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मन की बात (Man Ki Baat)
Man Ki Baat : निशिदिन चिन्गारी से, खेला करती हूँ।
नभमण्डल में उड़ने का, दम भरती हूँ।
फिर भी नारी जीवन का ये, व्योम चक्र है-
झूठी अफवाहों से हरदम, डरती हूँ।
बेटी हूँ मैं मान, पिता माता का रखती।
जा करके ससुराल विकल, प्रतिपल मैं दुखती।
फिर भी ले मुस्कान मधुर, पीहर के आगे-
जीवन के कटु स्वाद, बिना मन के ही चखती।
फिर बच्चों को देख, व्यथा मैं सारी भूली।
बच्चों के संग बचपन की, दीवाली होली।
व्यस्त हुई अपने जीवन की, मृदुल श्रृंखला-
बनी रही अनभिज्ञ, निराली नारी भोली।
झंझावातों को सहकर, मज़बूत हो गयी।
अपने परिजन की रक्षा हित, दूत हो गयी।
भाई का हित सदा चाहती, प्यारी बहना-
कृतकर्मों से दोनों कुल की, पूत हो गयी।
राम
मन में बसे हों राम
बन जायें सब काम
प्रिय सबके ही राम
नाम को पुकारिये।
पूरण प्रमाण राम
जीवन प्रगाढ़ राम
बसते हैं प्राण राम
काम को सुधारिये।
गीत रस छन्द राम
पूज्य मकरन्द राम
कछु नहि द्वन्द राम
भक्ति को जगाइये।
शम्भु के मनीष राम
हरि जगदीश राम
हनुमत ईश राम
यश को सुनाइये।
हरते सकल ताप
मिटते भुवन पाप
कटते कुटिल शाप
राम नाम लीजिए।
राम रस पान कर
सफल विहान कर
नाम शुभ मानकर
गुणगान कीजिए।
राम जी कृपालु हैं
बड़े ही दयालु हैं
जग के भुवालु हैं
नाम रस पीजिए।
आये पुनि रामराज
हो सुखी सभी समाज
शुभ रहे काम काज
सुविचार दीजिए।
जीवन
जीवन मधुरिम तब लगता है।
सद्गुण सरगम जब बजता है॥
कर्म सुपथ पर चलते जायें।
धर्म सजग हो करते जायें।
बरसेगी आशीष प्रभो की-
मर्म समझ कर हँसते जायें।
अम्बुद से अमृत झरता है।
जीवन मधुरिम तब लगता है॥
जीवन है श्वासों का गायन।
बजती है अन्तस् की धड़कन।
अनहद गुंजित मानस पूजित-
ध्वनियों का होता है मन्थन।
नीरधि में नीरज जगता है।
जीवन मधुरिम तब लगता है॥
बजती है गृहणी की पायल।
लहराता माता का आँचल।
अधरों पर मुस्कान मधुर लय-
लोचन में पावन हो काजल।
दृगजल खुशियों में बहता है।
जीवन मधुरिम तब लगता है॥
छाये हों स्नेहिल शुभ बादल।
नृत्य करे मन मयूर पल-पल।
हरे-भरे वन उपवन सारे-
अमराई में गुंजित कोयल।
मन मन्दिर छविमय रहता है।
जीवन मधुरिम तब लगता॥
मैं उनका ध्यान करती हूँ
मैं उनका ध्यान करती हूँ,
जो इस जग में समाये हैं।
सभी जीवों की श्वासों में,
धरा अम्बर में छाये हैं॥
कभी आहार बनते हैं,
कभी आधार बनते हैं।
हृदय में जो उमड़ करके,
कभी सुविचार बनते हैं॥
सदा जो स्नेहमय करुणा,
दया सब पर लुटाये हैं।
मैं उनका ध्यान करती हूँ,
जो इस जग में समाये हैं॥
कभी सरिता की धारा से,
भरे हैं भूमि के उपवन।
कभी अनभिज्ञ राहों में,
खिलाते है सुहृद नन्दन॥
सुभग सत्कर्म की सुचिता,
जो सेवा में जगाये हैं।
मैं उनका ध्यान करती हूँ,
जो इस जग में समाये हैं॥
कभी मुस्कान मोहक जो,
बिखरते बाल मुखमण्डल।
कभी शैवाल के सँग जो,
सरोवर में खिले शतदल॥
निरन्तर स्नेह की गंगा,
हृदय में जो बहाये हैं।
मैं उनका ध्यान करती हूँ,
जो इस जग में समाये हैं॥
कभी शिशुओं के आनन पर,
सुखद सौन्दर्य को लेकर।
भरी किलकारियाँ हँसकर,
सृजन में व्याप्त करुणाकर॥
दया करुणा सुममता को,
दयासागर सजाये हैं।
मैं उनका ध्यान करती हूँ,
जो इस जग में समाये हैं॥
माँ सावित्रीबाई फुले
भारत की गरिमा को प्रणाम।
माँ सावित्री को कोटि नमन।
खिल उठी धरा की शक्ति विमल॥
कर दिया जगत में अमर नाम।
भारत की गरिमा को प्रणाम॥
शिक्षा की राहों पर चलकर।
विपदाओं की लौ में जलकर॥
कर दिया धरा पर अमिट काम।
भारत की गरिमा को प्रणाम॥
विपरीत पवन चलता ही रहा।
बह चली सदानीरा अनुपम॥
पाकर तुमको माँ धन्य धाम।
भारत की गरिमा को प्रणाम॥
शारदे रूप अवतरित हुई।
वर्तिका ज्वलित हो त्वरित हुई॥
ज्योतित कर दी हर सुबह शाम।
भारत की गरिमा को प्रणाम॥
राखी की सौगात
राखी की सौगात लेकर,
सावन आया है।
पीहर की बहार बनकर,
सावन आया है॥
बचपन की हर याद लेकर,
सावन आया है।
धरती का श्रंगार लेकर,
सावन आया है॥
मैके का मृदुबात लेकर,
सावन आया है।
हरी भरी बारात लेकर,
सावन आया है॥
सतरंगी फुहार लेकर,
सावन आया है।
ठण्डी-सी बयार लेकर,
सावन आया है॥
परदेशी सन्देशी लेकर,
सावन आया है।
राखी का परिवेश लेकर,
सावन आया है॥
रक्षाबन्धन डोर बनकर,
सावन आया है।
प्रियजन से मिलने बन ठनकर,
सावन आया है॥
घनघोर घटा छाई
घनघोर घटा छाई भू पर।
उतरें है सितारे धरती पर।
झिलमिल-झिलमिल हैं तरु पल्लव-
अम्बर आया है भूतल पर॥
है झूम रही डाली-डाली।
जुगनू की चमक लगती आली।
कर रहे प्रकाशित तरुवर को-
है खिली चतुर्दिक हरियाली।
सावन के मस्त फुहारों से।
झींगुर की सुखद गुंजारों से।
गा रही कामिनी दोलन पर-
कजरी के गीत बहारों से।
आयी पीहर बहना सारी।
स्वर सप्त सुधा जीवन प्यारी।
खिल गये गात पितु-मातु वृद्ध-
सौभाग्यमयी बहनें न्यारी।
खिलती है सावन की मंजिल।
त्यौहारों की सजती महफिल।
बेटी को सुखमय देख खिले-
अम्मा बप्पा के हर्षित दिल।
भाई बहनों के बचपन की।
रक्षाबन्धन अपने मन की।
शुचि प्रेम प्रज्वलित दीप अमल-
महकी बगिया शुभ जीवन की।
भाई बहनों का अमिट प्यार।
रक्षाबन्धन पर दीप्तवार।
सबसे प्यारा दिन जीवन का-
बचपन वाला दिन जीत हार।
सुर्ख सावन की मेंहँदी
सुर्ख सावन की मेंहँदी थाम रस्सियाँ।
खनकती चूड़ियाँ पेंग भरने लगीं॥
आया सावन सुहावन सुहाना समय।
धानी रँग की चुनरिया सँवरने लगी॥
गीत गाती हुई सब सखी मिल गयीं।
आज मैके की सिहरन निखरने लगी॥
भाई का मन खिला लो बहन आ गयी।
बहन बचपन की धारा में बहने लगी॥
राखियाँ सज गयी सारे बाज़ार में।
आज रौनक स्वयं में सिहरने लगी॥
रक्षाबन्धन का पावन सुहावन समय।
मन में भावुक उमंगे उबरने लगी॥
प्यार का त्याग का गहरा नाता प्रखर।
आज बाबुल की गलियाँ महकने लगी॥
पर्व है प्रेम का भाई बहनों का ये।
भावनाएँ हृदय में उतरने लगी॥
सुख शान्ति मिले
सुख शान्ति मिले सम्पदा मिले,
वैभव ऐश्वर्य अपार मिले।
हो आंग्ल भले नव वर्ष मेरा,
सबको पूरा भण्डार मिले॥
कोहरे से छँट निकले सूरज,
कुछ उष्ण ताप निज द्वार मिले।
बच्चे खेलें कूदें आँगन,
इक प्यारा-सा संसार मिले॥
मोबाइल से कूछ दूर रहे,
ममता का स्नेह दुलार मिले।
वृद्धजनों की वाणी सुनने,
कि उनको अधिकार मिले॥
गुरुवन्दन
गुरु ज्ञान दीपक प्रज्वलित।
जिसमें तिमिर सारे गलित।
अज्ञान के तम भेद सब-
सद्ज्ञान की कलिका फलित।
गुरु सूर्यसम अति तेजमय।
दे ज्ञान करते हैं अभय।
सम्मान गुरुजन को नमन-
वाणी सुपूजित ओजमय।
गुरु को नमन करता है मन।
चरणों में अर्पित है सुमन।
सत्त्व सत्ता के प्रदायक-
ज्ञान ही बहुमूल्य है धन।
गुरु स्नेह है अनमोल सुख।
मिटते पथिक के सकल दुख।
अभिनन्दना शुभ वन्दना-
शुचि अर्चना करते सुमुख।
तुलसीदास
हुलसी के सुत तुलसी ने,
रामसिया का गान किया।
जग का कल्मष दूर किया,
नवल ज्योति आह्वान किया॥
जीवन राम चरण में अर्पित,
प्रखर विश्व कल्याण किया।
राजापुर की पुण्य धरा को,
संगम भूमि प्रयाण किया॥
रामायण की रचना कर,
इस जग का उद्धार किया।
दानवता को नष्ट किया,
मानवता से प्यार किया॥
चरण शरण श्रीरामसिया के,
मानस में उजियार किया।
सतत् नमन हुलसी के लालन,
स्वर्णिम सुख संसार किया॥
एक बेटी की व्यथा
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ,
फिर बेटी को किसी ऐसे हाथों में न दान कर दो
जो बेटी के मान सम्मान की रक्षा न कर पाये।
जीवन भर घुटकर जीने से,
श्रेष्ठ उदर में मर जाना।
अपमानों के अन्धकूप में,
जाने पूर्व उबर जाना॥
अपमानों की भट्ठी में,
जीवन भर जलते रहना।
तिल-तिल कर अपमानित होना,
बाती सुलग बुझी रहना॥
इससे अच्छा जीवन धारण,
करने पूर्व मृत्यु पाना।
हे रक्षक मैं बेटी हूँ,
मुझको नहीं बचाना॥
भरी निराशा घोर अँधेरी,
पथ मेरा सब सूना है।
एक सुलगती बाती मैं हूँ,
दुःख कथन से दूना है॥
मत लाना मुझको जग में,
जब तज जीवन जाओगे।
कौन हमारा रक्षक होगा,
कुछ भी जान न पाओगे॥
नहीं ज़रूरी जिन हाथों को,
मुझ कन्या का दान करोगे।
वह मेरा सम्मान बचाये,
ये कैसे विश्वास करोगे॥
इसीलिए जग में आने से,
पहले मार मुझे देना।
पीड़ा सहने से पहले ही,
जग से मुझे तार देना॥
सब ताप हरो
सब ताप हरो, संताप हरो।
हर पाप कर्म से दूर करो।
मेरे कर्मों के प्रहरी तुम-
मन भक्ति भाव से पूर करो।
जीवन तेरा आभारी हो।
मानवता के उपकारी हों।
सत्कर्मों के सच्चे साथी-
मानस मन्थन अविकारी हो।
हे पूर्ण स्वरूपे पूर्ण ब्रह्म।
दो ज्ञान हमें मिट चले दम्भ।
अन्तस् में राज तुम्हारा हो-
हो तात मात तुम परम् ब्रह्म।
है एक सहारा जीवन में।
बसते रहना मेरे मन में।
चरणों में अर्पित ये जीवन-
बीते हरि तव यश मन्थन में।
आभार प्रकट कर पाऊँ ना।
है पास हमारे शब्द कहाँ।
अक्षर स्वामी हे नादब्रह्म-
अनहद की ध्वनि बज रही जहाँ।
मम कर्मक्षेत्र के स्थल में।
तुम रहो फसूँ ना दल-दल में।
सर्वत्र व्याप्त करुणा तेरी-
कर रही कृपा जो पल-पल में।
शुभ सत्त्वभाव के हे स्वामी।
पथ दर्शक हे अन्तर्यामी।
हस्त गहे रहना हे हरि-
मैं बनूँ सत्त्वपथ अनुगामी।
मानस में तेरा विचरण हो।
नवज्योति प्रज्वला विकिरण हो।
आभा में तेरे ज्योतित मन-
अन्तस् में तेरा प्रकरण हो।
हे प्रभु मुझको आश्वस्त करो।
तम प्रबल कुटिलता ध्वस्त करो।
पथ के कंटक मुरझा जायें-
शुचिमय शुभ सत्त्व प्रशस्त करो।
शत नमन करो गंगे
हरि नख निसृत, विस्तृत भूतल।
सुरसरित् प्रवाहित कल-कल स्वर॥
चट्टान तोड़ उत्थान सुपथ।
निर्मल शीतल करती निर्झर॥
शिव शीश सजी जीवनदायिनि।
शत नमन करो गंगे हर-हर॥
है दुग्ध धवल-सा हिमगिर जल।
करतीं हैं माँ धरती उर्वर॥
नव स्नेह सिक्त सिंचन करतीं।
बहती रहती मधु मृदुल अवर॥
सौगात हमें दे वसुन्धरा।
जीवनपोषक नव अन्न प्रखर॥
गंगातट स्वच्छ सुपूरित हो।
सुरभित हो कूल सुहास प्रवर॥
रसना गंगा का यश गायें।
गायन मुस्कान भरें स्वाधर॥
मैं सर्जन की एक धारा
मैं सर्जन की एक धारा।
दे सकूँ ख़ुद को किनारा।
भँवर में है नाव डगमग-
दो प्रभो मुझको सहारा।
आर्त को तुमने उबारा।
मन हृदय है क्लान्त हारा।
राह पर अब ले चलो तुम-
दे सुगम पथ का इशारा।
विकल विप्लव मन हमारा।
दुःखी मानस से पुकारा।
आश की किरणें जगा दो-
स्नेह सुरभित मन पखारा।
जगत से तव नेह न्यारा।
अवनि तल पर है प्रसारा।
प्रकट है चारों दिशा में-
नाद अनहद तत्त्व प्यारा।
ज्ञान की देवी
ज्ञान की आद्य देवी, दया कीजिए।
पथ विकट तम घनेरा, प्रभा कीजिए।
कंटको से भरा पथ, मुझे ग़र मिले-
चल सकूँ हर्ष से माँ, कृपा कीजिए।
व्याप्त विष व्योम विप्लव, सुधा दीजिए।
मोह माया तिमिर को, हटा दीजिए।
गिर सम्भलते हुए, प्राण को अम्बिके-
शब्द संजीवनी की, गिरा दीजिए।
स्नेह का बिन्दु संचित, पिला दीजिए।
अंक में भारती अब, उठा लीजिए।
मान अपमान हो भाग्य दुर्भाग्य हो-
सब परे हृत् कमल को, खिला दीजिए।
मन मधुर मुग्ध मुकुलित, सजा दीजिए।
भाव रसधार अन्तस्, जगा दीजिए।
न भ्रमित हो कभी, वर्जनाओं में मन-
नित्य नूतन सुकल्पित, सृजा दीजिए।
माँ दर पर तुम्हारे भिखारिन खड़ी है
माँ दर पर तुम्हारे भिखारिन खड़ी है।
भरो खाली झोली पुजारिन खड़ी है॥
तुम्हे हर घड़ी मैं पुकारा करूँगी,
सुता तेरी अम्बे सुहागिन खड़ी है।
अमर करना सिन्दूर अम्बे हमारी,
ओ माँ दर तुम्हारे पुजारिन खड़ी है।
अमर करना माथे की बिन्दी हमारी,
तुम्हारी सुता बन भिखारिन खड़ी है।
अमर करना हाथों की चूड़ी हमारी,
ये दुहिता तुम्हारी पुजारिन खड़ी है।
सदा लाल चुनरी बनो माँ हमारी,
अटल विश्वास की भिखारिन खड़ी है।
भरी मेरी झोली भरे रहना अम्बे,
प्रबल प्रेम की माँ पुजारिन खड़ी है॥
दिया आपका सब कमी कुछ नहीं है,
तेरे नेह की माँ दुलारिन खड़ी है॥
पित्रपक्ष पर स्मृति
हे पित्रपक्ष के पूज्यदेव,
छाये रहते प्रतिपल मन में।
आशीष आपका वासित है,
मेरे इस शुभमय जीवन में।
ओ माँ मेरी माँ याद आपकी,
कर देती अन्तस् तार-तार।
स्वप्नों में चाहूँ पकड़ सकूँ,
पर मैं जाती हर बार हार॥
हे तात हमे उपदेश सदा,
खुश रहने की देते रहते।
जब व्यथित कभी होता ये मन,
मुस्कान भरे पीड़ा हरते॥
घर के बटवृक्ष बने रहते,
शीतल छाया प्रतिपल देते।
अब भी आकर दुःख पीड़ा को,
अपने सन्तति की हर लेते॥
हे तात श्वशुर कितने निश्छल,
मेरी उनन्ति पर खुश होते।
श्रद्धा अर्पित मैं आज करूँ,
अब स्मृति में रोते-रोते।
माँ आप रही बट की छाया,
निश्चिन्त रहा करता था मन।
हो सदा बसी अन्तस्तल में,
मैं करूँ सजलमय चक्षु नमन॥
मेरी श्रद्धा स्वीकार करो,
विह्वल मन मेरा शान्त करो।
है अजर अमर ये आत्म सदा,
भ्रान्तित मन की सब भ्रान्ति हरो॥
वक्त की पुकार आज
वक्त की पुकार आज,
मजबूत हो स्वराज,
देशहित सारे काज,
निष्ठा से कीजिए।
कर्त्तव्य का समाज,
ले के आये रामराज,
सैनिकों के कामकाज,
को प्रणाम कीजिए।
भारती पुकारती है,
राग द्वेष टारती है,
नेहपुंज धारती है,
ध्यान धर लीजिए।
लाल को निहारती है,
स्नेह से दुलारती है,
धन्य वह सँवारती है,
गान कर लीजिए।
कविता की कल्पना को,
समता की भावना को,
ममता की कामना को,
भाव भर दीजिए।
भूमि शस्य श्यामला को,
वारि धारि निर्मला को,
विमले वृहत्कला को,
नेह रस दीजिए।
रच सकूँ नित गीत अभिनव
रच सकूँ नित गीत अभिनव,
सृजन से मृदु हास लेकर।
मधुर मोहक अरुणिमा से,
माघ का मधुमास लेकर॥
तोड़ दूँ कारुण व्यथाएँ,
चल सकूँ अंगार पथ पर।
कर सकूँ मैं प्रार्थना शुभ,
सत्त्व का संचार लेकर॥
शुभ्रता शुचि नम्रता नव,
प्रेरणा का अनुगमन कर।
भर सकूँ नव चेतना मैं,
सरित् की पुनि धार लेकर॥
मार्ग दुर्गम हों सुगम सब,
ईश का वरदान बनकर।
हर सकूँ सारे तिमिर को,
आस्था का हार लेकर॥
प्रभा की नव रश्मियों के,
अरुणिमा के साथ चलकर।
कर सकूँ भेदन अँधेरा,
नेह का उजियार लेकर॥
कुप्रथा की शृंखला को,
तोड़ डालूँ मैं विहँसकर।
सुखद है विश्वास दीपक,
दीप्तमय आधार लेकर॥
हरिशयनी एकादशी
जलधि पयोनिधि कर विश्रामा।
कमलनयन हरि पूरणकामा॥
शय्या शेष सुखद अति शीतल।
जननी चरण पटोलत प्रतिपल॥
नयन निमीलन भाव प्रवीना।
शुभग कर्म हरि सजग अधीना॥
करहुँ नमन लक्ष्मी जगमाता।
भृकुटि हास्य लय करहिं विधाता॥
पोषण भरण सुसन्तति दायक।
सुभग सुमंगल गेह प्रदायक॥
अधिपति देव व्यथा सब हारी।
लक्ष्मीपति सुमिरन सुखकारी॥
सागर शेष शयन हरि कीन्हा।
चतुर्मास लक्ष्मी को दीन्हा॥
पूरण करहु भक्त सद् कामा।
निद्रा वशीभूत अभिरामा॥
तात सुषुप्त जागती जननी।
सब सद्गुण सद्भूषण भरनी॥
मातु भरण पोषण जगदाती।
एकादशी शयन हरि दाती॥
चतुर्मास विमले प्रतिपालक।
हरि की कृपा रमा संचालक॥
हे जगदम्ब हरो दुख दारुण।
दयामयी सद्कृपा सुकारुण॥
भरो धरा भण्डार विधात्री।
श्रीहरि प्रेम प्रवसिनी पात्री॥
कृपादृष्टि कर सृष्टि सँवारहिं।
ममता स्नेह अजस्र सुवारहिं॥
मम हिय धाम बसहुँ हरि संगा।
मनन करहुँ हरि कथा प्रसंगा॥
शुभदाती हे आद्यशक्ति माँ।
हृदय सुआसन गहो भक्ति माँ॥
मानस बसहुँ स्वरूप पुरातन।
वेदब्रह्म हरि शक्ति सनातन॥
नमित नयन विनमित पद माता।
भक्ति प्रदायिनि भाग्य विधाता॥
भाग्य सम्पदा तव कर अम्बा।
कष्ट निवारिणि हे जगदम्बा॥
अब अविलम्ब हरो दुख मोरा।
निशा बिताय करहु शुचि भोरा॥
मौन मुखरित नहीं
मौन मुखरित नहीं, हो रही ये व्यथा।
अब श्रवण करना क्रन्दन, करुण ये कथा॥
सब तो द्रष्टव्य है, मै बताऊँगी क्या।
सब रहे सुन स्वयं, मैं सुनाऊँगी क्या॥
एक तेरा भरोसा, मिला है प्रभो।
आश का पुष्प अन्तस्, खिला है विभो॥
हित हमारा करोगे, ये विश्वास है।
तेरे ही स्नेह की, अनबुझी प्यास है॥
साथ में हो सदा, मैं अकेले नहीं।
भाये संसार के, कुछ झमेले नहीं॥
माँ हो ममतामयी, मेरी अरदास हो।
पुण्यमय पितृ पावन, सु आभास हो॥
पग पड़े शूल पर, फूल करते रहे।
मेरी झोली करुणा, से भरते रहे॥
कुछ नहीं आश है, एक विश्वास है।
तुम सदा साथ में, एक आभास है॥
बल मुझे मिल रहा, स्नेह की साधना।
दे रही तेरी ममता, मुझे सान्त्वना॥
चहकते फूल ने पूछा
चहकते फूल ने पूछा, जहाँ में कौन है मेरा।
अकड़ते शूल ने बोला, साथ मैं दे रहा तेरा॥
कर्म है साथ का बन्धन, खिले हो बीच मेरे तुम।
सूख मैं यूँ ही जाता हूँ, पूजन हो रहा तेरा॥
कमाई कर्म की अपने, लुटाई महक जो तूने।
बड़ाई हो रही तेरी मधुप भी दे रहा फेरा॥
अहम है साथ मैं तेरे, खड़ा हूँ शान शौकत से।
बींधता मैं किसी के पर, यही दुर्गुण रहा मेरा॥
मिला हमको वही तुमको, धरा जल पवन गगन से।
उपेक्षित मैं ही होता हूँ, सदा गुणगान है तेरा॥
गमकते फूल ने पूछा, सहारा कौन है मेरा।
सहमते हाथ ने तोड़ा, बताया दैव का प्रेरा॥
विहँसते फूल ने पूछा, रक्षक कौन है मेरा।
महकते गन्ध ने बोला, ईश के शीश पर डेरा॥
अपने पथ के अंधकार में
अपने पथ के अंधकार में,
दीप जलाया कभी नहीं।
कंटक पथ पर चलती रहती,
शूल उठाया कभी नहीं।।
अपने तन -मन के प्रति अपना,
कर्म निभाया कभी नहीं।
अन्तस् को न हो पीड़ा,
ये धर्म निभाया कभी नहीं।।
सहना ही सब कुछ समझा,
मन को समझाया कभी नहीं।
विचलित रही व्यथा में अपने,
राह सजाया कभी नहीं।।
भरें कंटकाकीर्ण कठिन पथ,
को ठुकराया कभी नहीं।
तेरे आश्रय में रहकर प्रभु,
मन भरमाया कभी नहीं।।
नमामि गंगे
हरि नख निसृत, विस्तृत भूतल।
सुरसरित् प्रवाहित कल-कल स्वर।।
चट्टान तोड़ उत्थान सुपथ।
निर्मल शीतल करती निर्झर।।
शिव शीश सजी जीवनदायिनि।
शत नमन करो गंगे हर -हर।।
है दुग्ध धवल सा हिमगिर जल।
करतीं हैं माँ धरती उर्वर।।
नव स्नेह सिक्त सिंचन करतीं।
बहती रहती मधु मृदुल अवर।।
सौगात हमें दे वसुन्धरा।
जीवनपोषक नव अन्न प्रखर।।
गंगातट स्वच्छ सुपूरित हो।
सुरभित हो कूल सुहास प्रवर।।
रसना गंगा का यश गायें।
गायन में नृत्य करें स्वाधर।।
डॉ. मीना कौशल ‘प्रियदर्शिनी’
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