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वृद्धाश्रम (old age home)
कुछ स्वयंसेवी संगठन एक महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए सर्वेक्षण किया जो वृद्धाश्रमों (old age home) की बढ़ती हुई संख्या और इसका जनमानस पर प्रभाव व परिणाम। क्या वृद्धाश्रम (old age home) मानव संस्कृति का हिस्सा था या अगर ऐसा नहीं तो इसकी शुरुआत कैसे हुई? जब मनुष्य खेती करने लगा तब मानवीय समाज ने संस्कृति की रचना की।
इंसान का परिवार उसके विवाह के बाद शुरू होता है। पति-पत्नी दोनों एक दूसरे का आजीवन साथ निभाते हैं। यह एक ईश्वरीय संकेत है। बच्चों को जन्म देना, पालन करना, बड़ा करना आदि ऐसे काम हैं जिससे माता-पिता को नैसर्गिक आनन्द मिलता है। जब बच्चे अपना परिवार बसाते हैं तो उनका मार्गदर्शन करने की जिम्मेदारी माता-पिता की होती है। धीरे-धीरे समय गुजरता है और बच्चों का भी विवाह हो जाता है, अब वृद्धावस्था में पहुँचे माता-पिता की जिम्मेदारी बच्चे उठाते हैं। क्योंकि यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो वे जब वृद्ध होंगे तो बच्चे उनका ख़्याल नहीं रखेंगे।
ऐसा कहा जाता है कि “बेबी सिटिंग” ही वृद्धाश्रम की बुनियाद है। संयुक्त परिवार लुप्त होते जा रहे हैं। पारम्परिक मान्यताएँ, अवधारणाएँ निरन्तर खंडित हो रहीं हैं। इसका सर्वाधिक प्रभाव वृद्धों पर पड़ता है। असहाय वृद्ध क्या करे? ऐसी स्थिति में वृद्ध को यदि वृद्धाश्रम का सहारा मिलता है तो बच्चों को निश्चिंतता का आभास होता है। किन्तु इसे बच्चों की संवेदनहीनता, संस्कारहीनता और नकारात्मक सोच माना जाता है।
वास्तव में वृद्धावस्था एक तरह की बचपन की अवस्था है, इस अवस्था में हर व्यक्ति एक समय के बाद गुजरता है, इसे नजरंदाज नहीं कर सकते। वृद्धों को वृद्धाश्रम में भेजकर उन्हें कुंठित व दुखी नहीं करना चाहिए। वृद्धों की उपेक्षा एक बार तो हम करते हैं पर यह भूल जाते हैं कि हमारा भूत, वर्तमान इन्हीं की वज़ह से है। और यह भी सोचना चाहिए कि भविष्य में हम भी वृद्ध होंगे। यह भी समझना चाहिए कि उनके माता-पिता ही हैं जो उन्हें बिना शर्त प्यार करते हैं।
कुछ लोगों के लिए वृद्धाश्रम आशीर्वाद हो सकता है किन्तु अन्य लोगों के लिए या यूँ कहें कि अधिकांश लोगों के लिए यह एक अभिशाप है। स्थिति हर परिवार की अलग-अलग होती है। हालांकि वृद्धाश्रम वृद्ध लोगों के लिए अंतिम आशा है। इसलिए उन्हें हर सुविधा से सम्पन्न होना चाहिए। अतः यह कहना उचित है कि वृद्धाश्रम अंतिम लक्ष्य नहीं बल्कि भागदौड़ की ज़िन्दगी से कार्यबोझ से बचने का एक कुत्सित सोच मात्र है।
विधवा विवाह
संसार में अन्यत्र विधवा विवाह को कानूनी, सामाजिक हर तरह की मान्यता है। लेकिन भारत में यह पाप की श्रेणी में रखा जाता है। विधवा विवाह को समाज सामान्यतः मान्यता नहीं देता। इसमें विधवाओं का कोई पाप नहीं है। यह समाज का एक विकृत चेहरा है। विधुर दूसरी शादी कर सकता है तो एक विधवा स्त्री क्यों नहीं?
धार्मिक मान्यता ऐसी है कि विधवाओं को पुनर्विवाह करना तो दूर सोचना भी नहीं चाहिए। विधवाओं ने अपनी सभी इच्छाओं का गला घोंट कर एक जिन्दा लाश बनकर जीवन व्यतीत करती हैं।
अशिक्षित होने के कारण उन्हें अपने अधिकारों का बोध नहीं है। और उन्हें चुपचाप शोषण बर्दाश्त करना पड़ता है। विधवाओं को व्यंग्य बाण, शंका और गलतफहमियों के दर्दनाक आघात झेलने पड़ते हैं। जिन बच्चों को पाल पोसकर बड़ा करती है उन्हीं के विवाह में उसकी छाया अशुभ मानी जाती है। वास्तव में एक विधवा की तड़प महसूस करना मुश्किल है। इन विधवाओं की मनहूस सुबह, वीरान दोपहर, उदास शाम और सिसकती रातें होती हैं। पुनर्विवाह एक हल हो सकता है।
पुनर्विवाह का अर्थ स्वेच्छाचारिता नहीं बल्कि इंसानियत का दर्शन है। विधवा “बेचारी” नहीं होती। वह भी पूर्ण नारी है। उसमें वे सारी योग्यताएँ हैं जो अन्य महिलाओं में। बस ज़रूरत है उन्हें “बेचारी” शब्द से बाहर निकालने की। इसके लिए समाज को अपनी सोच बदलना होगा जिससे कि वे भी एक सम्मानित जीवन जी सकें।
ब्रह्मनाथ पाण्डेय ‘मधुर’
ककटही, मेंहदावल, संत कबीर नगर, उत्तर प्रदेश
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