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प्रकृति का प्रकोप (nature’s fury)
nature’s fury: शहरों का सन्नाटा;
विरान सड़के;
दिन में स्याह अंधेरा;
सहमा हुआ इंसान;
उल्लूओं की भांति घरों में बैठा।
प्रकृति ने बता दी औकात इंसान को;
छोटे-से विषाणु से।
दिखा दिया अपना रौद्र रूप।
अब नहीं आती आवाज़ कुल्हाड़ी की?
कारखानें बंद है अब खून के।
अब नहीं मंडराती मक्खियाँ मांस पर।
होने लगा है कलरव पक्षियों का:
कुलांचे भरने लगे हैं छोटे-छोटे हरिण।
अब वह घूमने लगे हैं झूंड में;
अपनी माँ के साथ निडर होकर।
अब नदियों में नहीं आता;
जहरीला पानी; ताल भी स्वच्छ है।
अब नहीं चलाता धनुष; पेड़ के पीछे से।
बेबस इंसान देख रहा है चुप्पी साधे;
प्रकृति के प्रकोप को; क्योंकि
बीड़ा उठाया ख़ुद प्रकृति ने
उन्हें बचाने के लिए।
इंसानों को बाँटकर दूरियों में;
बेचारों को बे-झुंड़ करके;
बना दिया जानवर सर्कस का।
कोरोना ऐलान है; प्रकृति देवी का;
लोलुप इंसानों के लिए।
धन-दौलत-कोठी-बंगला नहीं चाहिए।
प्रकृति प्रेम की भूखी है;
वह इंसान से प्यार मांगती है।
गाँव में कोरोना
डर है।
सुनसान डगर है। सन्नाटा चारों ओर।
कब होगी खुशियों की भोर।
रात की तरह है दिन।
कटता नहीं साईरन बिन।
पुलिस के भारी लठ।
डरने लगें हैं शठ।
झांकते रहते हैं दहलीज़ से।
फिर अंदर चले जातें बड़े तमीज से।
फिर होती कानाफूसी।
करने लगते लोग जासूसी।
डरे सहमें है लोग।
गाँव में कैसे आया ये रोग।
हिदायत देतें है अधिकारी।
नियम बतातें सरकारी।
किसकी गलती किसका दोष।
इस बात से लोगों में रोष।
सांप सूंघ गया गाँव को जहरीला।
कौन कहता है प्रशासन ढीला।
चलों लड़ते हैं जंग।
कोरोना नहीं इंसान से दबंग।
धोएंगे बार-बार हाथ।
नहीं बैठेंगे अब साथ साथ।
अपनाएंगे हम दूरी।
मास्क को नहीं समझेंगे मजबूरी।
अब तोडेंगे हम इस जंजीर को।
बस पीटते रहें सरकारी लकीर को। ।
राह तके ये नैना
उर्मिला का उपालंभ
गयें वनवास पिया; मुझको छोड़ अकेला।
प्रिय वियोग में भई बावरी; बहे आँसुओं का रेला।
स्वर्ण समझते राम को; समझो न मुझको ढेला।
आप भ्राता राम के; मुझे भी अपना कहना।
पिया जी निशदिन राह तके ये नैना। ।
मिला वनवास राम को; माता कैकेयी के कारण।
प्रीत निभाई भ्रातृ धर्म की; करके भगवे धारण।
डूबते मंझधार पिया; आ जाओ मुझे तारण।
एक दिवस का वियोग नहीं; वर्ष चौदह है सहना।
पिया जी निशदिन राह तके ये नैना। ।
उठ प्रभात उन्हें जगाती; हाथ में धरकर लोटा।
उठो पिया जी दातुन कर लो; कारज कर दो छोटा।
रिक्त शय्या पड़ी पिया की; भाग्य है मेरा खोटा।
किसको सुनाएँ अपनी व्यथा; किसको उपालंभ देना।
पिया जी निशदिन राह तके ये नैना। ।
साथ ले जाते मुझे तो; कौनसा कार्य बिगड़ता।
करती सेवा निशदिन स्वामी; मेरा जीवन सुधरता।
पिया संग रहती प्रसन्न; वियोग न मुझे अखरता।
घड़ी घड़ी नहीं पड़ता; नाम पिया का लेना।
पिया जी निशदिन राह तके ये नैना। ।
सूना नगर अयोध्या; सूना पड़ा है रनिवास।
सूनी सेज पिया बिन; नही पिया है पास।
भीत्तिचित्र निहारती; सदा रहती उदास।
बिन शुक के सूख गई; नीज पिया की मैना।
पिया जी निशदिन राह तके ये नैना। ।
उर्मिला उर में सदा; छवी बसे लखन की।
तुम बिन कौन जाने पिया; बात निज मन की।
भाई हित सब त्यागा; त्यागी चाह तिया धन की।
कैसे आऊ मिलने पिया; उड़कर बिन डैना।
पिया जी निशदिन राह तके ये नैना। ।
बनी चातक की चोंच; प्यास बूझे न स्वाति जल के।
विरहाग्नि में काली; कोयला भई जल-जल के।
कृशकाय भई कामिनी; चलती बहुत संभल के।
अंधियारा छाएँ दिवस में; अब तो मेरे नैना।
पिया जी निशदिन राह तके ये नैना। ।
भ्रातृ धर्म निभाने को; इतने हुए आतुर।
पत्नी धर्म छोड़ कर; गये मुझसे दूर।
बिन पुत्र के मात बिलखती; रूदन करते ससुर।
अब किस-किस का दुख; और मुझे है सहना।
पिया जी निशदिन राह तके ये नैना। ।
अन्न-जल अरूचि कर लगे; जाकर ग्रीवा अटकता।
निज पिया स्मरण में ही; मम चित्त भटकता।
काँटा चुभा प्रिय वियोग का; अब बहुत खटकता।
एकबार आकर पिया; यह काटा निकाल देना।
पिया जी निशदिन राह तके ये नैना। ।
खड़ी रहती वन के डगर; आता कोई राहगीर।
सब लिखकर भेजुं उन्हें; निज हृदय की पीर।
प्राण पंखेरू उड़ने वाले; पीत पड़ा शरीर।
अब तो पिया आ जाओ; अपराध मेरा मत कहना।
पिया जी निशदिन राह तके ये नैना। ।
भ्रातृ प्रेम में आप तो; मेरी सुधी बिसर गयें।
माला जोड़ी मैंने; कैसे मोती बिखर गयें।
मुझ बिन पिया आप; कैसे इतनें निखर गयें।
स्वामी! कभी तो मेरी सुधी भी लेना।
पिया जी निशदिन राह तके ये नैना। ।
हाँ! हाँ! दुंगी उपालंभ; बार-बार मैं आपको।
प्रिय वियोग में धधक उठती; अब मिटाओ इस ताप को।
निज भ्राता सम मम हृदय; भिन्न कैसे लगता आपको।
मात्र एकबार मुझे; हृदय से उर्मिला कहना।
पिया जी निशदिन राह तके ये नैना।।
ज्योति की जिजीविषा
वो चली आ रही थी;
साईकिल पर।
पीछे बैठे भग्नावशेष खंडर की तरह
पिता पालनहार।
स्त्रियाँ नहीं होती है सिर्फ़ पत्नी व्रता;
वो पिता व्रती भी होती है।
लेकिन इस पुरूष प्रधान देश में;
ऐसी बेटियों की नहीं होती है कदर।
वो कुत्सित मानसिकता की खाती ठोकरें।
ऐसी बेटियाँ कहाँ ढूढने जाओगे;
इस नारकीय लोक में।
आओ बेटी मैं तेरे पैरो की मालिश कर दूं;
पैरो को धोकर पी जाऊ चरणामृत;
पिला दूं आने वाली पीढ़ी को;
ताकी फूटे नवांकुर संस्कारों के।
लाओ बेटी उस साईकिल को;
मैं जी भरकर देखु;
उसके पैंडलो को चूमू
आओ बेटी मेरे पास;
मै तुम्हारे उन हेण्डल धारे हाथों की लूँ बलैया;
उतारूँ आरती उन पैरो की
जो दैवीय शक्ति से है परिपूर्ण।
अदम्य जिजीविषा के आगे;
काल भी था नतमस्तक।
तन ज़रूर था क्लांत;
पर मन था धीर शांत।
भूख प्यास को सहन कर बढती रहीं आगे;
तूमने ढहा दिया साम्राज्य पराजय का।
कहाँ है कलयुगी श्रवण कुमार;
जो जीवित माँ बाप को आते छोड वृद्धाश्रम।
गुमान करते फिरते धन और पद का।
मरने पर जाते हरिद्वार;
खिलाते पकवान;
इस दोगले समाज को। वे नहीं करेंगे स्वीकार;
न अखबार; न सरकार।
तुमने दिखा दिया उन्हें अंगुठा पितृभक्ति का।
सैकड़ो मील दूरी तय की तूने;
क्या किसी सत्ताधारी की नज़र नहीं पड़ी।
तुम पर; तेरी साईकिल पर;
साईकिल के कैरियर पर बैठे पिता पर।
बेटी! अगर होते आज वोट तो आती गाडी फरारी।
तुम्हें नहीं करनी पड़ती इतनी लंबी सवारी;
लेकिन
क्या करे बेटी? ये कोरोना है;
सिर्फ गरीबों का रोना है;
आकाश ही छत तुम्हारी धरती का बिछोना है।
हाँ! तुमने फैला दी ज्योति;
गरीबों के दिलों में;
अदम्य जिजीविषा और साहस की।
फुरसत के पल में
काम से थककर या भोजन के वक्त;
वह जब भी बैठता है नीम की घनी छाँव में।
धरती को मानकर बिछोना;
सो जाता है आँखे मूंदकर।
लेकिन निंद कहाँ है;
उनकी आखों में।
सिर्फ सपनों की गठरी है;
जिसे खोलकर बाँधने की;
करता रहता है कोशिश।
फिर बैठकर पीने लगता है पानी;
बरसों प्यासे हलक को तर करता है।
एकाएक टकटकी लगाता है शून्य में;
ध्यान मग्न एक साधक की तरह।
उसके मन में छोटी बेटी की विदाई का सपना है;
बेटे को पढाकर अफसर बनाने का खंडित अरमान।
वो सोचता रहता है ख़ुद के बारे में;
इतनी मेहनत क्यों बेकार होती है।
अभी नहीं उतरा है कर्जा;
बड़ी लडकी के शादी का।
अब भी साहुकारों से लेने होगें पैसे;
लेकिन वह देंगे अब कैसे।
हाँ अगले महीने है बहिन के लडकी की शादी;
वहाँ भी ले जाना होगा मायरा;
अच्छा न सही पर लोकलाज भी तो रखना है।
फिर ठेकेदार की कर्कश आवाज़ आती है।
जल्दी जल्दी खाना खा लो;
काम का समय हो गया है।
वो कौर उठाकर खाने की करता है कोशिश।
इतनें में;
उसकी पत्नी की फटी चुनरी का ख़्याल आया।
मिलेंगे जो यहाँ से रूपये तो;
एक नई चुनरी खरीद कर दुंगा;
बहुत खूश हो जाएगी।
अब ठेकेदार की आवाज़ में रौब था।
वो उठा अपना टिफिन बंद कर के;
चल पड़ा काम पर।
सुकून से खाना भी न खा पाया वो;
फुरसत के पल में।
देखो ये सूखती घास
अरे! ओ घमंड़ी बादल।
तू हो तो न गया पागल।
सब लगाएँ तेरी आस।
देखो ये सूखती घास। ।
तू सबसे निराला है
तेरा वर्ण काला है
जीवन का रत्न खास।
देखो ये सूखती घास। ।
मेघ जलद घन तेरे नाम
बिन तेरे बने न कोई काम
तेरी अनुपस्थिति सबको अहसास।
देखो ये सूखती घास। ।
बहुत बरसे तो अतिवृष्टि
कम बरसे तो अनावृष्टि
दोनों से होता विनाश।
ये देखो सूखती घास। ।
जोर ज़ोर से गरजता है
फिर भी नहीं बरसता है
लोगों का टूटता विश्वास।
देखो ये सूखती घास। ।
महीना जब आता है सावन का
लगता बहुत मनभावन का
साजन नहीं सजनी के पास।
देखो ये सूखती घास। ।
सबको तू तरसाता है
बहुत कम जल बरसाता है
मिटती नहीं इससे प्यास।
देखो ये सूखती घास। ।
जब सावन ही जाए सूखा
कैसे रहें कोई प्यासा और भूखा
करने लगे लोग प्रवास।
देखो ये सूखती घास। ।
जिस जिस ने बीज बोएँ
बाद में पछताएँ और रोएँ
फसलो का होता हृास।
देखो ये सूखती घास। ।
जब सूख गया गुलशन का गला
कलियों का जीवन पानी बिन जला
प्रकृति बनती ज़िंदा लाश।
देखो ये सूखती घास। ।
पेड़ हमे देते हैं प्राण वायु
बिन इसके घटती प्राणियों की आयु
ऐसे में घुटने लगते हैं श्वास।
देखो ये सूखती घास। ।
बार बार पड़ते रहेंगे जब अकाल
क्या होगा तब प्राणियों का हाल
कैसे होगा भारत का विकास।
देखो ये सूखती घास। ।
वीर प्रसवनी भूमि राजस्थान की
वीर प्रसवनी भूमि राजस्थान की।
यह भूमि है भारत के आन-बान और शान की।
वीर प्रसवनी भूमि राजस्थान की। ।
मातृभूमि के लिए यहाँ पर;
कितनों ने बलिदान किया।
कितनों की हुई छाती छलनी;
फिर भी खड़े रहे सीना तान। ।
यह भूमि है वीरता के पहचान की।
वीर प्रसवनी भूमि राजस्थान की। ।
चेतक की स्वामी-भक्ति;
किससे छिपा राणा का त्याग।
वन-वन फिरे मारे-मारे;
लगने न दिया स्वाभिमान पर दाग। ।
यह भूमि है राणा के बलिदान की।
वीर प्रसवनी भूमि राजस्थान की। ।
कौन अनभिज्ञ भामाशाह के त्याग से;
कहते आज भी भामाशाह हरेक दानी को।
राणाप्रताप की सहायतार्थ धन देकर;
मिटा दी दासत्व की निशानी को। ।
यह भूमि है दानवीर भामाशाह महान की।
वीर प्रसवनी भूमि राजस्थान की। ।
स्वामी-धर्म हेतु यहाँ पर;
पन्ना ने पुत्र बलिदान किया था।
अपनी अस्मत की रक्षा को;
ललनाओं ने अग्नि स्नान किया था। ।
यह भूमि है रजपूति संतान की।
वीर प्रसवनी भूमि राजस्थान की। ।
नर से भी नारी बढ़कर हुई;
युद्धों को दिया पहचान रूप।
युद्ध में जाते हुए पति को;
रानी हाड़ी ने दिया शीश काट निशान रूप। ।
यह भूमि है भारतीय नारी के अभिमान की।
वीर प्रसवनी भूमि राजस्थान की। ।
दादू-जांभोजी जैसे संतों ने;
बहाई यहाँ पर भक्ति की धार है।
प्रियतम कृष्ण को मानकर मीराँ;
उतरी भव-जल पार है। ।
यह भूमि है कान्हा की मुरली के तान की।
वीर प्रसवनी भूमि राजस्थान की। ।
भारत माता का जब जब;
दुश्मन खींचते चीर है।
रगों में खून खौल उठता;
सिंह-सी हुंकार भरते यहाँ के वीर है। ।
यह भूमि है भारत के आत्मसम्मान की।
वीर प्रसवनी भूमि राजस्थान की। ।
हीरें मोती निकलते धोरों में;
बहती तेल की धार है।
कमी खलती सिर्फ़ पानी की;
धन धान्य के भरे हुए भंड़ार हैं। ।
यह भूमि है पानी को तरसते इंसान की।
वीर प्रसवनी भूमि राजस्थान की। ।
माँ की ममता
यह है माँ की ममता।
करे न कोई इसकी समता॥
याद कर वे दिन; जब गर्भ में लेकर घुमी नौ माह।
जन्म हुआ जिस दिन तेरा; ख़ुशी से झूमी वह माँ॥
परिवार ने की वाह वाह, गिले से तूझे सूखे में सुलाया था।
हर वक़्त अपने आँचल से लिपटाया था॥
कभी नहीं दूध थमता।
ये माँ की ममता। ।
भूख से बिलखता देख; माँ ने ही तूझे उठाया था।
माँ की गोदी में आकर; तूने स्वर्ग-सा आनंद पाया था॥
माँ के पास ही मरहम था।
ये है माँ की ममता॥
घुटनों के बल चलता देख तूझे; कितनी हुई माँ हर्षित।
अंगुली पकड़कर चलना सिखाया; किया माँ ने ही तूझे चर्चित॥
हर वक़्त माँ का मन तूझे में ही रमता।
ये है माँ की ममता॥
बुढ़ापे में भेज दिया आश्रम; करता घमंड धन का।
माँ के चेहरे पर ख़ुशी थी; लेकिन कभी पढ़ता पाठ उसके मन का॥
हरदम मन मिलने को मचलता।
ये है माँ की ममता॥
वो क्या जाने माँ की ममता; जिनके दिल में स्थान नही।
उनकों जीते जी धिक्कार है; जो माँ पर दिल से कुर्बान नही॥
बिन देखें दिल नहीं भरता।
ये है माँ की ममता॥
पिता
पिता परमेश्वर पिता ही कमलेश्वर है।
पिता ब्रह्मा पिता ही महेश्वर है॥
पिता से सुख पिता से आस पिता ही विश्वास है।
पिता हंसी पिता ख़ुशी बिन पिता दिल उदास है॥
पिता पैसा पिता दौलत पिता ही सब जायदाद है।
पिता त्यौहार पिता उत्सव पिता से ही पर्व आबाद है॥
पिता संयोग पिता वियोग पिता ही सब याद है॥
पिता सपने पिता सफलता पिता ही मुकाम है।
पिता सावन पिता बसंत पिता ही प्रचंड घाम है॥
पिता प्यास पिता पानी पिता से ही गरम तवे की रोटी है।
पिता नदी पिता झरना पिता ही दुनिया की सबसे ऊंची चोटी है॥
पिता दान पिता पुण्य पिता ही सब कर्मो का फल है।
पिता से जन्म पिता से मरण पिता ही आज और कल है॥
पिता पूजा पिता आरती पिता ही दीया और बाती है।
पिता धूप पिता छांव पिता ही अंबर की थाती है॥
पिता से चुड़ी पिता से बिंदी पिता से ही माँ का सुहाग है।
पिता से शृंगार सोलह पिता से ही दिल में अनुराग है। ।
पिता महान पिता विराट पिता के आगे सब बौने है।
पिता है जिसके, उसके दुनिया के सारे खिलौने है॥
वचन मेघ
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