर
नासमझ कोई तुझे दिख जाये कहीं
उसे सद्ज्ञान से परिचय कराया तू कर
अनपढ़ भी है अगर कोई सामने तेरे
उसके अध्ययन की व्यवस्था तू कर
तेरे होते हुए दुखी न रहे कहीं कोई
अच्छा व्यवहार तू उनसे किया कर
कहीं कोई तुझे दिख जाये अच्छाई
ढूँढना नहीं उनमे तू कभी कोई बुराई
बुरा अगर सोचेगा, तो तेरा बुरा ही होगा
अच्छा देख अच्छा कर फिर भागेगी बुराई
सुख चैन सारे जो भी है जगत के
सुकून की नीवं पर आज वे हैं टिके हुए
सहारा देना तू उन सभी मोहताजों का
जो ज़िन्दगी की दौड़ में आज है थके हुए
किसी चीज की कमी के रहते हुए उनकी
देख ज़िन्दगी कहीं, ठहरी हुई तो नहीं
तू खोल के रख अपने दिल की ऑंखें
देख तेरे आस पास है कोई दुखी तो नहीं
इंसानियत को बचा
तू इंसान है इंसानियत को बचा के रख
जहाँ भी तू जायेगा ये तेरे काम आएगी
बदहवास ज़िन्दगी न जीनी पड़ेगी तुझे
तेरी तमन्नाएँ सारी पूरी होती जाएगी
मुश्किलात का दानव पास फटकेगा नहीं
खुशियों का खजाना तेरे पास आ जायेगा
दया धर्म नेकी ईमान पर अगर तू चला
हर क़दम पर तुझे तेरा दोस्त नज़र आएगा
वनों को न मिटा तू पेड़ न काटना कभी
नहीं तो तुझपे विपदाएँ बहुत आएगी
तू इंसान है इंसानियत को बचा के रख
जहाँ भी तू जायेगा ये तेरे काम आएगी
आबरू किसी की तू मिटने देना नहीं
अवाम में तेरी फिर महिमा गायी जाएगी
इंसानियत अगर तूने छोड़ दी कभी
हरकत तेरी यह तुझको सदा तड़फायेगी
नदियों की राह तू कभी रोकना नहीं
मेहरबानी इनकी तुझे सम्पदा दिलाएगी
तू इंसान है इंसानियत को बचा के रख
जहाँ भी तू जायेगा ये तेरे काम आएगी
आवाज है यह मेरे दिल की
जब मैं देखूं किसी को मुश्किल में
तो मैं ख़ुद मुश्किल में आ जाता हूँ
रोना आये या ना आये रोना उसको
मैं तो ख़ुद रोने लग जाता हूँ
आवाज है यह मेरे दिल की
आँखों के जरिये उभर आती है
परेशानी में घिरे देख किसी को
मेरी ऑंखें भर-भर आती हैं
देख के तकलीफों के मंज़र को
मैं परेशानी में आ जाता हूँ
जब मैं देखूं किसी को मुश्किल में
तो मैं ख़ुद मुश्किल में आ जाता हूँ
सारे दुखी जग के, सुखी हो जाएँ
परेशानियों से न उनका पाला पड़े
कोई किसी को भी तकलीफ न दे
कोई शख़्स न भर पावे पाप के घडे
तस्वीरें दिखे मुझको मुस्कुराती हुई
इन्ही के सपनों में मैं खो जाता हूँ
जब मैं देखूं किसी को मुश्किल में
तो मैं ख़ुद मुश्किल में आ जाता हूँ
आदमी हूँ मैं
मैं एक नया परिवेश देखना चाहता हूँ
आदमी हूँ मैं, नेक इंसान बनना चाहता हूँ
शांति का माहौल हर तरफ़ दिखे मुझे
मैं इसी अमन की राह पर चलना चाहता हूँ
भविष्य का वक़्त हो सबका उज्ज्वल
मैं रूप इसका स्वर्णिम देखना चाहता हूँ
निष्क्रिय अब मैं रहना नहीं चाहता
मुस्कुराता हुआ हर चेहरा देखना चाहता हूँ
आदमी कहीं न दिखे मुझको अधुरा
हर आदमी मैं आदमियत देखना चाहता हूँ
मैं एक नया परिवेश देखना चाहता हूँ
आदमी हूँ मैं, नेक इंसान बनना चाहता हूँ
साथ दे सदा सब एक दूसरे का
प्रीत की गंगा सब में बहती देखना चाहता हूँ
कोई न हो दबा हुआ किसी आदमी से
सब को उभरता हुआ देखना चाहता हूँ
हर आदमी मैं हो शालीनता और नम्रता
हर आदमी को यही मैं बताना चाहता हूँ
मैं एक नया परिवेश देखना चाहता हूँ
आदमी हूँ मैं, नेक इंसान बनना चाहता हूँ
बड़ा दर्द दिया है तुमने पर्यावरण को
जिस ज़मीं ने जिन्दा रखा है तुमको
इसकी संतानों को तकलीफ तुम दे रहे हो
किसी की आंखों में तुम आँसू भरते रहे
किसी का रक्त बहा के तुम खुश हो रहे हो
रक्त रंजित ज़मीं को तुमने किया है
यह ज़मीं नहीं तुमको माफ़ करेगी
समझ रखो ये ज़मीं औरों की भी है
न समझे तो गाज फिर तुमपे गिरेगी
वनों को हटा के वनस्पतियों को मिटा के
वनजीवों को यातना तुम दे रहे हो
जिस ज़मीं ने जिन्दा रखा है तुमको
इसकी संतानों को तकलीफ तुम दे रहे हो
समंदर को भी नहीं छोड़ा है तुमने
प्रचुरता से उसमे प्रदुषण को घोला है
नदियों को जिन्दी नहीं रहने दी तुमने
उनके लिए तुमने मुँह मौत का खोला है
बड़ा दर्द दिया है तुमने पर्यावरण को
अपने पाप की नैया को तुम खे रहे हो
जिस ज़मीं ने जिन्दा रखा है तुमको
इसकी संतानों को तकलीफ तुम दे रहे हो
छोड़ दो तुम अब दर्द देना ज़मीं को
प्रकृति को आँसूं देने का काम न करो
तुम जो कर रहे हो काम है अनीति का
वो पाप है, छोड़ो उसे तुम करने से डरो
जमीं से तुमने बहुत कुछ लिया है
जरा सोचो तो उसे तुम क्या दे हो
जिस ज़मीं ने जिन्दा रखा है तुमको
इसकी संतानों को तकलीफ तुम दे रहे हो
नया तू फिर से बना
आज तू भले बैठ गया
फिर से तुझको उठना होगा
देख तेरा तन अकड़ तो न गया
सफर तुझे फिर शुरू करना होगा
पुरानी पौध ग़र सुख गई है
पिला पानी फिर उसे देख
नजर आएगी वहाँ आशा किरण
नई कोपलों को निकलती देख
पुराना तेरा ग़र मिट गया
नया तू फिर से बना
लगा है आज जो नन्हा पौधा
भविष्य में वह ही वृक्ष बना
फल छाया वह सबको देता
ऐसा काम तू जल्द कर
मानवता फिर मुस्कुराएगी
उस मुस्कान का तू दर्शन कर
निढाल बना न रह तू
तुझे स्व क्षमता को जानना होगा
आज तू भले ही बैठ गया
फिर से तुझको उठना होगा
सरिता तेरा पानी
पहचान तेरी विस्मृत हो गई
सरिता! तेरा पानी कौन पी गया
चित्कार भी तू कर नहीं सकती
तेरे होठों को कोई-सी गया
तेरी लहराती चाल की आवाज़
कलकल छलछल गुम हो गई
जल भी नाराज हो चला गया
तेरी ज़मीन ग़मगीन हो गई
लहरे लिए तेरा रास्ता भी अब
मायूस मायूस रहने लगा है
तेरा तन सूखा रूखा हो गया
तेरा दिल अब रोने लगा है
तेरे होठों पर तरी तर थी
उसे कोई समेट ले गया
पहचान तेरी क्यूँ गुम हो गई
सरिता तेरा पानी कौन पी गया
तेरा रखवाला जो जंगल था
तेरी बस्ती से विदा हो गया
दो तट मध्य तेरा जो बसेरा था
तोड़ा किसी ने, वह गुम हो गया
तेरे दर्द से पर्वत भी दुखी है
तेरा आँचल उड़ कहीं चला गया
तेरी दशा पर इंसान द्रवित नहीं है
अभी जाने उसे क्या हो गया
तेरा आँचल उलझ के जीर्ण हुआ
वह दुखी हो परेशान हो गया
सरिता तू विस्मृत होती गई
ऐ सरिता पानी तेरा कौन पी गया
तट तेरा वीरान हो गया
वहाँ कुछ भी आबाद नहीं है
तेरे तट पर उगने वाले पेड़ों का
अब वहाँ कोई निशान नहीं है
जीवों का टोला अब यहाँ
तेरी तरफ़ रुख नहीं करता
भूल से अगर आ भी जाता
प्यास लिए वह भटकता रहता
भूले भटके कोई पशु पक्षी आता
वहाँ पानी का निशान न पाता
बिन पानी किलोले करें कैसे वह
उसका मन दुखी हो बुझ जाता
नदी तेरे तल को देख जीव
नभ की ओर ताकने लगता
तेरा प्यार जो उसमे रमा था
उससे अब वह भागने लगता
सरिता तेरी सुंदरता को
किस दुष्ट की नज़र लग गई
तेरा वजूद मिट चला तुझी से
तेरे आंसुओं की झड़ी लग गई
क्षुब्ध है मेरा मन देख तेरी दशा
सोचूं मैं अब तक कैसे जी गया
पहचान तेरी विस्मृत हो गई
ऐ सरिता तेरा पानी कौन पी गया
मुझे आस है स्वपन लेता हूँ मैं
तू फिर से सजने सँवरनें लग गई है
तेरे साथ सब हैं, घबराना मत,
कि तू किसी आपदा से घिर गई है
रमेश चन्द्र पाटोदिया “नवाब”
प्रताप नगर सांगानेर जयपुर
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१- धरती का रुदन