Table of Contents
भारतेन्दु हरिश्चंद्र (Bhartendu Harishchandra)
थामे नवजागरण की मशाल
उठायी ग़रीबी, गुलामी, शोषण के खिलाफ़ आवाज
हिंदी साहित्य में आधुनिक काल का प्रारंभ इनसे ही माना जाता है
भारतेंदु (Bhartendu Harishchandra) इनकी उपाधि थी
पितामह हिन्दी थियेटर के कहलाते है
संस्कृत, पंजाबी, मराठी, अंग्रेजी, उर्दू, बांग्ला, गुजराती पर समान अधिकार रखते थे
बहुमूल्य योगदान के कारण १८५७ से१९०० तक का काल भारतेंदु युग कहलाया
प्रेमसरोवर, प्रेमतरंग, वैजयंती काव्य संग्रह उनके निराले थे
भारत दुर्दशा, अंधेरनगरी, सत्यहरिश्चंद ख्याति के बने थे कारण
मुक्तहस्त से दिए वह दान
न दर से कोई खाली लौटा
अंततः ऋणग्रस्त हुए
कविवचन सुधा का संपादक वो
क्षय रोग से पीड़ित होकर
दुनियाँ से विदा हुआ
हिंदी गद्द के उस परम जनक को
मैं प्रणाम करती हूँ॥
शहीद हुआ जब लाल मेरा
लाल रंग से नहा गया
आंसू मैं न बहा स्की
वो गया था भारत माँ की सेवा करने
पर मैं अकेली रह गई
गोद मेरी सूनी हो गई
कैसे भूलूँ तुझको मैं
पर तसल्ली रखती हूँ
देश हित दिया है पुत्र
मान उसने बढ़ाया है
मा बनकर उसकी मैने
पद प्रतिष्ठा का पाया है
भारत की इस जमी पर
तिरंगे में लिपटा आज वह आया है
लोरी जिसको सुनाई थी
वो अब लंबी नींद में सो गया
ख़ुश हूँ फिर भी
जो मातृभूमि के कर्ज़ वह चुका गया
लाल मेरा आज लाल हो गया
सितारा बनकर आसमान मे
देखो आज खो गया
एक सपना
देखा था एक सपना मैने
जीवन में तुम्हे पाने का
संग हँसने और मुस्कुराने का
चुभते है अब वह टुकड़े टुकड़े
कैसे भूलूँ तुमको मैं
सुध बुध मैंने गवाई है
तुमसे लगन लगाई है
छोड़ा अपना सबकुछ मैंने
जोड़ा जब से तुमसे बंधन
सपना मेरा टूट गया
जबसे तू रूठ गया
क्यो हुआ आज तू पराया है
यह सोच मन घबड़ाया है
तू यर्थाथ न मेरा बन पाया
दर्द ही मेरे हिस्से आया है
हार कर भी मैंने जीवन
को जीना सीखा है
फिर उठकर चलना सीखा है
तुम सपना बनकर ही चले गए
पर मैंने अपने वजूद को निखारा है
कोरे कागज-सा जीवन था
कोरे कागज-सा जीवन था
मस्तिष्क में कोई ज्ञान
टूट चुकी थी हार चुकी थी
बचा नहीं कुछ मन में था
तब आकर जीवन में मेरे
आशाओं का दीप जलाया
हार में भी जीत छिपी है
आँसू में भी कोई हँसी हैं
पाठ ये मैंने उनसे सीखा
और सीखा मैने उनसे
पल पल बढ़ते रहना
हौसलों को छोड़ न पगले
आत्मविश्वास तेरा अडिग रहे
चलता जा बस चलता जा
रुकने का तू नाम न ले
आज हूँ मैं जो कुछ भी
देन अपने गुरु की हूँ
मिट्टी थी मैं बन गई सोना
कोटि कोटि प्रणाम गुरु को
जिनसेमिली ज्ञान की अद्भुत गंगा
सामने जिसके फ़ीकी चांदी
और निर्मूल है सोना
जीवन अपना उन्हें समर्पित करती हूँ
जो जीवन का आधार बने
कंगाल थी मैं आज मालामाल बनी
आशीष अपने गुरु का पाकर
मैं सबसे खुशहाल बनी
मैं सबसे खुशहाल बनी
सोचता हूँ
सोचता हूँ आज क्या खोया क्या पाया
अहं में अपने जीवन को गवाया
जवानी की मखमली धूप में गुम
ख़ुद को ही ख़ुद का ख़ुदा पाया
लगता था वक़्त की डोर हाथों में है मेरे
आज खाली अपना दामन पाया
रंगो से हर भरी महफ़िल
इंतजार करती थी मेरी बेपरवाह मुस्कुराहट का
चला था मौज में अपनी
बनकर सुफियाना
बदले रास्ते, मंजिले भी बदली
अपनेपन की हर निशानिया बदली
था साथ जिसका नसीब मेरा
वो भी गुजरा इक अफसाना हो गया
गलत कौन था वह या मैं ये जानने में जमाना हो गया
आया है फिर वह याद मुझे
जब कदमो ने साथ चलने का
वादा तोड़ दिया
कहाँ तलाश करुँ वह तितलियाँ
जो हर सपने को मेरे रंग अपने देती थी
फिजाओ के हर रुख जो मोहलत मुझसे अपने गुरुर की लेते थे
आज हँसते मेरी हस्ती पर है
शोर तूफानों का अब नहीं आता
मुझे मनाने उसका कोई ख़त नहीं आता
चंद टुकड़े कांच के हाथों में है मेरे
अब इनमें चेहरा देखने कोई
राहगीर नहीं आता
रंगे नूर का वह अब मंज़र नज़र नहीं आता
थाम लू अब दामन किसी का
ऐसा कोई शख़्स ख़ुद-सा नज़र नहीं आता
थकी-सी इन आँखो में अब जन्नत का कोई रहनुमा नहीं आता
तन्हा-सी इन राहों में खलती
अब नादानियाँ अपनी
गुजरा वह वक़्त लौट कर नहीं आता
संग मुझे ले चलने अब कोई अपना नहीं आता…
माटी का ये दिया
माटी का ये दिया
लड़ता है अँधेरे से
सहज सुंदर मोहक
किरणें प्रकाशित करता है
पर क्यों आज अपने महत्त्व को खोता है
हाल पर अपने रोता है
रंग बिरंगी रोशनी,
और तरहतरह की मोमबत्तियों से अपने अस्तित्व को बचाता है
माटी का ये दिया किसी की मुस्कुराहट को समेटे
किसी की उमंगो को लिए आता है
फिर ढ़ेर में पड़ा रह जाता है
किसी के हाथों की गर्मी और जीवन की तपन में पकता है
फिर भी शीतल लगता है
क्यों सामजिक संरचना की तरह
ये भी विभेदीकृत हो गया
मान अपना ये खो गया
झिलमिलाती चमक तहजीब की
मेरा दिया इसमें बेग़ैरत-सा हो गया
मिलता है अभी भी वह पर
ह्रदय की भाँति जैसे जलता है
सुनो उसे फिर से पलकों पर बैठाते है
वो दिया ही माटी का सिर्फ़ इस बार जलाते है
न कोई नकली ज्योत अब भाएँ हमको
हम सादगी को गले लगाते है
आओ हम दिवाली मनाते है
रूठी-सी इस माटी का तिलक लगाते है
पले बढ़ें है जिसमें उसी संस्कृति को, जो जाने कहाँ गईं
फिर तलाश कर लाते है
दिया माटी का जलाते है
सुन माँ अम्बे
सुन माँ अम्बे
हे जगदम्बे
तुझको पुकारे मेरे दिल के रस्ते
बहुत जी मैं बनकर सती
सह गई सब कुछ हँसते हँसते
बेटी तेरी दर पर खड़ी है ते रे
कालरात्रि अब बनकर आ जा
महिषासुर को तूने मारा
शुम्भ निशुम्भ को तूने संहारा
अब क्यो देर करे
आजा माँ कात्यायनी
खत्म करने दुष्टों की कहानी
महागौरी तू शैलपुत्री तू
तू ही माँ चंद्रघंटा है
बनकर कुष्मांडा ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करती
मेरी भी तू स्कंदमाता
सुनकर विनती राक्षसो का वध करने आजा
लज्जा की मैं मूरत हूँ
मुझको दे सिद्धि अपनी
बनकर दुर्गा अनाचार मिटा दूँ
ज्योत जलाऊँ सामने तेरे
अष्टभुजाओं वाली माता मेरी
दानव मैं भी आज मिटा दूँ
चली हूँ लेके त्रिशूल तेरा
लुटेरों को आज सबक सिखाने
सुन माँ अम्बे
हे जगदम्बे
कैसे कह दूँ
कैसे कह दू तुम क्या हो
कोई रूठा-सा ख़्वाब हो
कितनी अधूरी मेरी हसरतों की किताब हो
कायनात में मेरी तेरी ही एक अनकहीं-सी है दास्ताँ
कितनी मुकम्मल है ये चाहते हमारी
आँखों में खुमारी औऱ उसमे तुम
जिसमें हज़ार ख़्वाब बसते हैं
उस दिल में तुम
कोई मेरी खोई-सी मुस्कान तुम
कब कब जागी हूँ नींद से लेकर
तुम्हारा नाम,
कहो न कहो सब सुनती हूँ मैं
धड़कनो के शोर में तुमको चुनती हूँ मैं
क्या आलम है हमारा जाने जमाना
जो जानकर भी अनजान हैं वह हो तुम
मेरी आँखों की हर बारिश का
रंग हो तुम
मेरे जीवन के सुरमयी आसमान का काजल हो तुम
कभी तो मिलने आओ
कमियाँ है मुझमे लाख
कोई तो खूबी बताओ तुम
इंतजार करते-करते शाम हुई
कोई सुबह तो लाओ तुम
कब से बैठी हूँ ख़ुद को तेरे हवाले करके
कोई तो तारीख़ बता आने की
हम बमुश्किल साँसों को रुकने से रोके है
सरकारें आती हैं जाती है
सरकारें आती हैं जाती है
पर कोई सुदर्शन चक्र क्यों नहीं बनाती हैं
आपस में लड़ती और लोकतंत्र पर राजनीति करती हैं
क्यों सेल्फ डिफेंस के प्रशिक्षण नहीं चलाती हैं
डर जाए वह हर नजऱ जो औरत पर उठती है
अपनी अपनी रोटी सैके सब
घर किसी मासूम का जलता है
मरती है किसी की लड़की
अपनी तो सुरक्षित है
यही धारणा सबके मन में बसती है
कभी निर्भया, कभी प्रियंका, कभी आशिफ़ा के नाम पर कैंडल मार्च निकलती है
फिर कुछ दिन बाद चुनावी खिचड़ी पकती है
जाँच पर जाँच चलती है
पीड़िता के घर की घेराबंदी होतीहै
पुलिस लगी है चारों ओर
लोकतंत्र का चौथा स्तंभ प्रेस कहलातीं है
वही गाँधी जयंती पर अपने अधिकारों की गुहार लगाती है
आदेश ऊपर से है पर
कितने ऊपर से ये समझ न आता है
बेटी से अपनी जब छेड़छाड़ का विरोध पिता करता है तो सिर पर गोली खाता है
सारे भारत का हाल यही है
मज़हब पर न जाओ किसी के
अपराधी का न कोई धर्म ईमान होता है
वो इंसान नहीं भेड़िया होता है
क्यों अपराध तय करने में वक़्त इतना लग जाता है
कि कानून की किताबों में धाराओं
का इंतज़ार करते-करते इंसाफ
सिसकता रह जाता है
अरे नया कोई कानून बनाओ
न खेले कोई विकृत मानसिकता का खेल
डर लगता है बेटी पैदा होने से
कैसे इसको बचाएंगे
लड़की होने की सजा ही लड़की पाती है
तो फिर क्यो दुर्गा पूजी जाती है
घूंघट भी बहुत डाले, लक्ष्मण रेखा भी न पार की
फिर क्यो चीर हरण हुआ
चिता जलती बेटी की
न माँ बाप को ख़बर होती है
मेडल वाले अधिकारी
हँसी ठिठोली करते हैं
क्या यही है शिक्षा जो
आमानवीयता सिखाती है
बनकर अधिकारी क्यो संवेदनहीन हो जाते हो
कैसे ख़ुद से नजरें मिलाते हो
क्या दोष दू, तुमको तुम तो आदेश बजाते हो
क्या होगा शहरों का नाम बदलने से
जब भारत का नाम डूब गया
शर्म करो नित आबरू लूटती है
तुम मंदिर मस्जिद के नाम पर
लोगो को उलझाते हो
अरे बनकर राजा प्रजा का पालन करना होगा
यही धर्म है इसपर तुमको चलना होगा
नही तो दिन अब वह दूर नही
अपना इंसाफ आप करेंगे
खुद को ख़ुद महफूज़ रखेंगें
जागो अब चिरनिद्रा से
इधर उधर की छोड़ो तुम
भारत के नेता बनकर
भारत से नाता जोड़ो तुम॥
स्वागत गीत
स्वागत बारम्बार ओ मैया
स्वागत बारम्बार
शैलपुत्री नाम तुम्हारा
पर्वतराज हिमालय की पुत्री कहलाती हो
दुर्गा का पहला स्वरूप हो तुम
हाथों से अपने माला गुलाब की
बनाई है मैंने
प्यार जिसमे
अपना पिरोया है
तोरण बाँधा दरवाजे पर
थाली ख़ूब सजाई है
बैल तुम्हारा वाहन है
आरोग्य का वरदान देती हो
आओ
अब माँ घर मेरे
क्यों देर लगाती हो
सोलह शृंगार माँ करूँ मैं तेरा
मेहंदी तुझको लगाती हूँ
लाल चुनरिया झिलमिल करती
सितारों से जड़कर तुझे ओढ़ने लाई हूँ
छम छम करती पायल देखो घुंघरू कितने बजते है
दीप जलाकर बैठी हूँ
रास्ता देखूँ आने का
प्रेम स्नेह से भोग लगाऊँ
भाँति भाँति के पकवान बनाऊ
भाव मन के तुमको सुनाऊ
राह में तुम्हारी ह्रदय को अपने
बिछाय, खड़ी हूँ माँ ज्योत जलाएँ
पावन मुझको कर दो अब
आसन पर विराजो
देखो नगाड़े बजते है
स्वागत बारम्बार ओ मैया
स्वागत बारम्बार॥।
पद्मनाभ
“वह जिसकी नाभि में कमल है
पद्मनाभ कहलाता है”
भगवान विष्णु का एक ये अन्य नाम कहलाता है
विष्णु जी की विश्राम अवस्था भी पद्मनाभ कहलाती है
विष्णु का मंदिर एक अनोखा
केरल राज्य के तिरुअनंतपुरम बसता है
राजा मार्तण्ड वर्मा ने इसका निर्माण कराया
विष्णु के-के सबसे वैभवशाली मंदिरों में अग्रणीय माना जाता है
सात तहखानों का मंदिर ये राज गहरे रखता है
६तहखाने तो खुल गए
जिनसे निकली अकूत संपत्ति
आख़िर का जो एक शेष रहा
वह न कभी खुल पाया
जब गये खोलने, घनघोर मुसीबतों ने घेर लिया
जाने क्या कुदरत चाहती है
क्या राज छिपाती है
अनकहा-सा कुछ है अभी मन्दिर की दीवारों में
हो न कुछ अनर्थ इसलिए बन्द ही वह दरवाज़ा रहा
विष्णु की लीला ये विष्णु ही जानें
हम तो चाहें नाथ तुम्हें
हे पद्मनाभ चरणों में शीश झुकाते है
महिमा का गान तुम्हारी गाते हैं
नेहा जैन
यह भी पढ़ें –
1 thought on “भारतेन्दु हरिश्चंद्र (Bhartendu Harishchandra)”