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महाराणा प्रताप और उनकी शौर्य गाथा (Maharana Pratap and his bravery)
विषय प्रवेश
मेवाड़ का शेर… महाराणा प्रताप (Maharana Pratap), जिसे न सोने की हथकड़ियाँ बाँध पायी, न आँधियाँ रोक पायी, न जीवन के संघर्ष झुका पाये, और न ही आपदाओं की बिजलियाँ ही अपने पथ से डिगा सकी। अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए जिसने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। भारतीय संस्कृति और भारत के राजपूतों की आन, बान व शान को बनाए रखने के लिए जिसने मेवाड़ को फिर से विजयी बनाने का संकल्प लिया और चित्तौड़ को फिर से पाने की प्रतिज्ञा की थी, ऐसा महाराणा प्रताप इतिहास के पन्नों पर हमेशा अमर रहेगा।
मुगल शासक अकबर की कूटनीति
मुगल शासक अकबर ने भारतीय संस्कृति को अपनी संस्कृति में बदलने के लिए व अपना राज्य विस्तार के लिए विभिन्न प्रकार के हथकंडे अपनाए और अपनी शक्ति से अधिकांश हिंदू राजपूत राजाओं को डरा धमका कर या आक्रमण करके उन्हें भयभीत कर अपने साथ मिला लिया अथवा उनसे अपनी दासता स्वीकार करा ली। ऐसी स्थिति में मानसिंह जैसे राजपूत राजा ने भी अपनी बहन अकबर को ब्याह कर उसकी दासता स्वीकार कर ली थी।
इस तरह साहस बढ़ जाने पर अकबर ने एक बहुत बड़ी सेना तैयार कर मेवाड़ पर चढ़ाई कर दी थी और मेवाड़ को अपने कब्जे में कर लिया था। उस समय मेवाड़ के महाराजा राणा उदय सिंह डर कर भाग गये थे। राणा उदयसिंह चित्तौड़ से भागकर अरावली की पहाड़ियों में चले गये थे और वहीं उन्होंने उदयपुर नाम की राजधानी बनाई।
चित्तौड़ के युद्ध के 4 वर्ष बाद ही उदयसिंह की मृत्यु हो गई थी। मरते समय उन्होंने अपनी छोटी रानी के पुत्र जगमाल को उत्तराधिकारी बनाया। जबकि उसके और भी तेईस पुत्र थे। जगमाल मैं राजसी गुण नहीं था। वह कायर और विलासिता भोगी था। प्रजा के विरोध पर जगमाल को गद्दी से उतार दिया गया और होनहार प्रताप को सिंहासन पर बैठा दिया गया।
राणा प्रताप का राजतिलक व उदयपुर की स्थिति
जिस समय प्रताप का राजतिलक हुआ उस समय मेवाड़ में बहुत संकट था। बहुत से सैनिक मारे गए थे। चित्तौड़गढ़ का सारा खजाना खाली हो गया था। जो संपत्ति राजपूतों ने छिपायी थी वह चित्तौड़ के किले में शत्रुओं के हाथ लग गई थी। प्रताप को उदयपुर सिंहासन में आरूढ़ होने पर “राणा” की उपाधि के सिवाय और कुछ नहीं मिला था।
राणा प्रताप और उसका भाई शक्ति सिंह दोनों बड़े बहादुर थे। दोनों एक बार शिकार खेलने गए तो एक शेर उनके सामने आया। दोनों ने एक ही साथ अपनी-अपनी तलवार से शेर पर वार किया। शेर तो मर गया लेकिन शेर को मारने पर दोनों में विवाद खड़ा हो गया कि मैंने शेर को मारा। धीरे-धीरे दोनों की तलवारें टकराने लग गई। दोनों का क्रोध आसमान चढ़ गया था। इसी बीच उनके पुरोहित आये।
भाई-भाई की लड़ाई देखकर चिल्लाते हुए बोले, “बंद करो लड़ाई। तलवारों को म्यान में रखो।” लेकिन दोनों का ही क्रोध शांत नहीं हुआ। पुरोहित ने अपनी कटार निकाली और कहा, “यदि युद्ध बंद नहीं करोगे तो मैं ही अपनी कटार से अपनी छाती चीर दूंगा।” जब दोनों ने युद्ध बंद नहीं किया तो पुरोहित ने अपने ही पेट में कटार भौंक ली। पुरोहित ब्राह्मण के मर जाने पर युद्ध तो बंद हो गया किंतु शक्ति सिंह का क्रोध कम नहीं हुआ और वह राणा प्रताप को छोड़कर अकबर के दरबार में जाकर अकबर से मिल गया।
राणा प्रताप की वीरता
राणा प्रताप अकेले पड़ गए थे। उनके सहयोगी थोड़े से राजपूत थे। फिर भी राणा ने अकबर का मुकाबला करने की हिम्मत रखी। कष्ट और कठिनाइयों का सामना करते हुए उनका साहस बढ़ता गया। उन्होंने कभी इस बात की चिंता भी नहीं की कि उनके पास बहुत कम राजपूत सैनिक हैं जबकि अकबर के पास लाखों सैनिक थे।
राणा प्रताप ने सभी सहयोगियों की सभा बुलाई। अपने सभी साथी राजपूतों से कहा, “मेरे वीर राजपूतो! आज हमारी पुण्य भूमि मेवाड़ पर दुश्मनों का राज्य है। यह वही मेवाड़ है जिसे बचाने के लिए हमारे पूर्वज हँसते-हँसते जान पर खेल जाते थे। जब भी मुझे ख्याल आता है कि हमारी इस पवित्र भूमि चित्तौड़ पर मुगल शासक कब्जा जमाये बैठे हैं तो मेरा दिल तड़फ उठता है। आज तक इसके किले पर हमेशा हिंदु राजपूतों का झंडा ही लहराता रहा है, तो क्या आज हमें इतना साहस भी नहीं कि हम इसे फिर से स्वतंत्र करा सकें।
जब तक हम चित्तौड़ को मुगलों के पंजे से छुड़ा न लें, हमें चैन नहीं लेना चाहिए। आज मैं आपके सामने यह प्रण करता हूँ कि जब तक चित्तौड़ पर राजपूतों का झंडा न फहरा दूँ तब तक सुख चैन से नहीं बैठूंगा, चाँदी सोने की थाली में भोजन नहीं करूंगा, पलंग पर नहीं सोऊंगा और न हीं अपनी दाढ़ी मूँछ कटवाऊंगा। क्या तुम भी मेरे प्रण को पूरा करने में सहायक रहोगे?”
यह सुनकर सभी सरदारों और राजपूतों ने जोश भरे स्वर में उत्तर दिया। “हम सब जब तक शरीर में खून की एक बूँद भी रहेगी, चित्तौड़ के लिए लड़ते रहेंगे और लड़ते-लड़ते ही मर जाने की प्रतिज्ञा करते हैं।”
राणा प्रताप का प्रतिज्ञा पालन
राणा प्रताप इस समय उदयपुर में रहते थे। परंतु अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उदयपुर को छोड़कर उदयसागर झील के तट पर कुटिया बनाकर रहने लगे। उन्होंने सोचा कि पूरी प्रजा को उदयपुर छोड़ देना चाहिए क्योंकि वह समतल भूमि है और वहाँ मुगलसेना आसानी से आक्रमण कर सकती है। इसलिए उन्होंने यह घोषणा की कि सभी प्रजा कोमलगीर की घाटी में चले जांए। जो इस आदेश को नहीं मानेगा उसे प्राण दंड दिया जाएगा। धीरे धीरे उदयपुर खाली हो गया।
परंतु एक स्वाभिमानी बूढा गड़रिया बोला, “मैं जानता हूँ कि राणा प्रताप शूरवीर और साहसी हैं लेकिन अकबर के आक्रमण के भय से उदयपुर खाली कर देना उसे शोभा नहीं देता। ऐसा सोचकर उसने सबको उदयपुर छोड़ने से मना कर दिया। जब राणाप्रताप को गड़रिया की यह बात मालूम पड़ी तो उसने गड़ेरिया को बुलाया और आज्ञा न मानने के अपराध में उसे फांसी की सजा दे दी। उस गड़ेरिया का पुत्र शीरा को अपने पिता की मृत्यु दंड पर बड़ा क्रोध आया और उसने प्रतिज्ञा कि जब तक मैं अपने पिता के बदले में राणा प्रताप को न मार डालूंगा तब तक चैन से नहीं बैठूंगा।
बुढ़े गड़ेरिये की एक लड़की थी जिसका नाम भानुमति था। भानुमती को जब यह बात पता लगी तो उसने अपने भाई को समझाया, पर वह नहीं माना। तब वह राणा प्रताप के पास गई और उसने पूरा हाल कह सुनाया। तभी उसका भाई शीरा भी वहाँ पहुँच गया तो भानुमती ने राणा को बताया कि “यही वह मेरा भाई है। इसे आप छोड़ दें इसे दंड न दें।” राणा प्रताप ने उसे छोड़ दिया। उदयपुर पूरा खाली हो गया। महाराणा प्रताप अपने साथियों के साथ कोमलगीर के किले में थे। यहाँ केवल वही राजपूत पहुँच सकते थे जो यहाँ की पहाड़ियों और दरारों के जानकारी रखते थे। इसलिए यहाँ दुश्मनों का कोई भय नहीं था।
महाराणा प्रताप की युद्ध की तैयारी
महाराणा प्रताप ने धीरे-धीरे यहाँ लड़ाई का सारा सामान और सेना संगठित करनी आरंभ कर दी। राणा प्रताप के पास कोई विशेष अस्त्र-शस्त्र का खजाना तो था नहीं, इसलिए उसने यह आज्ञा दी कि “जो शत्रु का सामान मेवाड़ के मार्ग से होकर सूरत के बंदरगाह पर जाता है उसे लूट लिया जाए।” इस प्रकार लूटमार से राणा प्रताप के पास युद्ध के लिए काफी सामान जुट गया था। उधर जब अकबर को राजपूतों के लूटपाट की खबर पहुँची तो वह भी राणा को बस में करने के उपाय सोचने लगा।
इन दिनों सीतल नाम का एक भाठ राणा प्रताप के दरबार में पहुँचा। उसने राणा प्रताप को उसकी प्रशंसा में रची गई कविताएं सुनाई। राणा प्रताप ने उससे प्रसन्न होकर अपनी पगड़ी उसी ईनाम में दे दी। वह भाट राणा प्रताप का यश गान करता हुआ वहाँ से चला गया। कुछ समय बाद वही भाट अकबर के दरबार में पहुँचा। दरबार में जाते ही उसने सिर झुका कर बादशाह को सलाम किया तो पगड़ी अपने हाथ में लेकर ऊपर उठा ली।
अकबर को यह देखकर आश्चर्य हुआ। अकबर ने पूछा तो भाट ने बताया कि “यह पगड़ी राणा प्रताप की है। उसके पूर्वजों में से किसी ने भी राजा की अधीनता स्वीकार नहीं की और राणा भी यही चाहता है। अतः इस पगड़ी के सम्मान को ध्यान में रखकर मैंने ऐसा किया है कि आप को सलाम करने में राणा प्रताप के मान का ध्यान किया।”
राजा मानसिंह की राणा प्रताप से भेंट
अकबर और उसके दरबारी यह सुनकर हैरान हो गये। राजा मानसिंह ने कहा “यदि मैं कभी उधर से गुजरा तो राणा प्रताप से अवश्य मिलूंगा।” अकबर की अधिकांश विजयों का श्रेय भी राजा मानसिंह को ही था। इसलिए भाट के मुख से राणा की प्रशंसा सुनकर राणा प्रताप को देखने की इच्छा राजा मानसिंह के मन में उत्पन्न हुई। वैसे शूरवीर होते हुए भी उसने अकबर से संबंध बढ़ाकर उसकी दासता स्वीकार कर ली थी।
एक दिन अकबर का सेनापति राजा मानसिंह दक्षिण से लौट रहा था तो उसने सोचा कि राणा प्रताप से मिलता हुआ चलूँ। ऐसा सोचकर उसने सेना को मेवाड़ की ओर चलने का आदेश दिया। जयपुर में उसने एक दूत को राणा प्रताप के पास भेजकर राणा से मिलने की उत्कंठा कहलवायी। राणा प्रताप मानसिंह से घृणा करते थे। वह उससे मिलना नहीं चाहते थे। लेकिन राणा ने अपने पुत्र अमर सिंह को मान सिंह के स्वागत के लिए भेज दिया।
अमर सिंह ने राजा मानसिंह का स्वागत किया और उसे उदयसागर झील पर ठहराकर उसके मान-सम्मान में कोई कसर नहीं छोड़ी। उसके लिए अनेक प्रकार के व्यंजन बनाए गए। खाने के समय भी मानसिंह ने राणा प्रताप को नहीं देखा तो पूछा, “राणा प्रताप कहाँ है?” अमर सिंह ने कहा, “राजा साहब इस समय राणा जी के सिर में दर्द है। इसलिए वह यहाँ नहीं आ सके।” राजा मानसिंह ने विचार कर कहा, “मैं राणा के सिरदर्द को समझ गया हूँ। मैं तब तक भोजन नहीं करूंगा जब तक मेरे साथ राणा प्रताप स्वयं बैठकर नहीं खाएंगे।” अमर सिंह ने टालने की बहुत कोशिश की किंतु वह न माना।
अंत में राणा प्रताप आकर मानसिंह से बोले, “मुझे अफसोस है कि मैं आपके पास बैठकर भोजन नहीं कर सकता। क्योंकि आपने धन के लोभ में मुगलों से संबंध कर दिया। अपनी सुख संपत्ति के लिए राजपूती आन, बान, शान को उनके हाथ में बेच दिया। ऐसे आदमी के साथ में भोजन नहीं करूंगा।” यह सुनकर राजा मानसिंह को क्रोध आ गया। उसने यह सोचकर कि भोजन का निरादर ना हो, थोड़े चावल उठाकर अपनी पगड़ी में रखे और उठकर बोला, “राणा साहब अकबर को हमने बहन-बेटियाँ अपने लाभ के लिए नहीं दी हैं।
अपने कुल की कन्या का विवाह अकबर से इस शर्त पर हुआ है कि उसकी कोख से उत्पन्न पुत्र ही अगला राजा होगा। वही इस सिंहासन पर बैठेगा। इससे भविष्य में भारत पर राजपूतों का ही शासन होगा।” इस पर राणा प्रताप ने कहा, “बहुत दु:ख है मुझे, जो राजा पहले मुगलों को छूते तक नहीं थे, वही आज अपनी लड़कियों को उन्हें दे रहे हैं।
ऐसे कुलघाती राजपूतों के साथ बैठकर भोजन करके मैं अपने बप्पा रावल वंश पर कलंक नहीं लगाऊंगा।” इस पर मानसिंह को और क्रोध आ गया। बोला, “आपने जो मेरा अपमान किया है, इसका बदला लेकर रहूंगा। आप तैयार रहना।” मानसिंह क्रोध से घोड़े पर सवार होकर सेना सहित चला गया। अपनी मातृभूमि को देखते हुए राणा ने जहाँ मानसिंह बैठा था, उस गद्दार के नीचे की भूमि को खुदवाया और उसे गंगाजल से पवित्र किया।
अकबर का आक्रमण और हल्दीघाटी युद्ध
उसी दिन राजा मानसिंह ने दिल्ली जाकर अकबर को अपने अपमान का सारा हाल कह सुनाया। अकबर भी सुन कर क्रोध से भर कर बोला, “हद हो गई, राणा प्रताप का यह साहस? हम शीघ्र ही इस अपमान का बदला लेंगे। हमें उससे युद्ध करके उसके जातीय सम्मान को नष्ट कर देना चाहिए।” अतः अकबर ने युद्ध की तैयारियाँ आरंभ कर दी।
इधर राणा प्रताप ने भी सिपाही संगठित किए। बहुत से राजपूत राजा राणा प्रताप की सहायता के लिए आ गए थे। उधर अकबर की शाही सेना बड़े-बड़े नगरों से गुजरती हुई मेवाड़ की ओर चली आ रही थी। जहाँ-जहाँ से भी सेना निकलती, लोग यही समझते कि “राणा प्रताप इसका मुकाबला नहीं कर सकता।” परंतु यहाँ राणा प्रताप अपनी सेना को युद्ध के लिए हल्दीघाटी के मैदान में ले आये। यह मैदान ऊँचे ऊँचे पहाड़ों के बीच फैला है। जहाँ तक पहुँचने के लिए तंग दर्रों से गुजरना पड़ता है।
राणा ने इन दर्रों मैं भीलों को छुपा दिया ताकि दुश्मन की बहुत सारी सेना, जो इधर से निकले, को पत्थरों और तीरों से मार डालेंगे। अकबर के शाही लश्कर हल्दीघाटी में प्रवेश करने के लिए दर्रों से निकले तो अचानक उन पर तीर और पत्थरों से वर्षा होने लगी। मुगल सैनिक हैरान थे कि ये मार कहाँ से पड़ रही है देखते-देखते हजारों मुगल सैनिक मारे गए। यह देखकर मान सिंह ने सेना को बहुत जल्दी से दर्रों को पार कर मैदान में जाने को कहा। अत: शाही सेना मार सहती हुई हल्दीघाटी मैदान में पहुँच गई।
राणा प्रताप के शौर्य और वीरता की गाथा
यद्यपि खुले मैदान में इतनी बड़ी सेना का मुकाबला करना राणा प्रताप के लिए आसान बात न थी। लेकिन राणा प्रताप के हृदय में तो राजपूतों की सतियों की आग थी, भुजाओं में राणा सांगा का बल था, आँखों में रोती हुई भारत माता के आँसू थे, कंधों पर जले हुए यज्ञोपवीतों की राख थी और मस्तक पर टूटे हुए मंदिरों का चंदन बोल रहा था। वह मुट्ठी भर राजपूतों को लेकर समरभूमि में कूद पड़े और एक से अनेक होकर निकल पड़े।
थोड़े ही समय में लहू की नदियाँ बहने लगी। राजपूत ऐसी वीरता से लड़े कि मुगलों के पांव उखड़ गये। खूब घमासान युद्ध हुआ। राणा अपने चेतक पर सवार थे। जिधर जाते उधर लाशों का ढेर लग जाता। अकबर की सेना गाजर मूली की तरह कटने लगी। मुगल सेना भागने ही वाली थी कि सूचना दी गई कि अकबर स्वयं अपनी सेना सहित आ रहे हैैं। अकबर के आने का समाचार सुनकर मुगल सेना का साहस फिर बढ़ गया और वह फिर जमकर लड़ने लगी। लड़ाई का मैदान फिर पहले की तरह गर्म हो गया था।
महाराणा ने राजा मानसिंह पर भाला मारा, परंतु वह हाथी के सिर पर जा लगा। हाथी चिंघाड़ता हुआ भूमि पर गिर गया। राणा बिजली की तरह लड़ रहे थे। अकस्मात सलीम पर उनकी नजर पड़ी। उन्होंने सलीम को निशाना बनाया। परंतु वह वार भी महावत को जा लगा। मुगल सेना ने राणा प्रताप को घेर लिया था। राणा प्रताप को कई घाव लग चुके थे। फिर भी उन्होंने साहस नहीं छोड़ा और लड़ते ही रहे।
लड़ते-लड़ते महाराणा घायल हो गए थे। चक्रव्यूह में जिस तरह 7 महारथियों से अभिमुन्यु घिर गया था, उसी तरह राणा प्रताप भी शत्रुसेना के मध्य घिर गए थे। तभी राणा की ओर से लड़ रहा झाला के सरदार ने यह देखा तो भाग कर राणा के पास पहुँचा और बोला, “महाराणा आपके मुकुट को देखकर शत्रु आप पर अधिक टूट रहे हैं और आपके प्राण संकट में हैं। आपका मुकुट मैं अपने सिर पर रखकर मोर्चे पर लड़ाई लड़ता हूँ।
आप यहाँ से चले जाएं क्योंकि आप न रहेंगे तो मेवाड़ का गौरव न रहेगा। मैं मर गया तो आप करोड़ों झाला सरदार पैदा कर लेंगे। यह कहते हुए झाला सरदार ने महाराणा का मुकुट उतार कर अपने सिर पर रख लिया। महाराणा ने अपने घोड़े चेतक को कुछ इस तरह संकेत किया कि महाराणा को किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचा दे। चेतक भी लहू से लतपत होकर घायल हो चुका था। पर चेतक स्वामी को एक पहाड़ी के पार ले गया।
राणा प्रताप के भाई शक्ति सिंह का हृदय परिवर्तन
दो पठानों ने राणा प्रताप को दूर भागते हुए देख लिया था। वे राणा प्रताप का पीछा करते हुए वहाँ पहुँच गए। राणा प्रताप का भाई शक्ति सिंह अकबर की ओर से लड़ रहा था। घायल महाराणा के पीछे दो पठान सरदारों को दौड़ते हुए देखकर अचानक उसके मन में भ्रातृप्रेम जाग उठा। पठानों ने महाराणा प्रताप को रोक लिया। घायल महाराणा प्रताप तलवार तान के पूरी ताकत से लड़ रहे थे कि तभी शक्ति सिंह भी उनकी सहायता को आ गया।
दोनों भाइयों ने मिलकर दोनों पठानों को मौत के घाट उतार दिया। महाराणा प्रताप भाई से बोला, “तुम भी अपना बदला ले लो।” तभी शक्ति सिंह महाराणा के पैरों पर गिर पड़ा और क्षमा माँगने लगा। दोनों मिलकर एक हो गए। उधर मुगलों ने झाला के सरदार को राणा समझकर उस पर आक्रमण तेज कर दिया। अंत में बहादुरी से लड़ता हुआ वह मारा गया। इधर राणा का स्वामी भक्त घोड़ा चेतक भी भूमि पर गिर पड़ा। देखते ही देखते उसकी आँखें पथरा गई और वह भी सदा के लिए राणा को छोड़कर इस संसार से विदा हो गया।
महाराणा प्रताप के साहस और वीरता का अगला पड़ाव
युद्ध समाप्त होने पर महाराणा प्रताप कोमलगीर के दुर्ग में आ गये। इस युद्ध में अकबर को मनमानी सफलता तो नहीं मिली और हानि भी बहुत उठानी पड़ी। उसके लगभग 50000 जवान मारे गए थे। फिर भी राणा प्रताप जीवित ही बच निकला, यह बात उसे खाए जा रही थी। इधर राणा प्रताप के पास उस समय न तो सिपाही थे और न ही खजाना। अकबर ने ऐसा अवसर हाथ से न जाने दिया और उसने उसी समय शाहबाज खाँ को एक भारी सेना के साथ प्रताप को घेर लेने के लिए भेज दिया। कोमलगीर किला घेर दिया गया।
महाराणा प्रताप ने वीरता से मुकाबला किया। परंतु दुर्भाग्यवश उस समय किले के अंदर सारे कुँए सूख गए थे। एक कुँआ जिसमें पानी था वह भी राणाप्रताप के शत्रु आबू नरेश ने जहर डलवा कर जहरीला करवा दिया था। मजबूर होकर राणाप्रताप को किला छोड़ना पड़ा और बच्चों सहित चप्पन के पहाड़ों पर चले गया। वहाँ के भीलों ने उनकी सहायता की। अकबर ने हर जगह जासूस फैला दिए थे। उन्होंने महाराणा के इस स्थान का भी पता लगा लिया। मुगल सेना ने आकर फिर से राणा प्रताप को घेर लिया। राणा के पास जो थोड़े से राजपूत थे, उन्होंने वीरता से युद्ध लड़ा। अंत में महाराणा प्रताप को यह स्थान भी छोड़कर भागना पड़ा।
भारी विपदा में फँसे महाराणा प्रताप का धैर्य और भीलों द्वारा सहायता
इस प्रकार भारी विपत्ति में महाराणा प्रताप फँस गए थे। वह जहाँ जाते, मुग़ल वहीं पहुँच जाते। महाराणा प्रताप एक घने जंगल में बैठे थे कि भीलों ने आकर सूचना दी, “महाराज मुगल सेना आ गई है। जल्दी से रक्षा का कोई उपाय करें।” महाराणा ने भीलों को अपने बच्चे तथा स्त्री को सौंप दिया, ताकि वह उन्हें किसी सुरक्षित स्थान पर ले जाएं। स्वयं मुगलों से युद्ध करने लगे। भीलों ने राणा के बच्चों को टोकरियों में रखकर घने जंगल में वृक्षों पर लटका दिया। और खुद पहरा देने लगे। महाराणा ने आकर जब बच्चों को इस प्रकार टोकरियों में वृक्षों के सहारे लटकते देखा तो उनकी आंखों से आंसू निकल गए।
भारी विपत्ति के बीच में और लगातार युद्ध का सामना करते हुए महाराणा प्रताप थक चुके थे। इस थकान की लाचारी पर महाराणा प्रताप के पास न धन था और न सैनिक शक्ति। वे बहुत दुखी थे। तंग आकर वे जंगलों में ही एक गुफा में रहने लगे। एक दिन रानी ने जंगली घास से कुछ रोटियाँ बनाई। सब ने अपना-अपना हिस्सा खा लिया। लेकिन सबसे छोटी लड़की जो सोई थी उसके लिए एक रोटी रख दी थी। सो कर उठने पर जब वह अपनी रोटी खाने लगी, तभी एक बिल्ली झपट कर उससे रोटी छीन ले गई। लड़की रोने लगी।
महाराणा यह देखकर पिघल गये। अपने बच्चों को इस प्रकार से भूख से बिलखते नहीं देखना चाहते थे। उन्होंने घबराहट में अकबर को एक पत्र लिखा, “कष्टों की हद हो गई है, इन्हें कम करो।” अकबर को यह पत्र मिला तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। उसने महाराणा प्रताप का यह वाक्य भरे दरबार में पढ़वाया। तभी अकबर के दरबार में एक राजपूत कवि पृथ्वीराज ने यह पत्र देखा। वह राणा का आदर करता था।
उसने यह पत्र लेकर कहा, महाराज! यह पत्र राणा के हाथ का नहीं है। मैं उसकी लिखावट पहचानता हूँ। यदि आप आज्ञा दें, तो मैं राणा को पत्र लिखकर आपको इसकी सत्यता का पता लगाकर बताऊँ।” अकबर ने उसे पत्र लिखने की आज्ञा दे दी। तभी पृथ्वीराज ने महाराणा प्रताप को जोरदार पत्र लिखा। महाराणा प्रताप को यह पत्र मिला तो उसके हृदय में राजपूती जोश भर आया। उन्होंने कह दिया, “मैं अकबर की अधीनता कभी नहीं मानूंगा। अंतिम सांस तक मेवाड़ के लिए लड़ूंगा।”
महाराणा प्रताप की वीरता का जोश और भामाशाह की देशभक्ति से अंतिम युद्ध
एक नये जोश के साथ महाराणा प्रताप अपने बचे-खुचे साथियों को लेकर सिंधु की ओर चल पड़े। इन्हीं दिनों यहाँ महाराणा प्रताप के दरबार का एक व्यक्ति भामाशाह महाराणा को खोजते हुए राणा प्रताप के पास पहुँचा और बोला, “मेरे पास इतना धन है कि इससे 20 हजार सेना का खर्च 2 वर्ष तक चल सकता है। यह धन आप ले लीजिए। सेना का संगठन शुरू कीजिए और पराजय को विजय मेंं बदल दीजिए।
महाराणा प्रताप के शौर्य का परिणाम
भामाशाह की देशभक्ति देखकर महाराणा की आँखें भर आई। उन्होंने भामाशाह के धन से फिर सेना एकत्र करनी शुरू की। सैनिक हो जाने पर उन्होंने शाहनवाज खाँ पर हमला कर दिया। वह उन दिनों बड़े चैन से रह रहा था। इस अचानक आक्रमण से उसके होश उड़ गए। मुगलों की सेना को छुपने की जगह नहीं मिली और वह भाग खड़ी हुई। अब महाराणा प्रताप ने आमेर किले पर चढ़ाई की। इस प्रकार धीरे-धीरे 32 किले जीत लिये। चित्तौड़ और मांडलगढ़ के अतिरिक्त सारा मेवाड़ जीत लिया गया।
महाराणा ने इस सिंहासन पर बैठते ही चित्तौड़ को जीतने की प्रतिज्ञा की थी वह अभी तक मुगलों के पास था। महाराणा प्रताप उसे जीतने का प्रयत्न कर ही रहे थे कि अचानक उनकी तबीयत बिगड़ी और वह मातृभूमि की गोद में समा गए। अंतिम सांस छोड़ने से पहले उनके पुत्र अमर सिंह ने “चित्तौड़ को मैं जीतूंगा” यह कह कर उन्हें सांत्वना दी।
महाराणा प्रताप के शौर्य और बलिदान की अमरता
इस प्रकार जीवन भर महाराणा प्रताप स्वतंत्रता का झंडा लिए आगे बढ़ते रहे। अकबर महान ने बहुत प्रयत्न किया। परंतु उसे महाराणा प्रताप की वीरता खलती रही। वह महाराणा प्रताप को न पूर्णत: हरा ही सका और न झुका ही सका। अकबर सम्राट था केवल अपने मुगल शासन का।
स्वतंत्रता के इस युद्ध में महाराणा प्रताप ने जो अपनी वीरता दिखाई उसे देखकर वह भी नतमस्तक था। महाराणा प्रताप के शौर्य, वीरता और साहस के लिए सारा देश आज भी नतमस्तक है। आज केवल मेवाड़ ही नहीं बल्कि पूरा भारत राणा प्रताप जैसे वीर राजपूत राजाओं की शौर्य गाथा गाता रहेगा और इतिहास के पन्नों में स्वर्णाक्षरों में ऐसे वीर साहसी राजपूत राजाओं का नाम अमर रहेगा।
डॉ० धाराबल्लभ पांडेय ‘आलोक’
29, लक्ष्मी निवास, कर्नाटक पुरम, मकेड़ी, अल्मोड़ा, पिन- 263601 उत्तराखंड, भारत
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