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मेहंदीपुर के बालाजी (mehandipur balaji) महाराज
डमडम डमडम डमरू बाजे
और बजे रात-दिन साज
कथा कहूँ मैं हनुमान की
सब सुनो मेरे सरताज
जिसने सबके दोष हर लिए
उनकी कहानी का आगाज
मेहंदीपुर (mehandipur balaji) के मंदिर वाले
मेरे बालाजी महाराज
लाल-लाल वह चोला पहने
हाथ शस्त्र और गदा विराज
पवन-पुत्र की शान निराली
हर कोई बालाजी का दास
कांधे पर उसके जनेऊ साजे
पीछे उसके पूँछ विराज
मेहंदीपुर के मंदिर वाले
मेरे बालाजी महाराज
कलियुग का बाला अवतारी
मेहंदीपुर में शुरू है दाज^ (मुहूर्त)
वज्रा जैसी ललाट चमके
रूप है उसका बहुत विशाल
अंजनी-सुत तो संकट काटे
भागें हैं डरकर प्रेत-दराज
मेहंदीपुर के मंदिर वाले
मेरे बालाजी महाराज
हनुमान-सा राम भक्त नहीं
दूर-दूर फैला स्वराज
तीन देवता बसे मेहंदीपुर
कोतवाल, भैरों प्रेतराज
पूजा-पाठन समुदाय बना
दो महंत विद्यमान समाज
मेहंदीपुर के मंदिर वाले
मेरे बालाजी महाराज
पर्वत के टुकड़े से बना है
नहीं बचा इसमें कोई राज
दो-दो जलधारा निकली थी
जिनका रहा अलग अंदाज
धरती में लाली छाई है
वादीयाँ देती है आवाज
मेहंदीपुर के मंदिर वाले
मेरे बालाजी महाराज
राम-भक्त बजरंग बली
तोड़े है दुश्मन की नली
इनकी कृपा से भक्तों की
सारी विपदा एकपल में टली
जो आए झोली भर ले जाए
नहीं कहीं दुख का अहसास
मेहंदीपुर के मंदिर वाले
मेरे बालाजी महाराज
मन मेरा भक्ति में रम गया
सुधरे मेरे कल और आज
घर से निकला, टूट गया था
जैसे बिन पानी का जहाज़
दूर जहाँ तक जाकर देखा
बस मुझे दिखता था सराज^ (पानी में जन्में जीव)
जितना माँगा, ज़्यादा मिला
“उड़ता” बन गए मेरे हर काज
मेहंदीपुर के मंदिर वाले मेरे बालाजी महाराज।
बचाना ज़रूरी पर्यावरण
सतत^ हो रहा क्षारण^। (लगातार, रिसाव)
समाप्त हो रहा भण्डारण।
मुश्किल होता पोषण-भरण^। (पालन, निर्वाह)
बचाना ज़रूरी है पर्यावरण।
पृथ्वी के अंदर दोहन चलता
पल-पल हो रहा संक्षारण^। (धीरे पदार्थ नष्ट होना)
हम करते विनाश-अनुसरण^। (पीछे चलना)
बचाना ज़रूरी है पर्यावरण।
जन-जीवन अस्त-व्यस्त हुआ
ख़त्म हो रहे अभ्यारण ^। (पशु-पक्षियों का सदन)
रुकने लगा वायु-संचारण^। (फैलना, चलना)
बचाना ज़रूरी है पर्यावरण।
जीव-जंतु त्राहि^ कर उठे। (रक्षा-पुकार)
बंजर होते वन-कानन^। (जंगल)
ठीक नहीं है ये लक्षण
बचाना ज़रूरी है पर्यावरण।
मानव हुआ स्वार्थी है
लूटना चाहता है कण-कण
“उड़ता” हो रही त्रासदी^। (दुखांत घटना)
करता जा रहा है भक्षण^। (दाँत से काटकर खाना)
बिन जल
नाउम्मीद-सा होता कल
नहीं सीख पर कोई अमल
सृष्टि प्यासी रह जाएगी
धरती रह जाएगी सजल
सबकुछ सूना है बिन जल
खेतों में फसलें सूख गयी
नीर सतत होता गंदल
महामारी के सबब बन गयी
निकलें नैन अश्रु अविरल
सबकुछ सुना है बिन जल
पृथ्वी का दोहन हो रहा
रिक्त हो गया है कलल^ (गर्भाशय)
नहीं दिखती अब हरियाली
नहीं चहकते पंछी चंचल
सबकुछ सूना है बिन जल
मानव स्वार्थी हो गया है
बनाता नित कारखाने-कल
प्रकृति मज़बूर हो गयी है
कैसे मिले उसको सम्बल
सबकुछ सूना है बिन जल।
बातें कितनी बनायीं हमने
लेकिन मुद्दा वही रहा असल
जीवन का सुकून छिन गया
“उड़ता” ये कैसी है दलदल
सबकुछ सूना है बिन जल
पीछे रह गया क्या
मैं आगे बढ़ गया कुछ पीछे रह गया क्या।
बाग में कोई पौधा बिन सींचे रह गया क्या।
सफर लंबा था अनवरत गुजरता रहा था।
कहीं चला होगा आँख मीचे रह गया क्या।
चढ़ते सूरज को ज़माने ने सलाम किया।
गए वक़्त के बाद बस गलीचे रह गया क्या।
बढ़ती उम्र के दौर को रोकना मुश्किल रहा।
बस लेजा रहा था सांस खींचे रह गया क्या।
क्रोध के आवेश में दुश्मन से पाला यू पड़ा।
मतभेद था मैं दांत भींचे रह गया क्या।
‘उड़ता’ हालात ऊपर, मैं नीचे रह गया क्या।
मैं आगे बढ़ गया कुछ पीछे रह गया क्या। ।
पानी बचाओ
प्रकृति की रंगत आसमानी बचाओ
नई कोपलों की जवानी बचाओ
पर्यावरण का प्रश्न है सघनी^। (गहरा)
जितना हो सके पानी बचाओ.
एहसासों की रवानी बचाओ
मानवता की जुबानी बचाओ
रहेगा जल बिन जीवन सूना
जितना हो सके पानी बचाओ
मुरझाती-कुम्हलाती ज़िंदगानी बचाओ
हजारों उम्मीदें अरमानी बचाओ
नई पीढ़ी को क्या सुपुर्द करोगे
जितना हो सके पानी बचाओ
अच्छी सुखद कहानी बनाओ
लफ्जों की अरनानी^ बचाओ. (खज़ाना, लक्ष्मी)
‘उड़ता’ बिन पानी अस्तित्व नहीं
जितना हो सके पानी बचाओ
तेरी जुदाई में
तेरी जुदाई में दिल अकसर रोता है।
हँसता हूँ, दर्द मेरे अंदर होता है।
मैं जगता रहता हूँ रातभर, मगर,
मेरा महबूब घर में चैन से सोता है।
मिलते हैं दो दिल और जुदा होते हैं।
ऐसा तो मोहब्बत में सदा होता है।
नींद भी नहीं रहती इन आँखों में।
और मेरा दिले-चैन भी खोता है।
मेरे सपनों में तू ही बारबार आता है।
और नयी-नयी बाहर लाता है।
तेरा चेहरा दिन-रात सामने आता है।
तुम करीब हो तो कुछ नहीं होता।
तेरी दूरी से तेरा ही ख़्याल आता है।
“उड़ता” ये खब्त है कब सर से उतरे,
तू हर दिन लफ्ज़ से नज़्म बनाता है।
तू मखमल
तेरी लम्स^ जैसे मखमल^। (छुअन, रोयेंदार)
तेरी सूरत मानो अज़मल^। (बहुत सुन्दर)
तेरी लटों^ से आती खुश्बू। (केश, बाल)
तेरा वसन^ जैसे मलमल^। (पोशाक, महीन सूती)
तुम हुस्न की नयी नसल^। (वंश)
जैसे पंक^ में खिला कमल। (दलदल)
बिना देखे तुझको मानो,
जैसे सावन रहे अजल^। (बिना पानी)
हवायें रहती हैं चंचल^। (नटखट)
नदियाँ बहती है कलकल।
तेरा सानी^ कोई नहीं। (प्रतिद्वंदी)
पूरी दुनियाँ में तू अफ़ज़ल^। (श्रेष्ठ, उत्तम)
कूचे^ से अपने बाहर निकल। (मकान, रस्ता)
रुका हुआ है सारा सकल^। (समस्त जग)
तुम हो कितने प्यारे “उड़ता”
किसी मृग^जैसी तेरी वकल^। (हिरन, भीतरी छाल)
चीन का जवाब कौन देगा?
चीन की हिमाकत^ का जवाब कौन देगा। (मूर्खता)
जवानों की शहादत का हिसाब कौन देगा।
सीना फट पड़ा है हर एक भारतीय का।
झूठी दोस्ती की आड़ में अज़ाब^ कौन देगा।
(पाप के बदले दुख)
शव क्षत-विक्षत^ हुए होश गुमशुदा हुआ। (घावों से लहूलुहान)
भर ली है हमने मुठियाँ अराब^ कौन देगा। (तमन्ना, इच्छा)
रंज^ में जिस्म है और आँख लाल-लाल है। (शोक)
भृकुटि^ है तन रही ईताब^ कौन देगा।
(भौंह, गुस्सा)
राजनीति बेआब^ है राष्ट्र को मार रही। (बिना धार)
सोचो एैसे बिना लड़े हराब^ कौन देगा। (अधीनता, गुलामी)
क्यों हम मजबूर हो शांतिप्रिय बन रहे।
रहे जो हम शांत तो सराब^ कौन देगा। (मृगतृष्णा, प्यास)
लड़ने को युवा तैयार है कसाब^ कौन देगा। (कमाई, मेहनत)
युद्ध चाहिए उसे, वर्ना रवैया खराब कौन देगा।
“उड़ता” जमीनी मसले में तलाब कौन देगा।
चीन की हिमाकत का जवाब कौन देगा।
आत्महत्या तो कोई हल नहीं
जी ले अपने आज को
यही तेरा वर्तमान है
जो बीत गया वह अतीत था
अभी आया नया कल नहीं
कोशिश तो कर ऊपर उठने की
तेरी ज़िन्दगी है ये शगल^ नहीं। (मन बहलाव)
आत्महत्या तो कोई हल नहीं।
तेरा भी एक परिवार है
तेरे लिए कितना प्यार है
जी से है खुशियाँ उनकी
उनको तेरा इंतज़ार है
मत बन वह सागर जिसका साहिल नहीं
आत्महत्या तो कोई हल नहीं।
अपने विश्वास को क़ायम कर
सफलता का परिचायम^ बन।
(परिचय कराने वाला)
खुद को मत अवसादी बना
जोशीला-सा दायम^ बन। (सदा, हमेशा)
साफ पानी में खिलता कमल नहीं
आत्महत्या तो कोई हल नहीं।
देख नियति अचल^ नहीं (स्थिर)
जीवन इतना सरल नहीं
संघर्ष करना पड़ता है
कोई तेरे अगल-बगल नहीं
खुद की शक्ति को पहचान
तेरे जितना किसी में बल नहीं
आत्महत्या तो कोई हल नहीं।
माना की तनहाई आती है
आंखों में रुलाई आती है
ध्यान को अपने और बढ़ा ले
वरना रुसवाई आती है
धरती भी तो सजल नहीं
आत्महत्या तो कोई हल नहीं।
ज्यादा सोचने से क्या होगा
सीप-मोती खोजने से क्या होगा
जो तेरा है तुझे मिलकर रहेगा
आत्मविश्वास तोड़ने से क्या होगा
तेरा वक़्त बदला है सम्बल^ नहीं। (सहारा)
आत्महत्या तो कोई हल नहीं।
मानव-जीवन एक बार मिला है
मुश्किल से फूल बाग़ में खिला है
फिर क्यों इसे तोड़ना चाहते हो
तेरे अंदर चला क्या सिलसिला है
“उड़ता” ज़िंदा है ये मरल^ नहीं। (मृत, मरा हुआ)
आत्महत्या तो कोई हल नहीं।
आत्महत्या तो कोई हल नहीं।
मुझे रिहा कर दे
या तो मुझे आप-सा सबीहा^ कर दे। (सुन्दर)
या तो मुझे प्यार का मसीहा^ कर दे।
(मृतकों को सही करने वाला)
या फिर मुझे आँगन का दिया कर दे।
या फिर मेरी रूह^ को रिहा^ कर दे।
(आत्मा, मुक्त)
है तेरी हर शर्त पर कबूलियत^ मेरी। (स्वीकृति)
बस मुझे इस कहानी का सिहा^करदे। (नायक)
कबसे इन अँधेरे गोशों^ में क़ैद हूँ। (कोठरियाँ)
कुछ तो मेरी राहत के निहा^ कर दे। (प्रयोजन)
कुछ पल सुकून के मुझे भी तो चाहिए।
सुन ज़रा इस जगह को दिहा^कर दे। (गांव)
कांच के जिस्म को टूटने का डर बहुत।
तू मुझे आज तो मिट्टी का तिहा^ कर दे। (बर्तन)
तोड़ दे बस बंदिशें^ तू इंतिहा कर दे। (बंधन)
या “उड़ता” तू मुझे प्रेम-फनाह^ कर दे। (ख़त्म, विनाश)
बदलते रिश्ते
जो कल तक दिखे हंसते रिश्ते
आज लग रहे बदलते रिश्ते
सामाजिक बुनियाद गिर रही
यही रहा देखना, चलते रिश्ते
रेत-सा निकल रहा हाथ से
कहीं रह जाएँ हाथ मलते रिश्ते
क्या कमी रह गयी संभाल में
जो रह ना सके भड़कते रिश्ते
मानवीय संवेदना क्षीण हुई है
हरपल दिख रहे बिखरते रिश्ते
वैचारिक मतभेद शुरू हुए क्यों
बात-बात पर अखरते रिश्ते
कैसा दौर है ये अंजाना सा
सोचने नहीं देते बिगड़ते रिश्त
खुद को मिट्टी करना पड़ता है
कभी यूं ही नहीं सँभलते रिश्ते
सफ़र गुजार दिए जलते-जलते
सहर हो रही आँख मलते-मलते
“उड़ता” संस्कार पर टिकते हैं ये
वर्ना पल में जाते, दरकते रिश्ते।
क्या ठीक है
महबूब को हाल-ए-दिल सुनाना ठीक है।
अपने दिल की आरज़ू बताना ठीक है।
वैसे तो उसकी खातिर हाज़िर है जान,
लेकिन उसे प्यार में, सताना ठीक है।
राह चलते-चलते आँखे चार हो गयी,
यूं उसका मुझे देख लज़ाना ठीक है।
बिन मिले उससे, दिल मेरा लगता नहीं,
क्यों अंदर ख़्वाहिश को दबाना ठीक है।
मेरे सामने आकर ख़ामोश हो जाना,
और मेरे बाद, बातें बनाना ठीक है।
नज़र को बचाकर रुमाल नीचे गिरा दिया,
अदा से उनका, झुककर उठाना ठीक है।
एहसास का बंधन तुमसे जुड़ गया “उड़ता” ,
तेरा तहज़ीब से रिश्ता निभाना ठीक है।
भा गया है
आज फिर चाँद नभ में छा गया है
आशिक को तेरा चेहरा भा गया है
सूरज की तपन जला रही थी मुझे
जाते, आसमां में लाली ला गया है
साँझ की बेला बडी खूबसूरत है
ये आलम मेरा चैन खा गया है
फूल को देख भंवरा खिल उठा
नज़ाकत से मानो पगला गया है
कितना इंतज़ार रहा है मेहबूब का
मौसम के आते सावन आ गया है
ख़ुशी मिली है दुनियाँ में आ “उड़ता”
जाने दिल ऐसा क्या पा गया है।
तुम मेरे बन जाना
मैं तेरी हो जाऊँ, तुम मेरे बन जाना।
मैं कर दूँ ख़ता कोई, तुम हमराज़ बन जाना।
मैं ख़ामोश हो जाऊँ, तुम अल्फाज़ बन जाना।
तुझे मैं गुनगुना लूं तो, तुम साज़ बन जाना।
मेरे पंख फड़कते हैं, तुम परवाज़ बन जाना।
मैं तेरे दिल की मलिका हूँ, तुम सरताज़ बन जाना।
मेरे सवालों पर “उड़ता” तुम नाराज़ मत होना
मैं तेरी हो जाऊँ, तुम मेरे हो जाना।
नगीना कैसे कहूँ
पत्थर के टुकड़े को नगीना कैसे कहूँ।
सादी-सी शाल को पश्मीना^ कैसे कहूँ।
मुझसे झगड़ता है, लेकिन यार है मेरा।
इतने अज़ीज़ दोस्त को कमीना कैसे कहूँ।
कुछ पुराने ख़त मेरे सिरहाने दबे मिले,
आपस में जुड़े पन्नों को सफीना^कैसे कहूँ।
चालीस बसंत पार कर गयी है मोहतरमा,
क्यों बुरा मानती है, उसे हसीना कैसे कहूँ।
मज़हब के नाम पर लोगों को लड़ते देखा,
उस पाक जगह को मदीना कैसे कहूँ।
शहरी आबो-हवा ने ज़ायका बदल दिया।
कुनैन^ की गोली को सबीना^ कैसे कहूँ।
बामुश्किल से अस्मत बचाती लड़की,
फिर भी चमकती, उसे ज़रीना^ कैसे कहूँ।
“उड़ता” माथे टपके पानी, पसीना कैसे कहूँ।
पत्थर के टुकड़े को नगीना कैसे कहूँ।
आसरा करके
देख लिया उनपर आसरा करके.
कुछ ना मिला फासरा^ करके. (दूरी)
कुछ कमी रह गयी दिल-दरमियाँ,
उठाया था क़दम मशविरा करके.
खुलकर नहीं बरसा सावन यहाँ,
बस छोड़ दिया चंद बदरा^ करके. (बादल)
नींद नहीं आती तेरे चले जाने से,
उनींदा^-सा रहता हूँ तन्द्रा^ करके. (उंघना, थकान)
तारों से सारा आसमान भर गया,
कुछ अलग बात है चन्द्रा करके.
अपने स्वार्थ में शाख़ काट दी,
पेड़ से फ़ाख्ता^को बेआसरा करके. (मंडूक पक्षी)
लिखते हुए लफ़्ज़ों में ढल “उड़ता”
तन्हाई भली, बजाय मुशायरा करके.
दिल टूट गया है
दिल मेरा टूट गया है
रब मेरा रूठ गया है
हालात मजबूर करते
बुरा वक़्त कूट गया है
मैं था, अनार जैसा
सौ-दाने फूट गया है
दीमक लगी जीवन में
भीतर से चूट गया है
सुखी धरा रेगिस्तानी
लम्बे डग ऊँट गया है
बेचैनी में वास हुआ
चैन कोई लूट गया है
‘उड़ता’ दिल टूट गया है
रब मेरा रूठ गया है l
सुरेंद्र सैनी बवानीवाल “उड़ता”
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