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वतन के दीवानें (country lovers)
वतन के दीवानें (country lovers) : भारत़ माँ के लाल़ वह कुछ़ मतवाले थे,
वतऩ पऱ हुए कुर्बाऩ वह वतऩ के दीवानें थे,
देश पऱ न्यौछावर कऱ दी उम्र तमाम़,
वतऩ पऱ मिट गये ऐसे वह मस्तानें थे,
भारत़ माँ के लाल़ वह कुछ़ मतवाले थे,
ना फ़िक्र थी उन्हें अपनी जाऩ की,
हँसते-हँसते चूम़ गये वह फांसी का फन्दा,
ऐसे वीर सपूत माँ भारती ने पाले थे,
भारत़ माँ के लाल़ वह कुछ़ मतवाले थे,
सीनों में कैद़ उनके आजाद़ी का सपना था,
वतऩ पऱ मिटने वाला हऱ कोईं उनका अपना था,
आज़ भी है रोशऩ जहाऩ उनसे, ऐसे वह उजाले थे,
भारत़ माँ के लाल़ वह कुछ़ मतवाले थे,
हिंसा अहिंसा दोनों ही उनके थे हथ़ियाऱ,
कहीं चलाईं बन्दूक़ तो असेम्बली में बम़ से भी किया ना कोईं वाऱ,
क्रान्ति के नायकों ने सीनों में तूफाँ पाले थे,
भारत़ माँ के लाल़ वह कुछ़ मतवाले थे,
सहकऱ घनघोऱ यात्नाएँ भी कारावास़ की,
वो अपनें पथ़ से डिगे नहीं,
देते रहे यही दुआएँ दिऩ-रात वतऩ को,
हम़ रहे ना रहे माऩ तेरा कभी घटे नहीं,
वतऩ पऱ हुए कुर्बाऩ वह वतऩ के दीवानें थे,
भारत़ माँ के लाल़ वह कुछ़ मतवाले थे,
उनको याद़ सद़ा तुम़ रखना यही सन्देश़ मैं कहता हूँ,
वतऩ के रहना, वतऩ की करना यही शिक्षा मैं देता हूँ,
सीखों वतऩ परस्त़ी का सबक़ इनसे तुम़,
देशप्रेम़ के ये सबसे बड़े विद्यालय़ हैं,
भारत़ माँ के लाल़ वह आज़ भी मतवाले हैं,
वो ज़िंदा है आज़ भी हऱ उस़ दिल़ में, जिसे वतऩ से प्याऱ है,
वर्दी ना हो जिस्म़ पऱ तो क्या, वतऩ पऱ मिटने को तैयार है,
मिट़ गये वह इस़ धरती पऱ ऐसे वह चाहने वाले थे,
भारत़ माँ के लाल़ वह कुछ़ मतवाले थे…भारत़ माँ के लाल़ वह कुछ़ मतवाले थे॥
नयी आशाओं का नया साल़
समय़ का पहिया कितनी तेजी से घूम गया;
एक वर्ष कैलेंडर से और बीत गया,
कल नया सवेरा रोशन होगा, नयी उम्मीदें लायेगा,
नयी आशाओं का सूरज नभ़ में जगमगायेगा,
कोरोना का संकट भी होगा जऱा संभल कर रहना तुम़,
भीड़-भाड़ से बचना और मास्क लगा कर रहना तुम,
नियमों की अनदेखी ना करना ये साल़ नया वाला है,
ओमीक्रॉन के खतरें ने जीवन में फिऱ से खलल़ डाला है,
सुना है कुर्सी की भी फिऱ से जंग़ होने वाली है,
मत का करना उपयोग सही तेरे हाथों में सत्ता की बाज़ी है,
अंदाजा तो है यही मंहगाई भी हो जायेगी कुछ कम़,
आम़ जनता का निकाल डाला इस साल़ इसने दम़,
प्रार्थना करना यही देश़ से अराजकता, भ्रष्टाचार, अत्याचारों का नाश़ हो,
मानवता, सद्कर्मों, अच्छे गुणों का जग़ में प्रकाश हो,
सभी के हृदय से ये धर्मं, जाति के फसाद़ मिट जाये,
फिऱ से ना राष्ट्र ध्वज का कहीं भी अपमाऩ हो,
ऐसी विकल ना बनें स्थिती जिसमें अन्नदाता उतरे सड़कों पऱ,
सड़कों पऱ दिन निकले उनका, सड़कों पर ही शाम़ हो,
मिलें नारी को सम्मान सर्वत्र जग़ में,
कोई ना किसी दुष्कर्मं की शिकार हो,
अन्यायी, दुराचारी का अंत हो अति शीघ्र ही,
देऱ से ना किसी के साथ़ अब़ यहाँ इंसाफ हो,
बस़ चंद घण्टों की है बात़ नया सूरज उगने वाला है,
समय़ बदले ना बदले तेरा ये साल बदलने वाला है,
तुम
फैलते हुए अंधकार में एक रोशनी हो तुम,
अमावस को दूर करे पूर्णिमा की चाँदनी हो तुम,
उजड़ते गुलशन को महकाये ऐसी बहार हो तुम,
मेरा दिल जिसको पूजता है वह मेरा प्यार हो तुम…
दूर करे जो हर ग़म को ऐसी प्रेम फुहार हो तुम,
बंजर धरती को जो जगाये ऐसी बरसात हो तुम,
रूह़ को जो दे सुकून ऐसा प्रकाश हो तुम,
मेरा दिल जिसको पूजता है वह मेरा प्यार हो तुम…
प्रेम, त्याग, अपनत्व, समर्पण की एक मिसाल हो तुम,
छल, कपट, द्वेष से दूर परमेश्वर का एक आकार हो तुम,
सबको जो दिल से अपनाएँ एक ऐसा संसार हो तुम,
मेरा दिल जिसको पूजता है वह मेरा प्यार हो तुम…
मन में जो बस जाये एक ऐसी मधुर तान हो तुम,
मेरा जो सम्मान बढ़ाये ऐसी मेरी शान हो तुम,
दिल पर गऱ रख दो हाथ मरहम़ लगे ऐसी मेरी जाऩ हो तुम,
मेरा दिल जिसको पूजता है वह मेरा प्यार हो तुम…वो मेरा प्यार हो तुम…
फरियाद
जानें क्यों आज ऐसा लग रहा है,
सब कुछ ही जैसे हाथों से छूट रहा है,
टूट रहा हूँ मैं तिनका-तिनका-सा पल पल,
दिल दिमाग़ में मची हुयी है हलचल,
लग रहा है भीतर ही भीतर मुझे कोई लूट रहा है,
ओ मुझसे खफ़ा होकर मुहँ मोड़ने वाले,
पलट कर देख दीवाना तेरा टूट रहा है,
क्या मैं इतना ही बुरा हूँ बता दें,
जो अब तू भी मुझसे रूठ रहा है,
यूँ बीच मझधार ना छोड़ मेरे जीवन की डोर को,
एक तेरे अलावा हर कोई मुझे लूट रहा है,
तू भूल गया क्या मुझे आदत़ नहीं है तेरे बिन रहने की,
फिर तू क्यों मुझसे छूट रहा है,
मेरी खुशियाँ मेरी हंसी सब तुझसे ही तो है,
देख बिन तेरे ये दम भी घुट रहा है,
यूँ मत जा छोड़कर मेरी ज़िन्दगी के मसीहा,
तू नहीं तो खंडहर-सा तेरा “राज” टूट रहा है,
जानें क्यों आज ऐसा लग रहा है, सब कुछ ही जैसे हाथों से छूट रहा है…!
मेरी बहन
हम दो भाईंयों से पहले वह धरती पर आयी थी,
सुना यही है मैंने वह खुशियाँ बहुत-सी लायी थी…
घऱ में सभी की वह लाडली थी,
बड़े नाज़-ओ-प्याऱ में वह पली थी…
कहते हैं हमसे पहले सारे घऱ में वह चहका करती थी,
उस़ कच्चे घऱ की मिट्टी उसके कदमों से महका करती थी…
हमारें आनें के बाद़ वह बड़ी कही जानें लगी,
गोद़ में अपनी बैठाकऱ वह हमको खिलाने लगी…
तुतलाती जुबाऩ में वह जानें क्या-क्या गीत सुनाती थी,
गोद़ में बैठाकऱ मम्मी-पापा बोलना हमें सिखाती थी…
त्यौहार आता था राखी का, परी बन वह आती थी,
बाँधती थी राखी बहुत ही प्यार से, माथे तिलक लगाती थी…
अबकी जब़ राखी आयी, इन अंखियो ने ढूँढ़ा बहुत उसको,
त्यौहार के दिन वह कहीं भी तो नज़र नहीं आयी…
दृश्य़ वह भयानक़ एक़ क्षण भी ओझल नहीं हो पाता है,
जब़ दम़ तोड़ रही थी वह मेरी बाजुओं में, समय वह अब़ भी याद़ आता है…
हमसे पहले आयी थी वह पहले ही चली गयी,
कुछ़ भी कहा नहीं, खामोशी के पल़ जीवन में छोड़ गयी…
हम दो भाईंयों से पहले वह धरती पर आयी थी,
सुना यही है मैंने वह खुशियाँ बहुत-सी लायी थी…
प्रेम धागा
मोती से कीमती, सोने-चाँदी से महँगा है,
राखी नहीं बहन ने प्रेम धागा बाँधा है…
धागा है विश्वास का, दुआओं की इक-इक डोर है,
राखी ये बहन के प्यार से सराबोर है…
धागा यह कमजोर नहीं प्रेम का मज़बूत बंधन है,
रिश्ता भाई-बहन का सबसे प्यारा सम्बंध है…
हर डोर है प्यार से बुनी हुयी, मोती दुआओं के लगाये हैं,
सलामत़ रहे भईया प्यारा, गीत बहनों ने गाये हैं…
इस धागे की ख़्वाहिश इतनी संग सदा ही रहना,
सुःख हो या दुःख रहे बहन को कभी ना नहीं कहना…
धागा है यह इतना सच्चा, जितने अम्बर धरती,
बड़ी हो बहन माँ मिले, छोटी हो तो बेटी-सा प्रेम है करती…
धागा यह अनमोल है, इसका वचन निभाना,
स्वयं रहना जिस हाल में, भाई का फ़र्ज़ निभाना…
धागा बाँध बहन यही कहती, सदा यूँ ही ये प्यार रहे,
सलामत़ रहे भाई मेरा, खुशहाल़ तेरा घर द्वार रहे…
मोती से कीमती, सोने-चाँदी से महँगा है,
राखी नहीं बहन ने प्रेम धागा बाँधा है…
साल २०-२० (खेल ज़िन्दगी का)
एक साल़ गया, एक साल़ आया है,
साथ़ अपनें चुनौतियाँ बेमिसाल़ लाया है…
सरदी का सितम़ भी इस बाऱ कुछ ज्याद़ा रहा,
सबनें इसको को भी हँसकर सहा,
बर्फ़बारी ने भी कह़र गजब़ का ढाया है,
साथ़ अपनें चुनौतियाँ बेमिसाल़ लाया है…
देखा हमनें भी पहली बाऱ ऐसा मंजऱ,
इंसान कैद़ हुआ घऱ के पिंजरें के अन्दर,
कोरोना रूपी मौत का बादल़ सारें जहाँ पर मंडराया है,
साथ़ अपनें चुनौतियाँ बेमिसाल़ लाया है…
धरती भी लगाताऱ धुरी से डगमगा रही है,
भयानक़ एक आपदा का संदेश दिये जा रही है,
देश साऱा धरती के इस हिलने डुलने से भी थर्राया है,
साथ़ अपनें चुनौतियाँ बेमिसाल़ लाया है…
सीमाओं पर भी फैल़ रहा संकट का काल,
पाक़, चीन और नेपाल डाल रहा कब्ज़े का जाल़,
सीमा पर जवान जाँ अपनीं गवाये जा रहा है,
साथ़ अपनें चुनौतियाँ बेमिसाल़ लाया है…
इंसान-इंसान से भाग़ रहा है,
कोरोना का ये काल़ हर दिल़ में जाग़ रहा है,
डऱ रहा है मानव अपनी ही जाति में जानें से,
इस कोरोना ने हाल सबका बेहाल किया है,
साथ़ अपनें चुनौतियाँ बेमिसाल़ लाया है…
एक साल़ गया, एक साल़ आया है,
साथ़ अपनें चुनौतियाँ बेमिसाल़ लाया है…
सूनी कलाई
कैसे बुलाऊँ तुझे ए बहन मेरी,
ना दुआ, ना आवाज़ तुझ तक़ जायेगी,
दिल़ ही दिल़ में तड़पता रहूँगा,
तेरीे राखी के बिना ये सूनी कलाई रह जायेगी,
समय के क्रूर चक्र ने ऐसा चक्र चलाया है,
घऱ के हऱ सदस्य को तुमने बहुत रूलाया है,
याद़ तेरी हम़ सबको ही बड़ा तड़पायेगी,
तेरी राखी के बिना ये सूनी कलाई रह जायेगी…
कभी कहाँ सोचा था तू यूँ साथ़ हमारा छोड़गी,
मुझे गोद में खिलाने वाली मेरे हाथों में दम़ तोडे़गी,
भाई-बहन का दिन है तू याद़ बहुत ही आयेगी,
तेरी राखी के बिना ये सूनी कलाई रह जायेगी…
माँ के जानें का दुःख कम नहीं था मेरे हृदय में,
मरते दम़ तक़ कहाँ भूल़ पाऊँगा मैं तुम्हें,
तेरे बिना कहाँ अब़ राखी ये रास आयेगी,
तेरी राखी के बिना ये सूनी कलाई रह जायेगी…
माना हम़ एक-दूसरे से लड़ते बहुत थे,
हऱ त्यौहार एक़ दूसरे का इंतज़ार करते बहुत थे,
तेरे इंतज़ार की घडियाँ अब़ कहाँ ख़त्म हों पायेगीं,
तेरी राखी के बिना ये सूनी कलाई रह जायेगी…
पत्थर समझता था खुद़ को मैं, अब़ पत्थर कहाँ रहा,
सख्त़ जितना भी था दिल़ मेरा तेरे साथ़ ही जाता रहा,
अबकी तो लगता है पत्थर की भी रूलाई आयेगी
तेरी राखी के बिना ये सूनी कलाई रह जायेगी…
तू क्या जानें कैसे संभालूगाँ खुद़ को मैं,
घरवालों को कैसे मैं मनाऊगाँ,
सामनें सबके कुछ नहीं कह सकूगाँ,
अपनें दिल़ को कैसे मैं समझाऊगाँ,
सब्र के इम्तिहान की घड़ी त्यौहार के दिन आयेगी,
तेरी राखी के बिना ये सूनी कलाई रह जायेगी…
कैसे बुलाऊँ तुझे ए बहन मेरी,
ना दुआ, ना आवाज़ तुझ तक़ जायेगी,
दिल़ ही दिल़ में तड़पता रहूँगा,
तेरीे राखी के बिना ये सूनी कलाई रह जायेगी…!
आया सावन झूम के
रिमझिम-रिमझिम मेघों ने प्रेम अनोखा बरसाया है,
भक्ति रस में डूबा झूम कर सावन आया है…,
सावन का यह माह भक्ति रस से पवित्र पावन सराबोर है,
घर-मंदिर में मनाएँ महादेव को नीलकंठ इस बार भी दूर है
भीषण़ था प्रहार ग्रीष्म ऋतु का प्रत्येक प्राणी परेशान था,
नीचे थी तपती धरती, आग बरसाता ऊपर आसमान था…,
बरसा कर वर्षा जल गरमी को शांत कराया है,
प्रेम बरसाता हुआ झूम कर सावन आया है…,
धूल हटी अब पेड़ पौधें भी मुस्कुराने लगे है,
तरसते बूंदों को पंछी अब गुनगुनाने लगे है…,
नदियाँ, नहरें, झीलें, तरण-ताल सब हुयें जलमग्न हैं,
तोड़ सीमाएँ यें अब घरों में आनें लगे हैं…,
सावन के इस प्रेम से हर प्राणी घबराया है,
खुशी-गम साथ़ लिये झूम कर सावन आया है…,
कोई डूबा महादेव में, कोई बाढ़ में डूब गया,
किसी का गिरा मकान, कहीं कोई पुल टूट गया…,
पहाड़ सरके, सड़कें गङ्ढो में बदल गयी,
बादल फट रहें अनगिनत, ना जानें बिजलियाँ आसमाँ से कितनी गिर गयी…,
सरकारी वादों-दावों की पोल सारी खोल आया है,
सत्य दिखलाता सारा झूम कर सावन आया है…,
अब़ कहाँ वह झूले की मस्ती, गीत कहाँ अब़ गाये जाते हैं,
मेघ भी कहाँ अब़ पहले-सा जल बरसाते हैँ…,
अब़ कहाँ वह मस्त पवन चलती है,
अब़ कहाँ वह पहले से सावन आते हैं…,
बीतें कल़ के पिटारे से यादें अलबेली लाया है,
हृदय से स्वागत करें, झूम कर सावन आया है…
रिमझिम-रिमझिम मेघों ने प्रेम अनोखा बरसाया है,
भक्ति रस में डूबा झूम कर सावन आया है…,
श्रृद्धा सुमन
गुरू है ब्रह्मा, गुरु ही विष्णु, गुरु देव महेश्वर:।
गुरू: साक्षात् परं ब्रह्म तस्मैं श्री गुरवे नमः॥
प्रकटोत्सव है गुरूवरं आपका, बारम्बार शीश झुकाता हूँ…
श्रृद्धा सुमन शब्दों के प्रभु चरणों में मैं चढ़ाता हूँ…
सृष्टिकर्ता आदि कवि, ब्रह्म ज्ञानी प्रभु आप है…
अंधकारमयी इस जीवन डगर का प्रकाश पुजं आप है।……
हृदय से है नमन् आपको हे गुरूवरं बारम्बार शीश झुकाता हूँ,
श्रृद्धा सुमन शब्दों के प्रभु चरणों में मैं चढ़ाता हूँ…
रामायण ग्रन्थ दिया आपने, जीवन का एक सार दिया…
देकर ज्ञान मानवता का, प्राणी जगत का उद्धार किया…
जीवन का यह सार नित् मैं भी अपनाता हूँ…
श्रृद्धा सुमन शब्दों के प्रभु चरणों में मैं चढ़ाता हूँ…,
माँ सीता को देकर आश्रय पिता तुल्य कहलाये…
लव-कुश दो बालक जन्में रघुकुल वंश प्रभु आप बचाये…
हे गुरूवरं गुणगान आपका मैं नित् शाम सवेरे गाता हूँ…
श्रृद्धा सुमन शब्दों के प्रभु चरणों में मैं चढ़ाता हूँ…,
लव-कुश दो भ्राता प्यारे, शस्त्रं शास्त्रं का ज्ञान दिया…
रामायण का सार सारा, कंठस्थ हृदय में उतार दिया…
सुनकर वह़ सार मैं आनंद विभोर हो जाता हूँ…
श्रृद्धा सुमन शब्दों के प्रभु चरणों में मैं चढ़ाता हूँ…,
माला रूपी आपकी इस दुनियाँ का, नन्हा-सा मैं एक़ मनका हूँ…
आस्था विश्वास का एक दीप रोज़ जलाता हूँ…
श्रृद्धा सुमन शब्दों के प्रभु चरणों में मैं चढ़ाता हूँ…,
प्रकटोत्सव है गुरूवरं आपका, बारम्बार शीश झुकाता हूँ…
श्रृद्धा सुमन शब्दों के प्रभु चरणों में मैं चढ़ाता हूँ…,॥
माँ तेरा सहारा
जीवन में झंझावातों ने जब़-जब़ मुझे सताया है,
माँ तूने हाथ़ थाम कर हऱ पल मुझे बचाया है,
ये तेरी रहमतें बरसीं है मुझ पर सदा ही,
माँ होनें का हर फ़र्ज मुझसे निभाया है;
भटका जब भी मैं राहों से अपनी,
साथ़ी रहा ना साथ़ कोई,
तुमने हाथ़ बढ़ाया है…,
सत्य का दिखा कर आईना,
हऱ मुश्किल से बचाया है,
माँ मुझको है बस़ तेरा सहारा,
बस़ तुमने साथ़ निभाया है;
ना झुका ना झुकने की आद़त है मेरी,
बस़ तुमको ही शीश झुक़ाता हूँ,
मऩ में उमड़ते हैं तूफ़ान बहुत,
सब़ तुमसे ही कह जाता हूँ,
मेरी सारी बातें सह कर भी,
प्यार तुमने पल-पल बरसाया है,
मुझको है बस़ तेरा सहारा
माँ तुमने ही साथ़ निभाया है;
जब़ भी पुकारूँ शक्ति रूप तुम लेकर आ जाती हो,
करती हो रक्षा मेरी, हिम्मत़ बढ़ा कर जाती हो,
तुम्हारे नाम का जाप हृदय से सद़ा लगाया है,
माँ मुझको है बस तेरा सहारा,
बस़ तुमने साथ़ निभाया है;
मंत्र पढ़ो चाहे जयकारे लगाओं,
कुछ़ नहीं हो पाता है,
बस़ सच्चे मऩ से सतकर्म करो,
वो ही माँ को ख़ुश कर जाता है,
प्रेम, सत्य, सतकर्मों की राह चुनों,
वही माँ को भाया है,
माँ मुझको है बस़ तेरा सहारा,
बस़ तुमने साथ़ निभाया है;
जीवन में झंझावातों ने जब़-जब़ मुझे सताया है,
माँ तूने हाथ़ थाम कर हऱ पल मुझे बचाया है,
ये तेरी रहमतें बरसीं है मुझ पर सदा ही,
माँ होनें का हर फ़र्ज मुझसे निभाया है;
जीवन में झंझावातों ने जब़-जब़ मुझे सताया है…
माँ तूने हाथ़ थाम कर हऱ पल मुझे बचाया है…
रावण जलाना छोड़ दें
सदियों की ये प्रथा पुरानी, आओं चलों अब तोड़ दें,
बदलें ये मानसिकता इसको नया एक मोड़ दे,
रावण हो गये अब़ देश में बहुत,
लंका वाले को जलाना छोड़ दें
हरण कर सीता माँ का, सजा उसने पाई थी,
एक बुरी नज़र डाली, कुल वंश नाश हुआ,
सोने की लंका भी जलवाई थी,
अत्याचारी अब हैं ज्याद़ा समाज में,
क्या उनको यूँ ही समाज में छोड़ दें,
इतना ही बस मैं कहता हूँ,
लंका वाले को जलाना छोड़ दें;
लूट रही है नारी यहाँ, बच्चियाँ भी महफूज़ नहीं,
इज्ज़त क्या देगें वों, जिनके दिलों में रहम़ नहीं,
क्यों ना समाज भी इन पर रहम़ करना छोड़ दे,
बस इतनी-सी इल्तज़ा मेरी,
लंका वाले को जलाना छोड़ दें;
अस्मतों के सौदागर, अस्मतों से खेल रहें हैं,
बागों की नन्हीं कलियों को, काँटों वाले हाथों से तोड़ रहे हैं,
विषैलें इन पौधों को समाज से उखाड़ कर फेंक दें,
मन यही कहता है मेरा,
अब लंका वाले को जलाना छोड़ दें;
नारी सम्मान बचाने को सभी को प्रयास लगाने होगें,
एकजुट होकर समाज से यें रावण अब मिटाने होगें,
लचर पड़ गयी है व्यवस्थाएँ सारी,
नारी सम्मान में समाज को भी हाथ बढ़ाने होंगें,
अब नारी के लिए सबसे डरना छोड़ दें,
मेरा है मत यही रावण बहुत हो गये हैं घर में अपने,
लंका वाले को जलाना छोड़ दें,
सदियों की ये प्रथा पुरानी, आओं चलों अब तोड़ दें,
बदलें ये मानसिकता इसको नया एक मोड़ दें,
रावण हो गये अब़ देश में बहुत,
लंका वाले को जलाना छोड़ दें
गुरू वंदन
गुरू ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु नमोः साकार है;
जो ज्ञान पाया है आपसे, आपका उपकार है;
क्या महिमा गाऊँ मैं आपकी, लीला अपरम्पार है;
मैं तो था एक नन्हा बीज, आप मेरा आधार है;
गुरू ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु नमोः साकार है…
उंगली थाम कर बचपन से, सही राह चलना सिखाया;
जीना कैसे है, जीवन क्या है, ये ज्ञान बतलाया;
आशीर्वाद सदा ही रखना मुझ पर;
आपके बिना ये जीवन निराधार है;
गुरू ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु नमो: साकार है…
कितना भी गुणगान करूं मैं, शब्द कम पड़ जायेंगें;
ऋणी रहूगाँ सदैव आपका, सिक्के हो ना पायेंगें;
सारी दौलत से दुनियाँ की, ज्ञान आपका साकार है;
श्रृद्धा सुमन मेरे प्रेम के, अर्पित चरणों में बारम्बार है;
गुरू ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु नमोः साकार है;
जो ज्ञान पाया है आपसे, आपका उपकार है;
गुरू ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु नमोः साकार है…
मज़बूर-सी
मज़बूर-सी सड़कों पर जिन्दगानी दिखी है,
नम़ आँखों में लिपटें दर्दं की कहानी मिली है…
वों बेबस़ लाचाऱ से चल़ दियें है,
हालातों से ज्याद़ा घाव़ अपनों ने दियें हैं,
अमीरी हुईं अमीऱ जिनके दम़ से,
उनकी इस़ सफ़र में बदहाली दिखी है,
मज़बूर-सी सड़कों पर जिंदगानी दिखी है…
वों चल़ रहें हैं निरंतर बेपरवाह़ से,
फिक्र है बस़ इतनी दूऱ चलें अब़ इस़ जहाँ से,
पहुँच जाये घऱ तक़ हऱ जतन करके,
जिंदगी औऱ मौत़ में एक स्पर्धा दिखी है,
मज़बूर-सी सड़कों पर जिन्दगानी दिखी है…
व्यवस्था, अव्यवस्था के बीच़ झूल़ रहे हैं,
जीवन संघर्ष में बार्डर के आर-पार घूम रहे हैं,
दिऩ हैं उनके फीकें रातें काली दिखी हैं,
मज़बूर-सी सड़कों पर जिन्दगानी दिखी है…
देश लगता है पराया, देशवासी प्रवासी हो गये,
जीवन की इस दौड़ में, कितने तो स्वर्गवासी हो गये,
मरहम़ लगेगा या नहीं कौन बेचारा जानें,
सभी के जीवन पर “कोरोना” की छाप़ ये भारी लगी है,
मज़बूर-सी सड़कों पर जिन्दगानी दिखी है…
मज़बूर-सी सड़कों पर जिन्दगानी दिखी है,
नम़ आँखों में लिपटें दर्दं की कहानी मिली है…
वरुण राज ढलौत्रा
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