Table of Contents
हम हैं जे.एच.डी. (We are J.H.D.)
आजकल हर शहर में आपको पी.एच.डी. से दोगुनी संख्या में जे.एच.डी. (J.H.D.) धारी साहित्यकार ज़रूर मिल जाएंगे। नगर में कुछ साहित्यकार सेवानिवृत्ति के बाद अचानक अपने नाम के आगे डाॅ। लिखने लगे तो, मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि क्या शासन ने इन्हें रिटायर्ड होने पर विदाई स्वरूप स्मृति चिह्न के समान ‘डाॅ.’ की उपाधि दे दी है या फिर इन्होंने अपनी पढ़ाई की दूसरी पारी (क्रिकेट की तरह) फिर से एम.ए. (मास्टर डिग्री) के बाद आगे शुरू कर डाॅक्ट्रेट कर ली है।
खोज करने पर पता चला कि उन्होंने पी.एच.डी.नहीं वल्कि जे.एच.डी. ज़रूर की है। नहीं समझे आप जे.एच.डी. का पूरा एवं सही अर्थ होता है ‘झोलाछाप है डाॅक्टर’। कहीं से बनारस, प्रयाग आदि स्थानों से आयुर्वेद में वैद्य विशारद, आयुर्वेद रत्न, आर.एम.पी. जैसी कोई उपाधि पैसों की दम पर हासिल कर ली है और फिर बडे़ ही शान से अपने नाम के आगे डाॅक्टर लिखने लगे।
भई ये डाॅ. पहले से लिखते तो भी कुछ हद तक बात ठीक लगती लेकिन अचानक उम्र के इस पड़ाव में सठियाने के बाद लिखने लगे तो बड़ा अजीब लगता है। जबकि हक़ीक़त में ऐसे लोग अपने नाम के साथ वैध, हकीम आदि ही लिख सकते हैं। ना कि डाॅक्टर। मजे की बात तो यह है कि इन तथाकथित डाॅक्टरों को शहर तो क्या गाँव के लोग भी झोलाछाप डाॅक्टर के असली नाम से ही जानते, मानते और पुकारते हैं।
कुछ ने तो वाकायदा घर में ही कुछ जड़ी वूटियाँ अपने ड्राइंग रूम में सजाकर ‘क्लीनिक’ खोल लिया है, भले ही ये स्वयं के सर्दी जुखाम तक का इलाज़ न कर सके और सरकारी अस्पताल में ख़ुद अपना इलाज़ कराने जाये, ये अन्दर की बात है। लेकिन मरीजों के दमा, कैंसर, एड्स से लेकर खतरनाक से खतरनाक बीमारियों का इलाज़ करने का दावा करते हैं। ऐसे जे.एच.डी.एक तीर से दो निशाने साधते हैं। एक तो क्लीनिक खोलकर बैठ गए, कोई न कोई मुर्गा तो पाँच-छः दिन में फस ही जाता है। नहीं फसा तो कोई यदि भूल भटके से इनके घर किसी अन्य आवश्यक कार्य से पहुँच गया तो समझो गया काम से।
उसे देखकर यदि वह मोटा हुआ तो शुगर, बी.पी. या हार्ट आदि की बीमारी बताकर डरा देंगे और कहीं वह दुबला हुआ तो उसे बुखार, पीलिया, या टी.बी. जैसी कोई खतरनाक बीमारी बता कर डरा देते हैं और कहीं धोखे से शरीर में कोई गाँठ या सूजन ही दिखाई दी तो वे इसे फौरन कैंसर बताकर उसका बी.पी. तक हाई कर देते हैं। यदि वह आदमी इत्तेफाक से सामान्य हुआ तो भी वे उसका चेहरा ऐसे घूरकर देखेगे जैसे काॅलेज में कोई लड़का किसी खूबसूरत नई लड़की को देखता है। फिर अचानक बहुत गंभीर मुद्रा बनाकर कहने लगेंगे कि तुम्हारा चेहरा कुछ मुरझाया-सा लग रहा है, देखो? गाल कैसे पिचक गये हंैं। तंबाखू, गुटका, शराब आदि का नशा करते हो क्या? तुरंत बंद कर दो।
अब इन्हें कौन समझाये कि आज लगभग अस्सी प्रतिशत बड़े तो क्या बच्चे तक पाउच संस्कृति की चपेट में फंस चुके हैं तो स्वाभाविक है कि वे सज्जन भी खाते हो। उनके हाँ भर कहने की देर होती है, फिर तो उनकी सोई हुई आत्मा जाग जाती है और पूरे चालीस मिनिट तक नान स्टाप ‘नशा मुक्ति’ की कैेसेड़ चल जाती है और उसका वज़न एवं बी.पी. तक नाप देते है और फिर जबरन अपनी सलाह देकर उसे इतना भयभीत कर देते हैं। कि वह बेचारा दोबारा उनके घर तो क्या उस गली से भी कभी गुजरने से तौबा कर लेता है। वैसे इन लोगों के लिए एक कवि ने क्या ख़ूब लिखा है-जबसे ये झोलाछाप डाॅक्टरी करने लगे, तब से देश के बच्चे अधिक मरने लगे।
असली लाभ उन्हें साहित्यकार होने के कारण अपने नाम के आगे डाॅ। लिखने से असली डाॅ. (विद्वान) की श्रेणी में आ जाते हैं अब दूसरे शहर के लोगों को क्या पता कि ये मेट्रिक पास पी.एच.डी. है अथवा जे.एच.डी. है। मजे की बात तो यह है कि शहर के जो असली पी.एच.डी. धारी विद्वान साहित्यकार हैं वे भी इन जैसे तथाकथिक स्वयंभू डाॅ. का विरोध तक नहीं करते हैं शायद वे उनके रिश्तेदार हो या बिरादरी के हो या हो सकता है कि वे उनके प्रिय चमचे चेले हो, इसलिए वे चिमाने (मौन) रहते हैं। अभी हाल ही में शहर में एक बड़ा साहित्यिक आयोजन हुआ उसमें जो आमंत्रण कार्ड छपे उसे यदि एक वार आप भी देख लेते तो आपको भी एक बार हँसी ज़रूर आती।
उसमें असली पी.एच.डी. धारी साहित्यकार है उनके नाम के आगे डाॅ. लिखा था और नाम के अंत में कोष्टक में पी.एच.डी. भी लिखा था और जो जे.एच.डी.टाइप थे उनके नाम के आगे तो सिर्फ़ डाॅ. लिखा था, किन्तु नाम के बाद कुछ नहीं लिखा गया था, आप स्वयं सोच लें कि बे किसके एवं किस टाइप के डाॅक्टर हैं। मैंने जब एक असली पी.एच.डी.धारी को वह कार्ड दिखाकर पूँछा कि ऐसा क्यों हैं तो उन्होंने यही कहा कि इसी से तो पढ़ने वालो को पता चल जाता है कि कौन असली और कौन नकली है। मैंने कहा-धन्य हैं आप, क्या नकली के सामने भी डाॅ. लिखना ज़रूरी था, वे बोले नहीं, यह हमारी मजबूरी थी।
यदि कोई जे.एच.डी. गाँव में अपना दवाखाना खोलकर किसी तरह अपनी जीविका चलाये तो बात ठीक लगती है किन्तु शहरों (जिलों) में एक साहित्यकार जो विद्वान की श्रेणी में आता है, वह अपने नाम कमाने के चक्कर में जबरन नकली डाॅ। लिखता फिरे तो बहुत ही शर्म की बात है। ऐसे लोगों को निराला, पंत, पे्रमचन्द, आदि साहित्यकारों से सीखना चाहिए कि क्या वे डाॅ। थे और गुप्त जी को तो एक विश्वविद्यालय ने पी.एच.डी. की उपाधि तक दे दी थी किन्तु उन्होंने तो कभी भी अपने नाम के आगे डाॅ। नहीं लिखा। आज इतने वर्ष बाद भी इन सात्यिकारों का नाम बड़े ही आदर के साथ लिखा व लिया जाता है। उनका स्थान उस समय के असली पी.एच.डी. करने वाले साहित्यकारों से कहीं ऊँचा था।
यूँ तो नाम कमाने का अपना तरीक़ा होता है। विद्वान लोग अपने सद्कर्मो से विख्यात होकर नाम कमाते हैं तो वहीं चोर डाकू, चुरकुट एवं बदमाश आदि कुख्यात होकर अपना नाम कमा लेते हैं। धन्य हैं ऐसे डाॅ। जो साहित्य में वायरस की तरह घुसकर साहित्य का ‘सा’ खाकर उसकी हत्या करने में तुले हैं। जाहिर-सी बात है कि हम जैसे बिना डाॅक्टर धारी साहित्य सेवी साहित्यकारों को इस कृत्य पर घोर निंदा करने का मूलभूत अधिकार तो होना ही चाहिए, भले ही ये नहीं सुधरें, किन्तु जब हम सुधरेगे तो जग सुधरेगा।
काँच कितना ही तरास लिया जाये, लेकिन असली हीरे की बराबरी कभी नहीं कर सकता। जौहरी तो फौरन ही इनकी पहचान कर दूध में मक्खी की तरह निकालकर फेंक देता है। अंत में दो पंक्तियाँ इन्हें समर्पित हैं-
हमाये सामने ही लिखवौ सीखौ
और हमई खौ आँखे दिखा रय।
नकली डाॅक्टर बनकेें हमई खौ
वे साहित्यिक सुई लगा रय॥
राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’
संपादक ‘आकांक्षा’ पत्रिका
अध्यक्ष-म।प्र लेखक संघ, टीकमगढ़
शिवनगर कालौनी, टीकमगढ़
यह भी पढ़ें-
२- आत्मविश्वास