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रमा बाई अम्बेडकर (Rama Bai Ambedkar)
रमा बाई अम्बेडकर (Rama Bai Ambedkar)
सात फरवरी सन
अठरा सौ अठानवे।
भीखू घर रुक्मणि जाई,
रमा बाई (Rama Bai Ambedkar) जिसका नाम वे॥१॥
नौ बरस की नन्ही कली,
भीमराव के संग चली।
खेलन के थे दिन जिसके,
उस उम्र घर पिया के चली॥२॥
चार चार रत्न जाहे निज कोख से,
रमेश, राजरत्न, यशवंत, गंगाधरा।
जिसके बिन था मसीहा अधूरा,
बन रामु साहेब की किया उसे पूरा॥३॥
मसीहा के संग मिल रमा ने,
बदले दबे कुचलो के भाग।
अपने बुझा औरों के जलाए,
जो सींचे निज रक्त चिराग॥४॥
उपले बेचे बेचा निज सुख चैन,
पड़े मांजने ओरन के घर बरतन।
साथ निभाने बाबा साहेब का,
किए उसने यह सब जतन॥५॥
शिक्षा पूरी करने अपने साहेब की,
बेच दिए निज रत्न सब गहने।
त्याग, तप, समर्पण थे जिसके गहने,
वो क्या सोना, चांदी, माणक पहने॥६॥
प्यार से भीम जब कहे है रामु,
वो भी भीमराव को साहेब बुलावे।
ना जाने क्या रोग लगा था उसे,
इतना जल्दी क्या किसी को मौत बुलावे॥७॥
सम्भाला जिसने बोझ मसीहा के घर का,
भरा था जिसमे साहस कूट-कूट कर।
दे गई जान अपनी पर हित में,
मसीहा भी रोया था फूट-फूट कर॥८॥
त्यागमयी, रमामाई, वह रमा बाई,
ऐसे कई नाम वह पावे।
“बिरजू” जीव इस जगत में,
रमा-सा कोई हो न पावे॥९॥
मैं मजदूर, हूँ अब मजबूर
मैं मजदूर, हूँ अब मजबूर,
मैंने मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा बनाया।
जब आई विपद मुझ पर,
सब ने मुझे दर-द्वार भटकाया॥१॥
न बनते बंगले, मॉल मुझ बिन,
न सड़क, पुल और अस्पताल।
रोटी रोज़ी थी मेरी मजदूरी,
छीन गई यह भी, हुँ अब खस्ताहाल॥२॥
फेक्ट्री चलाई और चलाई मील,
हर वक़्त उठाया सबका बोझ।
अब भटक रहा हूँ दर बदर,
उठा न सका कोई मुझ पर से बोझ॥३॥
रुई उठाई, बुना कपड़ा धागा,
निज तन को बचाने अब घर को भागा।
पड़ गए छाले पांव में, सिर पर है न छाया,
फिर भी दौड़ा उस ओर जहाँ जन्म पाया॥४॥
डामर कंकरिट जिस पर डाला,
आज उसी सड़क ने मुझे सम्भाला।
थाम उंगली मेरी, दौड़ पड़े बच्चे इस पर,
हाय कोरोना तू ने यह क्या कर डाला॥५॥
देखो मुझ मज़दूर की मजबूरी,
भूख ने मिटाई सामाजिक दूरी।
आई विपद जब मुझ पर भारी,
क्यों नहीं घट पाई मेरी घर से दूरी॥६॥
खेती किसानी सब भूल गया,
वक़्त ने मुझे बस मज़दूर बनाया।
जब खाली हाथ सब ने निकाला,
निज गाँव खेत अब याद आया॥७॥
पर था क्या दोष मुझ मज़दूर का,
सब ने ही तो दी मुझे मजदूरी (काम) ।
अब जब भूख मुझ पर मंडराई,
क्यो दिखलाई तुम सब ने मजबूरी॥८॥
आया संकट कोरोना में जीवन पर,
सब ने क्यों मुझे दर-दर भटकाया।
‘बिरजू’ जब दौड़ा मैं घर की आस में,
घिस-घिस कर मिट गई मेरी काया॥९॥
कुदरत का इंसान
करतब दिखाती कुदरत
नाच नाचता इंसान।
रहती जब तक शांत कुदरत
रहता खुशहाल इंसान॥
पर छेड़ देता मानव चक्र कुदरत का।
फिर बरसता इस धरा पर कहर कुदरत का॥
अन्न जल है देन प्रकृति की
है जिस पर ज़िंदा इंसान।
हर ज़रूरत पूरी करती
फिर क्यों ललचाता इंसान॥
जितनी जिसकी जररूत ले उतना दान कुदरत का।
ताकि मिले हर मानव को वरदान कुदरत का॥
है घातक प्रदूषण पर्यावरण के लिये
भले तरक़्क़ी हो इससे महान।
पर्यावरण के घटक जल पवन ध्वनि
करे दूषित इसे रोज़ इन्सान॥
जब बिगड़ा सन्तुलन इस धरा पर कुदरत का।
तब लोभी मानव ने झेला कोप कुदरत का॥
अम्लीय वर्षा से जलता सीना धरती का
छिद्रित हो रही परत ओजोन।
निर्लज निर्दय मानव बन दानव
क्यो देख रहा है बैठा मौन॥
“बिरजू” तुझ पर एहसान इस कुदरत का।
हर पल शुक्र गुजार बन इस कुदरत का॥
मनीषियों के देश की मनीषा
मनीषा हुई मौन
देख कर
हैवानों की हैवानियत
दम तोड़ती इंसानियत
सत्ता धारी की हैसियत।
इस देश की धर्म की बुनियाद को
जो बक्श देते है देख जाति बलात्कारी को।
था क्या दोष
कि वह दलित थी
या फिर बेटी थी
हैवानों ने पार की
हर हद हैवानियत की
फिर भी नहीं खुली
नींद सत्ता धारी की।
गर्दन काटी
ताकि देख न सके
फिर मुड़ कर देश को
जहाँ मिलकर लूटते
सत्तालोलुप वहशी दरिंदे
बेटी की इज़्ज़त को।
तोड़ी हड्डी रीढ़ की
पर मैं कहता हूँ
टूटी है मर्यादा
तथाकथित मर्यादा पुरुषोत्तम के
उस प्रदेश की
जहाँ सुरक्षित नहीं बेटी
इस भारत महान की।
जीभ कटी एक मनीषा की
हुआ गूंगा पूरा देश
दिखा दी चौथे स्तंभ ने
अपनी ओकात
कि नहीं करता वो
पैरवी बिन पैसे बिन जात
भले मरे हजारो
मनीषा जैसे निम्न जात।
ठाकुर, पुलिस सत्ता मीडिया
सब खेल रहे मिलकर डांडिया
जला दी जाती आधी रात को
दलित बेटी की टूटी बिखरी
चीथड़ों में लिपटी लाश को।
बिरजू गुनाह है इस देश में
बेटी बन के पैदा होना
उससे भी बड़ा गुनाह
दलित घर की बेटी होना।
नया दौर फिर आएगा
कोरोना की यह महामारी,
पड़ रही अपने वतन पर भारी।
चारो ओर मची है हाय हाय,
संकट आ पड़ा है कैसा भारी।
पर ना घबरा तू यह पल बीत जाएगा।
नया सवेरा नया दौर फिर आएगा॥
रेमडेसिवर और ऑक्सीजन की,
हर तरफ़ हो रही कमी।
प्रति क्षण बढ़ रही यह विपत्ति,
न जाने कितनी सांसे है थमी॥
इस अंधेरे के बाद उजाला फिर आएगा।
नया सवेरा नया दौर फिर आएगा॥
शवों के लग रहे अम्बार,
कतारे लगी है शमसान में।
कौन जलाए कौन दफनाए,
खड़े इसी खींचातान में॥
बुरा वक़्त एक बार फिर बदल जाएगा।
नया सवेरा नया दौर फिर आएगा॥
दो गज की रखो दूरी,
पहनो मास्क धोओ हाथ।
संकट की इस वेला में,
थाम लो एक दूजे का हाथ॥
मिल कर लड़ेंगे तो कोरोना भाग जाएगा।
नया सवेरा नया दौर फिर आएगा।
दुश्मन एक है हमारा इस जंग में,
बचाव के हथियार से है हराना।
जो रखेंगे हम सब संयम,
हारेगा एक बार फिर कोरोना॥
मुश्किल यह समय “बिरजू” कट जाएगा।
नया सवेरा नया दौर फिर आएगा॥
सच्चा मित्र
इस जैसा नहीं है कोई रिश्ता
भले ना हो यह लहु का नाता।
पल भर भी मिल जाए साथ इसका
यह ग़म दुनिया भर का भुला जाता॥
मित्र, मीत, मितवा, दोस्त, सखा
चाहे जो कह दो रिश्ता यह पका।
बेफिक्री के आलम में होता जब
हर दुख को देता है धक्का॥
केवल बैठने से साथ इसके
जीवन की हर उलझन सुलझे।
निज मीत हित हेतु बेख़ौफ बन
बड़े से बड़े दुश्मन से उलझे॥
चाहे दुःख हो या हो परिहास।
कभी ना रखे एक दूसरे से आस।
जीवन भर चलती है यह मित्रता
संग मीत के प्रेम स्नेह विश्वास॥
मोहताज नहीं यह केवल एक दिन का
हर दिन होता है मित्रता दिवस
जो सच्चा मन मीत मिल जाए बिरजू
फिर बन जाए मौज हर दिवस॥
बीजाराम गुगरवाल “बिरजू”
राज्य स्तरीय शिक्षक सम्मान से सम्मानित शिक्षक
चारलाई कल्ला बाड़मेर
यह भी पढ़ें-
१- पर्यावरण का महत्त्व एवं संरक्षण
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