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चौरी चौरा काण्ड (chauri chaura scandal) सन १९२२
सन उन्नीस सौ बाईस का था, काण्ड़ हो गया चौरी चौरा (chauri chaura scandal)
ये आन्दोलन एक मुहिम था, भगाने को ब्रिटिश का गौरा
तारीख वह एक तवारीख़ बन गयी, जो फरवरी थी चार
भारतीय आन्दोलनकारी, अंग्रेजों से भिड़ने को तैय्यार
गोरखपुर जनपद में चौरी चौरा, जो थी कपड़ों की मण्ड़ी
स्वदेशी अपनाने की मुहिम ने, वह आग़ ना होने दी ठण्ड़ी
ब्रिटिश शासन के विरुद्घ, असहयोग आन्दोलन की रेड़
आन्दोलनकारी और ब्रिटिश शासन में हुयी ख़ूब मुठभेड़
हिन्द की स्वाधीनता को, जनजन में जागृत हो गयी आग़
ब्रिटिश शासित पुलिस थाने में भी प्रज्वलित करदी आग़
सन बाईस था बाईस ही पुलिसकर्मी भी जलकर मर गये
तीन आन्दोलनकारी भी इस घटना में शहीद होअमर गये
लार्ड रीड़िंग अंग्रेज वायसराय का, शासन गया था हिल
नेतृत्वकर्ता नेतृत्व में प्रेमकृष्ण खन्ना, रामप्रसाद बिस्मिल
अहिंसा पुजारी महात्मागाँधी, नर संहार का विरोध किया
हृदय विदारक घटना ने गाँधीजी का दिल झकझोर दिया
अहिँसात्मक आन्दोलन जारी रहे इस बात पर जोर।दिया
करुणा के वश अहिँसा, असहयोग आन्दोलन रोक दिया
असहयोग आन्दोलन रुकना, मुहिम को कर गया बर्बाद
आन्दोलन ना थमता तो उसी समय, हो सकते थे आजाद
शाहिद है शहीद स्मारक आज, ना निष्फल गया बलिदान
आज की पीढ़ी गर्व करे, इससे कोई भी ना रहे अनजान
भ्रूण हत्या
यदि बन्द करोगे राह बेटी की, उसकी आह तुम्हें सतायेगी
बेटी को अगर जन्मने नहीं दोगे, तो दुल्हन कहाँ से आयेगी
समझ ही नहीं सका हूँ मैं, क्या माँ की भी यह लाचारी होगी
माँ की ममता मर जायेगी, और माँ ही बेटी की हत्यारी होगी
पिता का ये निर्देश मिलेगा और माँ ही बेटी को खा जायेगी
बेटी को अगर जन्मने नहीं दोगे——————-
भ्रुण परीक्षण क्यूँ करवाया, बेटी थी तो क्यूँ कर दी जाया
यह तो थी भगवान की माया, जिसने जीवन चक्र चलाया
बेटा आया तो आयी खुशियाँ, बेटी आयी तो खल जायेगी
बेटी को अगर जन्मने नहीं दोगे———————
तपदान जिसने नहीं किया, वह प्राणी है पर इन्सान नहीं है
मोक्ष उसको कहाँ मिलेगा, किया जिसने कन्यादान नहीं है
बिन कन्या इच्छा नहीं फलेगी, पर कन्या कहाँ से आयेगी
बेटी को अगर जन्मने नहीं दोगे———————-
कीमत बेटी की उनसे पूछो, जिनके कोई सन्तान नही।है
जादू टोने टोटके कर देखे, सन्तान इतना आसान नहीं है
हे! भगवान हमें बेटी ही दे दो, हमको बेटी भी चल जायेगी
बेटी को अगर जन्मने नहीं दोगे———————
प्रतिशत ये बिगड़ रहा है, पूरा करोगे कैसे इस अनुपात को
बेटियाँ तो निरीह होती हैं, नही सह पायेंगी इस आघात को
कुछ ये दहेज दानव उत्पीड़न कुछ रसोईयों में जल जायेंगी
बेटी को अगर जन्मने नहीं दोगे———————
विकृत मन और भ्रुण हत्या, कब तक सहोगे इस संताप को
आत्मा कब तक धिक्कारेगी, कब तक कहोगे पश्चाताप को
माँ की जैसी सुरक्षा बेटी को चंचल, भला कहाँ मिल पायेगी
बेटी को अगर जन्मने नहीं दोगे——————
यदि बन्द करोगे राह बेटी की, उसकी आह तुम्हें सतायेगी
बेटी को अगर जन्मने नहीं दोगे, तो दुल्हन कहाँ से आयेगी
सन्तई का अन्त
आज सन्तों के प्रवचनों से है ख्याति और शौहरत भी है
घर पर हैं बाल गोपाल खेलते, गृहस्थी भी है औरत भी है
फैक्ट्रियाँ फारम हाऊस प्रवचनों को तख्ते ताऊस भी है
कम्प्यूटर, टयूटर, मोबाइल लैपटोप क्लिक माऊस भी है
वासनाओं ने घेर लिया है ख्याति तो है पर तोहमत भी है
घर पर हैं बाल गोपाल खेलते—————
त्याग तपस्या को त्यागा, वातानुकूलित मँहगी कारे भी हैं
आम जनता भी मान करें हैं और कब्जे में सरकारें भी हैं
वातानुकूलित भवन बने विलासताऐं अकूत दौलत भी है
घर पर हैं बाल गोपाल खेलते।———————
आज बड़े-बड़े मठाधीश बने हैं कोई साधू है ना सन्त है
विलासताओं में डूब गये हैं इनका तो आदि है ना अन्त है
मदिरा मुर्गा भाँग धतूरा और कहीँ कहींँ पर यें डोलत भी हैं
घर पर हैं बाल गोपाल खेलते———————
कोई साधू हैं ना कोई साधना, मुश्किल है अब मन बाँधना
गृहस्थी है सब मस्ती है ईश्वर है ये भी इनको रहा याद ना
सन्तई का है अभिनय, दोनों हाथ में इनके मोदक भी है
घर पर हैं बाल गोपाल खेलते————————-
राजनीति में भी उतर गये, आज सांसद और विधायक।है
भगवे वस्त्र भगवान बने फिरे, मंत्री भी हैं नेता हैं नायक।हैं
पूरा कैश सब ऐश तैश से लैश, जाने क्या-क्या चाहत भी है
घर पर हैं बाल गोपाल खेलते, ———————
उन्हें दिव्यता से ये ज्ञान हुआ है कि मन्दिर भगवान नहीं हैं
जी हुजूरी और नौकर चाकर कहीँ इतना तो सामान नहीं है
प्रजा जन सब नतमस्तक हों चाँवर पंखे सब झौलत भी हैं
घर पर हैं बाल गोपाल खेलते, गृहस्थी भी है औरत भी है
अलख योग की जगाओ
अलख योग की जगाओ तुम योग प्रचार हो जाये
नित्य प्रति हो योग की क्रिया रोग उपचार हो जाये
महर्षि सन्त लाये हैं योग का ये उपचार ये सम्मुख
कामना हर जन की पूरी हो, दूर हों जायें सारे दुःख
ऋषियों के इस योग दर्शन से बेड़ा ये पार हो जाये
नित्य प्रति हो योग की क्रिया———————
यज्ञशाला में ऋषियों की, आहूति दे दो तुम मन से
स्वास्थ्य बन जाये सुन्दर तुम्हारे योग कण-कण से
तुम्हारे ही पवित्र योगबल से प्रकट आभार हो जाये
नित्य प्रति हो योग की क्रिया———————
पर्यावरण हो रहा दूषित, बहे पवित्रता की गंग धारा
सब है सम्भव अगर मिलता रहे पवित्र संग ये थारा
संस्कृति सुधरेगी अगर पवित्र भी संस्कार हो जाये
नित्य प्रति हो योग की क्रिया——————
संस्कृति विहीन हो गया भारत, हाथ पैप्सी कोला है
बहती जहाँ दूध की नदियाँ वहाँ तम्बाकू का गोला है
छोड़ दें हम यें आदते कुत्सित, तो चमत्कार हो जाये
नित्य प्रति हो योग की क्रिया———————
उद्मोगों से प्रदुषित जल, प्रदुषित ही सब्ज़ियाँ फल हैं
अपमिश्रित खाद्य पदार्थ हैं सारेअन्धकार मय कल है
योग एक ऐसी अटकल कि हमारा तो उद्धार हो जाये
नित्य प्रति हो योग की क्रिया—————-
आज इस योग दिवस पर तुमको अभियान चलाना है
योगजागृति आ जाये भारत का स्वाभिमान जगाना है
चंचल काम नहीं है मुश्किल, बस एक हुंकार हो जाये
नित्य प्रति हो योग की क्रिया, रोग उपचार हो जाये
सन्त कबीर
बाणी, शबद, साखी, दोहे, सब दिल में धँसते हैं
गये कहीँ नहीं कबीर वो, अब भी दिल में बसते हैं
कबीर वाणी और उपदेश, सब बसते हैं इसी देश
ऐसा कोई सन्त न उपजा, ना ऐसा उपजा दरवेश
सन्तों में सन्तई नहीं है, सबके ही हालत खस्ते हैं
गये कहीँ नहीं कबीर——————
कबीर सन्त सदा सन्तोषी, असर न माया जाल का
कहा माया को महाठगनि, लालच न हीरे लाल का
निरन्जन रूप को समझे वो, कहाँ माया में फँसते हैं
गये कहीँ नहीं कबीर—————
सन्त पुरुष ज्ञानी ध्यानी, निरन्जन रूप है काल का
जो हैं ईश्वर के सच्चे बन्दे, रूप उनका कमाल का
जो निरन्जन रूप न समझे, वह माया में फँसते हैं
गये कहीँ नहीं कबीर—————
पन्डित, मुल्ला चेताया, राह सरल पूजा पाठ बताया
साखी, शबद, दोहे, वाणी, पत्थर चाकी भेद बताया
प्राप्त सहज योग साधना, क्यों वह आडम्बर रचते हैं
गये कहीँ नहीं कबीर—————
क्या समझे कबीर कोई, क्या समझेगा उलट बासी
बिरला ऐसा सन्त उपजा, क्या मग़हर क्या काशी
लोग उड़ावे बात धुवाँ सी, पर वह कहाँ इतने सस्ते हैं
गये नहीं कहीँ कबीर—————-
कर्म की तो रहे प्रधानता, समाज ये सदा रहे समान
आडंबर और अज्ञानता मिटे, बात कबीरा ये महान
गीता का उपदेश यही, ये कर्मण्य वाधिका रस्ते है
गये नहीं कहीँ कबीर——————
कबीर कवि भाषा साधो की, रचे शबद छन्द वाणी
मजीरों तानपुरों पर गायी, सन्त कबीर की वाणी
शोध का विषय कबीर, ज्ञानी भी कबीर को पढ़ते हैं
गये नहीं कहीँ कबीर, वह अब भी दिल में बसते हैं
शराबी-बेवड़ा
बोतल सिर को चढ़ गयी, और ये दारु चढ़ी दिमाग
भूत ना बोतल का ये उतरे, चाहे घर ना जले चिराग़
इक लत बुरी ये पड़ गयी और घर भी हो गया बर्बाद
कमाई उड़ा दी सुरा में, फिर कर्ज़ की करे फरियाद
जिस घर में पल गया बेेवड़ा, वो ना हो सके आबाद
मरते जीेते सुबह-ओ-शाम बस उसे पव्वा रहे है याद
पीकर अपनी मस्ती में मस्त है लगे चाहे घर में आग़
भूत ना बोतल का उतरे————
पत्नी घर-घर मजदूरी करे, उसके तो भाग गये हैं फूट
जतन भी सौ-सौ कर लिये, पर ये दारू रही ना छूट
जीवन यापन अपना कर रही, वो पीकर ज़हर के घूँट
बेवड़े को ग़र पैसा ना दिया तो हो सुबह शाम की कूट
जतन सब कर-कर के हार गयी, अन्त में मिटा सुहाग
भूत ना बोतल का ये उतरे————-
शराबी साथियों को फिरे ढूँढ़ता, सुबह हो चाहे शाम
साथी संगी जब मिल गये, तो फिर चले जाम पै जाम
पीते तो है बड़े लोग भी पर, बेवडे ही हैं क्यूँ बदनाम
कर्ज तक लेकर सब पी गया, नही घर में बचा छदाम
जतन भी कितने ही कर लिये पर ना छूट रहा ये दाग़
भूत ना बोतल का ये उतरे—————
खूब गाली गलोच करता फिरे चढ़ जाये जब जयादा
पर मन पर ना कोई वश चले ना त्याग का कोई इरादा
मन के जीते जीत है पर ये तो ना समझ सके वह नादाँ
त्याग के एक बार देखो तो जीवन परिलक्षित हो सादा
पर घर से तो वैरागी हो गये हुआ इस दारू नहीं वैराग
भूत ना बोतल का ये उतरे चाहे घर में ना जले चिराग़
मेघदूत
प्यासा-सा मेरा तन मन तरसे
ओ निष्ठुर मेघा तू क्यूँ ना बरसे
वृक्षों से भी पीले। पात झरे है
तू क्यूँ ऐसा ये उत्पात करे है
क्या नयन भी तेरे नम नही है
डर लगता है विरस पतझर से
ओ निष्ठुर मेघा——————
बेल बूंटे है सब आस लगाये
कब तू बैरन बनी धूप भगाये
कब रिमझिम बरसात करे तू
दुआ करें हैं ये ही सब हर से
ओ निष्ठुर मेघा—————-
अब मुझे तो यह महसूस हूआ है
कि तेरा पानी सब सूख गया है
ऋण लेना भी क्या भूल गया है
जल उधार ही ले कुछ। समंदर से
ओ निष्ठुर मेघा——————
तेरे तो है सप्त नव रंग चितेरे
सात रंग से इस गगन को घेरे
कब बरसेगे तेरे ये बादल घनेरे
हरा रंग इस धरती पर बरसे
ओ निष्ठुर मैघा——————
जब जब-जब धरा तपन सहे है
और हवा भी शीतल।नही बहे है
तब तब तू इसका ताप हरे है
और छम-छम होती है अम्बर से
ओ.निष्ठुर मेघा——————
अब गर्मी से सब बेहाल हुये है
सूखे सब पोखर । ताल हुये है
झुलस रहा है ।प्रियतम का घर
वो निकल नहीं रहे गर्मी के डरसे
ओ निष्ठुर मेघा——————
बिन बरखा ना चमन लहराये
रट भी पपीहा बारम्बार लगाये
प्यास बुझे ना ये मन ही हरसाये
धुन भी ना निकले कोई अधर से
ओ निष्ठुर मेघा——————
बून्द एक भी ना बरस रही है
ये दुनिया ही सारी तरस रही है
अब तो तुम दुआ कर दो चंचल
ध्वनि मुखरित प्रियतम के घरसे
ओ निष्ठुर मेघा—————-
ओ निष्ठुर मेघा तू क्यूँ ना बरसे
प्यासा-सा मेरा तन मन ये तरसे
उदधोषणाऐं
लाल किले के उतुंग शिखर से
उदघोषणाऐं व्योम तक जाती चीखती
कुछ कर्णप्रिय लगती रही
कुछ जाती कर्ण रन्ध्रो को चीरती
कुछ क्षणघृष्टनष्टा-सी झिलमिलाई
पर कहीँ गयी नहीं वह तीरगी
कुछ मलिन मनो में उद्वेलित हुयी
आशाऐं तृष्णाऐं रह गयी चीखती
क्षण भंगुर जीवन की ऋचाएँ
नही कभी किसी को दीखती
रक्त रंजित रक्त शोणित
अस्मिताऐं फिर रही है चीखती
नवयुवक नवजीवन की तृष्णाऐं
नही किसी को दीखती
अस्पृश्यता की उद्विग्नता भी
फिर रही है चीखती
स्वर प्रवाहित भी है बाधित
हिम्मत कहाँ संवेदन वीर की
धर्म ध्वजा धारण किये
क्या यही हिन्दुत्व की कशीदगी
अविरल निर्मल गंग धारा
भी नहीं कहीं दीखती
वहाँ मुकम्मल डल झील सी
एक आग़ है कश्मीर की
चंचल संवेदनाओं-सी तीव्र सी
बोल भारत माता की जय
बोल कि भारत माता की जय हो
कौन कौन बोले और कौन न बोले
ये सब कुछ अब कैसे-कैसे तय हो
बोल कि भारत माता की जय हो
हमारा भारतमाता की जय बोलना
एक राष्ट्रियता का भाव दर्शाता है
इस नारे से राष्ट्रभाव भर जाता है
इसी भाव से तो सीमा पर सैनिक
शीश देकर नाम अमर कर जाता है
देश द्रोह का भाव ना कतिपय हो
बोल कि भारतमाता की जय हो
ये इष्ट देवों की पूजा नहीं कतन है
ये भाव तो एक बस मादरे वतन है
विरोध तो मानसिकता का पतन है
ये राष्ट्रभाव को जगाने का जतन है
फिर क्यूँ ना हिन्द वतन की जय हो
बोल कि भारतमाता की जय हो
देश की मातृ भूमि ही तो इमान है
इस मादरे वतन से हमारी शान है
दुनिया के सामने ये हमारा वजूद है
हम कौन हैं इसी से तो पहचान है
क्यूँ ना हमारा इसी से परिचय हो
बोल कि भारतमाता की जय हो
माँ के पैरों में ही तो होती जन्नत है
पोषण भी करती है कण-कण से
दिल दिमाग़ बलिष्ठ देह मिलती है
हमें इस माँ ही के तो इस पोषण से
माँ बिलख जायेगी एक शोषण से
ये बोलने में कोई डर हो ना भय हो
बोल कि भारत माता की जय हो
भारत माता की ही जय बोल कर
हमें मिली है ये स्वतन्त्रता ये आजादी
माँ की जाति है देश में आधी आबादी
माँ का प्यार अकूत हो रहे लोग कपूत
क्या बस अब ये तुम्हारा परिचय हो
बोल कि भारत माता की जय हो
विश्व पटल एक बड़ा ये लोकतंत्र है
मिलजुल कर रहना भी तो एक मंत्र है
धार्मिकता ये कट्टरता ये असहिष्णुता
ये देश के विघटन का ही एक यंत्र है
इस नारे में चंचल सबकी एक लय हो
बोल कि भारत माता की जय हो
प्रकृति को लौटाना है
प्रकृति ने ही दिया है सब कुछ, प्रकृति के पास खजाना है
हमने प्रकृति से ही पाया है, सब प्रकृति को ही लौटाना है
प्रकृति के सब्ज़ उपहारों को ऐसे भी ना कोई बरबाद करे
अपशिष्टों को ना भी मिटाये उन्हे भी संजोकर खाद करे
लौटाओ प्रकृति का ऋण हो उऋण वापस अगर पाना है
हमने प्रकृति से ही पाया है, सब प्रकृति को ही लौटाना है
आज उर्वरता धरा की नग्न है रिक्त होती हुयी है वसुन्धरा
लिया है तो देना भी सीख ले, क़ायम कर अब ये परम्परा
प्रकृति से आया है सब कुछ वह वापस उसको ही जाना है
हमने प्रकृति से जो पाया है सब प्रकृति को ही लौटाना है
हस्र क्या होगा उस बाग़ का, जिसका कोई माली ना हो
और बढ़ेगी ये उष्णता, यदि हर सिम्त ना ये हरियाली हो
स्वच्छ सारा देश हो, हमें मिलकर ये अभियान चलाना है
हमने प्रकृति से जो पाया है सब प्रकृती को ही लौटाना है
देश तो ये आलीशान है, तो शालीन हो अपनी भी हरकत
शुन्यता में फैकने की आदत छोड़ दो अपना कूड़ा करकट
कचरे के समुचित प्रबन्धन का, आव्हान हमें अब जगाना है
हमने प्रकृति से जो पाया है सब प्रकृति को ही लौटाना है
विश्व पर्यावरण दिवस पर
हम देश दुनिया और वतन की बात करते है
खिजाँ के दौर में हम चमन की बात करते है
मानसिक स्वास्थ्य संगठन की बात करते हैं
अपमिश्रण एवं प्रदूषण समस्याँ से आहत
स्वस्थ तन और स्वस्थ तन की बात करते हैं
सिन्थेटिक ये जब से दूध मावा पनीर हुये हैं
और प्रददूषित स्वच्छ नदियों के नीर हुये हैं
हम कितने व्यथित एवं कितने अधीर हुये हैं
हम स्वस्थ तन स्वस्थ मन की बात करते हैं
ना कहीँ तालाब रहे ना कहीँ रहा कोई कुवाँ
नित्य धूल पसरती वाहन उगल रहे हैं धुँवा
हम दम घुटने आँख जलन की बात करते हैं
खेत बाग़ वन प्रदूषित देश हर जन प्रदूषित
अम्बर अवनि प्रदूषित रक्त व ध्वनि प्रदूषित
इस तरफ़ जब मेरा मन होता है आकर्षित
हम शुद्ध अन्न जल व मन की बात करते हैं
लौकी औ कद्दू में भी आज लगते इन्जेक्शन
हर जन मानस को इससे होता है इन्फैक्शन
और नकली दवाओं की ये भरमार तो देखो
मुखरित होते है जब मानव मौत के लक्षण
तब हम मौत और कफन की बात।करते।हैं
शराब सुल्फा गाँजा और डेजीपाम की गोली
नित्य कराधान सरकार भरती अपनी झोली
वैधानिक चेतावनी लिखकर बस मुक्ति पाली
ये हम नशाबन्दी मुक्तिकरण की बात करते हैं
अनिद्रा एवं अवसाद मन कुन्ठा से भारीपन है
संकीरण भाव से आहत और साथ बहरापन है
सब आहत मानसिक विक्षिप्तताओं के कारण
हम उनके अधिकारों के हनन की बात करते हैं
कितने खाद्य निरीक्षक, जज भी नियुकत हुये है
देखो शातिर ये इतने ही आज अभियुक्त हुये हैं
आय से अपमिश्रित होती हुयी आय को देखो
हम खाद्य अपमिश्रण निवारण की बात करते हैं
मन एक भ्रमर
मन एक भ्रमित भ्रमर है
चंचल ता जिसकी अमर है
मन एक भ्रमित भ्रमर है
हर पुष्प पर ही नज़र है
मन एक भ्रमित भ्रमर है
लालच है एक रस का रूप का
प्रकाश एक है धूप का
रसरंगी रूप अनूप का
पुष्प चयन को उड़ता फिरता फरफर है
मन एक भ्रमित भ्रमर है
रंग रूप तो श्याम है
और काम यही सुबह शाम है
जब भी होता कोई फूल पुष्पित
तब हो-हो कर ये उष्मित
लेकर अपनी उड़ान प्रखर है
मन एक भ्रमित भ्रमर है
श्रंग लेकर एक तरंग
भ्रमर भटके हर बाग़ में
मधुप तड़फ एक अनुराग में
पुष्प के लिपटा फिरे पराग में
प्रेम पिपासा में भटका मधुकर है
मन एक भ्रमित भ्रमर है
भँवरे की गुंजन गुन्जार मधुर है
रस पलावन से तरबतर है
कोई ऐसा ही अगर है वो
मिलिन्द, चंचरीक, शिलीमुख, अलि भौरा भ्रमर है
मन एक भ्रमित भ्रमर है
लॉकडाउन
लाँकडाऊन की उदघोषणा, पसरा कोरोना का कहर
समस्त देश छा गयी निस्तब्धता, हर गाँव हर शहर
थी चालाकी चीन की सब चैन अमन ही छीन ली
दुनिया सारी परेशान है, सारी खुशियाँ ही बीन ली
होते ही उदघोषणा देश में पसर गया लाँकडाऊन
गाँव अछूते रहे नहीं ना शहर बचा ना कोई टाऊन
सुबह उठते ही देखा कि मंज़र ही कुछ और था
सड़क पर सन्नाटा, बस पुलिस हूटरों का शोर था
गली सड़के सब सुनसान, अजब सुहाना भौर था
चलो घर बैठो चलो जाओ, पुलिस बल का शोर था
ताले ही ताले लटके दिख रहे सभी प्रतिस्ठानों पर
भीड़ भाड़ सब छँट गयी ना भीड़ कोई दुकानों पर
आवाभगत में ख़र्च शुन्य ना ख़र्च कोई महमानों पर
काम सब मुश्किल हो गये जंगल खेत खलिहानों पर
जो जहाँ जैसा भी था वह वहीँ पर वह अवरुद्ध हुये
जो बिमारी से बीमार थे वह भी घर पर निरुद्ध हुये
जो शैलानी फँस गये लाँकडाऊन में वह क्रुद्ध हये
हाँ नदियों के जल और पर्यावरण तो बस शुद्ध हुये
मजदूर घर पर हुये मजबूर कहाँ से लायें खाना खर्चा
सब हाथ थाम के बैठ गये क्या होगा रही यही चर्चा
काम नहीं तो दाम नहीं अब चलेगा कैसे घर का खर्चा
ऐसे।में पत्नी ने हाथ लाकर रखा घर खानगी का पर्चा
हाथ में पर्चा मुँह पर चर्चा पिट गयी है सबकी मन्दी
बहुत कुछ देखा था हमने पर नही।देखी ऐसी घरबंदी
फोन पर ही बतियावे कोई किसी के घर कैसे जावे
देवघरो।पर पड़ गये ताले चंचल बन्दी शिव के नन्दी
मदर्स डे पर समर्पित
आह! दर्द दु: ख पीर वेदना
है बस इन सब की पर्यायी माँ
बच्चे के परिरक्षण हेतु
ना हुयी कभी हरजाई माँ
ऊँगली पकड़ माँ की चलना सीखे
माँ की सीख में रहे राम सरीखे
चोट लगे जब बच्चा चीखे
अपने बच्चे-सा कोई ना दीखे
माँ के सामने सब प्यार हैं फीके
ये आँख तेरी क्यूँ भर आयी माँ
आह! दर्द दु: ख पीर वेदना
है इन सब की पर्यायी माँ
कर से साफ़ करे मूत्र को मल को
समझे कोई माँ मन कोमल को
सुधार दे माँ बच्चे के कल को
। दूर ना होना चाहे एक पल को
फिर देखे बेटे के छल बल को
पर है कब से ये छली छलाई माँ
आह! दर्द दुःख पीर वेदना
पर है इन सब की पर्यायी माँ
आँसू बच्चे के आँचल से पौँछे
। पर भरोसे की कभी ना सोचे
दिल माँ का ना कभी मसोसे
दिल दुखे ना बच्चे को कोसे
अपना हिस्सा बच्चे को परोसे
क्या कभी नहीं आजमाई माँ
आह दर्द दुःख पीर वेदना
है इन सब की पर्यायी माँ
खाने को टुकड़े हैं रुखे सूखे
फिर भी माँ कोयल-सी कूके
माँ अपना कोई फर्ज़ ना चूके
छल कपट कभी ना जाये छूके
पर बेटा पूछे ना बहु ही।पूछे
वह टुकड़े खाके झुठी करे बडाई माँ
आह! दुःख पीर वेदना
है बस इन सब की पर्यायी माँ
बाहर एक कौठरी है बेपर्दी
और कम कपड़ो में लगे है सर्दी
हद भी तो बहु बेटे ने कर दी
बहु बेटा हैं कितने बे-दर्दी
है नहीं किसी को कोई हमदर्दी
रोज़ ठन्ड से मरे जड़ाई माँ
आह! दर्द दुःख पीर वेदना
है इन सब की पर्यायी माँ
इस मौसम का बढ़े कहर जब
फर फर बहे शीत लहर जब
ठण्ड जाये पूरी ही ठहर जब
ठण्ड़ ना जाये आठ पहर जब
हर प्राणी पर ढ़ाये कहर जब
आँचल में दुबका गर्मागर्म रजाई माँ
आह! दर्द दुःख पीर वेदना
है वह इन।सब की पर्यायी माँ-
सहन भी सब कुछ करती माँ है
माँ तो बस ये धरती माँ है
पीड़ा सन्तान की हरती माँ है
परिरक्षण को दुःख भरती माँ है
स्वर्ग से ही जैसे उतरती माँ है
सहन करने ही को बनाई माँ
आह! दुःख पीर वेदना
है वह इन सब की पर्यायी माँ
इस घन्टी की घोर
वही नमन वही दमन वही पोंगा पन्थी की डोर
चले ही जा रहे हैं हम इस मन्दिर घन्टी की ओर
अछूतों को जब किसी मन्दिर जाने की है मनाही
अब तक भी तुम क्यूँ समझ ही नहीं रहे हो भाई
जहाँ कोई मन्जिल नहीं है क्यूँ बने हो उसके राही
पेट क्या भरने लगा तुम तो भूल ही गये वह दौर
चले ही जा रहे हैं हम इस मन्दिर घन्टी की ओर
खुलते है जहाँ ग्रहण करने को शिक्षा के द्वार
कभी यदि सुन लेते तुम उस घन्टी की टंकार
अपने सब सपने हो भी तो सकते थे साकार
कुछ सोचो समझो है बस यही तो काबिले गौर
चले ही जा रहे हम इस मन्दिर घन्टी की ओर
जिसने स्कूल की घन्टी की आवाज़ सुनी है
उसने शिक्षित होने की ही बस राह चुनी है
वो ही तो आज शिक्षित हो विद्मावान गुणी है
बस उसका उज्ज्वल ही होता है हर भौर
चले ही जा रहे हैं हम इस मन्दिर घन्टी की ओर
मन्दिर जाकर हम एक अंधआस्था के भक्त हुये हैं
धर्म अन्धी नगरी है जिस पर हम आशक्त हुये हैं
जहाँ हर मान सम्मान से हम आज विरक्त हुये हैं
बहरा अन्धा जाहिल काहिल कर देगी घंटी की घोर
चले ही जा रहे हैं हम इस मन्दिर घन्टी की ओर
भूखा जो हो तो बस रोटी और रोजगार ही माँगे
किसी कल्याण स्वर्ग मोक्ष की ना दरकार।ही माँगे
ना देवी देव की कोई मूरत सूरत दीवार वह टाँगें
अब हमें एक लगी अँघाई मिलने लगा जब कौर
चले ही जा रहे हम इस मन्दिर घन्टी की ओर
जहाँ आस्था बसती है वहाँ कोई तर्क नहीं है
शिक्षित अशिक्षित में क्या कोई फ़र्क़ नहीं है
ये स्वर्ग मोक्ष कहाँ किसने देखा इसका तर्क नहीं है
ये एक प्रश्न ज्वलंत है जो मन को रहा है झकझोर
चले।ही जा रहे हम इस मन्दिर घन्टी की ओर
कोरोनयाई मृत संस्कार
कैसी ये कोरोना की त्रासदी, कितने लोग हुये लाचार
इस महामारी की मुहिम में, हम भूल गये सब आचार
हाथ मिलाना गले मिलन, गये चले सब ही व्यवहार
बदकिस्मती से एक बार जो, हुआ कोई भी बिमार
कोरोना टेस्ट करा के आओ, तब होगा कोई उपचार
कोरोना टेस्ट में पोजिटिव है चिकित्सक करें इंकार
अब तो कोविड़ केन्द्र जायेगा, बस वहीँ है अधिकार
हृदय किड़नी मधुमेह का, ना मिले नहीं कोई उपचार
बस कोविड़ केन्द्र में डालकर ही, करते देते हैं उपचार
श्वाँस गला सब रुन्ध गये, निकल भी ना सका चीत्कार
बिमारियाँ तो देखी बहुत हैं पर ये किसका है अवतार
जनहित जनस्वास्थ्य को कुछ कर ही ना सकी सरकार
वृद्ध कोई भर्ती हुआ तो बस, उसकी नैय्या है मझधार
बस दो ही दिन चार में, मच गया परिवार में हाहाकार
अर्थी क़फन सब गये हुये सब फूँस पूला बाँस फरार
शव स्नान की क्रिया गयी, पद पूजन से भी सब नाचार
शवयात्रा खील बताशे फूल, ना करुवे की रही दरकार
पिण्ड़दान कपाल क्रिया भी हमारे तो सब गये संस्कार
ना घी सामग्री मिष्टान कोई बस कोरोना तुझे धिक्कार
एक लीटर पैट्रोल डीज़ल बस यही तो दे रही है सरकार
कोरोना शव वाहन शवदाहगृह आते ही होता हाहाकार
पाँच ने कोरोना किट पहनली और दम घुटने को तैय्यार
अब जैसे तैसे आनन फानन में, बस कर दिया संस्कार
अड़ौसी पड़ौसी सगे सम्बन्धी हैं मजल को सभी लाचार
न रही कोई शवयात्रा जिसमें लोग होते थे हजारों हजार
एक अदद शव को सील कर पहुँचा दिया शवदाहगार
शील्ड़ शव ही चिता में धर दिया, कोई दर्शन ना दीदार
संस्कार भी दुसरे का कर दिया और ये बढ़ गया तकरार
चंचल की है चिन्ता यही ना कोई ऐसा अन्तिम संस्कार
हाथ उठे इस्तेदुआ यही है ऐसा तो ना हो परवर दीगार
मँहगाई की मार
कोरोना तो गया नहीं एक और रोना ने आ हाहाकार मचाई है
खाली थाली चम्मच जो बजाई थी सदा वही लौट के आई है
तेल पट्रोल डीज़ल सरसों भी लग गयी सब तेलों में-में आग़
बेरोजगारी विकल जनता रोये, अब तो फूट गये-गये हैं भाग
कड़क धूप में अपनो की लाशें गोदी ओ साईकिल पर ढोई हैं
याद करो जब मानवता सिसक-सिसक कर सड़कों पर रोई है
गरीब की थाली सिसकी है बिलख तड़फ के वह आज रोई है
गरीब के बूते की बात नहीं अब तन खाती ये आज मँहगाई है
वादों की फसले सूख चुकी फिजाँओं पसरी आज सहराई है
देश में है अधोगति दर घरेलू सकल उत्पाद की भी गिराई है
वादों के रथ पर चढ़-चढ़ के जिन्होने ध्वजा सत्ता की फहराई है
आज कहाँ गये देश के वह रहनुमाँ कैसी उनकी ये रहनुमाँई है
प्याज आलू दाल मसाले थाली से, मजबूर दूर सब गिजाँई है
धर्म के धागे से, मन्दिर की रिदा की, नफासत से की तुरपाई है
आमद घट गयी धन की खुशियाँ गयी मन की कराही-कराही है
सियासत इन्तिखाब में व्यस्त जनता सेतो बस बन्द ही बिनाई है
आज सियासत के इस खेल में एक आग़ ही लगी है घी तेल में
जनता रही है झेल, निकले प्याज से आँसू, जाती हुयी बिनाई है
आज कोई बोलता नही, भेद खोलता नही, है नामचीन की चिन्ता
धर्म ओढ़ेंगें धर्म बिछायेगें श्रीराम को ही खायेंगें ये धर्म धिकाई है
कभी किसान कभी चुनाव, कँगना का अँगना, या चीन का डर
आज मज़दूर मजबूर रोटी से चंचल दूर पर मुद्दा ना मँहगाई है
इस महामारी से
महामारी की कोख से
अब भूख़ उगेगी थोक से
लोग विकल लाचार होंगें
क्या क्या ना होगा इस महामारी से
कौन न जीवन की राह तकेगा
मजदूर मजबूर काम से बेरोजगारी से
लेकर सरकारी कर्ज़, फिर मुक्ति की युक्ति
विकल कौन न होगा इस देनदारी से
भारत में भूख़ भय और भक्ति
सब डर जायेगें इस नादारी से
मजबूर नज़र तृषित हो होकर
गिड़गिड़ायेंगें उद्ममधारी से
अध्यासी और भवन स्वामियों में
होगी विवाद उपज किरायेदारी से
काम नहीं तो बस दाम नही
व्यथित होंगें इस नीति सरकारी से
कँई इसमें भी स्वहित साध रहे हैं
अपनी राजनीति की मक्कारी से
विकास दर की भी साख गिरेगी
जो सम्भलेगी तो बस पर्दादारी से
जन जन भार से भारित होगा
मन भी होंगें कुछ भारी-भारी से
जिन्होंने रोजगारी आश्रय त्याग दियेे हैं
क्या वापस होंगें वह बारी-बारी से
सत्य भी तो अब अदृश्य रहेगा
मिडिया की फरमाबरदारी से
उद्मौगपतियों के उद्मोग बचेगें
अब बहुत ही मारा मारी से
रही राहतें जो शेष हैं चंचल
वो मिल तो सकती हैं मिलेगी वह बस
कल्याणकारी नीति किसी सरकारी से
मन्दिर निर्माण व्यथा
व्यथा अपनी आज सुनाऊँ कैसे
दीन दारिद्रय की मैं घिरा गर्त में
इसे छोड़ कर मैं जाऊँ कैसे
मैं मन्दिर आज बनाँऊ कैसे
तुम तो दानी हो दान वीर हो
समझते मेरी ये व्यथा पीर हो
तुम तो कर्मठ हो कर्मवीर हो
तुम्हारा आभार मैं जताऊँ कैसे
मैं मन्दिर आज बनाऊँ कैसे
मर्म समझते हो मर्मज्ञ तुम हो
धर्म ध्वजा धारित धर्मज्ञ तुम हो
बोलो फिर क्यों तुम गुमसुम हो
मैं तुमको आज जगाऊँ कैसे
मैं मन्दिर आज बनाऊँ कैसे
तुम ज्ञानी हो तुम ज्ञाता हो
तुम तो दानी हो तुम दाता हो
तुम भावुक हो तुम भ्राता हो
मैं आज तुम्हें समझाऊँ कैसे
मैं मन्दिर आज बनाऊँ कैसे
मन्दिर सबका मन होता है
धर्म बड़ा सबसे धन होता है
मन्दिर पवित्र पावन होता है
मन मन्दिर से आज हटाऊँ कैसे
मैं मन्दिर आज बनाऊँ कैसे
जिसमें धार्मिक संस्कार नहीं हैं
जीवन है जीवन का सार नहीं है
धर्म ध्वजा का प्रचार यही है
मैं धर्म ध्वजा आज फहराऊँ कैसे
मैं मन्दिर आज बनाऊँ कैसे
ये धर्म ही तो मुक्ति दाता है
धर्माचारी ही मोक्ष को पाता है
कर्म दशांश मन्दिर को जाता है
तेरे मन ये सोच उपजाऊँ कैसे
मैं मन्दिर आज बनाऊँ कैसे
अनेको मन्दिर आज बने हैं
शिव आलय अम्बर आज तने हैं
मन्दिर मस्जिद गिरजे आज घने है
हर जन सोचे हाथ बढ़ाऊँ कैसे
मैं मन्दिर आज बनाऊँ कैसे
बिन मन्दिर कल्याण नहीं है
पानी लाऊँ अर्जुन के बाण नहीं हैं
हमारे अन्दर वह प्राण नहीं हैं
पैसे लाऊँ पैसे आज बनाऊँ कैसे
मैं मन्दिर आज बनाऊँ कैसे
निष्ठाऐं जब दरकती होती हैं
फिर कहाँ मन्दिर भक्ति होती है
पर भक्ति में ही शक्ति होती है
मैं चंचल भक्ति आज दिखाऊँ कैसे
मैं मन्दिर आज बनाऊँ कैसे
मैं मन्दिर आज बनाऊँ कैसे
दरिन्दों की दरिन्दगी
रात में रिश्ता शमशान से जोड़ रही हूँ
मैं मनीषा बूलगढ़ी से बोल रही हूँ
खेत बाजरे का निरीह नारी रुदन घाघरे का
किसी को हो नसीब मन्जर जो मैंने देखा
जिना ज़ोर जब्र टूट गयी सब सीमा रेखा
मान मर्दन तोड़ दी मेरी गर्दन शरीर सारा छेँका
कलई मैं आज नृशंसता की खोल रही हूँ
मैं मनीषा बूलगढ़ी से बोल रही हूँ
विरत हुयी मैं मात-पिता के नेह से
शासन ख़ौफ़ खाया मेरी मृतक देह से
सबूत सब निकल कर आयेगें थेह से
मैं निकल कर चली हूँ बाबुल के गेह से
मैं शमशान के इर्द गिर्द ही डोल।रही हूँ
मैं मनीषा बूलगढ़ी से बोल रही हूँ
ये क्या मर्दानगी थे काँहे के ठाकुर
अबला नारी के मान मर्दन को आतुर
सत्ता थी अलबत्ता बन गये सब ही भस्मासुर
सुना था ठाकुर नारी रक्षा को होते थे रणबाँकुर
मैं तो हर मिडिया पर हो अब ट्रोल रही हूँ
मैं मनीषा बूलगढ़ी से बोल रही हूँ
मेरी करुण दग्ध आँखे सब देख रही हैं
मानवता आज शर्म से झैँप रही रही
सरकार भी नये-नये पासे फैँक रही है
जबरन बलात्कार फिर भी ना नीयत नेक रही है
सिसकियों से आहों से खोल सब पोल रही हूँ
मैं मनीषा बूलगढ़ी से बोल रही हूँ
मेरी रुह हाथरस में आज भी तड़फ रही है
तुम्हारी आँखें अनिष्ट की आशंका से फड़़क रही है
मेरी साँसे थम गयी पर तुम्हारी साँसे धड़क रही हैं
ये दर्द ये दरिन्दगी सबकी आँखों में रड़क रही है
मैं मरी नहीं हूँ मैं न्याय को दर-दर डोल रही हूँ
मैं मनीषा बूलगढ़ी से बोल रही हूँ
चीत्कार
लो फिर उठा है चीत्कार! एक
ऐ! मानव धराके, अपनी मानवता गिराके
आबरुऐं अबलाओं की उतारी
निरीह कन्याओं की चीतकारी
नित्य प्रति होता है आविष्कार एक
लो फिर उठा है चीत्कार! एक
कन्या कोई जब कहीँ से गुजरती है
ऊपर खुला आसमाँ नीचे बस धरती है
नज़र पड़ी निर्दय दरिन्दों की
आ गयी है शयामत परिन्दों की
चीख़ ने नीरवता को दिया चीर
लो फिर टूट गया परिवार एक
लो फिर उठा चीत्कार! एक
इस आदमी में होता था एक इन्सान
शायद उसका अब हो चुका अवसान
नित्य प्रति वासनाओं का घमासान
निर्विकारता का त्याग कर
आदमी के उर में आया है विकार एक
लो फिर उठा है चीत्कार! एक
नेताओं की ये है रहनुमाँई
ऐश्वर्यता से वासना कुलमुलाई
उनकी तो ये अनुमन्यता तो देख
नित्य प्रति चाहे कुवांरी कन्या एक
तन के भूखे भेड़िये की तृष्णा तो देख
लो फिर हो गया यहाँ शिकार एक
लो फिर उठा है चीत्कार एक
निर्भया का भय या दामिनी का दमन
गीतिका की दुर्गति या मधुमिता पर बेरहम
अनुराधा बाली की अधोगति
या भँवरी की भँवर को गति
हुयी कहाँ नहीं ये चीख़ पुकार एक
लो फिर उठा है ये चीत्कार एक
अस्मत-अस्मिता
आदमी तो तुम दिख रहे थे कुछ भले भले
अस्मत मेरी रौंद कर ज़ालिम तुम कहाँ चले
तुम तो दरिन्दे निकले मैं तो एक परिन्दा थी
अस्मिता थी मेरी तब जब तक मैं जिन्दा थी
आये कहाँ से बन मेरी ज़िन्दगी में जलजले
अस्मत मेरी————-
आहे भर सिसकती रही तिल-तिल मरती रही
खो गया कहीँ आसमाँ मेरा ना कहीँ धरती रही
जलती रोज़ रहूँगी, जब तक मेरी अर्थी ना जले
अस्मत मेरी रौंन्द—————-
किसी नारी ने तुम्हे आँचल में दुबकाया होगा
संरक्षण प्यार ममत्व अथाह तुमने पाया होगा
चीर दिया सीना तुमने, तुम जिस आँचल में पले
अस्मत मेरी रौन्द—————
किसी का अरमान थी मैं दुनिया सजाती अपनी
दरिन्दों ने ना दिया फलने व्यथा घाती कितनी
अंश थी मैंभी प्यार का, थे दिलमें मेरे भी वलवले
अस्मत मेरी रौन्द के—————-
सम्मान नारी का न जाने, क्यूँ नहीं है इस देश में
अबला परिरक्षण होगा कैसे अब इस परिवेश में
दफ्न कर दो चंचल इन्हे देदो इन्हे धरती के तले
अस्मत मेरी रौन्द कर, जालिम तुम कहाँ चले
शराबी-बेवड़ा
बोतल सिर को चढ़ गयी, और ये दारु चढ़ी दिमाग
भूत ना बोतल का ये उतरे, चाहे घर ना जले चिराग़
इक लत बुरी ये पड़ गयी और घर भी हो गया बर्बाद
कमाई उड़ा दी सुरा में, फिर कर्ज़ की करे फरियाद
जिस घर में पल गया बेेवड़ा, वो ना हो सके आबाद
मरते जीेते सुबह-ओ-शाम बस उसे पव्वा रहे है याद
पीकर अपनी मस्ती में मस्त है लगे चाहे घर में आग़
भूत ना बोतल का उतरे————
पत्नी घर-घर मजदूरी करे, उसके तो भाग गये हैं फूट
जतन भी सौ-सौ कर लिये, पर ये दारू रही ना छूट
जीवन यापन अपना कर रही, वो पीकर ज़हर के घूँट
बेवड़े को ग़र पैसा ना दिया तो हो सुबह शाम की कूट
जतन सब कर-कर के हार गयी, अन्त में मिटा सुहाग
भूत ना बोतल का ये उतरे————-
शराबी साथियों को फिरे ढूँढ़ता, सुबह हो चाहे शाम
साथी संगी जब मिल गये, तो फिर चले जाम पै जाम
पीते तो है बड़े लोग भी पर, बेवडे ही हैं क्यूँ बदनाम
कर्ज तक लेकर सब पी गया, नही घर में बचा छदाम
जतन भी कितने ही कर लिये पर ना छूट रहा ये दाग़
भूत ना बोतल का ये उतरे—————
खूब गाली गलोच करता फिरे चढ़ जाये जब जयादा
पर मन पर ना कोई वश चले ना त्याग का कोई इरादा
मन के जीते जीत है पर ये तो ना समझ सके वह नादाँ
त्याग के एक बार देखो तो जीवन परिलक्षित हो सादा
पर घर से तो वैरागी हो गये हुआ इस दारू नहीं वैराग
भूत ना बोतल का ये उतरे चाहे घर में ना जले चिराग़
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