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आँगन की तुलसी (patio basil)
आँगन की तुलसी (patio basil): राधिका के लिए सरिता मौसी का घर नया नहीं था। बचपन से उनके घर आना–जाना जो था। उनका परिवार राधिका के पड़ोस में ही रहता था। परिवार में केवल तीन लोग ही थे–सरिता मौसी, उनके पति जो एक प्राइवेट कम्पनी में एक साधारण क्लर्क थे और उनकी बेटी संजना जो राधिका के ही बराबर की थी। दोनों एक ही स्कूल में पढ़ती थी और साथ ही स्कूल जाती थीं। दोनों अक्सर संजना के बड़े आंगन में खेला करतीं और आँगन के बीच में स्थित तुलसी चौरे के चारों तरफ़ दौड़ा करती थीं।
राधिका को यह तुलसी का पौधा बहुत अच्छा लगता था। जैसे ही शाम को पूजा की घंटी बजाती हुई सरिता मौसी दीया लेकर आँगन में आती, वह भी दौड़कर वहाँ पहुँच जाती और मौसी के साथ तुलसी जी की प्रदक्षिणा करती। आँगन के बीच में रखा दीया पूरे आँगन को प्रकाशित कर देता। वह एक टक उसे देखती रहती। एक दिन मौसी ने उससे कहा–”जैसे यह दीया पूरे आँगन में प्रकाश फैलाता है, वैसे ही तुम भी दूसरों के जीवन में रौशनी लाना।”
राधिका और संजना ने कॉलेज पास ही किया था कि संजना के एक रिश्तेदार ने उसके लिए एक रिश्ता सुझाया। लड़का अमेरिका में एक बड़ी कम्पनी में काम करता था। रिश्ता अच्छा था इसलिए सरिता मौसी और मौसाजी ने तुरंत प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। विवाह में दोनों की जमा-पूंजी का एक बड़ा हिस्सा ख़र्च हो गया था लेकिन यही तसल्ली थी कि रिटायर होने से पहले बेटी का विवाह कर दिया।
राधिका को दूसरे शहर में अच्छी नौकरी मिल गयी इसलिए अब उसका केवल त्योहारों पर ही घर आना हो पाता था। पिछली बार घर आई थी तो माँ ने बताया कि मौसाजी रिटायर हो गए हैं और किसी तरह घर का ख़र्च चल पाता है। होली पर उन्होंने कुछ मदद करने की कोशिश की थी लेकिन स्वाभिमानी होने के कारण दोनों ने ही मदद लेने से इनकार कर दिया। मौसाजी ने एक जगह पार्ट-टाइम नौकरी शुरू ही की थी कि कोरोना के कारण लौकडाउन हो गया और वह भी जाती रही।
संजना को भी कभी अपनी तकलीफ के बारे में नहीं बताया। लौकडाउन में अधिकतर लोग घर से ही काम कर रहे थे इसलिए राधिका भी चार महीने पहले घर आ गयी थी और घर से ही काम कर रही थी। बाहर ना जाना पड़े इसलिए ज़रूरत का सामान ऑनलाइन ही मँगवा लेती थी। उसने सरिता मौसी के लिए भी कई बार सामान मँगवाया था किन्तु हर बार वे आकर धन्यवाद के साथ सामान के पैसे ज़बरदस्ती थमा जातीं। राधिका चाहकर भी उनकी मदद नहीं कर पा रही थी। धीरे–धीरे कोरोना का प्रभाव कम हुआ, लोग बाहर निकलने लगे लेकिन सरिता मौसी के हालात वैसे ही थे। उन्हें इस बात की चिंता थी कि दिवाली पर इस बार राधिका को अपने हाथ की बनी खस्ता कचौड़ी और बेसन के लड्डू कैसे खिला पाएंगी?
पंद्रह दिन बाद दिवाली थी। राधिका हर साल दिवाली के दिन सुबह ही संजना से मिलने पहुँच जाती और मौसी उसे घर के बने बेसन के लड्डू और कचौड़ी खिलाती थीं। राधिका के मन में एक विचार आया और फिर उसने एक योजना का रूप ले लिया। अगले ही दिन सवेरे वह लड्डू–कचौड़ी का सामान लेकर मौसी के घर पहुँच गयी और उसके लिए बनाने की फरमाइश कर डाली। सामान देखकर पहले तो मौसी बहुत खुश हुई लेकिन फिर चिंता की लकीरें उनके चेहरे पर देखकर राधिका ने उन्हें बाद में पैसे दे देने को कहा। दूसरे दिन शाम को सरिता मौसी लड्डू और गरमागरम कचौड़ियों के साथ उपस्थित हो गयीं।
राधिका ने झट से अपना फ़ोन निकाला, दोनों की तस्वीर खींची और शहर में रहने वाले अपने सभी दोस्तों और रिश्तेदारों को भेज दी, साथ ही उनसे घर की बनी चीजें खरीदने की विनती भी की। मौसी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। बस फिर क्या था, दो-तीन घंटों में ही सौ लड्डू और दो सौ कचौड़ियों का ऑर्डर मिल गया। मौसी को चिंता होने लगी कि इतना कुछ अकेले कैसे बनाएँगी। उन्होंने तुरंत फ़ोन करके अपनी जान-पहचान की दो महिलाओं को बुलाया जो उन्हीं की तरह नौकरी जाने के कारण परेशान थीं। दोनों ने सहर्ष मौसी के मार्गदर्शन में काम करना स्वीकार कर लिया और दूसरे दिन से काम शुरू हो गया। मौसाजी ने भी तैयार सामान डिब्बों में भरने का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया।
दो दिन बाद ऑर्डर की संख्या बढ़कर पाँच सौ हो गई थी। राधिका यह बताने दौड़कर मौसी के घर पहुँची। रोज़ की तरह आँगन की तुलसी के सामने दीया जल रहा था। वह कमरे में पहुँची तो देखा मौसी अपनी दोनों सहायिकाओं के साथ लड्डू बनाने में व्यस्त थी और मौसा जी लड्डू डिब्बों में भर रहे थे। सरिता मौसी के चेहरे की ख़ुशी देखकर राधिका को बड़ी तसल्ली मिली। उसके एक प्रयास ने तीन परिवारों की दिवाली को रोशन कर दिया था। राधिका ने फिर अपना फ़ोन निकाला, इस दृश्य को कैमरे में क़ैद किया और संजना को भेज दिया। उसने पलटकर आँगन की तुलसी को देखा। उसे लगा वहाँ जलता हुआ दीया उसे देखकर मुस्कुरा रहा है।
मनीषा जोशी
जमशेदपुर
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