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इक नई दिवाली (a new diwali)
जग मग जग मग दीप जलाएँ
अंधेरों को दूर भगाएँ,
रौशन हो जिस से सबका मन
इक नई दिवाली (a new diwali) आज मनायेँ …
जाति धर्म से परे हटें हम
मानवता को गले लगाएँ
पूरी धरती घर हो अपना
प्रेम प्यार को धर्म बनाएँ
भूल के सारे भेद भाव हम
भाईचारे के दीप जलाएँ,
इक नई दिवाली आज मनायेँ…
बुरी परंपराओ की बेडी को तोडे
गलत धारणाओ से मुख मोडे।
जिन बातों को दिल ना मानें
नही करें स्वीकार उन्हें हम।
मौन स्वीकृति की चुप्पी को छोड़ें
मुखरता के दीप जलाएँ,
इक नई दिवाली आज मनायेँ…
बेटी बेटे के अन्तर को
आओ मिल कर दूर हटायें।
एक-सा अवसर पायें दोनों ही
फर्क ना कहीं कोई रह जाए,
बेटियों को अपना अभिमान बनायें
नई सोच के दीप जलाएँ,
इक नई दिवाली आज मनायेँ…
फिर आज संकल्प ले हम सब
हार ना माने कभी कहीं हम
हर चुनौती का करें सामना
हौसला ना कभी भी हो कम
चाहे हो कितनी भी तेज हवाएँ
कोशिशों के दीप जलाएँ,
इक नई दिवाली आज मनायेँ…
आज ये करती हूँ अभिलाषा
नई उमंग …नई हो आशा
प्रेम प्यार हो सबकी भाषा
नई पीढी का मान करें हम
पर सीख पुरानी कभी ना भूलें।
बुजुर्गोँ के आशीर्वाद के संग हम
संस्कारों के दीप जलाएँ,
इक नई दिवाली आज मनायें…
इक नई दिवाली आज मनायें…
प्रयास
है कौन जो तुझको रोक सके
कोई न कभी भी टोक सके
तू चलता जा अपनी धुन में
तू गुम हो जा अपनी लय में
मन के साहस के आगे तो
हर बाधा शीश नवाती है
हो प्रयासों में सच्चाई तो
सफलता ख़ुद तुझको चुनने आती है
तू सुन सबकी पर कर मन की
तू तय कर ले बस मंज़िल अपनी
रास्ते आड़े टेढ़े हों
या झंझवातों के रेले हों
तू परवाह न कर अब इन सब की
बस राह पकड़ मन के सम्बल की
कुछ पल ऐसे भी आएंगे
जो मुश्किल तेरी बढ़ा जाएंगे
कठिनाई के उलझे-उलझे धागे
राह से तुझको भटकाएँगे
ऐसे में संयम और अडिग प्रण तेरा
सौ दिए बन रहा दिखाएंगे
जो ठान ले जब कुछ करने की
फिर डर कैसा उलझन कैसी
मन की ताकत के आगे तो
तो तूफान भी आके रुकते हैं
कोशिश की ऊँचाई के आगे
पर्वत भी झुक जाया करते हैं
उस नाविक को तू देख कभी
जो एक छोटी-सी नैया लेकर
लहरों से खेला करता है
सागर के भीषण गर्जन से
उसका मन बोलो कब डरता है
अपने साहस के बल पर ही तो
हर बार वह पार उतरता है
कोई तुझको डिगा सके न पथ से
कोई गिरा सके न विजय रथ से
हो पगडंडी धूल भरी पथरीली
या कांटे हों …ना हों कलियाँ खिली
तेरी नज़र झुके न जो एक पल भी
मिल जाएगी फिर मंज़िल भी…
मिल जाएगी फिर मंज़िल भी…
रेशम की डोर
नाज़ुक-सी स्नेह की
प्यार और नेह की
ये रेशम की डोर
आस और विश्वास की
जीवन भर के साथ की
ये रेशम की डोर
अपनापन और अधिकार की
मान और मनुहार की
ये रेशम की डोर
बहन के सम्मान की
भाई के मान गुमान की
ये रेशम की डोर
यादों की बारात सी
खुशियों के सौगात सी
ये रेशम की डोर
मज़बूत है जंज़ीर सी
मुश्किल में बनती ढाल सी
ये रेशम की डोर
रिश्तों को हैं थामे
ये कच्चे से धागे,
तोड़े से टूटे नहीं
साथ कभी छूटे नहीं,
कहती है हमसे यही
ये रेशम की डोर…
ये रेशम की डोर…
संघर्ष
सीप मिल जाते हैं किनारों पे
मोती मिलता है गहरे पानी में
जीवन सागर के मोती चुननें
खारे पानी में उतरना होगा
तपती मरुभूमि में भटके बिना
पानी के सोते कहाँ मिल पाते हैं
ठंडी छाँव में रुकनें से पहले
अंगारों पर चलना होगा
इस जग की रीत निराली है
फूलों संग काँटों भरी फुलवारी है
फूलों के हार पहनने से पहले
काँटों से भी उलझना होगा
संयम का दीपक ग़र जलता रहे
अंधेरे सारे मिट जाते हैं
शीतल चाँदनी में सोने से पहले
संघर्षों की ज्वाला में जलना होगा
प्रयत्न किये बिना कुछ मिलता नही
सफलता मिलती नहीं आसानी से
कुंदन-सा दमकने से पहले
सोने-सा हमको तपना होगा
विघ्न बाधाओं से ठोकर खाकर ही
मंज़िल के निशाँ मिल पाते हैं
धूल धूसरित पथरीले पथ पर
गिर गिर कर फिर संभलना होगा…
गिर गिर कर फिर संभलना होगा…
नारी
ना पूछ मुझसे
क्या हो कौन हो तुम?
प्रकृती का अनुपम वरदान हो तुम।
संतप्त हृदय को भावों से जो भर दे
ऐसा मधुर मदिर एक राग हो तुम।
इन्द्रधनुष के रंगो से सजी
फूलों का संदली पराग हो तुम।
मन के तारों से निकलने वाली
वीणा की मधुर एक तान हो तुम।
इन आवाजों के शोर में भी
सुकून भरा एक गान हो तुम।
कभी अबला, कभी असहाए हो तुम
कभी शक्ति की प्रचंड ज्वाल हो तुम।
कभी दीप शिखा-सी कम्पित हो
कभी प्रज्वलित अग्नि की मशाल हो तुम।
अबोध बालिका हो तुम कभी
तो कभी बहन के रूप में
घर घर की लाज हो तुम।
कभी बनती सखी सहेली तुम
कभी बचपन की अठखेली तुम।
कभी सुन्दरी सहचरी-सी कोमल काया
कभी पार ना हो ऐसी माया।
कभी माँ की ममता से भरी हुई
सागर-सी गहरी विशाल हो तुम।
कभी हो राधा, कभी रुक्मिणी
कभी मीरा हो तो कभी पदमिनी।
जाने कौन-सी हो संजीवनी
मन पर कर लेती अधिकार हो तुम
हर युग का है आरम्भ तुमसे
जीवन का आदी अनंत तुमसे।
चंचल, चपला, कामिनी, दामिनी
लाजवंती क्ष्माशील जन्मदायनी।
हर उपमा तुम में है समाहित
फिर भी तुम हो अपरिभाषित।
अपना तन मन अर्पण करने वाली
वन्दनीय एक नार हो तुम…
वन्दनीय एक नार हो तुम…
किसान
तपती झुलसाती गरमी में
जब तन किसान का जलता है
तब जाकर धरती का सीना चीर
एक बीज प्रस्फुटित होता है
सींच पसीने से धरती को
जब तन मन की सुध बुध खोता है
तब मिटती है क्षुधा विश्व की
नव जीवन का अंकुर खिलता है
कड़कती बिजली और बारिश में किसान
जब जब हल को उठाकर चलता है
तब तब भरती हैं खलिहानें
तब जाकर कहीं निवाला बनता है
खुद डूबा रहता कर्ज़ों में
पेट हम सबका भरता है
टपकती है टूटी झोपड़ी की छत उसकी
छप्पन भोग का थाल हमारा सजता है
जो हम सबकी भूख मिटाता है
खुद दानें-दानें को तरसता है
शायदअगले साल बदलें हालात मेरे
हर साल यही सोच कर कटता है
है हम सबका अन्नदाता यही
फिर इसके घर चूल्हा क्यो नहीं जलता है
क्यो भूखे सोते हैं बच्चे
दिन फटेहाली में क्यों गुज़रता है
जब लहराती हैं फसलें खेतों में
देख झूम ख़ुशी से उठता है
अब होंगे पूरे अरमान सभी
सपने लाख संजोता है
इस बार ले दूँगा माँ को नई साड़ी
बच्चे न खेल खिलौनों को तरसेंगे
लेकिन कभी बाढ़ कभी सूखे के कारण
सारे सपनों पर पानी फिरता है
जीवन जब बन जाये अभिशाप ग़रीबी से
हाहाकार-सा दिल में उठता है
किस से कहे व्यथा अपनी
यहाँ कौन किसकी सुनता है…
यहाँ कौन किसकी सुनता है…
रीना सिन्हा
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