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भारत के प्रथम राष्ट्रपति (first president of India)
भारत के प्रथम राष्ट्रपति (first president of India) डॉ श्री राजेंद्र प्रसाद एक ऐसे व्यक्तित्व जो सादगी, सरलता, करुणा की जीती जागती तस्वीर थे। वे अपने सारे काम ख़ुद ही किया करते थे और अपनी सरलता के कारण लोगों में राजेंद्र बाबू के नाम से लोक प्रिय थे। साधारण वेशभूषा न कोई दिखावा न चेहरे पर अभिमान के भाव। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में भी वे अद्वितीय थे।
भारत रत्न राजेंद्र जी एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भी देश के लिए समर्पित रहे और संविधान के निर्माण में भी अहम योगदान दिया। वे संविधान सभा के अध्यक्ष थे। बचपन से कुशाग्र बुद्धि राजेंद्र को फारसी, उर्दू, अंग्रेजी, बांग्ला भाषाओं और साहित्य का अच्छा ज्ञान था, हिन्दी भाषा से उन्हें अगाध प्रेम था, उनके हिन्दी में लिखें कई लेख कमल, भारतोदय पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। “आत्मकथा” उनकी श्रेष्ठ साहित्यिक रचना हैं इसके आलावा उन्होंने बापू जी के कदमों में, भारतीय शिक्षा, भारतीय संस्कृति और खादी का अर्थशास्त्र, गाँधी जी की देन, शिक्षा संस्कृति और साहित्य आदि जैसी उत्कृष्ट रचनाएँ लिखी। वे दो बार राष्ट्रपति के पद पर आसीन हुए। १९६२में अपने पद को त्यागकर बिहार विद्यापीठ में रहकर जन सेवा में अपना जीवन व्यतीत किया। पटना में उनकी याद में राजेंद्र स्मृति संग्राहलय का निर्माण किया गया।
गाँधी जी के सम्पर्क में आने के बाद उन्होंने रूढ़िवादी विचारों का त्याग कर दिया। वे आत्मविश्वास की मिशाल थे, बचपन में एक बार उनके गुरु जी उन्हें कहाँ कि राजेंद्र तुम इस बार परीक्षा में पास नहीं हुए हो, फिर से मेहनत करना ये सुनकर वे बोलें “ये नहीं हो सकता” तब गुरु जी ने कहाँ अरे! जबाब देते हो दो रु जुर्माना दो तब भी बालक राजेंद्र उनसे कहता रहा कि आप पुनः देखें मैं अनुत्तीर्ण नहीं हो सकता। गुरु जी को और क्रोध आ गया। वे बोलें राजेंद्र अब तुम पाँच रु जुर्माना दो। इतने में चपरासी एक कागज़ लेकर आया और बोला गुरु जी कार्यालय से आते समय आपसे गिर गया था ज़ब उन्होंने देखा तो उनकी आँखें खुली रह गईं ये तो राजेंद्र का प्रगति पत्र था और उसके अंक कक्षा में सबसे ज़्यादा आए थे। ये था राजेंद्र जी का ख़ुद पर अडिग विश्वास।
क्या हमें ख़ुद पर इतना यक़ीन रहता हैं हमें तो जो जैसा हमारे बारे में बोलता हैं हम मान लेते हैं अगर किसी ने तारीफ़ की तो हम ख़ुद को ज्ञानी, श्रेष्ठ मानने लगते हैं और यदि किसी ने कमी निकाल दी तो अपने आप को मूर्ख, हीन समझने लगते हैं। आप अपना आकलन ख़ुद करें फिर अगर कोई खामी आप मैं हैं तो उसमे सुधार करें। राजेंद्र जी प्रारम्भ में खाने पीने में छुआँ-छूत, रूढ़ि वादिता करते थे किन्तु गाँधी जी के प्रभाव में आकर उन्होंने अपनी इस सोच का त्याग कर दिया। वे आत्ममोहित नहीं रहे इतने प्रतिभा सम्पन्न होते भी उन्होंने अभिमान, या ओछा प्रदर्शन नहीं किया। हम ज़रा-सी उपलब्धि में अहंकार में चूर हो जाते हैं। निश्चित रूप से राजेंद्र जी”सादा जीवन उच्च विचार” का जीवंत उदारहण थे।
मुखौटा
मुखौटा अर्थात् जो मुख को ओट में ले जाए, चेहरे का वह आवरण जो मुख को अन्य प्रति रूप दे। मुखौटे का प्रयोग कला मनोरंजन के क्षेत्र में हमेशा से होता रहा हैं और अब तो हम इसका प्रतिदिन व्यापक रूपसे प्रयोग करहे हैं।
अरुणाचल प्रदेश के मुखौटा युद्ध नृत्य की तर्ज पर हम तो रोज़ अनिवार्य रूप से मुखौटा युद्ध नृत्य करते हैं इसके कई प्रकार आज उपलब्ध हैं कुछ तो तकनीक पर आधारित हाईटेक हैं। विश्वास का मुखौटा, ज्ञान का, महानता का, प्रेम का, तरक्क़ी का, समर्पण का मुखौटा। मुखौटे का तो काम ही आपके चेहरे को छिपाना हैं या उसे दिखाना जो आप दिखाना चाहते हैं। पर इसे लगाना इतना ज़रूरी क्यों हो गया हैं? क्या हमारा वास्तविक चेहरा उतना कारगर नहीं होता हैं जितना नक़ाब होता हैं।
हम एक दूसरे के साथ खेल रहे हैं धोखा दे रहे हैं क्या ये नैतिक हैं या समाज की आवश्यकता? झूठे भाव का प्रदर्शन हमारी मजबूरी बन गईं हैं क्योंकि हम झूठ देखना झूठ सुनना पसंद करते हैं। वह सत्य जो शिव हैं, सुंदर हैं वह अब सत्यमेव जयते की संकल्पना पर खरा नहीं उतरता हैं। हमारी महत्त्वाकांक्षा दायरों को पार कर चुकी हैं और संवेग रास्ता भटक चुके है हम किसे दोष दे संस्कारो को, परिवेश को, तकनीक, समय की माँग, या व्यक्तित्व के रूप में आत्महीनता को।
चरित्र गढ़ने में हम माहिर हैं, पटकथा संवाद हमें सबका तजुर्बा हो गया हैं। हम अपनों से भी मुखौटा लगाकर मिलते हैं गैरों की बात ही अलग हैं। हम रोज़ नये रिश्ते बनाते हैं नये मास्क के साथ। क्या हम आईने में असली चेहरे के साथ मुलाक़ात करने की गुस्ताखी कर सकते हैं? हम कहते हैं आजकल हर चीज मिलावटी आने लगी हैं। कभी ख़ुद से पूछो कि तुम कितने वास्तविक हो, प्राकृतिक हो। दिखावा हमारी रग-रग में हैं वह दिखावा जो “हम नहीं” कोई और हैं। सहजता, सरलता से दूर कृतिम संसार में जी रहे हैं हम। हमें किससे भय हैं जो हमें वैसा स्वीकार नहीं करेगा जैसे हम हैं। सोशल मीडिया पर भी आज बेशुमार मुखौटे हैं। जब हमें पता हैं कि हम एक नकली पहचान के साथ लोगों से मिल रहे हैं तो हम ये क्यों सोचते हैं कि दूसरा असली चेहरा ही रखता होगा। आओ आज इस मुखौटे को उतार दें, जी भर कर साँस लें जैसे बचपन में लेते थे।
हिन्दी दिवस
हिंदी देश की शान है
भारत की पहचान हैं
हम सबका अभिमान है
आओ अब ये मुहिम चलाए
हिंदी को सम्मान दिलाए
मिलकर हम हिन्दी का परचम लहराए॥
हिन्दी सबसे सरल, सुव्यवस्थित, मज़बूत भाषा है ये अनुवाद की नहीं संवाद की भाषा है इसकी लिपी देवनागरी है इसका व्याकरण संस्कृत से मिलता जुलता है भारत मे ७० करोड़ की आवादी हिन्दी बोलने, समझने और इसे चाहने वालो की है ये विश्व में तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है १४ सिंतबर १९४९ को संविधान में इसे राजभाषा का दर्जा दिया गया है ये आधुनिक भारत और प्राचीन भारत को जोड़ती है। ये हमारी एकता का परिचय है १४ सितंबर को हम हिन्दी दिवस मनाते हैं।
इस दौरान हिन्दी पखवाड़ा मनाया जाता है बहुत सारी हिन्दी को समर्पित प्रतियोगिताओ का आयोजन होता हैं किन्तु उसके समापन के बाद सब हिन्दी को उपेक्षित कर देते हैं हिन्दी के प्रचार के लिये सरकार को त्रि भाषा सूत्र का पालन करे लेकिन हिन्दी राजनीति का शिकार हो गई दोहरी मानसिकता का दंश झेल रही है अहिंदी प्रदेशों में मातृभाषा के साथ अंग्रेजी, हिन्दी और उन राज्यों की एक भाषा पढ़ाई जानी चाहिए लेकिन हुआ ये कि अन्य भाषा के स्थान पर संस्कृत पढ़ाई गई और अहिंदी प्रदेशों पर दवाब बनाया गया कि वह अपने सारे काम हिन्दी में करे जिससे उनमे हिन्दी के प्रति रोष उत्पन्न हो गया।
दूसरी तरफ़ बोला जा रहा है कि हिन्दी को वरीयता दी जायेगी लेकिन सारे विद्यालय अंग्रेज़ी माध्यम में परिवर्तित किए जारहे है जिससे बच्चे हिन्दी से दूर हो रहे हैं वह अंग्रेज़ी में टॉप कर रहे और हिन्दी में फैल हो रहे हैं १२th तक कि शिक्षा में हिन्दी अनिवार्य रहनी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है।
आज बच्चे काग़ज़ से ज़्यादा कीबोर्ड पर ऊँगली चला रहे हैं तो ऐसे में बच्चों को हिन्दी टाइपिंग सिखानी चाहिए जिससे हिन्दी का प्रचार प्रसार हो सके हिन्दी हमारी ताक़त है अभिव्यक्ति का सरल ज़रिया है क्यो हम हिन्दी से दूर हो रहे है क्यो हम अंग्रेज़ी सीखने के लिए पागल हो रहे हैं समाज में अंग्रेज़ी बोलने बाले को बुद्धिमान समझा जाता हैं सारे देश अपनी मातृभाषा का प्रयोग करते है हम आज भी आधिकारिक कार्यो में अंग्रेज़ी की घुसपैठ कर रहे हैं। माँ हिन्दी आज अपनी हालत देखकर रो रही है क्या सिर्फ़ हिन्दी दिवस मनाने से हमारी सेवा या हिन्दी के प्रति हमारा फ़र्ज पूरा हो जाता है ये शोचनीय है।
हमे हिन्दी के प्रसार के लिये बाल साहित्य बनाना चाहिए पर आज कई बाल पत्रिकाओं का प्रकाशन बन्द कर दिया गया है जो हमे सोचने पर मजबूर करता हैं कि हम कहाँ जा रहे हैं जिसभाषा में माँ का स्नेह पाते हैं आज उसी से सौतेला व्यवहार क्यो? हमे हिन्दी के प्रसार के लिये आंदोलन करने चाहिए ताकि हिन्दी को सम्मान मिले जो उसका अधिकार है। हिन्दी ही हमारी ताक़त है अभिमान है हमारा अस्तित्व है अगर हिन्दी ही नहीं रहेगी तो हमारी सभ्यताओं का नाश हो जाएगा परम्पराओ का अंत हो जाएगा। तो आगे आकर अपना फ़र्ज निभाना हमारे जिम्मेदारी है।
आत्महत्या मतलब ख़ुद की हत्या
भागने वाला कायर होता हैं मरकर लोगों की दया चाहते हो जीकर प्रशंसा लोग कितने दिन याद रखते हैं बस दो दिन या तीन दिन और आपकी मौत को भूल जाते है पर आपका परिवार जीवन भर रोता है कोई भी समस्या आपकी ज़िन्दगी से बड़ी नहीं होती। हर समस्या का हल होता है कई रास्ते होते हैं संघर्ष से ख़ुद को निखारो अपनी परीक्षा से डरो मत। कर्म करो फल की चिंता मत करो। हम उस देश के वासी है जहाँ के पूर्वजों ने कठिन तप, लड़ाई लड़ी अंग्रेज़ो से, आंदोलन किए। फिर हमारे सामने तो इतनी बड़ी कोई समस्या नहीं कि हम आत्महत्या कर ले। आप भी सोचिए क्या यह सही है।
आत्महत्या मतलब ख़ुद कीहत्या ख़ुद करना। क्यो हमे ख़ुद को मारना पड़ता है क्या समस्या से भागना समस्या का हल है या उसका सामना करना। जो जीवन हमे भगवान ने दिया है उसे ख़त्म करने का हक़ हमे नहीं हैं। लोगों की हमारे प्रति क्या सोच है इससे ज़्यादा ज़रूरी है किहम ख़ुद के बारे में क्या सोचते हैहमे ख़ुद पर विश्वास होना चाहिए मतलब आत्म विश्वास। आत्म विश्वास ही जीवन की सफलता की कुंजी है। जीवन अपार संभावनाओ से भरा होता है अगर हम किसी मोड़ पर सफल नहीं हुए तो इसका मतलब ये नहीं है कि योग्य नहीं है ये हमारी योग्यता का माप दंड नहीं है हमें अपनी रुचि का क्षेत्र चुनना चाहिए। लोगों के कहने पर या झूठे अभिमान में वह काम कभी नहीं करना चाहिए जिसमें हमारी रुचि न हो। अगर हम अपने मनपसंद काम में भी एक बार असफल हो जाए तोभी प्रयास करना चाहिए। ना कि अपने जीवन से ही मुँह मोड़ लेना चाहिए। हम अपने बच्चों को सफल होना तो सिखाते हैं लेकिन असफलता का सामना करना नहीं सिखाते यही से समस्या उत्पन्न होती है उनमें बचपन से आत्म बल का संचार नहीं करते।
महत्त्वाकांछाओ के जाल में फसते जाते हैं और ज़्यादा की चाहत में तनाव के शिकार हो जाते हैं काम के बीच ध्यान और योग का सहारा लेना चाहिए जिससे हम मानसिक रूप से मज़बूत हो सके। मानसिक रूप से मज़बूत व्यक्ति केलिए कोई समस्या कमजोर नहीं बना सकती।अपने दिल की बात अपने माता पिता भाई बहिन से करनी चाहिए. अगर आपको कोई समस्या है तब अपनो के साथ बैठकर हल निकाल लें। अगर आप वांछित सफलता नहीं पा पाए तो कोई शर्म की बात नहीं है बड़ा यह है कि आपने प्रयास किया। आपके अपनो के सिबा आपके जाने से किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा। गैरो के लिए अपनों से दूर मत जाओ ज़िन्दगी एक जंग है जो हमे हर हाल में लड़नी है और हम एक योद्धा है जो भाग नहीं सकता।
नेहा जैन
ललितपुर
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