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मानवता (humanity)
मानवता (humanity): बोधिधर्मन अपने शिष्य चारूदत्त के साथ उघंडपुर की ओर जा रहे थे। सहसा उनके कानों में किसी स्त्री के करूण क्रन्दन का आन्त्र स्वर सुनाई पडा। सरल खोज बीन के बाद झाडियों की ओट में एक लकडहारिन प्रसव वेदना से पीड़ित दिखाई दी। भिक्षु धर्मसंकट में पड गये। “नारी को स्पर्श करना धम्म शिक्षा के विरूद्ध है तथा ब्रम्हचर्य जीवन के खिलाफ है, अत: यही उचित है कि हम इसे इसके भाग्य पर छोड़ दे तथा अपने गंतव्य की ओर अतिशीघ्र प्रस्थान करें” , चारुदत्त ने कहा।
लेकिन हम इसे इस अवस्था में छोड़ कर आगे नहीं बढ सकते। यह करुणा की मूर्ति बुद्ध की शिक्षा के प्रतिकूल है। यह कह कर बोधिधर्मन ने लकडहारिन को अपने हाथों पर लाद कर उसके गाँव जो नज़दीक ही था-पहुँचा दिया व समय पर सहायता मिलने पर लकडहारिन की जान बचा पायी।
दोनों उघंडपुर अपने विहार पहुँचे। फिर चारुदत्त ने गुरु को दंडवत कर यथायोग्य सविनय कहा-” भन्ते! क्या आप मेरे एक प्रश्न का उत्तर देकर शंका समाधान करेंगे। गुरु जी की मौन स्वीकृति पाकर चारुदत्त ने अपनी बात को जारी रखते हुए कहा-‘हम ब्रम्हचारी है, स्त्री का स्पर्श मात्र ही हमारे लिए वर्जित है, ऐसी स्थिति में आपने राह से उस अर्धनग्न नारी को लादकर गाँव तक ले गए, क्या यह उचित था।’
बोधिधर्मन स्थिर भाव से मुसकरा कर बोले-“वत्स संकट के समय मनुष्य ही क्या समस्त जीवों की सहायता करना मानवता का प्रतीक है, चाहे वह स्त्री है या पुरुष इस संदर्भ में अप्रासंगिक है।” मैंने तो उसे लादकर गाँव तक पहुँचा दिया, किन्तु लगता है तुम अभी तक उस स्त्री को अपने मन में लादे हुए हों।
सीख-“समस्त धर्मों में मानव धर्म श्रेष्ठ है, मानवता सर्वश्रेष्ठ कर्म।” …
मातृत्व-प्रेम
एक सच्ची घटना
बात दुर्ग के रेलवे स्टेशन की है …
कल रात।
मैं ट्रेन के इंतज़ार में रेल्वे-प्लेटफार्म पर टहल रहा था।, एक वृद्ध महिला, जिनकी उम्र लगभग ६०-६५ वर्ष के लगभग रही होगी ।, वह मेरे पास आयी और मुझसे खाने के लिए पैसे माँगने लगी … उनके कपडे फटे ।, पूरे तार-तार थे ।, उनकी दयनीय हालत देख कर ऐसा लग रहा था कि पिछले कई दिनों से भोजन भी ना किया हो … मुझे उनकी दशा पर बहुत तरस आया तो मैंने अपना पर्स टटोला। कुछ तीस रुपये के आसपास छुट्टे पैसे और एक हरा “गांधी” मेरे पर्स में था।
मैंने वह पूरे छुट्टे उन्हें दे दिए… मैंने पैसे उन्हें दिए ही थे। की इतने में एक महिला। एक छोटेसे रोते-बिलखते, दूध मुहे बच्चे के साथ टपक पड़ी और छोटे दूध मुहे बच्चे का वास्ता देकर वह भी मुझसे पैसे माँगने लगी … मैं उस दूसरी महिला को कोई ज़वाब दे पाता की उन वृद्ध माताजी ने वह सारे पैसे उस दूसरी महिला को दे दिए। जो मैंने उन्हें दिए थे … पैसे लेकर वह महिला तो चलती बनी… लेकिन मैं सोच में पड़ गया … मैंने उनसे पूछा की-“आपने वह पैसे उस महिला को दे दिए.।?” उनका ज़वाब आया-“उस महिला के साथ उसका छोटा-सा दूध मुहा बच्चा भी तो था। मैं भूखे रह लूंगी लेकिन वह छोटा बच्चा बगैर दूध के कैसे रह पायेगा …? भूख के मारे रो भी रहा था …” उनका ज़वाब सुनकर मैं स्तब्ध रह गया…सच … भूखे पेट भी कितनी बड़ी मानवता की बात उनके ज़ेहन में बसी थी… उनकी सोच से मैं प्रभावित हुआ।
तो उनसे यूं ही पूछ लिया की यूं दर-बदर की ठोकरे खाने के पीछे आख़िर कारण क्या है …? उनका ज़वाब आया की उनके दोनों बेटो ने शादी के बाद उन्हें साथ रखने से इनकार कर दिया ।, पति भी चल बसे …, आख़िर में कोई चारा न बचा … बेटो ने तो दुत्कार दिया ।, लेकिन वह भीहर बच्चे में अपने दोनों बेटो को ही देखती है ।, इतना कहकर उनकी आँखों में आंसू आ गए … मैं भी भावुक हो गया ।, मैंने पास की एक कैंटीन से उन्हें खाने का सामान ला दिया … मैं भी वहा से फिर साईड हट गया… लेकिन बार-बार ज़ेहन में यही बात आ रही थी ।, की आज की पीढी कैसी निर्लज्ज है ।, जो अपनी जन्म देने वाली माँ तक को सहारा नहीं दे सकती …? लानत है ऐसी संतान पर … और दूसरी तरफ़ वह “माँ” ।, जिसे हर बच्चे में अपने “बेटे” दिखाई देते है … धन्य है “मातृत्व-प्रेम”।
भरत सोलंकी
रानीवाडा, जालोर
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