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दुआएँ (blessings) दें दुआएँ लें
दुआएँ (blessings) दें दुआएँ लें… नीरजा शर्मा जी द्वारा लिखा गया एक बेहतरीन संस्मरण है… नीरजा शर्मा जी चंडीगढ़ से हैं… लेखन में रूचि रखने वाली नीरजा शर्मा जी ने अब तक अनेक रचनाएँ लिखी हैं… दुआएं… जीवन में बेहद अहम् भूमिका अदा करती हैं… तो चलिए… पढ़ते हैं नीरजा शर्मा जी का यह आलेख…
बात आज से १० साल पुरानी है। मेरा पीजीआई मैं ट्रीटमेंट चल रहा था और मेरी बाइल डक्ट के अंदर स्टोन था। परिवार में मैं और मेरे पति और हमारे दो बच्चे। मुझे अकेले ही अपने ट्रीटमेंट के लिए जाना पड़ता था। जहाँ मैं चेकअप करवाने जाती थी ओपीडी में, वही एक दिन की बात मैं आपको बता रही हूँ। मेरे साथ में एक बूढ़ी अम्मा बैठी थीं। काफी बड़ी उम्र की लग रही थी मैं ६५ / ७० के आसपास की। जहाँ मैं बैठी वह भी साथ वाली चेयर परबैठी थीं। दोनों का नंबर काफ़ी पीछे था तो बैठे-बैठे वे मुझसे बात करने लगी। मेरा पूछा तो मैंने बताया एंडोस्कोपी के लिए आई हूँ, पहले भी आ चुकी हूँ दो बार।
उन्होंने फिर मुझे अपने बेटे के बारे में बताया। ज़्यादा शराब पीने के कारण उसकी हालत बहुत खराब हुई है। फिर बताने लगी कि उसके पति भी पीते थे और उनकी जल्दी मृत्यु हो गई थी। अब यही अकेला है और यह भी उसी राह पर चल पड़ा है। तो खैर जैसे-तैसे मेरा नंबर आया जो उनसे पीछे था। वह मुझसे पहले गई उनके बाद मेरा नंबर था मैं उसके बाद गई। जब मैं वापस निकली तो मैंने देखा कि वह वहीं बैठी हुई थी कॉरीडोर के अंदर। मुझसे रहा नहीं जा मैंने पूछा कि क्या बात है आप क्यों बैठी हो? बताइए तो? बुरी तरह से रो पड़ी, कहने लगी इतनी बड़ी दे दी पर्ची बनाकर। मुझे दवाइयाँ चाहिए मुझे पता भी नहीं मिलती कहाँ है? मैने कहा, मेरे पास गाड़ी हैमैं ले चलती हूँ। तैयार नहीं थी वें साथ जाने को। कहने लगी तू ख़ुद बीमार है। क्या करेंगी आप, मैं गाड़ी चला कर आ गई हूँ, कुछ और नहीं आपको दवाई दिलवा दूंगी।
दोनों गाड़ी से गए वहाँ जाकर उनकी दवाइयाँ खरीदी और पी जी आई की तरफ़ चल दिए। रास्ते भर उनकी हर एक लाइन के अंदर एक के बाद एक जो दुआएँ देती जा रही थी कि मैंने उनकी जो हेल्प की है और उनका एक ही वाक्य रहता था कि इस बस बार तेरा सब ठीक हो जाना है। बिल्कुल ठीक हो जाना तूँ। तेरा पत्थर निकल जाना इस बार। उनके ये शब्द अंदर से मुझे भी बड़ा सुकून मिल रहा था क्योंकि हर बार एंडोस्कोपी बड़ी पैनफुल होती थी। हर बार स्टोन को-को क्रश करके निकाला जाता था।
बात आई गई ख़त्म हो गई मुझे नेक्स्ट मंथ का टाइम मिला था, मैं दोबारा वहाँ गई तो डॉक्टर को जैसे दिखाया तो डॉक्टर बड़े खुश होते हुए बोले आज बड़ा अच्छे दिन है। आज फॉरेन से एक हमारे पास मशीन आई है जो क्रश भी करती और साथ के साथ उस को रिमूव करती जाती है। तो इस बार आपका सारा स्टोन एक ही बार में क्लियर कर सकते हैं। उनका इतना कहना था कि मेरी आंखें भर गई और मुझे अम्मा कि वह सारी बातें याद आनी शुरू हो गई जो कार में उन्होंने उन आधे घंटे के अंदर जो दुआओं में दी थी। मैंने तो शायद यह सोचकर काम नहीं किया था लेकिन माँ की दुआएँ हमेशा काम आती है और सच में कहो ना कि दुआएँ देना और लेना यह भी कुदरत से जुड़ा हुआ है। कर्म सत है तो फल अच्छा ही अच्छा होता है।
इंसान कभी यह सोच कर काम नहीं करता कि दुआएँ मिले, दुआएँ अपने आप आ जाती है। बस मन चंगा तो कटौती में गंगा। सब कुछ अच्छा ही अच्छा होता है और दुआएँ किसी की कभी भी व्यर्थ नहीं जाती है। जहाँ दवा काम नहीं करती दुआ काम कर जाती है। मैं जब अपने को तो मुझे यही लगता है कि तीन बार में जो इलाज़ पूरा न हुआ, जब उसे ठीक होना था तो बिना किसी परेशानी के मेरे ख़्याल से २० मिनट के डॉक्टर के प्रयासों से बिल्कुल ठीक हो गई थी। फिर उसके बाद जब मैं अगले महीने चेकअप के लिए गई तो मुझे वह फिर से वहीं मिल गई। मुझे देखते ही पहचान लिया। मैं हैरान थी कि उन्होंने हाल पूछा, “ठीक हो गया तेरा पत्थर, पत्थर निकल गया?” मेरे मन का यह विश्वास पक्का हो गया कि जहाँ दवा ना चले वहाँ दुआ काम आती है।
सबसे ख़ुशी की बात यह थी कि आज उनका बेटा उनके साथ था और वह भी काफ़ी ठीक हो गया था और उसने मेरे पैर छूकर मेरा धन्यवाद किया। मैंने एक ही बात कही कि जिस माँ ने तुम्हारे लिए इतना कुछ किया है बस उसकी दुआओं का असर है। तुम ठीक हो गए हो, कभी उसकी दुआओं को बेकार मत जाने देना।
मैं क्यों यहाँ
ओल्ड होम के बड़े हाल में कोई बैठा, कोई लेटा, कुछ बातों में लगे थे। हमें देख कर लेटे उठ गए। वहाँ के कर्मचारी हमें सबसे मिलवा रहे थे। सभी उत्सुक हो देख रहे थे। शायद ऐसी रौनक कभी-कभी होती होगी। साइड बैड पर हमारी उपस्थिति से बेख़बर अम्मा लेटी थी। मैंने उनके पास जा नमस्ते कहा तो जवाब में बोली, ‘क्यों आई हो यहाँ?’ मेरी कुछ लगती हो? मेरे गाँव से आई हो? मैं तुम्हारी क्या लगती हूँ? मेरी सगे वाली हो? मैंने कहा, ‘नहीं।’ कुछ अलग भाव से मुझे देखती रहीं। मैं जल्दी से बोली, ‘माँ लगती है इंसानियत के नाते!’ अम्मा ने कहा, ‘जाओ यहाँ से, जब अपनों ने नहीं पूछा तो तुम क्यों आई हो।’
मैंने उनके काँपते हाथों को दोनों हाथों में लेकर कहा, ‘चली जाऊँगी पर थोड़ी देर बातें करें।’ मेरा इतना कहते ही आंखों से गंगा-यमुना बह निकली, , मैं हथेली दबाती रही वह आँसू बहाती रही। घंटा कैसे बीता पता ना चला। शांत हो धीरे-धीरे घर-परिवार की बातें करती रहीं। ऐसे घुलमिल गई मानों बरसों की पहचान हो। जब मैं वापसी के लिए उठी तो हाथ पकड़कर बोली, ‘मैं बहुत बुरी हूँ?’ मैंने कहा नहीं। फिर मुझे यहाँ क्यों? मैं कुछ कह ना पाई। आँसू छुपाते बाहर निकलते हुए सोच रही थी-क्या इसी दिन के लिए मां-बाप बच्चों को लंबी उम्र की दुआएँ देते हैं…
नीरजा शर्मा
चंडीगढ़
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