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शब्द अनमोल (priceless word)
priceless word: ‘स्वादु’ जैसा स्वाद लिए है ये ‘साडनफ्रोइडा’
दुनिया जानती है हम हरियाणा वाले हर क्षण हर व्यक्ति वस्तु और स्थान में ‘संज्ञा’ कम ‘स्वाद’ ज़्यादा ढूँढते हैं। ‘सर्वनाम’ शब्दों का प्रयोग करना भी कोई हमसे सीखे और उनकी विशेषता बताने वाले ‘विशेषण’ शब्दों के प्रयोग के क्या कहने। वैसे हमें ‘प्रविशेषण’ शब्दों में भी महारत हासिल है पर हम उनकी जगह लठमार कहावत (देसी बोल) का प्रयोग करना ज़्यादा सहज महसूस करते हैं। ‘सन्धि, संधि-विच्छेद, समास विग्रह’ सब हमें आता है। आता नहीं तो बस घुमा-फिराकर बोलना। मुंहफट है जो बोलना हो सीधा बोल देते हैं। इस पर चाहे कोई नाराज हो, तो हो। हमारा तो यही स्टाइल है और यही टशन। आप भी सोच रहे होंगे कि आज न तो हरियाणा दिवस है और न ही-ही हरियाणा से जुड़ा कोई प्रसंग। फिर आज हम ‘हरियाणा पुराण’ क्यों सुनाने बैठ गए। थोड़ा इंतज़ार कीजिए, सब समझ में आ जायेगा। उससे पहले आप आज हरियाणवीं चुटकुले सुनें।
हरियाणा में कोई एक व्यक्ति किसी काम के सिलसिले में आया हुआ था। सूटेड-बूटेड वह सज्जन पुरुष चौराहे के पास की एक दुकान पर कुछ देर धूम्रपान करने को रूक गया। इसी दौरान उस रास्ते से एक शवयात्रा का आना हो गया। दुकानदार ने फौरन दुकान का शटर नीचे किया और दोनों हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। शवयात्रा निकलने के बाद उस सज्जन पुरुष ने दुकानदार से कहा-कोई मर गया दिखता है। दुकानदार ने सहज भाव से उतर दिया-ना जी भाई साहब। ये आदमी तो ज़िंदा है। इसे मरने में बड़ा ‘स्वाद’ आता है। इसलिये हफ्ते-दस दिन में ये लोग एक बार इसे ऐसे ही श्मशान घाट तक ले जाते हैं और वहाँ के दर्शन कराकर घर वापिस ले आते हैं। सज्जन पुरुष बोला-ये क्या बात है। मरने का भी कोई ‘स्वाद’ होता है। आप भी अच्छा मज़ाक कर रहे हो। दुकानदार बोला-शुरुआत किसने की थी। तुम्हारी आंखें फूटी हुई है क्या। जो सब कुछ देखकर जानकर ऐसी बात कर रहे हो। शवयात्रा तो मरने के बाद ही निकलती है, ज़िंदा की थोड़े ही। सज्जन पुरुष बिना कुछ कहे चुपचाप वहाँ से निकल गए।
इसी तरह आधी रात को एक शहरी युवक ने अपने हरियाणवीं मित्र को फ़ोन करने की गलती कर दी। हरियाणवीं मित्र गहरी नींद में सोया हुआ था। आधी रात को फ़ोन की घण्टी बजने से उसे बड़ा गुस्सा आया। नींद में फ़ोन उठाते ही बोला-किसका ‘बाछडु’ खूंटे पाडकै भाजग्या, किसकै घर म्ह ‘आग लाग गी’। जो आधी रात नै ‘नींद का मटियामेट’ कर दिया। इस तरह के सम्बोधन से शहरी सकपका-सा गया। बात को बदलते हुए बोला-क्या बात सोए पड़े थे क्या। हरियाणवीं बोला-ना, भाई ‘सोण का ड्रामा’ कर रहया था। मैं तो तेरे ए फ़ोन की ‘उकस-उकस’ की बाट देखण लाग रहया था। बोल, इब किसका घर फूंकना सै। किसकी हुक्के की चिलम फोड़नी सै। मित्र से कुछ बोलते नहीं बन रहा था। हिम्मत कर के बोला-यार, आज तुम्हारी याद आ गई। इसलिए फ़ोन मिला लिया। हरियाणवीं बोला-मैं कै हेमामालिनी सूं, जो बसन्ती बन गब्बरसिंह के आगे डांस करया करूं। या विद्या बालन सूं। जो ‘तुम्हारी सुलु’ बन सबका अपनी मीठी बाता तै मन बहलाया करै। शहरी बोला-यार एक पत्रिका के लिए लेख लिख रहा था। आजकल एक शब्द ‘साडनफ्रोइडा’ बड़ा ट्रेंड में चल रहा है। तुम लोगों के शब्द सबके सीधे समझ आ जाते हैं। इसलिये उसका हरियाणवीं रुपांतरण चाहिए था।
हरियाणा और हरियाणवीं के सम्मान की बात पर अब जनाब का मूड बदल गया। बोला-यो तो वह ए शब्द है ना, जो आपरले याड़ी ट्रम्प के साथ ट्रेंड में चल रहया सै। सुना है ५० हज़ार से भी ज़्यादा लोग शब्द को सर्च कर चुके हैं। बोल, सीधा अर्थ बताऊँ कि समझाऊँ। शहरी भी कम नहीं था। बोला-समझा ही दो। हरियाणवीं बोला-हिन्दी में तो इसका अर्थ ‘दूसरों की परेशानी में ख़ुशी ढूँढना’ है। हरियाणवीं में इसे ‘स्वादु’ कह सकते हैं। यो ट्रम्प म्हारे जैसा ही है। सारी अमरीका कोरोना के चक्कर में मरण की राह चाल रहयी सै। अर यो बैरी खुले सांड ज्यूं घूमदा फिरै था। इसने इसे म्ह ‘स्वाद’ आ रहया था। यो तो वोये आदमी सै। जो दूसरा के घरा म्ह आग लागी देख कै उस नै बुझाने की जगहा खड़े-खड़े स्वाद लिए जाया करे। वा ए आग थोड़ी देर में इसका भी घर फूंकगी। लापरवाही में पति-पत्नी, स्टाफ सब कोरोना के फेर में आ लिए। इतने शानदार तरीके से ‘साडनफ्रोइडा’ शब्द की विवेचना पर युवक मित्र अपनी हंसी नहीं रोक पाया। बोला-मान गए गुरु। ‘स्वाद’ लेने का आप लोग कोई मौका नहीं छोड़ते। वाकयी आप लोग पूरे ‘साडनफ्रोइडा’ मेरा मतलब ‘स्वादु’ हो। अच्छा भाई ‘स्वाद भरी’ राम-राम। यह कहकर उसने फ़ोन काट दिया। अब हमारे पास भी दोबारा सोने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। सो चादर से मुंह ढंक फिर गहरी नींद में सो गए।
मुझको देखोगे जहाँ तक, मुझको पाओगे वहाँ तक, मैं ही मैं हूँ, मैं ही मैं हूँ दूसरा कोई नहीं…
कोरोना की दूसरी लहर में देश के हालात दिनों-दिन बद से बदतर होते जा रहे हैं। सरकारी दावे और चिकित्सा व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ रही है। हर सुबह किसी न किसी जानकार की विदाई की सूचना मिल रही है। ‘कोरोना कोई बीमारी थोड़े ही है’ कहने वाले अपनों के लिए ऑक्सीजन के सिलेंडर, वेंटीलेटर युक्त बेड तलाशते फिर रहे हैं। ‘किसी भी तरह जुगाड़ करा दो’ कहना सामान्य बोलचाल में शामिल हो गया है। कोरोना से रिकवर हुए लोगों को प्लाज्मा डोनेट करने के लिए मान-मनुहार करते देखा जा सकता है। अभी तो शुरुआत बताई गई है, पीक तो आनी बाक़ी है। ये कोरोना न जाने आगे और क्या-क्या दिखाएगा।
२०२० को विदाई देते हुए इस बार खुशहाली के साल की कामना सभी ने की थी। ये २०२१ तो २०२० को भी माफ़ करते चला जा रहा है। इस बार तो वह देखने को मिल रहा है, जो आंखें कभी नहीं देखना चाहेंगी। एक भाई को डॉक्टरों के आगे गिड़गिड़ाते देख लिया। एक बेटी को तड़पते भाई के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर के लिए लोगों से गुहार लगाते देख लिया। फुटपाथों पर दाह संस्कार के लिए इंतज़ार करती डेड बॉडी के अंबार देख लिए। श्मशान घाट के बाहर रेट कार्ड देख लिए। अपनेपन का दम्भ भरने वाले ढूँढे नहीं मिल रहे हैं। बुज़ुर्ग कंधे बेटों के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर ढोहते फिर रहे हैं। इससे भी ज़्यादा और क्या देखें। एम्बुलेंस के अभाव में रेहड़ी, ऑटो की छत तक पर शव ले जाए जा रहे हैं। शव रखे बेड पर ही जीवित महिला को इलाज़ के लिए इंतज़ार करते देख लिया। जौनपुर वाले बाबा को लू के थपेड़ों के बीच साइकल पर अपनी जीवन संगनी के शव को ढोहते देख लिया।
अस्पतालों के बाहर कोविड मरीजों के लिए बाकायदा रेट चार्ट चस्पा कर रखे हैं। जो फाइव स्टार-सेवन स्टार होटलों के चार्ज को भी माफ़ कर रहे हैं। वह भी सहजता से नहीं मिल रहे, इसके लिए भी सिफारिशों का अहसान लेना पड़ रहा है। दूसरी तरफ़ ज़रूरी दवाइयों और उपकरणों की कालाबाजारी हो रही है। रोजाना कोरोना से होने वाली मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। श्मशान घाटों में शवों के दाह संस्कार के लिए जगह कम पड़ने लग गई है। यहाँ भी वेटिंग लिस्ट बनने लगी है। इससे बुरी विडम्बना और क्या होगी। शवों को भी दाह संस्कार के लिए कतारबद्ध होना पड़ रहा है। घंटों इंतज़ार करना पड़ रहा है।
कहना ग़लत नहीं होगा कि हालत बुरी है। दूसरों की मौत का समाचार सुनाने वाले पत्रकार ख़ुद समाचार बन रहे हैं। दिल उदास है, आंखें नम है। हिम्मत जवाब देने लगी है। आंखों से बेबसी के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे। हर रात के बाद नई सुबह का इंतज़ार ज़रूर कर रहे हैं पर वह सुबह आने का नाम ही नहीं ले रही। उधर कोरोना बेफिक्री और मस्ती में गुनगनाते चला जा रहा है-
मुझको देखोगे जहाँ तक, मुझको पाओगे वहाँ तक।
रास्तों से कारवां तक, इस ज़मीं से आसमां तक
मैं ही मैं हूँ, मैं ही मैं हूँ दूसरा कोई नहीं…।
गधों की चिंता करना छोड़ें, अपने बारे में ही सोचें कुरड़ी पर लौटे बिना, उन्हें स्वाद थोड़े न आएगा
दो दिन पहले सोशल मीडिया पर पढ़े एक प्रसंग ने मन को काफ़ी गुदगुदाया। आप भी जानें कि आख़िर उसमें ऐसा क्या था कि उक्त प्रसंग, लेखन का विषय बन गया। प्रसंग के अनुसार बंद दुकान के थड़े पर दो बुज़ुर्ग आपस में बातें करते हुए हंस-हंस कर लोट-पोट हो रहे थे। राह चलते एक व्यक्ति ने उनसे इतना खुश होने की वज़ह पूछी तो एक बुज़ुर्ग र्का जवाब कम रोचक न था।
अपनी हंसी पर काबू पाते हुए उसने कहा-‘ हमारे पास इस देश की समस्याओं को हल करने की एक शानदार योजना है। राहगीर भी हैरान हुआ कि देश विभिन्न समस्याओं से झूझ रहा है और बुज़ुर्ग समाधान लिए बैठे हैं। उसने भी माहौल में रोमांचकता लाते हुए कहा-बाबा! बताओ, ऐसी क्या योजना है। जिससे देश की सारी समस्याएँ हल हो जाएंगी। बुज़ुर्ग बोला-योजना यह है कि देश के सब लोगों को बड़ी-बड़ी जेलों में डाल दिया जाए। राहगीर बीच में ही बोल पड़ा-जेल कोई समाधान थोड़े ही है। कितने दिन जेल में रखोगे। समस्याएँ बाहर की जगह जेल में शुरू हो जाएंगी। ये तो कोई समाधान न हुआ।
इस बार दोनों बुज़ुर्ग ज़ोर से हंसे। युवक फिर हैरान। गम्भीर विषय में हास्य सहज नहीं लगा। फिर भी वह पूरे जवाब के इंतज़ार में बना रहा। इस बार दूसरा बुज़ुर्ग बोला-जनाब, बात तो पहले पूरी सुन लो। अधकचरा सुना और पढ़ा दोनों ही खराब होता है, ये तो जानते ही हो। अभी बात पूरी ही कहाँ हुई है हमारी, फिर कहना। राहगीर ने कहा-ठीक है बाबा, आप बोलो। बुज़ुर्ग बोला-लोगों के साथ प्रत्येक जेल में एक गधा भी ज़रूर डाला जाए। सारी समस्याएँ अपने-आप हल हो जाएंगी। राहगीर ने हैरानी से दोनों को देखा और पूछा-समस्या लोगों की है। फिर लोगों के साथ गधों को क्यों क़ैद किया जाए? उनका क्या कसूर है? राहगीर के इस प्रश्न पर दोनों बुजुर्गों ने एक-दूसरे की तरफ़ देखा और ज़ोर का ठहाका लगाया। एक बुज़ुर्ग दूसरे बुज़ुर्ग के हाथ पर हाथ मारकर बोला-देख, अब तो आ गया होगा ना यकीन, तुझे मेरी बात पर। मैं नहीं कहता था, लोगों के बारे में कोई भी नहीं पूछेगा। सब गधे की फ़िक्र करेंगे। यहाँ लोगों से ज़्यादा गधों की चिंता करने वाले है। कोई और प्रेरक वचन सुनने को मिलते, इससे पहले महोदय वहाँ से निकल गए।
चलिए, अब अपनी बात पर आया जाए। लोग तो हम सब है, ये गधा कौन है। सबके मन अपने-अपने तरीके से किसी किरदार को ‘गधा’ ठहराने की जंग शुरू कर देंगे। पर मुद्दा ये थोड़ी ही है। आज के माहौल में हर वह आदमी ‘गधा’ है, जिसे अपनी फ़िक्र नहीं है। देश की, नेता की, अभिनेता की चिंताएँ तो हमें अंतिम सांस तक करनी ही है। लगातार हो रहीं अपनों की मौत से वैसे भी कलेजा छलनी-छलनी होने को है। ब्लैक फंगस, व्हाइट फंगस तक तो ठीक, ये फंगस इंद्रधुनुष का रूप न धारण कर ले, यही चिंता रातों की नींद उड़ाए हुए है। पुरानी कहावत है-गधे को कितने ही बढ़िया ख़ुशबू वाले साबुन से नहला दो, वहाँ से निकलते ही उसे कुरड़ी (कूड़े का ढेर) पर ही लौटना है। ऐसे में उसे नहलाने या न नहलाने की चिंता ही निरथर्क है। ऐसे में आप भी फिलहाल ‘गधों’ की चिंता छोड़ें। ये न किसी के हुए हैं और न होंगे। इनका ‘दिखना’ और ‘दिखाना’ दोनों जमीन-आसमान का फ़र्क़ लिए होते हैं। कब किस टोली में मिल जाएँ, कब किसे छोड़ जाएँ। इसका परमेश्वर को भी पता नहीं है। बच्चन साहब ने अपनी वाल पर आज शानदार पंक्तियाँ लिखी हैं-
ये व्यक्तित्व की गरिमा है कि फूल कुछ नहीं कहते…
वरना, कभी कांटों को मसलकर दिखाइए… ।
हालात क्यों बिगड़े ये न पूछें, ये बताएँ कि हमने इसके लिए क्या किया…
कोरोना ने फिलहाल देश के हालात खराब करके रख दिए हैं। समाज का हर वर्ग पटरी पर है। व्यापार-कारोबार सब प्रभावित। अस्पतालों में न वेंटीलेटर मिल पा रहे हैं न ऑक्सीजन। इलाज़ के लिए बेड मिलना तो दुरास्वप्न-सा है। गण और तंत्र भले ही अपना पूरा ज़ोर लगाए हुए हो, पर ‘सिचुएशन अंडर कंट्रोल’ सुनने को अभी कान तरस ही रहे हैं। खतरे को भांपने के बावजूद भयावह बनी इस स्थिति के लिए आखिरकार ज़िम्मेदार कौन है?
सबका यही रटा रटाया जवाब मिलेगा। सरकारें नाकाम हैं। प्रशासन की लापरवाही है। प्रबन्धों की कमी है। इतिहास गवाह है। अमूमन हर विकट परिस्थिति के पैदा होने पर यही जवाब सुनने को मिलता आया है। पर क्या इन्हें ही दोषी ठहराते हुए अपने आप से पल्ला झाड़ लेना उचित रहेगा?
कोरोना की दूसरी लहर लगातार चरमोंत्कर्ष पर है। रोजाना किसी न किसी परिचित के कोरोना संक्रमण के चलते मृत्युलोक गमन के समाचार मन ही मन महामारी की भयावहता को और बढ़ा रहे हैं। रही सही कसर ये युट्यूबिया चैनल लाइव परफोरमेंस से नहीं छोड़ रहे हैं। जितना कोरोना नहीं डरा रहा उससे ज़्यादा ये डराने पर तुले हैं। कोरोना मरीजों के लिए बुरी खबर, शहर के सभी अस्पतालों में नहों है कोई बेड खाली। ऑक्सीजन की कमी पर अस्पतालों ने किए हाथ खड़े। आदि टैगलाइन दिल की धड़कनें और बढ़ा जाती हैं।
खैर छोड़िए, ये रोना। अब बात इन हालातों की जिम्मेदारी की। समझदार लोगों का मानना है कि इसके लिए चुनाव और रैलियाँ सबसे बड़ी ज़िम्मेदार हैं। भलेमानसों, जब पता है कि सामने शेर मुहं बाए खड़ा है तो पास जाने का ख़तरा मोल ही क्यों लो। नेताओं की ती रोजीरोटी ही अंधभक्त जनता है। ‘बुलाने का है, पर जाने का नहीं’ बार-बार सुना और पढ़ा होगा। फिर इन पर दोष क्यों मढ रहे हो। बुलाने का उनका कर्म था, जो उन्होंने किया। ख़तरा भांप नहीं जाने का, तुम्हारा कर्म था, जिससे तुम पीछे हट गए। जलते अंगारों पर पहलवानी का शौक तुम्हें ही था। झुलसोगे ही।
और सुनो। एक साल से लगातार ‘कोरोना महामारी है, ध्यान रहे, मास्क हटे नहीं, दो गज की रखे दूरी’ के लिखे सन्देश पढ़े नहीं तो सुने तो होंगे। चालान काट-काटकर तुम्हे आगाह भी किया, पर क्या तुम माने। वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो…की लय में लगातार लापरवाही की सीढ़ियाँ तुमने ही चढ़ीं हैं। अब बात ज़्यादा बढ़ गई तो ज़िम्मेदार और हो गए।
चलो मान लेते हैं कि हम ज़िम्मेदार नहीं। पर क्या हमनें जिम्मेदारी निभाई। वैक्सीन तक को चुरा रहे हैं। कालाबाजारी करने वाले क्या कोई दूसरे थोड़े ही है, हमारे ही भाई-बन्धु हैं। शर्म की बात है श्मशान तक में रेट लिस्ट चस्पा हो गई है। एम्बुलेंस के लिए मनमाने चार्ज वसूले जा रहे हैं। ऑक्सीजन सिलेंडर हजारों देने के बाद भी बमुश्किल प्राप्त हो पा रहा है। लोकडाउन की संभावना के चलते ज़रूरत की चीजों की जमाखोरी तक हम शुरू कर चुके हैं। ठेकों के आगे भी लंबी लाइन लगाने वाले कोई और थोड़े ही है। इसके लिए किसे दोषी ठहराओगे।
सीधी-सी बात है कि इस महमारी के फैलाव में गण और तंत्र का बराबर योगदान है। तूफान से पहले की खामोशी को समझ नहीं पाए। मन ही मन इसे विदाई पार्टी दे चुके थे। पर ये फिर लौट आया। फिलहाल समय बहसबाजी छोड़ एकजुटता के साथ इससे लड़ने का है। संयम रखें। हौसला रखें। एक-दूसरे के सहयोगी बनें। हड़बड़ाहट मत करें। नियमों का पालन करें। पहले भी इससे निपटे थे, अब भी निपट लेंगे।
‘फेला होबे’ की नहीं चली गुगली, ‘खेला होबे’ डबल सैंचुरी पार…
भाजपा के लिए बंगाल फतेह स्वप्न ही रहा। वह ‘फैला होबे, फैला होबे’ कहते रह गए, उधर दीदी ‘खेला होबे’ बोलती-बोलती हैट्रिक बना गई। हालांकि नन्दीग्राम से दीदी की हार ज़रूर ज़ख़्म पर मरहम है पर मलहम ज़रा तीखा है। जो दर्द कम करने की जगह बढ़ाएगा ही।
बंगाल चुनाव में इस बार कई बड़े मुद्दे लगातार चर्चा में रहे। इन्हीं मुद्दों पर पूरा चुनाव फोकस रहा। ये किसी के लिए पॉजिटिव थे तो किसी के लिए नेगेटिव होकर भी पॉजिटिव। ‘जय श्री राम’ का नारा ही लीजिए। चुनाव में इसे प्रमुख मुद्दा बनाने में भाजपा ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। कामयाबी नहीं मिली। हालांकि जय श्री राम के उद्घोष से ममता दीदी आग बबूला होती कई बार ज़रूर दिखी।
दूसरी तरफ़ देखें तो बंगाल की राजनीति में मुस्लिम वोटों का बहुत बड़ा रोल रहता है। इस बार भी इसे अपनी ओर करने का प्रयास कइयों ने किया। भाजपा को तो ये वोट मिलने की संभावना वैसे ही कम थी। अब्बास सिद्दीकी द्वारा ममता बनर्जी का साथ छोड़कर इंडियन सेक्युलर फ्रंट बनाना और ओवैसी का बंगाल की सियासत में क़दम रखना इसे और महत्त्वपूर्ण बना गया था। कहना ग़लत नहीं होगा कि इससे ममता बनर्जी की टेंशन ज़रूर बढ़ी। पर ममता पर इसका कोई ख़ास असर परिणाम में नहीं दिख पाया। चुनाव में किसान भी इस बार बड़ा मुद्दा रहे हैं। ममता खुलकर तीनों कानूनों का विरोध करती रहीं हैं। भाजपा अपने तर्कों से कृषि कानूनों के फायदे गिनाकर भी इसे ममता विरोधी बनाने में कामयाब नहीं हो पाई।
बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा बंगाल में बरसों पुराना रहा है। इस मुद्दे पर भाजपा हमेशा साफ़ रही। उनके अनुसार सत्ता में आते ही इन्हें सहन नहीं किया जाएगा। रोहिंग्या के खिलाफ कार्यवाही की चर्चा भी ख़ूब चली। नागरिकता संशोधन कानून का भी ममता शुरू से ही विरोध करती रहीं। ममता को यहाँ भी फायदा ही हुआ। भाजपा ने ममता सरकार को तोलाबाजों की सरकार तक क़रार दिया था। प्रधानमंत्री समेत सभी भाजपा नेताओं ने इस मुद्दे को पूरा हवा देने का प्रयास किया। ममता बनर्जी ने चुनाव में बंगाली वर्सिज बाहरी को ख़ूब भुनाया। ममता साफ़ तौर पर भाजपा को बाहरी क़रार देती रही।
पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ख़ूब नारे चले। सबमें ‘खेला होबे
ज़्यादा चर्चा में रहा। इस नारे से ममता जहाँ भाजपा को चिढ़ाती रही, वहीं भाजपा ने’ अबकी टीएमसी के फेला होबे’का इस्तेमाल कर इसे और चर्चित किया। कुल मिलाकर भाजपा इस चुनाव में जिन ऑलराउंडरी मुद्दों से ममता को शिकस्त देने का दम्भ भर रही थी। सबकी ममता ने हवा निकालकर रख दी।’ पोरिबोर्तोन’ तो ज़रूर हुआ, २०१६ में ३ सीट वाली भाजपा दूसरी बड़ी पार्टी बनने में ज़रूर कामयाब हो गई। जो आने वाले समय में बंगाल में भाजपा को और मजबूती प्रदान करने का काम करेगा।
सुशील कुमार ‘नवीन’
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