
विधवा पुनर्विवाह (widow remarriage)
विधवा पुनर्विवाह (widow remarriage) : रंग भरा आकाश, स्वप्न से भरी आँखे, रंगबिरंगे कपड़े गहने हाथों में खनकती चूड़ियाँ यही तो होती हैं एक आम लड़की की छोटी-छोटी ख़्वाहिशे। एक लड़की जब किशोरावस्था की दहलीज़ पर पहला क़दम रखती है तो उस पहले क़दम के साथ ही उसकी आँखों में शादी और साजन के सपने भी सजने लगते हैं। २१की उम्र तक शादी हो भी जाती है।
पति और उसका घर ही उस लड़की की दुनिया बन जाता है। बाहरी दुनिया से अन्जान वह घर में ऐसे रच बस जाती है जैसे चाय में चीनी। पर यह सौभाग्य हर स्त्री के भाग्य में अखण्ड नहीं होता। कुछ के भाग्य में पति सुख शीघ्र ही मुँह मोड़ लेता है। और वे वैधव्य के श्वेत वसन में लिपट कर रंगहीन हो जाती हैं। और तब प्रारम्भ होता है उनके दुर्भाग्य का कुचक्र।
एक ऐसी यातनापूर्ण सजा की उन्हें धकेल दिया जाता है जिसकी कल्पना मात्र भी रोंगटे खड़े कर देती है। सामाजिक तिरस्कार असामाजिक कुदृष्टि अपनी समस्त इच्छाओं का परित्याग और पल-पल मिलने वाला अपमान जीवन मृत्यु से भी बद्तर हो जाता है।
केवल पति की चिता नहीं जलती उस चिता के साथ पत्नी का अस्तित्व ही जल जाता है। वह जीवित होकर भी जीवन से कोसों दूर हो जाती है। कहीं भी उसकी उपस्थिति नगण्य ही नहीं अवांछनीय भी हो जाती है। लेकिन उन्हें पुनः जीवन की ओर लाया जा सकता है विधवा पुनर्विवाह के द्वारा। पुनर्विवाह द्वारा एक मृतप्राय देह में पुनः प्राण फूंके जा सकते हैं। पुनः जीवन का संचार किया जा सकता है। वैधव्य के अभिशाप से मुक्त कर के उसके जीवन में सपनों के रंग भरे जा सकते हैं।

अर्श से फ़र्श तक
कुश्ती की दुनिया में सुशील कुमार एक जाना माना नाम है। २००८ ओलम्पिक में कांस्य पदक जीतकर तथा २०१२ में कुश्ती में रजत पदक जीतकर उन्होंने विश्व पटल पर भारत का तिरंगा लहरा कर संसार में भारत को गौरवान्वित किया। देश ने भी लाखों रुपयों को इनाम की धनराशि के रूप में प्रदान कर कृतज्ञता प्रदर्शित की। सुशील कुमार की हर सुख सुविधा का ध्यान रखा गया। आख़िर भारत के सम्मान का प्रतीक थे।
लेकिन कहते हैं न सफ़लता हर किसी को नहीं पचती। सफ़लता का नशा सुशील कुमार के भी सर चढ़ कर बोलने लगा। स्वयं को श्रेष्ठ व दूसरों को क्षुद्र मझने की प्रवृत्ति बलवती होती जा रही थी। अधिक पैसा कमाने की होड़ में सुशील कुमार कब इंसानियत प्रेम न्याय व धर्म का गला घोट जुर्म की दुनिया के बेताज बादशाह बन गए पता ही न चला। वह सुशील कुमार जिसने कभी भारत को गर्वित होने का अवसर प्रदान किया था, आज लज्जित होकर बेबस खड़ा तमाशा देख था।
सुशील कुमार अपने ही एक साथी सागर धनखड़ की हत्या कर एक अपराधी बन चुका था और मौका ए वारदात से फरार होकर एक भगोड़ा अपराधी भी घोषित हो चुका था। जैसे-जैसे पुलिस की कार्यवाही सुशील कुमार को गिरफ़्तार करने की ओर बढ़ती गई. प्रतिदिन नए-नए तथ्य सामने आते गए और यह तथ्य इशारा कर रहे थे खेल में अपराधीकरण का। यह साबित हो गया कि सागर धनखड़ की हत्या का एक कारण गैंगवार भी था।

जी हाँ सुशील कुमार कुख़्यात अपराधियों के साथ मिलकर प्रॉपटी पर अवैध कब्जा करता था। फिर उस ज़मीन मकान या दुकान के मालिक से कम दामों में ख़रीद कर ऊंचे दामों में बेचता था। ये उनका व्यापार था जो खुले तौर पर हो रहा था जब तक कि सागर धनखड़ की हत्या नहीं हुई थी। तो क्या इस प्रकार के आपराधिक प्रवृत्ति के खिलाड़ियों से हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए? क्या हमारी युवा वर्ग का आदर्श अपराध जगत है?
धन के मद में चूर होकर जब हम यह समझने लगते हैं कि हम चाहे कुछ भी करें कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। तब अर्श से फ़र्श तक का सुशील कुमार का यह सफ़ऱ युवाओं के सामने एक सबक होगा कि अपराध चाहे जो करे इससे उसके अपराध और उसे मिली सजा में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। एक नामचीन व्यक्ति को भी वही सज़ा मिलती है जो कि एक साधारण व्यक्ति को मिलती है। किन्तु सामाजिक प्रतिष्ठा में हानि उस नामचीन व्यक्ति को अधिक उठानी पड़ती है अपेक्षाकृत साधारण व्यक्ति के.
दीप्ति मिश्रा
उझानी, बदायूं
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