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मैथिलीशरण गुप्त (Maithili Sharan Gupta)
मैथिलीशरण गुप्त (Maithili Sharan Gupta)
मैथिलीशरण गुप्त (Maithili Sharan Gupta): “सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह तो क्या मुझको वे मार्ग की बाधा ही पाते”
पीड़ा वामा की क्या खूब चित्रित करते हो ।
“नर हो न निराश करो मन को कुछ काम करो कुछ काम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें ये व्यर्थ न हो “
पंक्तियाँ ये तुम्हारी,
अचूक आत्मबल का संचार रगो में करती हैं ।
“यहीं पशु प्रवृति कि आप आप ही चरे
वही मनुष्य हैं कि जो मनुष्य के लिए मरे “
मनुष्यत्व और पशुत्व के बीच का अंतर,
क्या खूब बयां करते हो ।
“हाँ वृद्ध भारत वर्ष ही संसार का सिरमौर हैं
ऐसा पुरातन देश कोई विश्व क्या और हैं “
“वह हृदय नहीं पत्थर हैं
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं “
देश भक्ति का चोला बसंती तुमने ओढ़ लिया,
गाँधी के विचारों में ख़ुद को सौंप दिया ।
“चारुचंद्र की चंचल किरणें
खेल रहीं हैं जल थल में
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई हैं अवनि और अंबर तल में “
कितना प्रकृति सौंदर्य प्रस्तुत किया,
हरित तृणों की नोकों से ।
“जिस खेती से मनुज मात्र अब भी जीते हैं,
उसके कर्ता हमी यहाँ आँसू पीते हैं ।
प्रभुवर!हम क्या कहें कि कैसे दिन भरते हैं?
अपराधी की भाँति सदा सबसे डरते हैं ।”
हृदय को तार तार करती
सच्चाई किसान की दिखा डाली ।
“जलती सी उस विरह में, बनी आरती आप”
अखियों में अश्रु ला देता साकेत में लक्ष्मण प्रिया उर्मिला का संताप।
साहित्य जगत के दद्दा, पदवी राष्ट्र कवि की खूब पाई,
जयंती तुम्हारी ३ अगस्त
कवि दिवस के रूप में मनाते हैं ।
मंगला प्रसाद, साहित्य वाचस्वपति, पद्मभूषण से हुए अलंकृत।
संवेदनाओं की ऐसी मुखर क़लम चली,
मानवता निज दर्पण में लज्जा का आँचल थामे मुँह को करके ओट में,
यर्थाथ से भय खा गयी
अपने शब्दों से ही चोटिल, रक्त कैसा बहा गयी।
बीता ये पल जैसा भी
टूटा हृदय रुदन भी बहुत हुआ,
मै हँसी भी किस्तों में।
कोई मिला राहों में,
साथ वर्षो का छूटा भी ।
साया अपनों का दूर हुआ,
एकाकीपन झेला भी ।
प्रशंसा और आलोचना का मैंने ज़ाम पिया,
आरोप प्रत्यारोप की चली खूब लड़ाई।
संवेगो का तीव्र प्रहार हुआ,
“बीता ये पल जैसा भी”
अश्रु भरी अँखिया
उम्मीदों का आसमां अभी और सजाती हैं।
रूठें लम्हों को फिर से समेटे,
आलिंगन मैं जीवन तेरा करती हूँ ।
बाजी कितनी हारी मालूम नहीं,
पर विजय उत्सव आत्मविश्वास का रोज़ मनाती हूँ ।
भाग्य का रोना स्वीकार नहीं,
मै कर्म की ज्योत जलाती हूँ ।
निशा के पहरे पर उजालों को निमंत्रण देने का क्रम जारी हैं,
सकारात्मकता से तम के घनेरे
हारें हैं सदा,
पल पल में उमंगो का संचार जरा कर लो ।
नयी चुनौती सखि सी मेरी,
स्पर्श अब तुम भी इसे जरा कर लो ।
मानव रचता हैं इतिहास सदा,
काल से डरना क्या
उम्र अपनी चाल से बढ़ती हैं पर
इरादों की सीमा न होती हैं।।
पल ये बीता जैसा भी,
मैं स्वागत फिर से तेरा करती हूँ
परिचय नया तुम्हें अब देती हूँ…
वो प्याला चाय का
गुलजार थे दिन मेरे तुमसे,
तुमसे ही तो नखरे हर शाम के थे।
कैसे भूलूँ मैं इश्क़ की वह दास्तां,
चोट ज़िस्म पर मेरे थीं,
और दर्द चेहरे पर तेरे था।
रातों की पर्दानशी तुमसे थीं,
बारिश की हर बूँद अब पानी-सी हैं।
वो प्याला चाय का,
छुआ था जिसने होठों को तेरे
अब तलक महफूज़
पास मेरे बनकर तेरी निशानी अब भी हैं।
दिल में मेरे क़ैद ये कहानी अब भी हैं,
बढ़ जाऊँ आगे तेरे बिना मैं
कहते हैं लोग
पता नहीं उन्हें, साहिल के बिना क्या मौजों की रवानी हैं।
मेरी हसरतों में बस,
तुझे पाने की ही नादानी हैं।
नमुमकिन ही सही पर
मिलने की अब भी
कोशिश करती हूँ,
नाम को तेरे क़लमे में पढ़ती हूँ।
रूठें हुए इस नसीब को फिर से, मनाने की कवायद करती हूँ
हर आहट पर,
मैं अब भी रातों को चौकते हुए उठती हूँ।
दस्तक दो तुम एक बार,
मैं नज़र अब भी दरवाज़े पर रखती हूँ।
गुरु गोविन्द सिंह
योद्धा, कवि, आध्यात्मिक गुरु,
या मानवता के दूत
क्या तुम्हें सम्बोधित करूँ मैं।
रूप अनोखा, साहस बेमिसाल था,
भुजाओं में वेग रक्त का या कोई तूफान कमाल था।
अन्याय, जुल्म, अधर्म न हो साथ किसी के,
यहीं जीवन का तुम्हारे सार था।
ईमानदारी से चले जीविका, न कष्ट तुम्हारे द्वारा किसी को पहुँचे।
वो पंच शिष्य तुम्हारे जिनके साथ पिया था अमृत,
जाति पाति के आडंबर का किया मानो तुमने उपहास।
खालसा पंथ की स्थापना की,
श्री ग्रंथ साहिब को पूर्ण किया।
बांजावाला, दशमेश, कलगीधर, गोविंदराय नाम तुम्हारे,
पिता गुरु तेग बहादुर और माता गूजरी की संतान।
भंगनी या बसोला,
आनंद पुर हो या गुलेर का युद्ध अलबेला
पराक्रम शौर्य की बने तुम मूरत
वार क्या अधर्मी पर दिखलाया था॥
संस्कृत, अरबी, फारसी, पंजाबी भाषाओं का ज्ञान था,
क़लम पर अधिकार तुम्हारा
वाणी में शारदा का वास था।
जफ़रनामा, चंडी दा वार, जाप साहिब बचित्र नाटक,
खालसा महिमा, शास्त्र नाम माला रचनाएँ तुम्हारी,
संत सिपाही साहित्य तुम्हारा दर्पण तेरे मन का था।
समाज की बुराइयाँ ख़त्म करना ही हर मनुष्य का काम हैं,
प्रेम, सद्धभाव ही संसार का शृंगार हैं
यहीं संदेश तुम्हारा इस जग के नाम था॥
पंच ककार केश, कंघा, कृपाण कड़ा,
कच्छा अनिवार्य बता गये,
गुरु ग्रंथ साहिब को ही उत्तराधिकारी अपना कह गये।
दिलरुबा वह यंत्र संगीत का ईजाद तुमने किया था,
दर्शन, कविता, लेखन तलवार, भाला अनंत रूपों में
शैली अनुपम रखते थे।
वाहे गुरु दा खालसा वाहे गुरु दी फ़तह जयकारे ख़ूब लगाये,
गृहस्थ में भी वैराग्य की छटा निराली थीं,
माना सेवक ख़ुद को कभी फ़क़ीर कभी सर्वस्व दानी थे।
प्रकाश पर्व कराता हैं, स्मरण
पुनः पुनः तुम्हारे विचारों की आभा का।
लंगर मिटाए भेद, मानव से मानव की दूरी का।
जलाएँ ज्योत फिर उस संत वाणी की,
तख्त श्री पटना साहिब
नमन तुम्हें रज भी जहाँ की पावन हैं।
स्वामी विवेकानंद
“उठो जागो और तब तक नहीं रुको,
जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता”।
थके किसी मन में और टूटे टूटे तन में,
विश्वास को ज़िंदा करती ये पंक्तियाँ सचमुच आत्म विश्वास बढ़ाती हैं।
“ख़ुद को कमजोर समझना सबसे बड़ा पाप हैं”
यहीं बात तुम्हारी मन में मेरे ज्योत अमर जलाती हैं।
उम्र वह पच्चीस की थीं जब
बाइबल, कुरान, गुरुग्रंथ साहिब संग पूंजीवाद और राजनीति शास्त्र के तुमने पढ़ लिए।
शिकागो में जब पार्लियामेंट ऑफ़ रिलीजन्स तालियों से गूँज उठा,
वो सम्बोधन “मेरे अमेरिकी बहनो और भाइयों” प्रेम से पूर्ण निराला था।
भारत का आध्यात्मिकता से पूर्ण वेदांत दर्शन अमेरिका, यूरोप भी तुमने पहुँचा दिया।
राम कृष्ण परम् हँस गुरु तुम्हारे नरेंद्र दत्त को जिन्होंने विवेकानंद बना दिया।
गीता हो हाथों में पर मैदान में फुटबॉल भी खेलो,
युवाओं की स्नायु मज़बूत होनी चाहिए।
मूल तुम्हारा वेदांत और योग रहा,
युवाओं को सफलता का मंत्र अनमोल दिया।
” मैं दर्शक हूँ, साक्षी हूँ, बैठे-बैठे मन का डूबना उतरना देख़ रहा हूँ।
मैं मन नहीं हूँ!
अर्थात् ईश्वर और तुममें भेद नहीं
मन तो निर्जीव हैं।
कितनी सरलता से
ईश्वर निराकार हैं सब जीवों में परमात्मा का अस्तित्व हैं तुम कह गये।
धर्म किताबों में नहीं न धार्मिक सिद्धांतो में हैं,
वो तो अनुभूति में हैं।
ग़रीब, दीन दुःखी मानव ही ईश्वर का रूप हैं,
अंधविश्वास, रुढ़ीवादिता छुआछूत, वर्णभेद से घृणा तुम्हारी
समानता और सहयोग से अलंकृत दर्शन को बताती हैं।
जिसे पाकर युवा बुजुर्गों, पूर्वज, संस्कृति या मानवता का शत्रु बन जाए क्या वह शिक्षा हितकारी हैं?
क्लर्क पैदा करना ही क्या इसका उद्देश्य हैं
चिंतन ये तुम्हारा शिक्षा की अवधारणा पर प्रश्न खड़ा करता हैं
जो मानवीय गुणों से तुम्हें भर दे
चरित्र का विकास करें,
शिक्षा वही हैं जो तुम्हें इंसान बनाए।
गौ रक्षक बोला तुमसे जब ” मैं गौ माता की कसाई से रक्षा करता हूँ
तब सवाल तुम्हारा दीन दुःखी या भूखे मानव के लिए क्या करते हो?
वह बोला “वो तो पाप भोग रहा हैं”
तब तुमने कहा “गाय भी अपने किसी पाप से ही कसाई के पास जाती होगी”
कितना संवेदनशील तर्क तुम्हारा निज दर्पण में चेहरा समाज का दिख ला गया।
वेद, पुराण, उपनिषद, साहित्य, कला, इतिहास का विस्तृत अध्य्यन तुम्हारा,
हमें राज़ योग, कर्म योग, ज्ञान योग बतला गया।
माता-पिता का तर्क शील, प्रगतिशील दृष्टिकोण,
व्यक्तित्व तुम्हारा गढ़ गया।
” शक्ति जीवन हैं
कमजोरी ही मृत्यु “
सत्य ये जीवन कहा तुमने का अटूट हैं।
बेलूर में वह चंदन की चिता
जिस पर तुम अल्पायु में सो गये,
पर न जाने कितनी बंद अँखियो को आज भी खोल रहे हो।
भारत को अगर समझना हैं तो
विवेकानंद को पढ़ना चाहिए।
बात ये टैगोर भी कह गये।
आँखों से चूमा ख़त
आँखों से चूमा ख़त को मैंने,
बंद जो आज अलमारी में मिला
महका जैसे माज़ी मेरा।
अल्फ़ाजो में फिर उसका अक़्स मिला।
ख़िला चाँद आसमां में,
मुझको बिछड़ा वह यार मिला
लम्हा-२ ओढ़ा मैंने,
रंग इश्क़ का ऐसा चढ़ा।
मोड़ कौन-सा था वो,
जब सब कुछ तेरे हवाले था।
तुम और मैं,
इसके आगे न जहाँ कोई दूसरा था।
दीवार वह मजहब की,
गिराना क्या मुनासिब न था।
मुकम्मल हो जाता सब ग़र
तुम चाहतों के ख़ुदा बन जाते।
मैं आता दर पर, तुम रहनुमा बन जाते।
आग दूरियों क़ी दो घरों को न जलाती,
जो हाथ तुम ज़रा बढ़ा देते।
मैने सुना! गुनाह क्या अज़ीम कर रहें हो,
शर्मसार अंजुमन को कर रहें हो।
गज़ब क्या खूब कर रहें हो,
आती हुई लहरों पर चल रहें हो।
जल जाएगा दामन,
दोस्ती आग से कर रहे हो।
जमाना कहता रहा,
मैं नाम पर मोहब्बत के सुलगता रहा।
उम्मीद तेरे लौटने क़ी हर रात सजाई मैंने,
बिन चाँद के भी ईद मनाई मैंने
बंद होती पलकों को जगाया मैंने
करवट लेती हसरतों को मनाया मैंने॥
मुकाम वह आ गया,
जुबां पर नाम उनकी गैर का आ गया
रुखसत हो गया वह मेरी राहों से,
ख़बर उसकी न मिली तब से
उजाड़कर बस्ती दिल क़ी गया हैं वह जबसे …
ढ़ोल नगाड़े
ढ़ोल नगाड़े खूब बजाते,
लड़के भंगड़ा करते हैं ।
अलाव जलाकर,
तिल, मूंगफ़ली, मक्का की आहुति देते हैं ।
गिले शिकवे भूलकर लोग सब गले आपस में मिलते हैं
किसानों का नव बर्ष ये,
नयी फसलों की बुबाई की रुत कहलाती हैं ।।
प्रकृति के परिवर्तन की दस्तक देती लोहड़ी,
गुड़, रेवड़ी, तिल, मेवा, गजक और मक्का का प्रसाद सब पाते हैं।
दुल्ला भट्टी के गीत अग्नि के समक्ष सब गाते हैं,
सुंदरी मुंदरी की कथा फिर आपस में कहते हैं ।
कितना सुंदर दृश्य ये,
ऊर्जा जहाँ प्रीत की हम पातें हैं।
रंगे जिसमें सब वो रंग “भारतीय”
तिलोड़ी लाती हैं ।
झूमें सब और लड़कियां गिद्दा पाती हैं ।
उत्तरी गोलार्द्ध में सूर्य का स्वागत करता पर्व ये
सरसों का साग और मक्के की रोटी थाली में सबकी सजाता हैं ।
भारत की संस्कृति ये,
विविधता में एकता का दर्शन हमको कराती है।
तुमसे कुछ कहना है
तुमसे कुछ कहना हैं,
वक़्त आज अपना मुझे उधार दे दो ।
मेरी तमन्नाओं में जो तस्वीर हैं, आज उससे मुलाक़ात कर लो
हसरतें तमाम मुख़ातिब हो जाएं तुमसे,
ऐसी दावत आज शाम के हवाले कर दो ।
मैं चाँदनी बनकर बिख़र जाऊं
दरवाजे पर, तुम आकर मुझे आगोश में ले लो ।
सुन लो मेरी धड़कनो को, नाम मेरे अपना वजूद कर दो।
उँगलियों से मेरे रुखसार पर
मोहब्बत की निशानी दे दो मैं मिट गईं चाहतों में,
तुम अपनी अब अपनी ज़िंदगी में मुझे शामिल कर लो ।
लबों की ज़र्द ख़ामोशी को,
जामा दुनियांदारी के लिबास का दे दो।
मैंने जलाया हैं चिराग़,
घर आज आने की जहमत कर लो ।
बहुत पी लिया मैंने ज़ाम दर्द का,
अब ख़ुमार का इस्तक़बाल तुम भी कर लो ।
तेरे आने की जुस्तजू में आवारा हवा हो गईं हैं
दहशत शहर में अब आम हो गईं हैं ।
पानी सा ये रंग मेरे दामन को रंगता हैं,
एहसास बनकर रूह में मेरी गुजरता हैं ।
ये चुभती हुई सर्द रातें, मेरे इश्क़ का पैमाना देखती हैं ।
तन्हाई के जंगल में आहट तेरी हो, ये दुआ साँसे करती हैं ।
मशरूफियत तुम्हारी लाजिमी हैं,
लेकिन सवाल पर मेरे तेरा कुछ न कहना सवाल एक और खड़ा करता हैं ।
हंगामा ये समंदर का, साहिल को आज़माता हैं ।
दूरियों का सफ़र ये,
तोहमत तेरे अक़्स पर मेरे क़त्ल की लगाता हैं ।
जुर्म ये दिल को तोड़ने का बहुत खूब करते हो,
फ़िर भी हुकूमत दिल ए मासूम पर बेहिसाब करते हो…
चाँदनी भर लूं मुट्ठी में
न सुबह का पता है,
न शाम का ठिकाना
जागती सी इन आँखों में तेरे नाम का है पैमाना।
मिलना न मिलना किस्मतो के हाथ है,
बस प्यार तेरा ताउम्र के लिए इक मेरे साथ हैं।
ओ अजनबी तू मुझ पर कोई जादू सा कर गया,
होगी मुलाक़ात कभी चाँद तारों से पूछती हूँ तारीख वो हसीं।
दिल अपना थाम लू मैं जब होता है जिक्र तेरा,
पलकों को हया का ज़ेवर अभी छिपाना नहीं आता,
मेरे लब पर तेरे सिबा अब फसाना किसी का नहीं आता।
ये और बात हैकि हमें तुम्हें बताना नहीं आता,
नाज ओ नखरो से तुम्हें सताना नहीं आता।
कितना शोर है धड़कनों का इस दीवानगी को देखो,
छोड़ा हमने शहर भी तेरा बस, एक तुझे भुलाना नहीं आता।
आती है बहुत दस्तकें बस एक तेरा कोई खत नहीं आता,
मिले सबब कोई इस जिंदगी का ऐसा कोई मंजर नहीं आता।
चाँदनी भर लू मुट्ठी में,
तारों की महफ़िलो का ऐसा कोई नजारा नहीं आता।
मैं बर्फ़ सी हो चुकी हूँ,
पिघला दे जो मुझे वो आफ़ताब नहीं आता….
पहाड़ हूँ मैं
पहाड़ हूँ मैं पहाड़ हूँ,
सिंह की कोई दहाड़ हूँ।
अविचल, अडिग शान्त धीर गंभीर हूँ,
खूबियों की खान हूँ।
सुख दुःख सीने में मेरे सब बंद है,
एक चाल ही सदा मेरी पसंद हैं।
मजबूत हूँ महान हूँ,
कमजोरी से न कोई मेरा वास्ता।
न पिघला कभी न बहका कभी,
मेरा अस्तित्व मेरी पहचान है।
ऊँचा रहें शीश सदा, यही मेरी है अदा।
सीख यह दू सदा,
फ़र्ज अपना कर अदा।
हौसले मुझसे मांग ले,
बुलंद तू खुद को कर ।
चट्टानों सा सीना मेरा देख ले,
कर्मपथ पर हूँ चला
पहाड़ हूँ मैं पहाड़ हूँ।
बन जा मुझसा तू भी
यही मेरी पुकार है,
जँगल है ये कम न हो तेरा हौसला।
कमजोर तुझे जानकर
न आए कोई जानवर,
आ मेरे आग़ोश में
कह दे सबसे ज़ोश में
पहाड़ हूँ मैं पहाड़ हूँ।।
ठिठुरती ठंड
रहम क्या वो करती होगी,
या गर्माहट कुछ नसीब से उसे मिलती होगी ।
ठिठुरती ठंड हाड़ो को उसके भी कपाती तो होगी,
या पत्थर बन चुका ज़िस्म उसका
शून्यता को पा चुका हैं ।
आसमान की चादर
को ओढ़ कर वो क्या इतना साहस कर पायेगा कि
तुम्हें हरा सके ।
मुझे रजाई भी शीत की
चुभन से बचाने मे असमर्थ सी प्रतीत होती हैं।
प्रखर इन्द्रियों के स्वामित्व के बाद भी
मैं संवेदनाहीन बनी क्यों
तुम्हे देखते हुए भी
लज्जित निज पर नहीं होती हूँ ।
दृष्टि मात्र विचलित होना
ही और फिर ख़ुद मे ख़ो जाना
मानवता को परिभाषित करता हैं।
क्या ये अस्तित्ववाद हैं या प्रयोगवाद
कौन सा दर्शन मेरी व्याख्या करेगा?
अगर इसे प्रकृतिवाद कहूँ तो कठघरे मे खड़ी कुदरत होगी ।
मानववाद के नाम पर शर्मिंदा मानवता होगी ।
कल फिर मैं तुम्हें देखती गुजरूंगी,
और निःशब्द होकर शब्दों का ही तुम्हें कंबल दूँगी
नहीं!मैं तुम्हें अब तुम्हारे होने का परिचय दूँगी,
आहों से आगे इस जीवन का मतलब दूँगी…
पाँव में छाले
पाँव मे छाले, हाथों मे दरारे,
बाट जोहती अखियाँ माथे पर घनघोर लकीरें ।
बृषभ की डोर और कंधे पर हल,
जाने कितने डग नापे वो लेकर खुरपी और कुदाल ।
वो गलाती ठंड भी साहस न दिखाती सम्मुख उसके जाने का,
देह वो तप गईं ज़िंदगी की धूप मे।
तू जलता हैं मिटता हैं, तब पेट मेरा भरता हैं।
नहीं फ़िक्र मुझे तेरी, क्यों बेवक़्त तू मरता हैं ।
आधी रात को जब तू पानी मे ज़िस्म डुबोता हैं,
हाँ!तब शहर मेरा आराम से बिस्तर पर सोता हैं।
जय जवान जय किसान का नारा खूब लगता हैं,
क्यों कर्ज तले फिर आत्महत्या करता हैं ।
लगान की खाकर मार फिर आशा को बोता हैं,
अन्नदाता तू भूखा क्यों सोता हैं?
पसीना ही तेरा पोषण सबका करता हैं,
अखबारों मे भी चर्चा तेरा छपता हैं ।
पर इतना तू महत्वपूर्ण नहीं, जो
दर्द तेरा हम भी दो पल को जी लेते ।
ऊँची नीचा होता रक्तचाप क्रिकेट की दो गेंदों पर,
हैं चिंता मुझको फ़िल्मी दुनियां की।
टूटे किसके सबंध फिर शादी कौन रचाता हैं ।
कुछ मौन शहदत पर किसी जवान की हो जाता हूँ,
पर कौन कृषक, राब्ता न पाता हूँ ।
सियासत तुझ पर बाखूबी करता हूँ,
मैं भारत का नागरिक संविधान निभाता हूँ ।
महाजन लगान लगाता हैं, टपकती छत सिर पर उसके
फिर भी जीवन का रिवाज़ निभाता हैं ।
सूखी रोटी खाकर, श्रृंगार धरती का कर जाता हैं ।
वो ग़रीबी से ख़ुद को लहूलुहान कर जाता हैं ।…
सृष्टि का आधार हो तुम
सृष्टि का आधार हो तुम,
नित कर्मरत रहने का साक्षात् प्रमाण हो तुम।
बिना थके बिना रुके पुरुषार्थ के पथ पर अडिग हो तुम।
रवि, दिवाकर, भानु, भास्कर
पतंग, सविता तरणि
नाम अनंत तुम्हारे,
भेद भाव से परे हो तुम।
ऊर्जा, ऊष्मा देते सबको,
शौर्य का प्रतीक हो तुम।
हे! मार्तण्ड प्रसन्नता और अप्रसन्नता के परमाणु तुममें,
सात रंगो की किरणें शृंगार तुम्हारा करती हैं।
औषधि गुण से भरपूर हो तुम,
सौर परिवार का आलम्बन हो तुम।
कीटाणु नाशक किरणें ये,
प्राकृतिक चिकित्सालय तुम्हें बनाती हैं।
छठ पूजा या हो सक्रांति,
पूजे तुम्हें हर नर नारी
धार्मिक आस्था का भी स्थान सदा रखते हो॥
तेजस्वी मैं भी बन जाऊँ,
श्रद्धा का ये अर्घ तुम्हें समर्पित करती हूँ।
सत्य से संसार को आलोकित कर दूँ,
अनाचार का तम हटाऊँ।
दृष्टि मेरी रहे समान,
स्रोत प्रेरणा के अंशुमान बन जाओ तुम।
आशाओं के दीप जले
व्यथित खिन्न भिन्न-सी बैठी थीं वह,
अकुलाई-सी शोक मग्न।
मुख कमल मुरझाया सा,
प्राणों को जैसे त्याग चुकी थीं।
तारे डूबें आँखों के,
उलझी-सी हर लट थीं।
अशोक वाटिका के पुष्प भी संताप उसका बढ़ाते थे,
हर पत्ता जैसे उपहास उसका उडाता था।
कहाँ हैं प्रियतम तेरे,
रस्ता जिनका देख़ रही है।
कितने महीने बीत गये,
क्या साजन तुझको भूल गये?
नहीं! संदेह नहीं उन पर तनिक भी,
बोली जनक नंदिनी।
वो आते ही होंगे,
अश्रु उनके बहते होंगे।
सीते सीते कहते होंगे,
नहीं निंद्रा उन्हें आती होगी।
तब ही पवन पुत्र हनुमान आए,
बोलें माँ! राम दूत हनुमान हूँ मैं
प्रभु राम के साथ वानर राज सुग्रीव हैं,
रावण को धूल चटा देंगे।
शांकित होकर बोली सिया
अब रूप वानर का तुम लेकर आए ओ! पाखंडी रावण
कौन हो तुम?
सत्य बताओ?
तब रूप विशाल पवन पुत्र ने दिखलाया।
बोलें हे! विदेह नंदिनी
देखो रघुनंदन की मुद्रिका
क्या अब भी छल कोई प्रतीत होता हैं?
मुस्कायी बैदेही ऐसे,
जाने कितने भानु चमके हो।
उपेंद्र की पाकर ये निशानी,
जानकी हर्षित ऐसे हुई जैसे कौशल्यानंदन मिल गये हो।
बेरंग वाटिका झूमी,
विरह के जैसे बादल छट गये।
मिलन को अब देर नहीं,
११ महीने का वनवास
खत्म हुआ।
केसरीनंदन बन गये सेतु प्रेम के,
ऐसा मंगल हो गया कि राम प्रिया
मृत से पुनः जीवित हुई।
आशाओं के दीप जले।
सारा आकाश
सारा आकाश अपने सपनो का मुझे चाहिए
जीने का जिंदगी हर हक मुझे चाहिए
भेद कैसा मुझमें तुममें
जब धड़कने है एक सी
क्यों मेहनत मेरी बेवजह है
क्यों अरमान मेरा सिर्फ़ एक ख्वाब है
क्यों योग्यता मेरी शूल बनकर चुभ गई
क्यों अभिव्यक्ति मेरी सबको खल गई
है वजूद मेरा भी
क्यों बताऊ बार बार
चली हूँ मैं भी संग तेरे अंतरिक्ष के पार
महिला किसान मैं भी
उड़ा रही हूं यान भी
नीति हो अब राज की या समाज की,मैं भी रंग ला रही हूं
भूले क्यों संविधान निर्माण में भी
15 महिलाओं का हाथ था
प्राचीन भारत मे भी महिलाओं को हर अधिकार था
हराने का मुझे शौक़ नही
बस जीतने का जुनून है
मैं खुद में ही विराट हूँ
देवी के नौ स्वरूप हूँ
गढ़कर नई परिभाषा अपनी उड़ान की
चली हूँ आज शान से सवारी लेकर अपने आत्मसम्मान की
उड़ूंगी जी भर कर मैं
जीवन की हर उड़ान को
है परिस्थिति विपरीत तो
बाज बनकर बादलों पर छा जाऊँगी
आदिशक्ति मैं अनादि हूँ अनंत हूँ
तन है नाजुक तो क्या
मन से मैं मजबूत हूँ
चली हूँ लेकर हर रुख हवाओ का आज अपने साथ लेकर
हौसलें मेरे बुलंद हैं
हर जगह मेरे ही तो रंग है
बात आकाश की हो या धरा की
मैं ही आधार हूँ
नवचेतना का मैं ही आह्वान हूँ
अष्टभुजाओ में मेरी परिवार है समाज है देश का कल्याण है
सावित्रीबाई फुले की शिक्षा, सरोजिनी नायडु की बहुमुखी प्रतिभा,
आंजोली इला की चित्रकला मैं ही हूँ
कर्णम्ममलेशवेरी का स्वर्ण पदक मैं ही हूँ
वाणिज्य में उषासांगवान, इला इंदिरा राजारमन हूँ
मैं ही अमृता, महादेवी की रचना हूँ
मैं ही कल्पना,और सुनीता की अंतरिक्ष की उड़ान हूँ
आओ मेरे साथ मैं ही तुम्हारी पहचान हूँ।।
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