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डाकबाबू (postman)
जब भी आता था
डाक बाबू (postman)
लिए हुए डाक
मुहल्ले भर की
उत्सुकतावश
हो जाते थे एकत्रित
उसके चारों ओर
मुहल्ले भर के लोग
करते थे चेष्टा
जानने की
किसकी आई है चिट्ठी
आजकल तो
लाता है डाकबाबू
कोई न कोई नोटिस
या मोबाइल का बिल
प्रेम-पत्र या सुख संदेश
लाने वाली
चिट्ठियों का
कत्ल कर दिया
मोबाइल व लैपटॉप ने
खोई हुई आजादी
खोई हुई आजादी
मैं ढूँढ़ रहा हूँ
अपनी खोई आजादी
मजहबी नारों के बीच
न्यायधीशों के
दिए निर्णयों में
संविधान के संशोधनों में
लाल किले की प्रचीर से
प्रधानमंत्री के भाषणों में
चुनाव पूर्व रानेताओं द्वारा
किए वादों में
लेकिन नित के
ऑनर कीलिंग के समाचार
अनियंत्रित हिंसक
दंगाई भीड़
उजड़ती झुग्गी-बस्तियाँ
यौन पीड़िताओं की चीखें
दे रही हैं गवाही
आजादी न होने की
असली आनंद
मुझे है पूरा विश्वास
नहीं है असली आनंद
मठों-आश्रमों व
अन्य धर्म-स्थलों में
इन सब के प्रभारी
लालायित हैं
लोकसभा-राज्यसभा
या फिर विधानसभा में
जाने को
मुझे है पूरा विश्वास
असली आनंद
लोकसभा-राज्यसभा
या फिर विधानसभा
में ही है
इसलिए ही
योगी, साध्वी व
अन्य मठाधीश हैं टिकटार्थी
संसद और विधानसभाओं में
कीर्तन होने के
प्रबल आसार हैं
जाति की जड़ें
जाति
जाती ही नहीं
बहुत हैं गहरी
इसकी जड़ें
जिसे नित
सींचा जाता है
उन लोगों द्वारा
जिनकी कुर्सी को
मिलता है स्थायित्व
जाति से
जिनका चलता है व्यवसाय
जाति से
जिन्हें मिला है ऊंचा रुतबा
जाति से
जिन्हें परजीवी बनाया
जाति ने
वे चाहते हैं
उनकी बनी रहे सदैव
जाति आधारित श्रेष्ठता
भले ही इससे
किसी का
कितना ही शोषण
क्यों न हो?
नहीं है बपौती
हक है नारी को भी
स्वतंत्र रहने का
स्वतंत्रता
नहीं है बपौती
पुरुषों की
पुरुष देर रात आए
बाहर घूमने जाए
नशा करके आए
कपड़े भी कैसे ही डाले
उसके लिए
कोई आचार संहिता नहीं
वह है पुरुष
वह है स्वतंत्र
नारी का स्वतंत्रता दिवस
जाने कब आएगा?
जाने कब
खुल कर जी पाएंगी
खुलकर हंस पाएंगी
भारत की नारियाँ
आदमी का प्रतिरूप
आदमी
नहीं रहा आदमी
हो गया यन्त्र सा
जिसका नियन्त्रण है
किसी न किसी
नेता के हाथ
किसी मठाधीश के हाथ
या फिर किसी
धार्मिक संस्था के हाथ
जिसका आचरण है नियंत्रित
उपरोक्त द्वारा
आदमी होने का
आभास-सा होता है
बस आदमी का
प्रतिरूप-सा लगता है
आज का आदमी
नहीं रहा
आदमी सा
जाने कहाँ खो गई
आदमीयत
दुखिया का दुख
बस्ती का दुखिया दिहाड़ीदार मज़दूर है,
आर्थिक तौर पर वह लाचार मजबूर है,
उसकी पत्नी जो सालों से बीमार है,
ऊपर से रूढ़िवादी रिवाजों की मार है,
उसके घर उसकी एक बेटी कमसिन है,
गरीब की बेटी है, लेकिन हसीन है,
रईसजादों की भी उस पर नज़र है,
उसके माता-पिता जी को पूरा डर है,
दुखिया की पत्नी डाक्टर के पास गई,
खड़ी घर आगे महंगी लग्जरी कार हुई,
दुखिया की बेटी की चीख-पुकार थी,
सदा की तरह मूकदर्शक भीड़अपार थी,
कुछ देर बाद पुलिस की भी गाड़ी आई,
मिडिया कर्मियों ने भी गश्त लगाई,
नेताजी भी जांच का आश्वासन दे गए,
गरीब एक नया दर्द दिल पर खे गए,
सबूताभाव में सब आरोपी हुए बरी,
दुखिया के दिल में पीड़ा रही खङी,
पीड़िता हालात के फंदे पर झूल गई,
सिल्ला ये बस्ती फिर सबकुछ भूल गई,
संभलो-संभलो
हिल रही है नींव
देश की
अर्थव्यवस्था की
हिल ही नहीं रही
हजारों किलोमीटर
चलभी रही है पैदल
खा रही है
पुलिस के डंडे
बेढंग हो गई
इसकी चाल
होकर शिकार
भूख-प्यास-उपेक्षा की
तोड़ रही है दम
उसी नींव पर
खड़े महल में
रह रहे हैं धर्माचार्य
शासक-प्रशासक
कल-कारखानों के मालिक
नेता-अभिनेता
लेखक-चित्रकार
छायाकार-पत्रकार
संभावित है दुर्घटना
संभलो-संभलो
समय रहते संभलो
सरकारों के बाप
जब भी
बदलती है सरकार
बदल जाती हैं नीतियाँ
नई नीतियाँ
बनाती है सरकार
अपने बाप के नाम पर
बदल जाती हैं
पुरानी नीतियाँ
जो थीं
पुरानी सरकार के
बाप के नाम पर
बदल जाती हैं
छात्र-छात्राओं की पुस्तकें
हो जाते हैं शामिल
पाठ्यक्रम में
नई सरकारों के बाप
निकाल दिये जाते हैं
पाठ्यक्रम से
पुरानी सरकारों के बाप
राष्ट्रहित सदैव
रहता है उपेक्षित
गमी-खुशी
जीवन में
अनेक अवसर
आए ऐसे
जो नहीं थे कम
किसी जलजले से
जैसे-तैसे
गुजर गया
वह समय भी
अनेक आए
खुशी के अवसर
इन अवसरों पर
नहीं लगे
ज़मीन पर पैर
लेकिन गुजर गया
वह समय भी
अब खुशी
नहीं करती
अधिक उत्साहित
गम नहीं करता
अधिक दुखी
पता है मुझे
गुजर जाएंगी
ये घड़ियाँ भी
विनोद सिल्ला
यह भी पढ़ें-
१- ख़ुशी की होली
२- रत्ना
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