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बहनोई जी (Brother-in-law) यह कौन?
बहनोई जी (Brother-in-law) यह कौन? : हमारी सगाई बचपन में ही हो गई थी। उस समय मैं कक्षा नवम् में पढ़ रहा था। रिवाज़ के अनुसार परिवार के वरिष्ठ रिश्तेदारों ने ही लड़की देखने का कार्य व सगाई की रश्म पूरी की। मैं सोचता था कि जब बालक के लिए कल़म जैसी अस्थायी वस्तु खरीदते समय भी उसकी इच्छा पूछी जाती है तो फिर जीवन भर साथ चलने वाली जोड़ी को तय करते वक़्त परिवार जन यह क्यों भूल जाते हैं कि उनकी देखने की इच्छाओं का हम हनन कर रहे हैं।
खैर मैं किशोरावस्था की स्वाभाविक प्रकृति के अनुसार सगाई के दिन से ही मेरी भावी जीवन सँगिनी से मुलाकात का सपना सँजोये एक के बाद एक कई साल बीतते देखता बैठा रहा। उस समय मोबाइल फ़ोन का प्रचलन केवल बड़े शहरों तक ही सीमित था। मिलने की तो छोड़ो शादी से पहले ससुराल में क़दम रखना भी सामाजिक रूप से वर्जित था। हाँ भूल से यदि किसी दूसरे गाँव में सामाजिक समारोह में दोनों यदि आ भी जाते तो एक-दूसरे को पहचानते नहीं थे।
सगाई को पाँच साल बीत गये। अब तक हमारा मिलना व बात करना हमें नसीब़ नहीं हुआ था। मैं कॉलेज में द्वितीय वर्ष का विद्यार्थी था। पावस काल में सुहावने सावन की शीतल बौंछारें भी मेरी विरहाग्नि को शाँत करने में असफल साबित हो रही थी। मैंने अब तय कर लिया था कि हर हाल में मुझे मिलने जाना ही होगा। कॉलेज से छुट्टी लेकर घर आया।
उस समय सावन के मेलों व त्योहारों की चारों ओर धूम थी। मौके का फायदा उठा कर मैं अपने गाँव से तकरीब़न ३५ किमी दूर भगवान शिव के मन्दिर में सोमवार को भरने वाले मेले में शरीक होने सुबह जल्दी पैदल रवाना हो गया। रास्ते के दोनों ओर रँग-बिरँगे पुष्प अपनी सौम्य मुस्कान लिए अप्रतिम छटा बिखेरते हुए सावनी दुल्हन का श्रँगार कर रहे थे। गहरे काले बादल गड़गड़ाते हुए सावनी ढोल बजा रहे थे। बार-बार दिन में भी तेज रोशनी के साथ धरती पर गिरती आकाशीय बिजली भी मेरे चपल़ कदमों को रोकने में असमर्थ थी। मौसम सुहाना था व लगता था बारिश हो कर ही रहेगी। मैं पहली बार प्रियतमा से मिलने व मुलाकात करने की उत्सुकता में अपनी चाल को और बढ़ाने लगा।
मार्ग में एक सुन्दर तालाब दिखाई पड़ा जो पारदर्शी पानी से लबालब था। तालाब में तरह-तरह के पक्षी अपनी जलक्रिड़ा में मस्त थे। नयनाभिराम नजा़रे को देख कर मैं अपने आप को वहाँ जाने से रोक नहीं पाया। सुबह जल्दी रवाना होने से मैं भूख और प्यास महसूस कर सकता था। मन्दिर अभी भी यहाँ से १२ किमी दूर था। ऐसे में पानी पी कर कुछ समय के लिए विश्राम भी करना चाहता था। शीतल व अमृत जैसे मीठे पानी व सरोवर से गुजरने वाली मलय समीर ने मेरे रोम-रोम में नव उर्जा का सँचार कर दिया था। अब मैं रवाना होने वाला ही था कि कुछ युवतियाँ मुझे सामने से आती हुई दिखाई दीं वे रँग-बिरँगे परिधानों में सज-धज कर शायद भगवान शिव के मन्दिर से दर्शन करके वापस अपने घरों को लौट रही थी। वे कोकिल कंठी बालाएँ भक्ति गीत भी लय और ताल के साथ गा रहीं थीं। जब वे पास आई तो मैंने देखा!
इनमें से कुछ युवतियों को मेैं पहचानता था जो कि मेरे ससुराल से थीं! मेरा मन मयूरा इस टोली में उसके होने की आशा में नृत्य करने वाला ही था कि…एक युवति सरहरे गोरे बदन की दूसरी युवति की ओर इशारा करते हुए चिल्लाई, “बहनोई जी यह कौन है?”
वांका राम परमार
निम्बज, जालोर (राज.)
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