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दीप मिट्टी के (earthen lamps)
दीप मिट्ठी के (earthen lamps) घर-घर जलाये।
आओ हिलमिल दिवाली मनायें॥
बहुत पावन है भारत की भूमी।
इसकी रज देव ऋषियों ने चूमी॥
वन्दनी गन्ध सबमे में बहायें।
दीप मिट्टी के घर-घर जलायें॥
होगई सोच हम सबकी डायन।
करते प्रयोग घातक रसायन॥
आओ पर्यावरण को बचायें।
दीप मिट्टी के घर-घर जलायें॥
आ रहा ये तो युग-युग से क्रम है।
भारतीय बन्धु का इसमें श्रम है॥
उसके अस्तित्व को न मिटायें।
दीप मिट्टी के घर-घर जलायें
दीप मिट्टी का है दिव्य पावन।
ज्योति दीपों की होती सुहावन॥
भारतियता को आगे बढ़ायें
दीप मिट्टी के घर-घर जलायें॥
दीप मिट्टी का छोटा हवन है।
शुद्ध होती दिशा व पवन है॥
अपनी संस्कृति को न भुलायें।
दीप मिट्टी के घर-घर जलायें॥
कारगिल युद्ध
याद रखो भारत वालो वीरों की अमर कहानी।
करते जो संग्राम अन्त तक, चले गये बलिदानी॥
दुश्मन ने दुस्साहस कर, सीमा में क़दम बढ़ाया।
अति अपूर्व रणकौशल था, तव वीरों ने दर्शाया॥
दूर दूर तक दुशमन को वीरों ने मार भगाया।
याद करे इतिहास दुष्टको ऐसा सबक सिखाया॥
भारतीय सिंहों के संमुख, मुँह की पडी थी खानी।
करते हुए संग्राम अन्त तक
दुर्गम पर्वत बर्फीला था, मुँह को नहीं था मोड़ा।
भूखे प्यासे गये थे बढते, साहस नहीं था छोड़ा॥
अभिमन्यु के सम शत्रु के, चक्र व्यहू को तोड़ा।
घायल थे पर कई-कई, शत्रु का मस्तक फोड़ा॥
भारत माँ कीं जयजय करते तज दीनी जिन्दगानी।
करते हुए संग्राम अन्त तक
मरते दम संदेश दे गये, सुनियो बात हमारी।
अपनी भारत भूमि को, रखना प्राणों से प्यारी॥
मात्र भूमि से भाई कोई, मत करना गद्दारी।
सौ सौ बार करें हम रक्षा, जन्में अगली बारी॥
मात्र भूमि की रक्षा की, कीमत हमनें पहिचानी।
करते हुए संग्राम अन्त तक
धन्य धन्य वीरों की जननी, जिसने दूध पिलाया।
धन्य पिता है वीरों के वह, जिसने गोद खिलाया॥
धन्य धर्म पत्नी उनकी, जिसने सिंदूर मिटाया।
धन्य वह भाई बहिन कुटुम्ब है, जिसमे खेला खाया॥
धन्य वह वीर सपूत साहसी, धन्य-धन्य वही जवानी।
करते हुए संग्राम अन्त तक चलें गये बलिदानी॥
विकास चहुमुखी
उनने किया विकास चहुमुखी, रे मन उनसे क्यों जलते हो।
मन चिन्तन को पीड़ित करके, वृथा अपने कर मलते हो॥
सत्य परिश्रम न्याय नीति से, उनने यदि विकास किया है।
औरों को प्रेरित करने का, यह अच्छा अभ्यास किया है॥
ऐसी राह पकड़ कर तुम भी, क्यों न सतपथ पर चलते हो।
उनने किया विकास चहुमुखी-
पहले धन पद यश बैभव में, तुम भी उनसे बहुत बड़े थे।
वह थे निम्न स्तर के लेकिन, तुम तो ऊंचे शिखर खड़े थे॥
तुम्हें देख वह शिखर चढ़े है, वृथा इसपर क्यों खलते हो।
उनने किया विकास चहुमुखी, रे मन-
यदि नहीं अनुकूल परिस्थिति, विधना की नीति स्वीकारो।
है उत्थान पतन सृष्टि सच, सद चिन्तन हरि नाम पुकारो॥
वह प्रातः के उगते सविता, समझो तुम सूरज ढलते हो।
उनने किया विकास चहुमुखी, रे मन-
ईर्ष्या अति घातक विकार है, दुःख पाप वृद्धि करता है।
घृणा द्वेष दमन कुन्ठा बढ़, अन्तर मन कटुता भरता है॥
विशन विवेक सुबुद्धिजगाओ, मन तृष्णा में क्यों छलते हो।
उनने किया विकास बहुमुखी रें मन उनसे क्यों जलते हो॥
साजन हमारे शराबी
जब से साजन हमारे शराबी हुए
घर के सुख चैन सारे दफन हो गये।
फूल पत्ते कली सब ही मुरझा गये
सूखे कांटो से चुभते बदन हो गये॥
सारा गडबड यों घर का बजट हो गया,
उन्नति का तो सपना कहाँ सो गया।
बाल बच्चे सभी भूखे प्यासे मरे,
पीते दारु तनिक न हैआती हया॥
पढने लिखने की बातें बहुत दूर है,
फटे चिथडो से ढकते बदन हो गये।
जब से साजन हमारे शराबी हुए, —
इतने पर मेरी बहना चैन है कहाँ,
प्यारे प्रीतम के मीठे बैन है कहाँ।
रात आंधी को आते पीकर के नित,
देते गाली यों सुख के सैन है कहाँ॥
घर में आकर के करते लडाई सदा
दूर घर से यों चैनो अमन हो गए।
जब से साजन हमारे शराबी हुए—
जर बिका घर बिका और जेबर बिका,
बेंचा सबकुछ तनिक इसने की न हया,
कटते रो-रो के मेरे सभी रात दिन,
सारा जीवन हमारा नर्क हो गया॥
करके मजदूरी करती गुज़ारा सदा,
हम औ बच्चे वतन बे वतन हो गये।
जब से साजन हमारे शराबी हुए—’
मुझको सावन के झूले न अच्छे लगे,
और होली दिवाली भी भाई नहीं।
मार गाली ये खातें फिरै रात दिन,
लोटै नाली शर्म इनको आई नहीं॥
जिन्दगी मौत से ज़्यादा बदतर हुई,
और मरने को महंगे कफन हो गये।
जब से साजन हमारे शराबी हुए
घर सुख चैन सारे दफन हो गये॥
मैं मस्त रहूँ
तुम तृष्णा मन को खिन्न रखो, मैं मस्त रहू संतोष।
तुम ज्ञानी को बेचैन रखो, मैं भक्त मग्न मदहोश॥
पय पान किये तुम त्रप्त नहीं, मैं गरल पान त्रप्त हुआ।
तुम सभ्य झगडते अमृत को, मै विष पीकर दे रहा दुआ॥
तुम महलों में भो चिन्तित हो, मै पडा झोंपड़ी मग्न सदा।
तुम शर्मिंदा पोशाकों में, मैं गर्वित हूँ अधनग्न सदा॥
तुम पाकर अरबों की दौलत, नित आतुर दौलत पाने को।
मुझको न कल की चिंता है, न घर में कल को खाने को॥
तुम सब कुछ पाकर शोकाकुल, मै सभी गमाकर मंगल में।
तुम डरते कडी सुरक्षा में, मैं निर्भय फिरता जंगल में॥
तुम पूजा में भी चिन्तित हो, मै विघ्नों में निश्चिन्त पडा।
तुम भाग रहे कर्तव्यों से, मै संकट में भी अडिग खडा॥
तुम घवराते हो अपनों से भी, मैं गैरों से भयभीत नहीं।
तुम सदा जीत को आतुर हो, मन हार जीत की रीतनहीं॥
सावधान हो भाई
सावधान हो भाई बहिनो, कुछ ढोंगी गद्दारों से।
साधु-सन्त बनभ्रमित करते, स्वारथ भरे विचारों से॥
बगुला जैसे स्वेत दिखै ये, अन्तर मन के गन्दे है।
जन श्रद्धा का लाभ उठाकर, करते शोषण धन्दे है॥
मोहमाया छल हवस भरे, ठग कपटी दारिन्दे है।
कौतुक पाश कुटिलता से ये, सदा डालते फन्दे है॥
अपनी स्वार्थ सिद्धि करते, मिथ्या धर्म के नारों से।
साधु-सन्त बन भ्रमित करते
सन्तों-सा आवरण बनाकर, जग को देते धोखा है।
धन सोहरत सम्मान भी पाते, काम बहुत ही चोखा है॥
जनता कैसे फसे जाल में, यही ढूँढते मौका है।
बनो शिष्य अरु जाउ स्वर्ग को, लालच देय अनोखा है।
स्वयं कराते महिमा मंडन, अपने ही जयकारों से।
साधु-सन्त बन भ्रमित करते
कलियुग में कुछ गुरु इस तरह, स्तर के जो नामी है।
सुरा सुंदरी के भोगी जो, अकूत धन के स्वामी है॥
भोग बिलास भरे अन्तर में, अधर्म के अनुगामी है।
अपने को ईश्वर कहलाते, बनते अन्तर्यामी है॥
रहते जो कोठी बंगलों में, चलते ए, -सी कारों में।
साधु-सन्त बन भ्रमित करते
निज विवेक से चिन्तन कर, सद्बुद्धि का आवाह्न करो।
ओम नाम सर्वव्यापक उस, परमेश्वर का ध्यान करो॥
सत्य सत्कर्म प्रेम न्याय संग, दया धर्म कुछ दान करो।
परमपिता को सतगुरु मानों, जाग्रत आत्म ज्ञान करो॥
विशन राह है यही स्वर्ग कीं, बचिये पाप विकारों से।
साधु-सन्तबन भ्रमित करते, स्वारथ भरे विचारों से॥
विशन स्वरूप शर्मा ‘कवि विजन’
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