Table of Contents
मधुशाला (Madhushaala)
मधुशाला (Madhushaala)
मंदिर मस्जिद ताला लटके,
मधुशाला (Madhushaala) में जाम है छलके।
धर्मास्थल सुना पड़ा है,
मधुशाला में रंग जमा है।
बालक अन्न दाना को तरसते,
मधुशाला में मधु का रस बरसे।
लम्बी लम्बी कतारें लगी है,
पीने वालों की भीड़ बड़ी है।
मधु पीने के आदी बोले,
मधु का एक घूंट पिला दो,
मेरी भी तो तलब मिटा दो।
सामाजिक दूरी को समझ न पाए,
मौत को दावत पर बुलाए।
किडनी भले ही खराब हो जाए,
मधु का प्याला न छुटने पाए।
मद्य में मस्त मलंग होकर,
कानून की भी खिल्ली उड़ाए।
कोरोना का इनको डर कहांँ है,
मद्य का इनको चस्का बड़ा है।
मंदिर मस्ज़िद चाहे ताला लटके,
मधुशाला में पर जाम है छलके।
मतवाले तो मस्त पड़े है,
मद्य के नशे में चूर बड़े है।
मद्य पर धन लुटाते है,
मौजूदा हालत में लगता,
वहीं देश का भार उठाते है,
घर की स्थिति गंभीर बनाते है।
यह तो है भाई पीने वाले,
मंदिर मस्ज़िद में इनको काम कहाँ है,
मधुशाला ही धनधाम बना है।
कोई कोरोना जैसी महामारी से लड़ता है,
कोई एक वक़्त की रोटी के लिए लड़ता है।
प्रवासी परिवार से मिलने को तड़पता है,
कहीं कोई दो पल आसरे के लिए तड़पता है।
हाय! भाग्य विधाता मधुशाला में जाम छलकता है,
मंदिर मस्ज़िद में ताला लटकता है
पर मधुशाला में जाम छलकता है।
मजदूर
सुनता न कोई तेरी पीड़ा,
मौन पड़ गई जग की क्रीड़ा।
तूने तो शहरों को सवारा,
फिर भी तेरा कौन सहारा।
जिस पर तूने अपना जीवन वारा,
आज उसने ही किया बेसहारा।
तेरे पाव के छाले जवाब दे गए,
किस क़दर चला ये निशान रह गए।
जहाँ तूने बसेरा किया,
अपना समझ कतरा-कतरा निछावर किया,
उसी ने आज तुझे बेबस किया।
वक़्त ने बेहिसाब ज़ख़्म दिए,
शहरों ने भी आसरे छिन लिए।
महलिया जिसने खड़े किए,
वहीं सड़क पर पड़े मिले।
पट भी इनके तर-बतर दिखे,
भूख से व्याकुल मज़दूर मिले।
विपत्ति की जो मार पड़ी,
राजनीति भी अब मौन दिखी।
तू मजदूर, यही लगता हो गई भूल,
जीवन तुम चाहे इनको दान में दे दो।
पर यह समझेंगे न तुम्हारी पीड़ा,
मजदूर की मजदूरी अदा करेंगे,
फिर तुमको यू निर्मम होकर विदा करेंगे।
गर होता यही बड़ा महंत,
तब ये करते सब आवभगत।
चाहे तू गुहार लगा ले,
भले अपने हाथ फैला ले।
सता अब मौन पड़ गई,
धमनियाँ इनकी शिथिल हो गई।
पर तेरी पीड़ा सुनेगा कौन,
आज सब हो गए है मौन।
प्रकृति की गुहार
धरोहर हूंँ इस धरा की,
ऐसे न मुझे यूंँ बर्बाद करो।
पूर्वजों ने सहेज कर रखा,
तुम भी ज़रा कृतज्ञ बनो।
हनन न करो मेरी काया का,
दर्द हमें भी होता है।
चलती कुदाहली मानव की जब,
दिल हमारा सहरता है।
सुख की छाया दे देती हूंँ,
कष्ट सारे सह लेती हूंँ,
तब भी कुछ न कहती हूंँ।
हनन होता हमारा जब,
अंदर अंदर ही रो लेती हूँ।
अस्तित्व हमारा न मिटने पाए,
इतना-सा संरक्षण करना।
तुम वृक्षारोपण करना,
जग को हरा भरा रखना,
सौंदर्य पूर्ण धरा बनाए रखना।
यह जग आंगन महकाए रखना,
संसार हमें भी प्रिय है मानव,
हम भी यहांँ पर बसना चाहे,
खुशहाली तुम तक पहुँचाए,
जग में भीनी सुगन्ध फैलाए।
वृक्ष लगाओ वृक्ष लगाओ,
घर आंँगन तक हरियाली पहुंँचाओ।
प्रकृति से सुंदर संसार लगे,
खग, विहग, मानव सब इसकी छांँव में पले।
लोलुपता और लालच में,
अंँधाधुन कुल्हाड़ी चला रहे,
पशु पंछी पंथी सबको आश्रय विहीन बना रहे।
प्रकृति के लोप से जग सूना रह जाएगा,
मानव भी अपना संरक्षण नहीं कर पाएगा।
प्रकृति धरा की अमूल्य धरोहर,
इनका न अहित करो।
मानव हो तुम मानव ज़रा,
प्रकृति का संरक्षण करो।
धरोहर हूंँ इस धरा की,
ऐसे न मुझे तुम बर्बाद करो।
मेरे पिता
उंँगली पकड़ कर चलना सिखाया
हर हालातो में लड़ना सिखाया
कंँधे पर बिठा कभी हमें मेला घुमाया
विद्या का हमे ज्ञान दिलाया
जीवन को नई राह दिखाया
हर कष्ट को सह जाता है पिता
तान सिना अड़ जाता है पिता
हर हालत में मुस्कुराता है पिता
सुख की शीतल छाया हम पर बरसाता है पिता
सुख दुख में साथी बन जाता है पिता
पिता बिन हमारा अधूरा संसार है
ख्वाहिशें हमारी झट पूरी हो जाए
जब भी पिता से कोई आस लगाए
वो पिता ही है जिसने अपना सर्वस्व लुटाया
हर तकलीफे सह कर हम तक सुख पहुँचाया
खुशियांँ अपनी लुटा देता है पिता
लाचारी में भी मुस्कुरा लेता है पिता
खुद को अंतिम सांस तक लुटाता है पिता
ईश्वर का दिया सुंदर-सा उपहार है पिता
हमारे लिए हमारा पूरा संसार है पिता
सबक
जिंदगी की होड़ में अनवरत लगे रहे,
रिश्ते नातों को पीछे छोड़ गए,
खो गए थे मानवता के सब मूल्य,
अपने अपनों से थे बिछड़ रहे,
संस्कृति सभ्यता कहीं खो गए,
जब लोलुपता में सब मदमस्त हो गए,
मान सम्मान सब चोट खा रहे,
प्रकृति पर मानव कुदाहली चला रहे,
अधर्म अनैतिकता चरमोत्कर्ष पर रहा,
बस एक महामारी की आंधी आई,
और सबको सबक सिखा गई,
एकजुटता का पाठ पढ़ा गई,
एकता में ही अनेकता होती है,
मानव मूल्य बता गई,
कुदरत को स्वच्छ बना गई,
बस एक महामारी ने सबक सिखा दिया,
प्रकृति हुई स्वतंत्र मनुष्य को बंधी बना दिया,
पंछी उड़ने लगे स्वतंत्र, मानव हुआ बेबस,
कहीं भूकम्प, सुनामी, चक्रवात,
प्रकृति का जब-जब हुआ हनन,
काल घटा ने किया नया अवतरण,
प्रकृति से मानव ने जब-जब छेड़ छाड़ किया,
स्वाइन फ्लू, कोरोना जैसी महामारी के रूप में,
प्रकृति ने परिणामस्वरूप काल घटा भेंट दिया,
अब भी वक़्त बिगड़ा नहीं समझदार बनो,
एक महामारी सबक का पाठ पढ़ा रही,
मानव मूल्यों की क़दर करना सिखा रही,
प्रकृति से प्रेम करो,
प्रकृति से प्रेम करो॥
प्रीती कुमारी
अध्यापिका
लुधियाना
यह भी पढ़ें-
१- बिखरे सपने
3 thoughts on “मधुशाला (Madhushaala)”