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भारत के मजदूरों की दशा (condition of workers of india)
मित्रों… हमारे देश के बारे में कहा जाता है कि भारत मजदूरों का देश है… भारत के मजदूरों की दशा (condition of workers of india) का वर्णन करता यह आलेख मदन मोहन शर्मा ‘सजल’ जी द्वारा लिखित है… आइये जानते हैं कि उन्होंने भारत के मजदूरों की दशा का वर्णन अपनी कलम से किस प्रकार किया है…
एक दौर था जब मानव प्रकृति का था और प्रकृति मानव की। न कोई शोषक न कोई शोषित। कालचक्र के साथ परिस्थितियों में बदलाव आना शुरू हुआ। मनुष्य जहाँ प्रकृति के वश में था अब वह प्रकृति के साथ संघर्ष में उतारू हो गया। निजी संपत्ति का मालिक बनने, पूंजी व उत्पाद को जमा करना उसकी नियति बनती गई। निजी संपत्ति ने मज़दूर वर्ग को जन्म दिया और यहीं से शुरू हुआ शोषण का अंतहीन दौर। इसी शोषण प्रक्रिया ने दास प्रथा को जन्म दिया। कमजोर वर्ग बलशाली शासक के अत्याचारों का न सिर्फ़ निशाना बना बल्कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुलामी करने के लिए भी उसे लाचार बना दिया गया।
१९वी सदी में कल कारखानों के आविष्कार और उत्पादन प्रक्रिया को बल मिला। मालिकों द्वारा कारखानों में मजदूरों से १६ से १८ घंटे काम करवाया जाता था और बदले में मजदूरों के श्रम का नाम मात्र पारिश्रमिक दिया जाता था ताकि वे ज़िंदा रह सके। शोषण की इस चक्की में दिन-रात मज़दूर पिसने लगा और एक दिन मालिकों के इन अत्याचारों व शोषण के खिलाफ पहली बार अमेरिका के शिकागो शहर में मज़दूर संघ का निर्माण हुआ। जिसके अंतर्गत मजदूरों द्वारा काम के ८ घंटे तय करने का अल्टीमेटम कारख़ाना मालिक को दिया गया।
मांगे नहीं मानने की एवज में मजदूरों ने, शिकागो के हे मार्केट चौक में एक बड़ी सभा का आयोजन किया, जहाँ मालिक के इशारे पर पुलिस द्वारा, शान्तिपूर्ण सभा पर, गोलियाँ बरसाई गई और इस आंदोलन में ६ मजदूरों को अपनी शहादत देनी पड़ी। १ मई १८८६ को मजदूरों ने अपने हक़ की लड़ाई शुरू की थी। एक माँ की गोदी में दुधमुहे मासूम की मौत हो गई। माँ ने खून से सनी अपने बेटे की कमीज को बड़े से बाँस में बाँध कर लाल झंडे के रूप में ऊँचा करके मजदूरौं का आह्वान किया कि-
अब संघर्ष जारी रखो-जीतने तक
स्वाभाविक है कि इस आंदोलन की चिंगारी दुनिया के दूसरे देशों में भी फैल गई और पेरिस के मजदूरों ने शिकागो शहर में शहीद हुए मजदूरों को श्रद्धांजलि दी। १९८९ में पेरिस में मजदूरों की बैठक में निर्णय लिया गया कि १ मई का दिन अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस के रूप में मनाया जाएगा। दुनिया के हर देशों में मजदूरों ने अपनी एकता के बल पर शोषक निजाम के खिलाफ जबरदस्त आंदोलन शुरू कर दिए। श्रम का वाजिब दाम और काम के ८ घंटे निश्चित करने की मांग ने पूरे विश्व को हिला दिया। “दुनिया के मजदूरों एक हो” नारे का जन्म १ मई १८८६ का शिकागो आंदोलन ही है।
इसी संदर्भ में भारत में पहली बार १ मई १९२३ को मद्रास में मजदूरों द्वारा मई दिवस मनाया गया। इस आंदोलन की शुरुआत “लेबर किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान” ने की। वर्तमान में भी पूरी दुनिया के पैमाने पर मजदूर, सभाओं के माध्यम से अपनी समस्याओं पर विचार विमर्श करते हैं, जुलूस निकालते हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन द्वारा भव्य आयोजन किए जाते हैं।
मजदूरों की एकता और संघर्ष के बल पर किए गए आंदोलनो ने सरकारों को झुकाने में कामयाबी हासिल की है। कानूनों में यह मान्यता दी गई कि प्रत्येक मज़दूर को बिना किसी भेदभाव के अपनी योग्यता व क्षमता के अनुसार अपनी श्रम शक्ति का उपयोग करने का पूर्ण अधिकार है। मज़दूर / श्रमिक को जाति, लिंग, नस्ल के आधार पर कार्य का चुनाव करने की पूर्ण आजादी है। श्रमिक को बंधुआ या गुलाम बनाकर काम करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।
दो वर्ग जिनमें एक पूंजीपति वर्ग है जिसका मकसद ज़्यादा से ज़्यादा श्रम का शोषण कर अपनी पूंजी का इज़ाफ़ा करना है, वहीं दूसरी ओर मज़दूर वर्ग जो मेहनत करने के बाद भी अभाव की ज़िन्दगी जीने पर मजबूर है। अमीरी ग़रीबी की खाई लगातार गहरी होती जा रही है और आज भी मज़दूर अपने हकों के लिए लगातार संघर्ष में हैं। खेतों और कारखानों में काम के दौरान जिन मजदूरों की मौत हो जाती है, उन्हें उचित मुआवजा भी नहीं दिया जाता है। हालांकि भारत सरकार द्वारा मजदूरों के हक़ हकूक को सुरक्षित रखने के लिए कुछ अधिनियम बनाए गए हैं जिनमें-
- कामगार मुआवजा अधिनियम १९२३
- औद्योगिक विवाद एक्ट १९४७
- न्यूनतम मजदूरी अधिनियम १९४८
- राज्य कर्मचारी बीमा अधिनियम १९४८
- बाल मजदूरी (उन्मूलन एवं नियम) अधिनियम १९४८
- मातृत्व लाभ अधिनियम १९६१
- बोनस अधिनियम १९६५
- बंधुआ मजदूरी प्रथा अधिनियम १९७६
- असंगठित कामगार सामाजिक सुरक्षा अधिनियम २००८
किसी भी देश की तरक्क़ी उस देश के मजदूरों, किसानों, कारीगरों पर निर्भर होती है. वर्तमान में भारत के मजदूरों की दशा में कोई ख़ास अंतर नहीं आया है। शोषण की प्रक्रिया जारी है। उदारीकरण की नीतियों ने मजदूरों के शोषण को और तेज कर दिया है। नई तकनीक ने बेरोजगारों की भीड़ खड़ी कर दी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा मजदूरों के श्रम का शोषण किया जा रहा है। पढ़े-लिखे छात्र डिग्री या डिप्लोमा लेकर इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों में १० से १२ घंटे काम करने पर मजबूर हो रहे हैं।
लड़ाई लंबी है पर लड़ना तो होगा ही। मालिक और मज़दूर के अंतर को पाटना होगा। तभी देश समृद्ध और खुशहाल हो सकता है। अगर किसी जगह पर मजदूरों के साथ अन्याय अत्याचार होता है तो इसे सार्वजनिक करना और अनीति के खिलाफ आवाज़ उठाना प्रत्येक ज़िम्मेदार नागरिक का फ़र्ज़ बनता है।
फागुन आया
प्रकृति ने हमें अनमोल उपहार के रूप में छः ऋतुएँ प्रदान की है। दुनियाँ में भारत देश ही एक ऐसा मात्र देश है जिसमें छः ऋतुएँ क्रमानुसार आती है और देशवासियों को खुशियों से भर देती है। इन ऋतुओं को बारह महीनों में विभाजित किया गया। जिनमें एक महीना है फागुन का महीना। फागुन का महीना महाशिवरात्रि एवं होली जैसे बड़े-बड़े त्योहारों की सौगात लेकर आता है। फागुन का महीना हिंदू पंचांग का अंतिम महीना होता है। यह महीना आनंद और उल्लास का महीना कहा जाता है।
सर्दी कम होने लगती है और गर्मी की शुरुआत होती है। इस महीने की पूर्णिमा को फाल्गुनी नक्षत्र होने के कारण इसका नाम फागुन रखा गया। इस महीने में बसंत ऋतु का प्रभाव चरम पर होता है इसलिए इस महीने में प्रेम और रिश्तो में सरसता आ जाती है। अति सुंदर सुहावना वह फूलों से भरा महीना सतरंगों से सजा होता है। इस महीने में होली का त्यौहार दीवानगी से भरा होता है क्योंकि न तो अधिक ठंड होती है न ही अधिक गर्मी। होली जो रंगों का पवित्र त्यौहार होता है उसकी रंगीनियत से पूरा शमा रंगों से भर जाता है। यह समय फसलों के पकने का महीना होता है। किसानों का घर धन-धान्य से भरने वाला यह फागुन मास आनंदमय माहौल पैदा करने वाला होता है जो मानवीय संवेदनाओं को उद्वेलित करता है।
आमों में बौर आने लगते हैं, पुष्प खिलने लगते हैं, शादी विवाह के उत्सव इसी माह से अपने चरम पर पहुँचते हैं, नई नवेली दुल्हन के मन में नई तरंगें उठने लगती है। यही नहीं, पिया परदेसी के घर आने का समय होता है। युवाओं में प्रेम की लहरें उठने लगती है। युवाओं को प्रेम तरंगों का नया जोश इसी माह में भरपूर मिलता है। अमराइयों में कोयल की कूक सुनाई देती है जो मन को प्रफुल्लित कर देती है।
मौसम बदलने के साथ कवियों के मन भी बदलने लगते हैं। स्वाभाविक है कि प्रकृति के नज़दीक कवि ही ज़्यादा रहते हैं और कवियों की क़लम प्रकृति का सुंदर गुणगान करने में पीछे कैसे रह सकती है?
कवि कैलाश जोशी लिखते हैं-
“फागुन आया खिल गए, टेसू और कनेर।
गदराया यौवन कहे,
प्रियतम मत कर देर॥”
अमीर खुसरो की क़लम इस तरह बयाँ करती है-
“खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग।
जीत गई तो पिया मोरे हारी पिया के संग॥”
कवि अनूप अशेष-
“कनुप्रिया की गोद में, कालिंदी तट धूप।
सरसों मलकर आयेगा, श्याम रंग में भूप॥”
जिस प्रकार वसंत को ऋतुराज कहा गया है उसी प्रकार साहित्य में फागुन को महीनों का राजा माना गया है। फागुन के आते ही प्रकृति में नव चेतना का संचार हो उठता है। गुलाब, जूही, चंपा, चमेली, कचनार और मल्लिका आदि मनोरम पुष्पों से धरती अत्यंत मनोरम हो उठती है। फागुन के आते ही ढोल, मंजीरा, झांझ और मृदंग के सम्मिलित स्वरों की ताल पर मधुर रागनियाँ गूंज उठती है। ऐसे में कवि भी संदेह में पड़ जाता है कि प्रकृति में नवचेतना भरने वाला यह कौन आ गया है? सावन और फागुन यह दोनों महीने प्रेमी प्रेमिका के लिए संयोगावस्था में जितने आल्हादकारी होते हैं वियोगावस्था में उतने ही दु: खदाई। साहित्य के अनेक पन्ने ऐसे दृश्यों से भरे पड़े हैं।
फागुन बीत गया पर श्री कृष्ण नहीं आए परंतु फागुन के प्रति राधिका जी की निष्ठा पूर्ववत बनी हुई रहती है। संभव है अगले फागुन में प्रियवर आ जाएँ, इसीलिए वह कहती है-
“फागुन फगुआ बीत गए ऊधो
हरि नहीं आए मोर।
अब के जो हरि मोर आइहे
रंग खेलब झकझोर॥”
उधर श्री कृष्ण का व्याकुल मन अपनी प्रियतमा राधा को सांत्वना देते हुए कहता है-
“मूंदे आँख तो मैं दिखूं, तोसौं कहाँ में दूर।
मैं ही सावन फागुनो, मैं ही ब्रज की धूर॥”
अंत में यह कहा जा सकता है कि फागुन के आने से प्रकृति व प्राणियों के जीवन में नवउल्लास आ जाता है। कवियों की कल्पनाओं को पंख लग जाते हैं और संयोग वियोग शृंगार से युक्त साहित्य का निर्माण हो जाता है जो सदैव मन को आनंदमय व प्रफुल्लित करता है।
मदन मोहन शर्मा ‘सजल’
पता-१२-G-१७, बॉम्बे योजना, आर० के० पुरम, कोटा (राजस्थान)
FAQ
कामगार मुआवजा अधिनियम कब आया?
कामगार मुआवजा अधिनियम १९२३ में आया
न्यूनतम मजदूरी अधिनियम कब बनाया गया?
न्यूनतम मजदूरी अधिनियम १९४८ में बनाया गया
बाल मजदूरी (उन्मूलन एवं नियम) अधिनियम कब पारित हुआ?
बाल मजदूरी (उन्मूलन एवं नियम) अधिनियम १९४८ में पारित हुआ
बंधुआ मजदूरी प्रथा अधिनियम कब बनाया गया?
बंधुआ मजदूरी प्रथा अधिनियम १९७६ में बनाया गया
मातृत्व लाभ अधिनियम कब पारित हुआ?
मातृत्व लाभ अधिनियम १९६१ में पारित हुआ
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