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विश्व पुस्तक दिवस (world book day)
दोस्तों पुस्तकें मानव की सच्ची साथी हैं… विश्व पुस्तक दिवस (world book day) के अवसर पर आज हम इन्हीं पुस्तकों के महत्त्व की चर्चा इस आलेख के माध्यम से करेंगे… आलेख की लेखिका हैं डॉ. ललिता सेंगर जी… लेखन में रूचि रखने वाली डॉ. ललिता सेंगर जी उत्तर प्रदेश के लखनऊ शहर की रहने वाली हैं… अब तक इन्होंने बहुत सी रचनाओं का सृजन किया है… तो चलिए पढ़ते हैं ये आलेख…
बड़ी मनभावनी है पुस्तकों के
ज्ञान की दुनिया,
दिखाती मौन रहकर भी हमें
विज्ञान की दुनिया।
किसी भी देश की महत्ता का आंकलन उसके साहित्य से किया जाता है और उस साहित्य का अमित कोष पुस्तकों में संरक्षित होता है। भारत के महान ग्रन्थों जैसे रामायण, महाभारत, गीता, उपनिषद, गुरुग्रन्थ साहिब इत्यादि से ही भारतीय संस्कृति की उदारता का पता चलता है। मानव-सभ्यता तथा संस्कृति के विकास का सम्पूर्ण श्रेय पुस्तकों को ही जाता है।
मनुष्य के चरित्र-निर्माण में पुस्तकों का विशेष महत्त्व है। वे हीरे-जवाहरात जैसे रत्नों से भी अधिक मूल्यवान होती हैं क्योंकि रत्न तो मनुष्य के केवल बाहरी सौन्दर्य में वृद्धि करते हैं जबकि अच्छी पुस्तकें उसके अंतर्मन को उज्ज्वल बनाती हैं। अच्छी पुस्तकें मनुष्य को पशुत्व से देवत्व की ओर ले जाती हैं, उसकी सद्वृत्तियों को जाग्रत करके पथभ्रष्ट होने से बचाती हैं। पुस्तकों का व्यक्ति के मन-मन-मस्तिस्क पर स्थायी प्रभाव पड़ता है जो समाज व राष्ट्र की प्रगति में विशेष सहायता करता है।
आज इंटरनेट की दुनिया में जीने वाले बच्चे, युवा व वृद्ध पुस्तकों से दूर होते जा रहें है। उन्हें इस मशीनी युग में पुस्तकों के प्रेरणादायक पन्ने पलटने से अधिक गूगल पर विषय सामग्री खोजना पसंद आता है। यही कारण है कि वे विस्तृत लेखन में कम रुचि रखने लगे हैं और अति लघु उत्तर लिखना उन्हें अधिक अच्छा लगता है। आज बच्चे बाल-साहित्य पढ़ने के स्थान पर वीडियो गेम खेलने में मग्न रहते हैं।
वे आज यह भूल गये हैं कि पुस्तकें व्यक्ति की सबसे बड़ी मित्र होती हैं क्योंकि उनके सम्पर्क में रहकर व्यक्ति कभी स्वयं को अकेला महसूस नहीं करता है। वे ज्ञान व मनोरंजन की स्रोत होने के साथ-साथ जीवन की नींव को सुदृढ़, सुव्यवस्थित बनाने की समुचित सीख भी देती हैं इसलिए आज लोगों को पुस्तकों के महत्त्व को समझते हुए उन्हें अपने जीवनचर्या का अंग बनाना चाहिए। उन्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि संसार के इतिहास में जितनी भी महान विभूतियों के बारे में हम पढ़ते हैं उनके व्यक्तित्व को आदर्श बनाने में अच्छी पुस्तकों का ही योगदान रहा है।
हिन्दी भाषा
मानव मन में प्रतिपल उद्वेलित होने वाले भावों और विचारों की संवाहिका होती है-भाषा। भाषा के बिना मनुष्य का अस्तित्व नगण्य है क्योंकि उसी के माध्यम से मनुष्य अपने हृदय के उद्गारों व अनुभूतियों को व्यक्त कर सकता है। उसकी सर्जना शक्ति ही भाषा पर निर्भर है। यह तो सर्वविदित है कि जन्म से ही मनुष्य जिस भाषा को अभिव्यक्ति का माध्यम बनाता है, वही उसकी मातृभाषा होती है और उसकी आत्मा होती है।
प्रत्येक देश की मातृभाषा ही उसकी राष्ट्रभाषा कहलाती है तथा राष्ट्रभाषा को ही प्रत्येक देशवासी अपने जीवन के सर्वांगीण विकास का माध्यम बनाता है क्योंकि अपनी मातृभाषा या राष्ट्रभाषा में ज्ञान प्राप्त करके किसी भी कार्य को करना जितना सहज, सरल व स्वाभाविक होता है, उतना किसी अन्य देश की भाषा में नहीं हो सकता है।
हमारे भारतवर्ष की लगभग ७० करोड़ जनता के द्वारा बोली जाने वाली हिन्दी भाषा अपनी वैज्ञानिकता व ध्वन्यात्मकता के साथ-साथ उदारता, ग्रहणशीलता व सहिष्णुता जैसे गुणों के कारण समर्थ व समृद्ध भाषा रही है किन्तु वैश्वीकरण के इस युग में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संपर्क स्थापित करने के लिए अंग्रेज़ी भाषा को ही सबसे महत्त्वपूर्ण सेतु माना गया है जिसके परिणामस्वरूप देश का सम्पूर्ण वातावरण ही अंग्रेजीमय हो गया है, इसीलिए ज्ञान प्राप्ति का माध्यम अंग्रेज़ी भाषा बन गयी है तथा हिन्दी भाषा के प्रति लोगों की उदासीनता बढ़ती जा रही है।
ऐसा कहा जाता है कि मानव-मन पर परिवेश का बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। यदि हम हिन्दी भाषा के संदर्भ में देखें तो यह तथ्य उभरकर सामने आता है कि स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले जिस हिन्दी भाषा में सम्पूर्ण देश को एक सूत्र में बाँधकर स्वाधीनता आंदोलन में नये प्राण फूंके गये थे, वही स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात अपना स्वतंत्र रूप देखने को तरसने लगी।
अंग्रेजों ने भारत तो छोड़ दिया लेकिन जाते-जाते उन्होंने जो भाषा, जो संस्कार, जो कार्यप्रणाली भारत को दी उसके विकृत प्रभाव से हम भारतवासी आज तक उबर नहीं पाएँ हैं। स्वतंत्र होकर भी हम स्वतंत्र नहीं रहे क्योंकि पश्चिमी संस्कृति भारतवासियों की जीवन शैली में इस प्रकार घुल-मिल गयी कि उसे स्वयं से दूर करना असंभव-सा लगने लगा।
हिन्दी भाषा भी उसी पश्चिमी प्रभाव के कारण उपेक्षा की शिकार बनती रही और उसके अस्तित्व को हानि पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई-विज्ञान और टैक्नोलॉजी के युग ने, क्योंकि विज्ञान और तकनीकी ज्ञान के लिए लोगों ने अंग्रेज़ी को ही सबसे सहज माध्यम मान लिया व हिन्दी भाषा की शब्दावली को जटिल बताकर उसे अनुपयोगी सिद्ध कर दिया। किसी ने भी यह प्रयास करना उचित नहीं समझा कि अपनी मातृभाषा या राष्ट्रभाषा को विज्ञान और तकनीकी का माध्यम कैसे बनाया जा सकता है।
जब किसी तथ्य या विचार का अंधानुकरण किया जाता है तो लोग उसके नकारात्मक पक्ष को पूरी तरह से अनदेखा कर देते हैं। इसीलिए हिन्दी भाषा की उपेक्षा करने वाले तथा अंग्रेज़ी का समर्थन करने वाले भारतीय इस सच्चाई पर विचार नहीं करते हैं कि जब रूस, जर्मनी, चीन, फ्रांस जैसे देशों ने अपनी मातृभाषा व राष्ट्रभाषा में ही ज्ञान प्राप्त करके सुव्यवस्थित कार्यप्रणाली के द्वारा स्वयं को पूर्ण विकसित रूप दिया है तो हम भारतवासी ऐसा क्यों नहीं कर सकते।
कभी किसी विदेशी भाषा को आधार बनाकर राष्ट्र का विकास संभव है? कदापि नहीं । जब अपने राष्ट्र के विकास के लिए हम विदेशी भाषा पर निर्भर रहेंगे तो हम आत्मनिर्भर कैसे कहे जा सकते हैं। हम तभी आत्मनिर्भर व स्वावलंबी कहलाएंगे जब हम अपने भावों को अपनी भाषा द्वारा अभिव्यक्त करेंगे।
यह अत्यंत हर्ष का विषय है कि हमारे देश के वर्तमान प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी ने इस तथ्य को आत्मसात करते हुए अपनी प्राथमिक उद्घोषणाओं का माध्यम हिन्दी भाषा को ही बनाया जिससे अनेक वर्षों से हीनता की भावना से ग्रस्त हिन्दी भाषियों की आत्मा आंदोलित हो उठी। उनकी उदासीनता हर्ष और उल्लास में परिवर्तित हो गयी। सबको ऐसा प्रतीत होने लगा जैसे हिन्दी भाषा के बंद दरवाजे पर किसी ने बहुत दिनों के बाद दस्तक दी हो।
उनका आत्मविश्वास तब और भी बढ़ गया जब श्री नरेन्द्र मोदी जी ने ‘शिक्षक-दिवस’ के अवसर पर देश के समस्त विद्यार्थियों से हिन्दी भाषा में ही संपर्क स्थापित करके जीवन में शिक्षा व शिक्षक के महत्त्व को समझाने का प्रयास किया। जब देश का नेतृत्वकर्ता ही अपनी मातृभाषा व राष्ट्रभाषा की महिमा और गरिमा पर विशेष बल देगा तो निश्चित रूप से देशवासियों की मानसिकता में परिवर्तन आएगा।
अब तक हमारे देश में ‘हिन्दी-दिवस’ के नाम से हिन्दी भाषा का उपहास किया जा रहा था। एक विशेष दिन उसकी संपूज्यता का प्रदर्शन कर हीनता को सिद्ध किया जाता था जिससे यह स्पष्ट हो जाए कि यह दिन हिन्दी भाषा की अपेक्षा का नहीं बल्कि उपेक्षा का दिन है। जिस देश में लगभग ७० करोड़ लोगों की भाषा हिन्दी हो, वहाँ ‘हिन्दी दिवस’ मनाने का क्या औचित्य है। वहाँ तो प्रत्येक दिन ‘हिन्दी दिवस’ है…
अतः आज आवश्यकता है हिन्दी को संपर्क भाषा व राजभाषा से ऊपर उठाकर राष्ट्रभाषा बनाने की, उसे रोजगारविमुख न बनाकर रोजगारपरक बनाने की जिससे नयी पीढ़ी हिन्दी भाषा की अधिक से अधिक सेवा करके उसके उत्थान में अपना योगदान दे सकें क्योंकि अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा देकर हम डाक्टर, इंजीनियर, वकील व कम्पनी सेक्रेटरी तो बना रहे हैं लेकिन सच्चे राष्ट्रभक्तों का निर्माण नहीं कर पा रहे हैं-
हे भारत के पहरेदारों! भाषा का अभिमान जगाओ,
अपनी हिन्दी-भाषा का तुम भारत की पहचान बनाओ।
डॉ. ललिता सेंगर
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
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१- मन की बात
२- गीता