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पर सिकुड़ता गण-तंत्र (republic) है
गांधी के इस यंत्र पर,
छद्म का आगोश है।
गण लड़ता रहे तो क्या?
पर तंत्र के तो मौज है॥
छोड़ा पद सुभाष ने,
तब भी गण मौन था।
त्यागी कुर्सी पटेल ने,
तब तंत्र कौन था?
सर्द में ठिठुरता गण,
फटी कंबल से झांकता है।
मखमली चादर ओढ़े …
तंत्र वादों से सत्ता हांकता है।
धरने पर बैठा आज गण,
विचारों की डोर से जकड़ा है।
एक मदारी से सुन झुनझना,
तंत्र ने उसी का हाथ पकड़ा है।
इस परंपरा का आदी है गण,
दल-बदल ही सत्ता का मंत्र।
तुम वसुधैव कुटुंबकम मान लो,
पर सिकुड़ रहा है गण-तंत्र (republic)॥
भारत की वर्तमान बेटी
मैं सम्बंधों की अटल न्यासी हूँ,
माँ, बहन, भुआ और मासी हूँ।
मत तोलो वासना की तुला में,
सृष्टि के सर्जन की विश्वासी हूँ॥
मैं पिता का व्यवहार हूँ,
मैं माँ के ही संस्कार हूँ।
बन बहू संभालती हूँ घर,
लगता है मैं ही परिवार हूँ॥
जब अपना घर छोड़ती हूँ,
लगता समष्टि को जोड़ती हूँ।
नवजीवन के सपने संजोए,
हर के काम लिए दौड़ती हूँ॥
प्रियतम की मैं छाया हूँ,
संतानों की मैं काया हूँ।
सीढ़ी हूँ मैं हर पीढ़ी की,
मैं लक्ष्मी, मैं ही माया हूँ॥
मैं रामायण की वह सीता हूँ,
महाभारत में रची मैं गीता हूँ।
सुन लो देश के दुष्ट दुशासनों,
मैं किरणा हर मेंले की विजेता हूँ।
मैं तुम्हारे आंगन की कली हूँ,
भारत के संस्कारों में पली हूँ।
झाँसी के गौरव का स्मरण कर,
मैं महिषासुर मर्दन को चली हूँ॥
यह कविता अप्रकाशित एवं मौलिक है।
वीरमाराम पटेल
शोधार्थी, (हिंदी)
मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर
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