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धैर्य के पुजारी (priest of patience)
priest of patience : रातो-रात मिली
तरक्कीयों को बड़ा
लंबा वक़्त लगता है
वर्तमान के क्षणों से ही भविष्य बदलना पड़ता है
अपने लक्ष्यों को बड़ा करना पड़ता है
सोने की चमक पाने को जलना पड़ता है
कठिन से कठिन परिस्थितियों से लड़ना पड़ता है
परीक्षाएँ देने के बाद इंतज़ार करना पड़ता है
सत्य के मार्ग पर चलना पड़ता है
“धैर्य के पुजारी” की
सफलता को भी दासी बनना पड़ता है
आ बैल मुझे मार
मैं कर रही थी बस का इंतजार
तो सुनाई दी मुझे एक पुकार
मैंने देखा उस पार
दोनों हाथ फैलाए
बगल में थैला दबाए
फटे पुराने वस्त्र लटकाए
शर्म से मुंह छुपाए
घबराई-सी मेरे पास आई
दास्तां उसने अपनी सुनाई
मुझे बड़ी दया आई
उसने देखा ऐसे
जैसे मांग रही हो पैसे
मैंने जेब में देखा टिकट के अलावा
नहीं था उसमें एक पैसा
मरती क्या ना करती वही दे डाले
पाकर पैसे वह खाने लगी आम रस वाले
स्टैंड पर बैठी अब मैं कर रही थी
ऐसे शख़्स का इंतजार
जो सुनता मेरी पुकार मदद करके फंस
गई बेकार
“आ बैल मुझे मार”
यह पंक्ति मुझ पर
हो गई साकार
जिम्मेदारी
एक कोर जैसे ही मुंह में डाला
आह की आवाज़ कलेजे को चीर गई
पानी उठाने की कोशिश में मां
चारपाई से गिर गई
सुबह से शाम तक काम की तलाश की भटके
अब तो रहम कर ऐ जिंदगी
और ना दे झटके
एक दुर्घटना में पिता ने साथ छोड़ा
मां का ही है अब सहारा थोड़ा
इतना तो दे ऐ ख़ुदा क्या तूने
समझा है मुझे इस जहाँ से जुदा
दूर कर दे मेरी सब लाचारी
इतनी बरकत दे कि कर पाऊँ
दूर माँ की बीमारी
निभा पाऊँ अपनी हर “ज़िम्मेदारी”
श्री राम जी की पताका लहराई है
दिन गुजरे साल निकले सदियों तक बिताई हैं
बलिदानों से पटी पड़ी सैकड़ों खाई है
अहंम के कितने बादल फटे झूठ की अनगिनत दीवारें ढहाई है
अपना घर होकर भी असंख्य रातें तंबू में बिताई हैं
सत्य की राह में बेशक कठिनाई है
सहनशीलता धैर्य विश्वास ने ही विजय दिलवाई है
भक्ति की शक्ति आज समझ में आई है
दिव्य और भव्य मंदिर के निर्माण की ख़ुशी में आंखें भर आई है
इंतजार ख़त्म हुआ चारों और खुशियाँ ही खुशियाँ छाई है
शिव जी ने डमरु माँ शारदे ने वीणा बजाई है
कान्हा की बंसी भी देने लगी सुनाई है
हनुमान जी ने भी राम नाम की अलख जगाई है
दुल्हन-सी सजी अयोध्या सुंदरता पर अपनी इतराई है
सदियों बाद शृंगार करके मुस्कुराई है
चारों धामों की मिट्टी
पवित्र नदियों का जल
कितने अमूल्य है ये पल
इस शुभ मुहूर्त के साक्षी होने की ईश्वर ने हम सब पर कृपा बरसाई है
कुछ तो ख़ास है प्रभु की लीला
लाखों-करोड़ों में सिर्फ
मोदी जी ने ये जिम्मेदारी उठाई है
पांच अगस्त दो हज़ार बीस की वह शुभ घड़ी आई है
उन्होंने राम मंदिर निर्माण की नींव पर पहली ईंट लगाई है
पूरे देश में आज मिलकर दिवाली मनाई है
अंधेरी रात में भोर ने ली अंगड़ाई है
लगता है अयोध्या से उड़कर समीर आई है
सरयू का जल बोछारों में लाई है
फिर से अवध में बहार आई है पूरे विश्व में
“श्री राम जी की पताका लहराई है”
राखी भाई बहनों का त्यौहार है
बहनों का भाई की कलाई में बाँधा एक अनोखा उपहार है
राखी कोई धागा नहीं बहनों का प्यार है
एक पवित्र डोर से बंधा भावनाओं का संसार है
जिसका होता पूरे वर्ष
बेसब्री से इंतज़ार है
लंबी उम्र सुखी जीवन की कामना है
सुख दुख में एक दूजे को थामना है
हर तरफ़ खुशियों की बौछार है
“राखी भाई बहनों का त्यौहार है”
आखरी सांस तक रहेगी ये आस
मैंने भी देखे हैं ख़्वाब बड़े-बड़े
इस ज़मीं पर नंगे पांव खड़े-खड़े
इस नील गगन के पार हो एक अनोखा संसार जहाँ ना हो कहीं अंधकार
चारों ओर हो खुशियों की फुहार
करें सब कर्म की पूजा इससे बड़ा ना हो कोई धर्म दूजा
दुख दर्द का ना हो नामोनिशान
फरिश्तों से लगे हर इंसान
सच्चाई के सिर पर हो ताज
झूठों की बंद हो आवाज़ सिर्फ़ हो प्रेम-प्यार
ना हो कोई घात-आघात
दुख तकलीफों का भी ना हो दूर-दूर तक साथ
चारों और हरियाली हो छाई
खिले फूल लगे हर कली मुस्काई
दोस्तों ऐसे ही अनगिनत हंसी ख़्वाब सजाए हैं हमने
रुखसार पर उनके तिल भी लगाए हैं हमने
हो जाए पूरे सभी काश
“आखिरी सांस तक रहेगी ये आस”
बुढ़ापा
अब तो सांस भी घुटने लगी है मेरी।
आंखें भी धसनें लगी है।
शरद झोंके भी सह नहीं पाता।
लड़खड़ाते हुए कदमों से
भी चला नहीं जाता।
सुनाई देती नहीं घंटियां मंदिरों की।
आईना अब मुझे नहीं भाता।
दिखाई देने लगी है
सफेदी बालों की
दो घड़ी पास कोई नहीं आता।
कितना विशाल था
यह सागर कभी
दो बहुत जल अब नहीं समाता।
इसमें क्या बात है ।
चुप रहने की शायद
अब आ गया है
” बुढ़ापा “
इंसानियत का पाठ पढ़ाएँ
ऐकता में अनेकता के गीत
क्यों बुझे-बुझे से होकर गायें
अपनी विशेषताओं को ना भूल कर
अलगाववादी नीतियों से एकजुट होकर पीछा छुड़ाएँ
गरीबी बेरोजगारी भ्रष्टाचारी से लड़े
और अमन चैन का एक गुलिस्ता बनाएँ
एससी एसटी ओबीसी जरनल कैटेगरी
बंद करके फिर से सविधान की एक
नई प्रस्तावना लिखी जाए
ना कोई हिंदू हो ना मुस्लिम
ना कोई सिख और ना ही ईसाई
ना कोई जाति ना कोई धर्म
जिसमें हम सब भारतवासी कहलाए
अपनी योग्यता के अनुसार हर
कोई अपनी मंज़िल को पाये
इतिहास में रहने की आदत को छोड़
वर्तमान में बात करने से ना शर्माए
जो दिमाग़ में चलता है वही
जुबां पर लाएँ
अपने अधिकारों को समझ कर अपने
कर्तव्य निभाएँ
आने वाली पीढ़ी को “इंसानियत का पाठ पढ़ाएँ”
कुछ भी तो नहीं बचा
तिरंगे में लिपटे हुए जिस्म को,
लाल के जब सीने से लगाना पड़ा।
दो बूँद भी न बहे पलकों से,
बेटे को दिया वादा निभाना पड़ा।
शहादत पर रोया जहाँ सारा, हिल गया घर गलियारा,
अश्कों को अपने छुपाना पड़ा।
करना था जिसके कांधे पर अंतिम सफर,
आज जनाजा लेके उसका जाना पड़ा।
कुछ और होता तो कहते दोस्तों,
ये बयाँ करना इतना आसां नहीं।
शहीद के पिता का दर्द,
किसी से भी छुपा नहीं।
जिस्म से रूह निकल जाये तो,
“कुछ भी तो बचा नहीं।”
सबके साथ आता है
सीता हरण के बाद जानते हो
श्री राम ने कैसे अकेले वनवास काटा है?
राधा से दूर जाकर मथुरा में
मोहन का दिल भी तो कांपा है
जिस पर गुजरी है वही समझ पाता है
घर परिवार संसार अकेले ही थोडे बन पाता है
जाने क्यों कई लोगों को अकेलापन भाता है?
जिंदगी का असली मजा तो
“सबके साथ ही आता है”
अनकहे रिश्ते
रिश्ते साथी-सहारे सब छूट जाते है।
तब पैरों तले की ज़मीन खिसकी हुई पाते हैं
सुखी ज़मीन पर सुनामी बवंडर आते हैं
तो दुखों परेशानियों मुसीबतों के
पत्थर गाद बहा-बहा कर लाते हैं
ज़रूरत पड़ने पर सभी भूल जाते हैं
पहचान कर भी दूर से ही नजरें चुराते हैं
तब कुछ अच्छे कर्मो का इनाम पाते हैं
तो अजनबी अनजान खुदा का रूप बनकर साथ निभाते हैं
कुछ भी ना कह कर सब कुछ कह जाते हैं
कभी तन्हाइयों में कुछ ऐसे ही
“अनकहे रिश्ते” याद आते हैं
कैसे करू तेरा शुक्रिया?
सर को होले से सहलाना तेरा।
भुला देता है माँ सब दुःख दर्द मेरा।
छिपाना चाहूँ मैं ग़र कुछ भी तो,
बिन कहे ही तू सब बता देती है।
तपती धूप मैं ममता की छाँव तेरी,
शीतल चांदनी की ठंडक देती है।
ख़त्म हो जाएंगे जहाँ के सारे पन्ने,
कैसे लिखू चंद लाइने तेरे बारे में।
जन्म से आज तक तू ही तो है।
मेरे मन के गलियारे में।
तूने मुझे पैदा करके,
जिंदगी दी, नया नाम,
नया परिवेश दिया।
करोड़ो जन्म भी कम है।
कैसे करू तेरा शुक्रिया?
जिये जा रहे हैं
तंगहाली पर मेरी रोया ये जहाँ,
पर मेरे अपनों की, आँख भी गीली न हुई।
रोशन कैसे करू चिराग़,
तीलियाँ भी तो हैं सीली हुई।
टूट के बिखर जाते हैं बार-बार,
जुड़ने की कोशिस में।
बिखरने भी नहीं देती ये, कोशिसे ऐ-दिल।
बता के ये वक़्त क्यों है? इतना संगदिल।
क्यों खफ़ा है? हमसे इतना बार-बार।
चोट पर चोट किये जा रहा है।
हिम्मत तो देखो इसकी,
साथ खड़ा मुस्कुरा रहा है।
बेसुद से पडे हैं तेरी जमी पर ऐ-खुदा।
कोन हैं? क्या हैं? क्योंहैं?
इसी जद्दोजहत मैं जिए जा रहा है
बैठ के मयखाने में दोस्तों,
मय पर मय पिए जा रहा हैं
फेंक के पत्थर दरिया में,
सुनामी के डर से,
जिए जा रहे हैं
हमारा देश आगे बढ़ा है
बेवजह उनके रुख तिलमिलाए हैं
अब तो चीटियों के भी पर निकल आए हैं
चाइना पाक नेपाल ग़र बाज ना आए तो
हिंद गरज कर नहीं बरस कर दिखाएगा
पानी सर से ऊपर आने लगा है
विश्वासघातीयों को उनकी सही औकात दिखाएगा
कैसे-कैसे बे मौसमी मेंढक निकलते हैं
लाल किले पर परचम लहराने की बात करते हैं
दुश्मनी का बदला लेना हमें भी बखूबी आता है
पर बेकसूरों को ना मिले बिना जुर्म सजा
ये हमारा मज़हब सिखाता है
देखो कैसे पुलवामा दोहराने की साज़िश नाकाम हो गई
विस्फोटक लिए ६० फुट ऊंची उड़ी सेंट्रो
चिथड़े चिथड़े बनकर कहीं गुमनाम हो गई
हमने तो तुम्हें तुम्हारे घर के भीतर घुसकर उड़ाया है
और देखो अब गीदड़ शहर की ओर आया है
तुमने हमारे देश में घुसने की हिमाकत की है
जान लो अब ख़ुद ही आफत मोल ली है
ड्रैगन तेरी सारी साजिशें भी बेनकाब हो गई
लद्दाख में जंग की तैयारी भी अब सरेआम हो गई
महासागरों ऊंचे शिखरों को निगलने की ताक में लगा है
तेरी दोस्ती तो सिर्फ़ दग़ा है
करो ना जैसा जैविक हथियार सारी दुनिया के सर मंडा है
हम भी नहीं है इतने खोखले हमारे सीनों में भी बारूद भरा है
हिंसा की डगर तो आसान है पर
हमारी संस्कृति पर तो संस्कारों का रंग चढ़ा है
विश्व में सत्य अहिंसा प्रेम शांति का संदेश लेकर
हमारा देश आगे बढ़ा है
पापा आप बहुत याद आते हो
भरी दुपहरी में विशाल वृक्ष की ठंडी छांव बनकर
सुकून के गाँव तक ले जाते हो
पापा आप बहुत याद आते हो
कुछ भी नहीं बच्चों की ख़ुशी से बढ़कर
सब को खुश देख कर जब आप मुस्कुराते हो
पापा आप बहुत याद आते हो
आज भी मेरे सपनों में वह प्लास्टिक की
पीं पीं करने वाली गुड़िया लाते हो
पापा आप बहुत याद आते हो
अपनी बिटिया को खेलती देखकर
पापा के संग अपने
आप भी मेरे दिल के दरिया
में गोता लगाते हो
पापा आप बहुत याद आते हो
बरसों बीत गए घर मायका बने
ससुराल ही तेरा घर है इस नसीहत से
हर बार रूबरू कराते हो
पापा आप बहुत याद आते हो
कभी यूं ही मन अशांत व्याकुल विचरता है
तो लगता है कि आषीशों की बौछार करके
होले से सर को सहलाते हो
पापा आप बहुत याद आते हो
रास्तों के हर कांटो को चुन-चुन कर उठाते हो
हर क़दम हर पल हर मुसीबत में हौसला बढ़ाते हो
पापा आप बहुत याद आते हो
आज समझ आई हर बात की गहराई
कोरे उपदेश ब्लैक एंड वाइट लगती थी कभी
अब हर बात में कलर नज़र आते हो
पापा आप बहुत याद आते हो
दिल्ली चंडीगढ़ में दूरी कुछ भी नहीं
सिर्फ चार-पांच घंटे का है सफर
टेलीफोन पर भी चाहे बतियाते हो
पापा आप बहुत याद आते हो
गीता उपाध्याय
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