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समय चक्र (Time cycle)
समय चक्र (Time cycle): समय सीमा
न रहती तो
बहुत देर बतियाते हम,
अगर
सामने बैठे रहते तो कब याद आते हम I
बात से यूँ ही
नई बात निकलती है,
रिश्तों में उष्मा हो
तो कड़वाहट मोम बन पिघलती है,
मोम की देह में
धागे की अस्थियाँ रहती हैं,
मन में पीड़ा,
पीड़ा में
खण्डित सपनों की बस्तियाँ रहती हैं,
हर धड़कन
बस यही बात मुझसे बार-बार कहती है,
समय के साथ-साथ देह
देह के साथ-साथ साँस
साँस के साथ ही तो,
आस की नदियाँ बहती है I
जो बस एक बात कहती है
सपनों में मन,
“हीरामन” बन जाता है एक
एक·के बाद दूसरी
फिर आखिरी
यानि “तीसरी कसम” खाता है,
तीसरी क़सम-
यानि “मोह से दूर रहेगा” ,
“अपनी व्यथा नहीं किसी से कहेगा” ,
कहने-सुनने
में फिर समय सीमा
की बात आ जाती है,
उजला-सा दिन होता है खत्म
स्याह रात आ जाती है,
अन्धेरे में
नयनों के दीप जगाते हम,
समय सीमा
न रहती तो कितना बतियाते हम I
एक कल्पना
हो अगर ऐसा,
ना हो कोई धर्म,
समझें सब इस दुनिया में,
मानवता का मर्म।
बंधन ना हो जाति का,
सब हों एक समान,
चल पाएगा तब दुनिया मे,
शांति से सब काम।
बलिदान नहीं तब देना होगा,
दंगों की बलिवेदी पर,
मंदिर-मस्ज़िद की संपत्ति,
होगी न्योछावर उन्नति पर।
जाति, धर्म ना होंगे फिर
निर्णय चुनाव का करने वाले,
नेताओं के झाँसे में ना,
होंगे हम फिर पड़ने वाले।
यह समाज आरक्षण की तब,
चक्की में ना कभी पिसेगा,
होगा जो भी प्रतिभाषाली,
अन्याय नहीं वह कभी सहेगा।
पैसों के चक्कर में कोई
धर्मांतरण ना कभी करेगा,
अपनी मर्यादाओं से तब,
हर इक मानव बँधा रहेगा।
हिंदू कौन हैं मुस्लिम कैसे?
कुछ विवाद ना हुआ करेगा,
जगह पर मंदिर-मस्ज़िद की तब,
विद्यालय ही बना करेगा।
होंगे जब सब इक ही जैसे,
कहो कौन ज़ेहाद करेगा!
आतंकी आतंकी होंगे,
ज़ेहादी ना कोई कहेगा।
यह छूत-अछूत का भेद सभी,
सच में उस दिन मिट जाएगा,
कोई शिया ना कोई सुन्नी,
इस दुनिया में रह जाएगा।
जब सारे होंगे इक ही जैसे,
दंगा-फ़साद ना हुआ करेगा,
धर्म के नाम पर कभी किसी का,
निर्दोष रक्त ना बहा करेगा।
इतिहास के पन्ने सारे तब,
स्वर्णिम अक्षर से लिखे जाएँगे,
ज्वालामुखियों के कंठों से,
गीत सुहाने सुने जाएँगे।
सौहार्द भरे बादल होंगे,
प्रेम की बारिश हुआ करेगी,
धरती सारी अपनेपन की,
ख़ुशबू से तब महक उठेगी।
अमन चैन बस केवल तब,
धरती पर विसरित हुआ करेंगे,
कोई धर्म ना होगा जब,
मानव तब मानव हुआ करेंगे।
निकला नभ में, भोर का तारा
चारों ओर अँधेरा छाया, जीव-जगत निस्पंद पड़ा था
रात्रि का अंतिम प्रहर था, रंग तारों का उड़ा था
सो रही थी सृष्टि सारी, स्वप्न में खोयी हुई सी
गति-चक्र मानो ज़िन्दगी का, राह में ठिठका खड़ा था
दिख पड़ा सहसा क्षितिज पर, सूर्य का सच्चा दुलारा
निकला नभ में, भोर का तारा
अस्ताचल-गामी तारों ने और तेज हो क़दम बढ़ाये
जाग्रत जीवन हुआ जगत में, चिड़ियों ने डैने फैलाये
स्वप्न-लोक के दर को छोड़ा, मतवाले ग्रामीण-जनों ने
पशुओं ने हर्षित हो-होकर, घंटी और घुंघरू झनकाये
पेड़ों पर कलरव ध्वनि छायी, गुंजित आसमान था सारा
निकला नभ में, भोर का तारा
शुचि-शीतल मंद समीर बही, तन-मन में उल्लास जगाती
सद्य: प्रकाशित पूर्व-क्षितिज से, फटने लगी तिमिर की छाती
खनक उठे चूड़ी और कंगन, चाय-कॉफी मृदुल करों में
बच्चों की किलकारी गूँजी, माता के मन को हर्षाती
घंटा-ध्वनि छायी मंदिर में, बहने लगी भक्ति-रस धारा
निकला नभ में, भोर का तारा
गठबंधन आशाओं से
यह क्या खेल शुरू होने से पहले
तुमने पासे अपने डाल दिये हैं,
तरकश भरा है तीरो से और
मन में असंख्य भ्रम पाल लिये हैं I
क्या जब मानव धरा पर आया
थे सब सुख उसकी झोली में,
क्या राहें पुष्पों से अटी पड़ी थी
और राग थे उसकी बोली में I
कुछ तो है अनन्त काल से
जो ईश्वर की रचना है,
कुछ मानव की जोड़ तोड़ है
जो इस धरती पर अपना है I
कितने सूरज हैं इस ब्रह्मांड में
फिर भी अन्धकार ही हावी है,
यही विषय हम चुन लें तो
जीवन विश्लेषण प्रभावी है I
अन्धकार था तभी तो मानव ने
प्रकाश का आविष्कार किया,
इसी धरा में जो छुपा हुआ था
उसी से इस धरती का शृंगार किया I
चाह मन में और दृढ संकल्प ही
हर कठिनाई में पूँजी है,
आस विश्वास प्रचुर हो जीवन में
यही सफलता की कुंजी है I
उचित दिशा में हो लक्ष्य निर्धारण
न शंका हो, बिना किसी कारण,
कार्य एंव उर्जा का सही हो ज्ञान
सफलता निश्चित है ये लो जान I
उठो, कितने कार्य अभी शेष हैं
चलो, राहें अभी साधनी होंगी,
विषधररिक्त चन्दनवन करने होंगे
त्याग, निर्मूल शँकायें,
आशाओं से गठबंधन करने होंगे I
अभिव्यक्ति की असमर्थता
अंत और अनंत क्या,
उर की अभिलाषा क्या?
मन क्यों स्थिर नहीं,
जीवन की परिभाषा क्या?
प्रश्न भी अनंत हैं
अनकहे हैं
जवाब कभी हैं ही नहीं,
कहीं अधूरे हैं,
मौन लगता अचल है I
बस अपनी
अंतर्रात्मा का
साथ ही चिरंतन है,
बाकी या तो इच्छा है
लालसा है
या न मिटने वाली चाह है I
मोह क्या है,
माया है क्या?
सत्य क्या है,
साया है क्या?
फिर अनगिनत सवाल,
या तो असंख्य जवाब,
या फिर कोई भी नहीं
कहीं सिर्फ़ गति है
कोई ठहराव नहीं
और कहीं बस
ठहराव ही है
कोई गति, कोई हलचल नहीं।
यह शब्द हैं
या भाव?
या उलझन?
अभिव्यक्ति की असमर्थता?
आईना
सवालों की भीड़ है यहाँ, जवाब नदारद
डरता है दिल मेरा अब अपने ज़ख़्म दिखाने में I
वक़्त की दीवार पर लगा वह आइना हूँ मैं
जला है जिसका दिल ख़ुद के मुस्कराने में I
निकलेगी न धूप जब तक है बारिश का मौसम
जले हैं लब मेरे भीगी शब को आज़माने में I
अश्कों की ज़ुबान गीतों में छलक गयी है शायद
कोरे काग़ज़ लगे हैं अभी तक नमी को सूखाने में I
देखते-देखते सब अपने, दे गये हैं दर्द नये
हम अब भी लगे हैं झूठी तस्सली से ख़ुद को बहलाने में I
शीशमहल-सा तन था पर मन तो बिल्कुल खंडहर था
फिर भी सजाए ख़्वाब हमने इस दिल के आशियाने में I
करेगी ख़ाक चिता की आग ले के अपनी पनाहों में
हम देखेंगे फिर भी राह ख़ुशी की उस अकेले वीराने में I
जीवन
कुटिल विवशता छलती जाती
फिर भी बहता जीवन,
कटी पतंग उड़ाता है क्यों
ओ मेरे चंचल मन I
धूप-धूप चलते-चलते
सब झुलस चुकी है काया,
फूट चुके हैं पग छाले सब
धीरज भी चुक आया,
पथ कंटकाकीर्ण है फिर भी
तू चलता हर्षित मन,
फिर भी बहता जीवन I
एकाकी जीवन का सूना
कोलाहल कानों में,
प्यासा अंतस सूख रहा है
अंधकार के भावों में,
नागफणी का पुष्पहार ले
मत निहार चंचल मन,
फिर भी बहता जीवन I
पंकित गलियारे जीवन के
नहीं नीर आँखों में,
दीप शिखा भी स्नेहरहित है
निराधार हाथों में,
डोल रहा जीवन लहरों संग
तू बावरा मेरा मन,
फिर भी बहता जीवन I
गोपाल मोहन मिश्र
लहेरियासराय, दरभंगा (बिहार)
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