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यही वास्तविक लोकतंत्र (real democracy)
यही वास्तविक लोकतंत्र (real democracy)…
क्या सही मायने में
यही वास्तविक लोकतंत्र
जब प्रत्याशी तक
अपने आप को
पूरी तरह समझते
बादशाह सुख़नाई हो
क्या सही मायने में
यही वास्तविक गणतंत्र…
जब निर्धारित
मेहनताना भी
ख़्वाहिश की जग़ह
पूरी तरह ख़्वाबाई हो
क्या सही मायने में
यही वास्तविक लोकतंत्र…
जहाँ पूरण शिक्षित
एक रोज़गार पाने हेतू
पूरी तरह इधर-उधर
अपने आप की ही
ख़ुल्ली बोली लगवाई हो
क्या सही मायने में
यही वास्तविक लोकतंत्र…
जब कभी ज़िन्दगी के
किसी मोड़ पर
शिक्षा ही लगने लगे
ख़ुद को पूरी तरह बेमानी
और न ही कोई कमाई हो
क्या सही मायने में
यही वास्तविक लोकतंत्र…
जब कभी किसी कारण
कैसी भी परिस्थितिवंश
यंत्र ही बन तंत्र
महसूस षड्यंत्र सी
कोई बू आई हो
क्या सही मायने में
यही वास्तविक लोकतंत्र…
लेकिन जब
भरी तपती दोपहरी में
कुछ राहत भरी
आम आदमी की
पूरी लोकतांत्रिक
व्यवस्था अनुसार
हुई निष्पक्ष सुनवाई हो
तभी तो सही मायने में
यही वास्तविक लोकतंत्र…
यही वास्तविक लोकतंत्र…
लेखक… कवि… क्यों गुनहगार…
लेखक कवि ही क्यों गुनहगार
सदा रहते उदासियों से गुलज़ार
शाय़द हकीक़त के ज़्यादा क़रीब
लगता इसी लिए होते अधिक ग़रीब
पर विचारों से तो सदा ही अमीर
इसी कारण लिखते नई तहरीर
कुछ वक़्त के हाथों ही मज़बूर
असलियत से लगते कोसों दूर
कुछ लिखते बस समय अनुसार
करते बस ख़ुद का ही उद्धार
हर किसी का अपना अलग वज़ूद
तभी अलग करें वह पानी से दूध
जीवन की बस कड़क सच्चाई
आज़ तलक समझ नहीं आई
विचारों सहारे शब्दों की माला
खुद सदा पीते विष का प्याला
लिखना इतना भी आसान नहीं
झूठी दुनियाँ बस पहचान नहीं
लेखक कवि सदा समय का पहिया
निज प्रलोभन कराते ता-ता थईया
शब्द लिखते ही बनते इतिहास
चाहे ग़म के हो य़ा परिहास
कहीं यह कांटे य़ा गले का हार
लेखक कवि ही क्यों गुनहगार
लेखक कवि ही क्यों गुनहगार…
कितना अच्छा अपना गांव
जब तक रहे अपने गाँव
ज़मींन पर ही रहे सदा पांव
गाँव से जब पहुँचे कसबा
चाहे बढ़ गया थोड़ा ज़ज्बा
कसबे से तालाशने निकले शहर
जीवन में ढ़ाने लगे कई कहर
शहरों से फिर यात्रा महानगर
फिर तैरने लगे बस इधर उधर
महानगर ने भी छुड़वाया प्रदेश
सभी के मानने पड़े हमें आदेश
प्रदेश त्याग ज़ब पहुँचे विदेश
बहुत याद आने लगा अपना देश
अपने भी तो अकारण छूट गये
अन्दर तक तो हम ही टूट गये
फिर याद आने लगे वही रिश्तें
बिन वज़ह रहे जहाँ यूँही पिसते
ज़ब जलने लगे सर्दी में भी पांव
बहुत बेहतर लगा अपना ही गांव
गांव जैसा कहीं तो माहौल नहीं
वैसी खुशिंयों जैसी रमझोल नहीं
अपना तो गाँव का बसेरा ही अच्छा
दिल बना रहता जहाँ सदा ही बच्चा
वो पीपल की मीठी छांव
कितना अच्छा अपना गाँव
कितना अच्छा अपना गांव…
सब जी हजूर
ज़िन के पास बस माया भरपूर
उनके खातिर तो सब ज़ी हज़ूर
ज़िन के पीपे में नहीं आटा
उनके लिये तो सबकी टाटा
अमीर संग सब रिश्तें जोड़े
ग़रीब से तो नाता तक तोड़े
इशारों में सब काम हो जाते
वो बेचारे लाईनों में धक्के खाते
सुख़ सुविधायें भोग सब्सिडी पाते
यहाँ पर तो मूल को ही तरस जाते
मोटा मुनाफा कमा सब घाटा दर्शाते
वो घाटे में भी सब्र का घूंट पी जाते
इस में उन बेचारों का क्या क़सूर
माया भरपूर तो सब जी हजूर
सब जी हजूर …सब जी हजूर …
चलो कहीं…
चलो कहीं अब बहुत दूर हैं चलते
वहम की जगह हकीक़त में हैं पलते
बहुत जी लिये हम नकली बन कर
कुछ पल ही सही पर असली हैं बनते
चलो कहीं …
जीवन भर रहे बस यूँही थिरकते चलते
थक कर भी बस रहे सदा यूँही खिलते
किसी को कोई नहीं पड़ता रहा फ़र्क यहाँ
जीवन भर बस यहाँ आंसू ही रहे छलते
चलो कहीं…
अपने पराये भी यहाँ देख कर बनते
हालात देख कर ही चहल कदमी करते
कौन किसी का हो य़ा बन पाया यहाँ पर
देख तरक्क़ी बस अपने ही तो जला करते
चलो अब कुछ हट कर नया हैं करते
नेक इरादे ले कुछ क़दम हैं आगे बढ़ते
माना सदा अपने ही तो रहे सालते
तराश कुछ पहाड चट्टाने सीढ़ीयाँ हैं चढ़ते
चलो कहीं…
हम उन्हें अपना समझ प्यार कर बैठे
इस जहाँ में आ कर
हिम्मत कर थोड़ा शर्माकर
हमारे जैसा नादान नसमझ
हम किसी को अपना समझ
दिल से प्यार तो क्या कर बैठे
बस अपना खुद्दारी भरा दिल दे बैठे
पर हमारी ग़रीबी के कारण
हमें कह तो क्या दिया अकारण
बस सुना दिया एक फरमान
भूल कर भी न पालो ऐसे अरमान
तुम थोड़ा पगलाये सुधर जाओ
उन्हें तो बस कतई भूल जाओ
दिन में वह भी हसींन ख्वाब
बिल्कुल नहीं ठीक तुम्हारा स्वभाव
अमीरी ग़रीबी का मेल नहीं सच्चा
अच्छी तरह समझ गये न बच्चा
वो तो अमीर रहे वह भी सदा खानदानी
सदा भांति कमज़ोर रही हमारी समझदानी
ऊपर से उन्हें तो भूलने की बीमारी
पर क़िस्मत अपनी रही हालात की मारी
वो फिर भी भुलाने के भी पैसे ऐंठ बैठे
हम उन्हें अपना समझ प्यार कर बैठे
हम उन्हें अपना समझ प्यार कर बैठे…
ज़ब तक सांसें चलती रहीं
ज़ब तक सांसें चलती रहीं
बस मेरा अपना करती रहीं
ज़ब हर आस ही थम गई
फिर तुम तो क्या हम ही नहीं
हर शाम बस ढ़लती रही
ज़ब तक सांसें…
बस अपना मेरा…
यहाँ मेरे अपने सारे
मेरे हो गये वारे न्यारे
जब खाली हाथ ही थम गये
सब अपने कहीं रम गये
पर जीवन यात्रा चलती रही
जब तक सांसें…
बस अपना मेरा…
सारा जीवन मेरा मेरा
हर अंधेरे में देखा सवेरा
जब रात काली कुछ कम हुई
सुबह लगी कुछ थम गई
कुछ तो हम से गलती हुई
जब तक सांसें…
बस अपना मेरा…
यह पैसे महल चौबारे
रुतबा कईयों को मारे
जब यात्रा ही थम गई
चमड़ी एक दम बेदम हुई
बस ग़लत फ़हमी पलती रही
जब तक सांसें…
बस अपना मेरा…
कुछ कर ले प्रभु भरोसा
नेक कर्म तारेंगें ज़रा सा
वरना ज़िन्दगी बदरंग हुई
कर्मों से भी अधरंग हुई
बस दुनियाँ यूं ही जलती रही
जब तक सांसें…
बस अपना मेरा…
इस जग में पड़ेगा जीना
इस जग में पड़ेगा जीना
क्योंकि तुम हो एक नगीना
एक में भी कतई तन्हा
भीड़ में भी बिल्कुल अकेला
इस जग में कौन किसी से
क्यों छीने य़ा मांग कर ले ले
जब वैश्विक पटल पर
किन्ही दो अंगुठों के निशान
ज़ेबरा जानवर के शरीर पर विराजमान
दो धारियाँ ही आपस में मेल नहीं खाती
कैसे हो एक घी-शक्कर दीया और बाती
दो व्यक्तियों के दिल य़ा विचार
कैसे होंगें मिलने को तैयार
परमात्मा ने दिया अलग सुंदर रूप
सब को अलग ही बक्शा सक्षम प्रारूप
अरे दूध में पानी मिलाोगे
गुणों में अवगुण मिलाओगे
फिर कैसे जी पाओंगे
माना वह दो ज़िस्म एक जान
फिर दोनों क्यों बिन वज़ह परेशान
सुना प्यार व कानून एक दम अंधा
फिर कौन किसे दे सहारा य़ा कंधा
अपना जीवन अकेले ही पड़ेगा जीना
कुछ कड़वे घूंट पी बहा कर पसीना
इस जग में पड़ेगा जीना…
इस जग में पड़ेगा जीना…
उस दिन उनको क्या देखा
उस दिन उनको क्या देखा
समय ने खींच दी लक्ष्मण रेखा
उसके बालों को क्या देख लिया
बस उन्हीं गेसूओं में ऊलझ लिया
फिर आँखों पर गई तिरछी नज़र
बिन पानी तैर गये उसी पहर
फिर चेहरे की क्या देखी झलक
फिसला पैर टिमटिमाने लगी पलक
गर्दन तो क्या रही बस
बिल्कुल ही हो गई बस
कुछ शब्दों को जोड़ कर
भावनाओं को भी दौड़ कर
कुछ इस कद्र किया काबू
कहीं का न रहा यह बाबू
बस काम कर गया एक झरोखा
जीवन में खा गये एक दम धोखा
पीछे छूट गया हर मौका
बिना गेंद के ही लगा बैठे चौका
अपना दिल यूं उछलते देखा
उस दिन उनको क्या देखा
उस दिन उनको क्या देखा…
जीवन शायद चल रहा
जीवन शायद चल रहा
कुछ ऐसा अभी लग रहा
माना आजकल मन बहुत उदास
हालात कारण उठ चुका विश्वास
ज़मीर भी चुका है मर
मेहनत भी हो चुकी बेघर
सांसें भी कुछ थम गई
भावनायें तो बस ज़म गई
आँखें कुछ-कुछ उनींदा
फिर भी है शाय़द ज़िन्दा
हालातनुसार कुछ तो चल रहा
उनका दिल शाय़द मचल रहा
इस उम्मीद के साथ
बदलेंगें बिल्कुल हालात
दोबारा हो वही बात
गुलज़ार हो अमावस की रात
हर दिल खिल जाये
पुन: बचपन मिल जाये
नई कोपलें फिर फूट आयें
कोई अन्दर से न टूट जाये
ऐसा आभास है मिल रहा
जीवन शायद चल रहा
जीवन शायद चल रहा…
यही है ज़िन्दगी
अज़ब वक़्त और दुनियाँ
हर व्यक्ति घोर अंधेरे में
पर फिर भी चाह रहा जीना
बस अमृत के चक्कर में
चाह रहा कड़वे घूंट पीना
किसी पल की ख़बर नहीं
कि श्वास भी क्या स्वस्थ आयेगा
अगले क्षण भी क्या ज़िन्दा रह पायेगा
हर शाम अंधेरे-सी ज़िन्दा दिल ज़िन्दगी की
फिर वही झूठी शान बंदगी की
दोपहर बाद फिर एक दिलासा
अधूरी रही हो जैसे एक पीपासा
एक बड़ी सुनहरी शाम का
ज्यों संगत के असर के नाम का
टूटना गहरी कच्ची नींद का
जगना विश्वसनीय उम्मीद का
धोखे को विश्वास पाने का
दूर को पास आने का
अनपढ़ को विद्वान बनने का
ग़रीब को अमीर बनने का
भूखे को रोटी मिलने का
सब को बस एक इंतज़ार
बड़ी बेसबरी से
यही हैं ज़िन्दगी
यही है ज़िन्दगी…
वीरेन्द्र कौशल
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