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कितनी शर्म की बात है | how shameful it is
how shameful it is: आप लोग सोच रहे होंगे आख़िर ये कैसा शीर्षक हैं और इसमें क्या लिखा होगा तो यक़ीन मानिए जब आप इसे पूरा पढ़ेंगे तो निश्चय ही आपके मुँह से यही वाक्य निकलेगा।
लॉकडाउन की वज़ह से घर के अंदर रह रहे ही मन कभी-कभी उदास-सा हो जाता हैं। सोचने लगता है कि कैसी विपदा आ पड़ी हैं कि लोग अपनी और अपनो की ख़ातिर सब काम काज छोड़ कर घर में क़ैद हो चुके हैं। समय की विडंबना ही कहे कि इंसान ख़ुद ही प्रकृति के कार्यो में हस्तक्षेप करने के कारण इस महामारी से जूझ रहा है और ख़ुद को मजबूर महसूस कर रहा है। जिनके पास रुपये पैसे हैं उन्हें तो उतनी परेशानी नहीं हो रही है। भले ही घर में रह रहे हैं लेकिन खाने पीने की कमी तो नहीं है।
आसपास की दुकाने खुल ही रही हैं, सामान मिल ही रहा हैं। सामाजिक दूरी का ध्यान रखते हुए ज़रूरत की सारी चीजें मिल ही रही हैं। जहाँ घर से निकलने पर पूरी तरह पाबन्दी हैं वहाँ होम डिलीवरी की सुविधा भी है। संक्षेप में कहे तो एक मध्यमवर्गीय को घर में बंद रहने के अलावा किसी ज़्यादा समस्या का सामना नहीं करना पड़ रहा हैं। सबसे ज़्यादा तो उस वर्ग को समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, जो कि रोज़ कमाता और खाता हैं। जब बाहर निकल ही नहीं पायेगा जेब खाली है तो क्या खरीदेगा और क्या खायेगा खिलायेगा?
इस विपदा की घड़ी में सरकार ने हम सभी जनवासियों से अपील की है कि आसपास कोई भी गरीब हो, मजबूर हो या भूखा हो तो उसकी यथासंभव मदद करें। कुछ ना कर पाए तो कम से कम सूचित तो कर ही सकते हैं। ऎसे ही दिहाड़ी मजदूरों और गरीबों को पेट भरने के लिए ख़ुद ही भोजन की व्यवस्था की हैं और उसे उन तक पहुँचाने का भी बीड़ा उठाया हैं जिससे इस संकट की घड़ी में सब मिलकर सामना कर सकें और इस कोरोना नामक दानव से जल्द से जल्द छुटकारा पाया जा सके। लेकिन सबसे महवपूर्ण बात ये हैं कि जो भी भोजन गरीबों को पहुँचाया जाता हैं क्या वह पूरी तरह उन तक पहुँच रहा हैं? क्या हर ग़रीब को उस भोजन का लाभ मिल पा रहा है?
मेरे घर के पीछे भी खाली पड़े एक बड़े से प्लॉट में बहुत-सी झुग्गी झोपड़ी निर्मित हो गयी हैं जिनमें रहने वाले लोग दिहाड़ी मज़दूर ही हैं। कोई फलों का ठेला लगाता हैं तो कोई सब्जियों का, कोई मजदूरी करता है तो कोई प्लम्बर का काम। उनके घरों की लड़कियाँ और औरतें लोगों के घरों में चौका बर्तन, झाड़ू पोछा करती हैं और इससे ही इनकी आजीविका की पूर्ति होती हैं लेकिन इस कोरोना महामारी की वज़ह से उनका सब काम बंद जो गया और हालात बद से बदतर हो गए।
ऐसी स्थिति में क्या खाएँ और क्या बच्चों को खिलाएँ? सरकार के वादे के अनुसार गरीबों के भोजन की व्यवस्था की गयी और एक गाड़ी यहाँ भी भोजन लेकर आने लगी। कहते हैं कुछ नहीं से तो कुछ होना भी बहुत होता हैं। उनके जीवन में भी आशा की एक किरण आ गयी और एकजुट होकर इस बीमारी से लड़ने का मन में साहस भर गया लेकिन ये सब उस समय खोखला लगने लगा जब हममें से ही कुछ लोगों के अंदर इंसानियत मर जाती हैं और वह दूसरे का हक़ लेने से भी पीछे नहीं हटते।
खाने की गाड़ी जब आती तो झुग्गी झोपड़ी वाले खाना लेने पहुँचते उससे पहले ही आसपास के समर्थ लोग वहाँ खाना लेने पहुँच जाते और एक नहीं कई-कई डिब्बे लेने लगते। गरीबों के हक़ का खाना लेते समय क्या उनकी आत्मा उन्हें धिक्कारती नहीं और कैसे वह खाना उन्हें गले से नीचे उतरता होगा?
क्या उनकी इंसानियत उन्हें ऐसा करने पर एक बार भी नहीं रोकती? कितनी शर्म की बात हैं कि ख़ुद के पास सब कुछ होते हुए भी उन गरीबों के पेट पर लात मारते एक पल भी नहीं हिचकते। हम अगर उनकी सहायता नहीं कर सकते तो कम से कम जो सुविधाएँ उन्हें दी जा रही है उनमे तो बाधा ना बने।
शशि कुशवाहा
लखनऊ, उत्तर प्रदेश
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