
कासे कहूँ दुखड़ा
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उठ युवा देश के (Arise young country)
उठ युवा देश के (Arise young country),
मोर्चा संँभाल ले।
कर्तव्य सीमाओं को अपनी,
आज तू पहचान ले।
युवा देश के,
मोर्चा संँभाल ले।
सैनिक बन कर तू
सरहद पर अगर खड़ा।
सीमा की सुरक्षा का,
कर्म पुण्य है बड़ा।
सजग रह निड़रता से,
दुश्मन को पछाड़ दे।
उठ युवा देश के।
तू अगर किसान है,
धरती पर हल तेरा,
परिश्रम से तेरे ही,
लहलहाए वसुन्धरा।
धन-धान्य हम पर वारता,
भविष्य संवारता,
अन्नदाता तू खड़ा।
सबको वरदान दे।
उठ युवा देश के,
मोर्चा संँभाल ले।
सरस्वती का आराधक,
ज्ञानार्थी तू, विद्यार्थी तू,
आश और उजास भरा।
देश का मधुमास तू,
तमस भरी दिशाओं में,
रवि का प्रकाश तू।
ज्ञान की मशाल थाम,
मोर्चा संँभाल ले
उठ युवा देश के।
तू शिल्पी, तू कलाकार,
ला कला में नित निखार।
ले कल्पना के रंग नव,
फलक को संवार दे॥
तू गढ़ अनेक ताजमहल,
बहा मानस-मंदाकिनी,
तू तानसेन की तान बन,
स्वर्ग धरा पर उतार दे।
उठ युवा देश के,
मोर्चा संँभाल ले।
तू वैज्ञानिक, चिकित्सक तू,
तू अभियंता, आविष्कारक
नित नई खोज कर,
पाताल को भेद दे,
धरती को माप ले,
सागर अवगाह कर,
अंतरिक्ष उड़ान का,
सफल अभियान ले।
मोर्चा संँभाल ले,
उठ युवा देश के।
तू जननी, प्राणशक्ति है।
संतप्त जगती हेतु तू,
वात्सल्य मूर्ति। है।
तू तन-मन निसार कर,
भविष्य को देश के,
सुरूचि, संस्कार दे।
मोर्चा संभाल ले।
देश-प्रेम नहीं है केवल,
देशहित शीश कटाना।
देश-प्रेम है श्रम आशा के,
गीत निरंतर गाना।
सघन तमस में,
नवल रश्मि के
उजले दीप जलाना,
संस्कृति की पुण्य पताका,
नए शिखरों पर फहराना।
कर्म कोई भी हीन नहीं है,
दृष्टि को अपनी तू,
यह नया आयाम दे।
उठ युवा देश के,
मोर्चा संँभाल ले।
स्वतंत्रता के बाद का भारत
स्वतंत्रता के बाद का भारत,
वीरों के बलिदानों पर,
हुए कुठाराधात का भारत,
आंधी-झंझावात का भारत।
राजनीति की शतरंजों पर
चलती शह और मात का भारत।
प्रजातंत्र में भूखी मरती
जनता के जज़्बात का भारत।
राम और रहमान का भारत।
गीता और कुरान का भारत
मंदिर, मस्जिद, पूजाघर में
दम तोड़ रहे भगवान का भारत।
मज़हबी नारों का भारत।
नफ़रत-हाहाकार का भारत।
बढ़ते भ्रष्टाचार का भारत।
गिरते शिष्टाचार का भारत।
जातीय भेदभाव का भारत
भाषायी विवाद का भारत।
आरक्षण-ज्वाला में जलती
योग्यता के अवसाद का भारत।
सच के ऊपर सदा लटकती,
झूठ की तलवार का भारत।
नारी के चीत्कार का भारत
हत्या बलात्कार का भारत।
उपलब्धियों को व्यंग्य बनाता
त्याग अहिंसा को झुठ लाता
हिंसा-आतंकवाद का भारत
थोथे आदर्शवाद का भारत।
क्या यह भारत बन न सकेगा?
गांधी के अरमान का भारत
सामवेद के गान का भारत।
बुद्धि और विज्ञान का भारत।
भावना के सम्मान का भारत।
उजली सूर्य किरण का भारत।
निखरे नील गगन का भारत।
शस्य भरी मुस्कान का भारत।
गंगा के कलगान का भारत।
एकता और निर्माण का भारत
संस्कृति के उत्थान का भारत।
विश्वसमूह में अलग दमकती
अपनी ही पहचान का भारत।
आसमान में मुक्त लहराते
तिरंगे के सम्मान का भारत
देव भी गाएँ, महिमा जिसकी
ऐसे नवल विहान का भारत
तेरा, मेरा, सबका भारत
स्वतंत्रता के बाद का भारत।
संवाद
मंदिर बोला मस्जिद से
सुन मेरी आपा, मेरी बहना
बहुत हो रहे चर्चे तेरे मेरे
मुझे भी है कुछ कहना।
बोली मस्जिद भैया मेरे! भाईजान।
पीड़ा से तुम्हारी मैं नहीं अनजान,
चलो, मिल बैठें, कुछ बतियाएँ
इस पीड़ा से कुछ तो निजात पाएँ।
हम तुम यहाँ कब से रह रहे हैं
इक-दूजे की जुबां कह रहे हैं।
उपासक हमारे यहाँ आते रहे हैं
दोनों को ही सिर झुकाते रहे हैं।
आंगन में हमारे ही, सर्वस्व अपना
रसखान ने ब्रज-रज पर लुटाया।
जायसी ने दिव्य प्रेमगीत गाया।
तुलसी ने भक्ति धारा बहाई
नानक ने सबद प्रभाती जगाई।
उसी धरती पर आज क्या हो रहा है?
कौन है जो नफ़रत के बीज बो रहा है?
नजर लग गई न जाने हमें किसकी।
हवाएँ हैं सहमी, फिज़ाओ में सिसकी।
प्रभु राम मेरे! हमारी लाज रखना।
ओ करीम मेरे! करम हम पर करना।
सबको सुमति दे, कुमति दूर करना।
लघुता को सबकी विस्तार देना
नफरत में डूबों को, तुम तार देना।
हमें प्यार और विश्वास देना।
निराश मन को नई आस देना।
दीप यहाँ दिवाली के जगमगाएँ।
रौनकें-ईद भी महफ़िलें सजाएँ।
शंख औ’ अजान करें जुगलबंदी।
नूर तेरा सब ओर छा जाए।
हम धर्म का मर्म जान जाएँ।
आओ यहीं पर जन्नत बनाएँ।
जर्जर जनतंत्र
जर्जर मेरे देश का,
जनतंत्र हो गया है।
देश सच्चे अर्थ में,
जड़तंत्र हो गया है।
धर्मनिरपेक्ष बन हम,
अधर्मी हो गए।
मंदिर-मस्जिद कुछ भी टूटे,
हम सब कुछ सह गए।
आजाद है देश अपना,
सबको है आजादी यहाँ।
इससे मुझे, उससे तुझे,
लड़वाओ, मरवाओ,
चाहे जब दंगे करवाओ,
नहीं कोई झंझट बाकी,
धर्मक्षेत्र कुरूक्षेत्र बन गया,
ईश्वर धन-तंत्र हो गया है।
जर्जर मेरे देश का
जन तंत्र हो गया है।
भाषा के क्षेत्र में हम
उदार हो गए हैं।
स्वदेशी भाषाएँ बहुत हैं,
किसे छोड़े, अपनाएँ किसे,
इस विवाद से परे हो गए हैं।
दूसरों का मान रखना,
मेरी संस्कृति ने सिखाया,
विदेशी-भाषा के समक्ष,
नतमस्तक हो गए हैं।
विश्व-प्रेम बढ़ाने का,
यह गुरुमंत्र हो गया है।
जर्जर मेरे देश का
जनतंत्र हो गया है।
नेता हैं मेरे देश के,
अहिंसा के पक्षधर।
हर बात को सहें वे,
परम धैर्य धारकर।
भ्रष्टाचार की आँधी चले,
अविश्वासों का झंझावात हो।
हिलेंगे कुर्सी से नहीं,
यही लोकतंत्र हो गया है।
जर्जर मेरे देश का
जनतंत्र हो गया है।
शिक्षा का मेरे देश में,
ऊँचा स्थान है।
शिक्षा के बिना आदमी,
पशु के समान है।
ले कर रहेंगे डिग्री,
नकल औ’ चाकू की धार से।
साहस का परिचय देंगे,
पथराव और हड़ताल से।
मेरे देश का भविष्य,
यौवन मेरे देश का,
आज पूरी तरह से,
स्वतंत्र हो गया है।
जर्जर मेरे देश का
जनतंत्र हो गया है।
नारे लगाओ एकता,
और भाईचारे के।
गीत मानवता के गाओ।
कपोत शांति के उड़ाओ।
सत्य की ओट में,
असत्य को छिपाओ।
गौरव-गाथा देश की,
दमकते मुँह से गाओ।
आज हरेक मूल्य,
छल तंत्र हो गया है।
जर्जर मेरे देश का,
जनतंत्र हो गया है।
देश सच्चे अर्थ में,
जड़तंत्र हो गया है।
उत्तर दो
जनता को सोया मत जानो,
जनता जगी हुई है।
जल्द बोलने पर आएगी,
मूक जो अब तक, बनी हुईं है।
इसके प्रश्नों का उत्तर तुम,
क्या दोगे, कैसे दोगे?
बातें वही पुरानी ही हैं,
कोई नई नहीं हैं।
जनता को सोया मत समझो
जनता जगी हुई है।
एक समय था, इस जनता ने,
पलकों पर तुम्हें बैठाया था।
मान तुम्हें जन-मन की आशा,
भव्य ताज पहनाया था।
वही ताज क्यों हुआ कलंकित?
क्यों दीप्ति न उसमें शेष रही?
लोक हुआ क्यों हित से वंचित?
हर आस क्यों मरू में भटक रही?
ले प्रश्नों का अंबार सामने,
जनता खड़ी हुई है।
जनता को सोया मत जानो जनता जगी हुई हैं
खड़ी हुई इस जनता को,
कैसे अनदेखा कर दोगे?
कोटि-कोटि आँखों के सपने,
तुम कैसे निज हित हर लोगे?
लोकतंत्र के उन्नायक तुम
जनता के भाग्यविधायक तुम,
क्या फिर फुसला लोगे इसको,
क्षमता इतनी बची हुई है?
जनता को सोया मत जानो जनता जगी हुई है
जनता जब जाग जाती है,
मशालें उठा लेती है।
खोदने नींव शोषण की,
कुदालें उठा लेती है।
नहीं डरती है यह तब,
तोप और तलवारों से।
भूख और लाठियों से,
खूंख़्वार मजहबी नारों से।
देश भक्ति के ढोंग से तेरे,
यह अनजान नहीं है।
जनता को सोया मत जानो
जनता जगी हुई हैं।
जो चाहती है यह, करवा ही लेती है,
जब एक हो यह क़दम बढ़ाती है।
यही विवश, अक्षम जनता तब
महाशक्ति बन जाती है।
पर्वत डोल उठते, सागर थर्राते हैं।
बवंडरों में तुम जैसे उड़ जाते हैं।
निर्मम रथचक्र काल का,
घूमता उठता अतिवेग से,
कितने गिरे, कितने मरे हैं
सामने इसके, गिने भी न जाते हैं।
जनता की रोके राह कौन?
जान पर सबकी बनी हुईं है।
जनता को सोया मत जानो जनता जगी हुई है।
जनता तो प्रलय की पाली है,
हर हाल में ज़िंदा रह लेगी।
पर तुम तो फूलों पर पल हुए,
दशा तुम्हारी क्या होगी?
बहुत सहा, अब और नहीं,
तीसरा नेत्र यह खोलेगी।
ज्वालामुखी है यह जनता,
लावे के स्वर में बोलेगी।
जीने के लिए मरने को
जनता अब मचल गई है।
जनता को सोया मत जानो,
जनता जगी हुई है।
शक्ति-सम्बल
बुद्ध का यह देश मेरा
फिर से मुस्काया, खिला।
शांति पथ पर गतिशील
हमें जब शक्ति का सम्बल मिला।
शांति शील अपने भषण हैं,
दूषण इन्हें न होने देंगे।
कोई चुनौती दे ललकारे,
हम भला कैसे सह लेंगे?
सख्य और आत्मभाव का,
उपहास न होने देंगे।
हम वीरों के वंशज हैं,
निज आन न खोने देंगे।
शांति कपोत दृढ़ पंख पसारे,
” क्षितिज नापने को निकला।
बुद्ध का मेरा देश यह पावन,
फिर मुस्कराया और खिला।
हम प्रेम का कोष लुटाते हैं,
विश्व ऐक्य के हामी हैं।
आंखों में प्रेमाश्रु लिए,
सर्वस्व समर्पित, बलिदानी हैं।
हर मानव को गले लगाते,
हम प्रीत-रीति के ज्ञानी हैं।
प्रेम आेट में वैर निभाएँ,
नहीं सीखी ऐसी कला।
बुद्ध का करूण पावन देश
फिर से मुस्करायी और खिला।
परहित निरत करूण अंतर है,
त्याग-क्षमा हमारा धर्म है।
अहिंसा परम धर्म माना है
हिंसा आपद धर्म हैं।
दिखते हैं नवनीत से कोमल,
वज्र हमारा वर्म है।
हमको आंँख दिखाई जिसने समझो उसे धूल में मिला।
बुद्ध का यह देश पावन
फिर से मुस्कराया और खिला।
हमको पाला आँधी, कंटक
लहरों और तूफानों ने।
प्रेरित हमको किया सदा
अंधकार अवसानों ने।
बाधाएँ हैं सहचरी अपनी,
विश्वास अजेय मिला।
कर्तव्य-रत तन-मन हमारा
जीवन अमर-सम्पुट ढला।
बुद्ध का मेरा देश यह पावन
फिर मुस्कराया और खिला।
शांति पथ पर गतिशील हमें,
जब नवशक्ति का सम्बल मिला।
ऊँचा हिमालय, सुनहरी चोटियांँ
ऊँचा हिमालय, सुनहरी चोटियांँ।
दिव्य आभा, विकीर्ण रश्मियांँ।
जीवन सुखद, पुलकित मना।
वैविध्य भरी, भाव-सम्पन्ना।
तरंगित, शीतल, प्रफुल्ल नदियाँ,
ऊँचा हिमालय, सुनहरी चोटियों।
प्रणत हम, तव चरण सर्वदा
जननी तू सुखदा वरदा।
तुझ पर अर्पित मेरी गतियांँ
ऊँचा हिमालय, सुनहरी चोटियाँ
देख तुझे, उर-शतदल खिले,
स्नेहिल स्पर्श त्रयताप हरे,
सर्व मंगले, कल्याणी, सदा धन्या।
ऊँचा हिमालय, सुनहरी चोटियांँ।
तुझसे विलग, जीवन व्यर्थ
गोद में तेरी, सफल सार्थक।
रज तेरी, मेरा तिलक, कितनी सुर भियाँ॥
ऊँचा हिमालय, सुनहरी चोटियाँ
दिव्य आभा विकीर्ण रश्मियांँ।
सूरज उठा कर चले थे
सूरज उठा कर चले थे
क्यों उजालों से दूर आ गए हैं?
क्षितिज पर टिकी थीं ये आँखे,
क्यों धरती से धबरा गए हैं?
जहाँ सागर से मिलती है सरिता,
वहाँ बहारें छाई हुईं हैं,
बात मन को समझाने की है,
कोई भी तो परछाईं नहीं है।
अपने से ही डरते डरते,
क्यों सबसे ही भय खा गए हैं?
सूरज उठा कर चले थे,
क्यों अंधेरों से घबरा गए हैं?
ये दुनिया निठुर नहीं है,
ज़िदा है अब भी आदमी।
जिंदगी और मौत की
बस हो रही है कह-सुनी।
मरते-मरते भी जी जाने का
सुराग आज पा गए हैं।
सूरज उठा कर चले थे,
क्यों अंधेरों घबरा गए हैं?
भाव से भर अंतर गया है
शब्द जुबां खो रहे हैं।
कितना ही छिपाएँ,
हर बात कह रहे हैं।
सुर को संगीत बना कर
साज-प्राण महका गए हैं।
सूरज उठा कर चले थे,
क्यों अंधेरों घबरा गए हैं?
आस भी है, विश्वास भी है
उदासी ये छंट जाएगी।
उजालों का फिर साथ होगा
फिर सुबह आएगी।
सपन भरे नयन ही,
मंज़िल को पा गए हैं।
सूरज उठा कर चले थे
क्यों उजालों से दूर आ गए हैं?
अधिकार
अवसर माँगने से नहीं मिलते
छीने जाते हैं।
अवसर उपहार नहीं कोई,
जो मुस्कराते हुए,
शुभकामनाओं सहित
जिंदगी तुम्हें थमा देगी।
अवसर तो अधिकार है तुम्हारा
इसके लिए लड़ो-मरो
चाहे जो करो,
और छीन लो स्वत्व अपना।
क्या देखा है किसी नदी को,
पथ माँगते पर्वतों से।
या कभी सूरज गिड़गिड़ाया हो
अंधकार के सामने
रोशनी बिखेरने को।
पाँख उगते ही विहग-शावक
अकुलाता है उड़ान भरने को।
चुग्गा बीन लाने को।
आकाश की निस्सीमता,
निर्ममता को अवहेलित करता।
ऊष्मा की मार से आहत,
धरती पर अंकुर,
बदली के बरसते ही
खुद ही फूट आता है।
पल्लवित होता है।
कलियाँ चटखती हैं।
वसंत आता है।
थिरकती, मचलती है हवा
संगीतभरी, सुवास भरी।
घनी अमराइयों से।
कूकना कोयल को अरे!
किसने सिखाया है।
माना कि ज़िन्दगी एक
शातिर खिलाड़ी है
पर तुमने भी तो इसे,
खूब छकाया है।
जीत और हारकर,
मरकर और मारकर,
जीवन को जानकर,
कला इसे बनाया है।
अवसर को पहचाना है,
पकड़ा है कसकर,
सोचा जो कर दिखाया है
विजय गान मानव का,
तुम्हीं ने तो रचा है,
तुम्हीं ने तो गाया है
अवसर पर किए हैं,
अधिकार भरे हस्ताक्षर जिसने,
जीवन को उसने समझा है,
सार्थक बनाया है।
बहने दो सक्षमता – धार
हर चोंच को दाना चाहिए।
हर हाथ को चाहिए काम।
हर क़दम को लक्ष्य चाहिधए।
हर योग्यता को सम्मान।
क्योंकि सभी को लगती है भूख।
सभी समर्पित है श्रम के प्रति।
सभी की मंजिलें हैं आशाभरी।
सभी को चाहिए पहचान प्रगति।
लेकिन हाय री विडंबना,
चाहतें सपना हो गई हैं।
किरणें सब खो गई हैं।
योग्यता बौनी हो गई हैं।
निहित स्वार्थों के समक्ष
हक की रोटी छीन किसी की,
किसी और को दी जा रही है।
सूखे आँसू पोंछने के अभिनय में,
अनेक आंँखे सजल हो रही हैं
आखिर कब तक सहेगी प्रतिभा,
भूखे पेट शोषण यह,
निष्क्रिय उसके हाथ-पाँव,
ज़ंग से जाम हो जाएँगे
भविष्य के सपने सुनहरे
निराश आंखों में सो जाएँगे।
किसने कहा मत दो संवेदना उन्हें,
जो उनके सचमुच अधिकारी हैं।
पर क्या बिगाड़ा है उन्होंने तुम्हारा
जिनकी मंजिले-तलाश जारी है।
जी रहे हैं जो अपने ही दम पर
कोई मसीहा नहीं है पास उनके
जो उनपर वरद हस्त फैलाएगा।
अभयदान दे, सुविधाएंँ जुटाएगा
मत रोकाे उन कदमों को
जो चलने के आकांक्षी हैं।
मत करो प्रतिहत गति को
उनकी किसी बंधन से।
होनहार विश्वास भरे ये प्राण ही,
पहचान अपनी विश्व में बनाएँगे।
अगर अवसर न छीने गए तो
लिपि भाग्यविधाता की ये,
बदलकर दिखाएँगे।
आलोक पुंज बन जगमगाएंगे।
महिमा को श्रम की दमकाएंगे
फिर जन्मेगा नया भगीरथ एक।
मरू में सक्षमता-गंगा ये बहाएंगे।
होगा उद्धार अज्ञ-जड़ प्राणों का।
जब बहेगी धार सक्षमता की
अविरल, कलकल छलछल,
निर्बाध हरित क्षितिजों तक।
मुखर मौन
मौन थे अब तक,
अब मौन मुखर हो गया है।
सोचा था कट जाएगी यूँ ही,
मगर जीनाब दूभर हो गया है।
गरल अपमान का पीना
अब असह्य हो गया है।
विषपायी नीलकंठी मन,
आहत दूर तक हो गया है।
बेजान क़दम, बैसाखियाँ लिए
सपने सँजो रहे थे।
जानते थे अधिकार भी,
कर्तव्य लेकिन ढो रहे थे।
जो घाव समझा था मामूली,
नासूर अब हो गया है।
मौन थे अब तक,
अब मौन मुखर हो गया है
बेरहम हो, भावनाएँ रौंद दीं सारीं,
पाषाण न बन पाए, फिर भी,
सेवा, समर्पण, मर्यादा निभाई
प्रताड़ना और उपहास बना
नियति तब भी, जीवन जैसे
व्यथा का भार हो गया है।
मौन थे अब तक,
अब मौन मुखर हो गया है।
अनेक प्रश्न थे, उत्तर न एक मिला
मुँह जोहा, हास अधरों पर लिए,
पा इंगित स्वयं को धन्य माना,
चल पड़े आदेश पा मतिहीन से,
प्रतीक्षा यह चिर प्रतीक्षा है,
यह एहसास हो गया है।
मौन थे अब तक
अब मौन मुखर हो गया है।
भूमिकाएँ अनेक निभाई हमने,
तमगे भी अनेक पाए हमने,
हर तमगा हमारी ही व्यथा है।
हमें औरों ने नहीं, हमने ख़ुद को छला है।
धैर्य अधीर है कितना,
अब ये ज्ञान हो गया है।
मौन थे अब तक,
अब मौन मुखर हो गया है।
मुखर मौन यह,
बदलाव सुखद लाएगा।
अब अहसास न कुचले जाएंगे,
उपहास न मुस्करा पाएगा।
चलेंगे ख़ुद की राह पर, लेंगे अपने फैसले,
परवाह नहीं ज़माने की, जो देख
दौड़ हमारी नाराज हो गया है।
मौन थे अब तक,
अब मौन मुखर हो गया है।
इंकार
मुझे संवेदनाएँ मत दो,
छलनामयी निठुर संवेदनाएंँ,
पीड़ा को सहलाकगर
पीड़ित कर जाती हैं।
पाकर संवेदना,
जब पिघल-पिघल उठता है,
यह नवनीत मन,
तो ये संवेदनाएँ,
मुस्कराती हैं।
छले जाने का एहसास,
व्यथा को गहरा जाता है।
संवेदना नागफनियों का कांटा,
अंतर तक चुभ जाता है।
नहीं चाहिए यह प्यार मुझे,
मुझे मेरे दुःख सागर में,
आकंठ डूब जाने दो,
उत्ताल लहरों में,
डूबने-उतराने दो।
छोड़ दो मुझे एकाकी
असहाय ठोकर खाने को,
खुद ही संभल जाने को,
तमस भरी अनदेखी राहों पर
मुझे पथ अपना बनाने दो।
अपने पाँव के छालों को,
खुद ही सहलाने दो।
मुझे मत प्यार दो,
यह मुझे न रास आता है।
यह मुझे अक्षम बनाता है।
समेट लो सब कोमलता
सब मधुरिम आश्वास,
आत्मीयता औ विश्वास,
यह मुझमें लाचारी जगाता है।
देना ही है तो दो
एक चोट और,
दर्द एक नया,
इससे मेरा पुराना नाता है।
मैं ख़ुद ही पोंछ लूंँगा, आंँसू अपने
ये मेरी व्यथा का उपहार हैं।
कैसे बाँट लूं मैं इन्हें,
ये ही तो हैं जिसपर मेरा
केवल मेरा अधिकार है।
मुझे ये आँसू बहाने में,
आनंद आता है।
संवेदना नागफनियों की,
चुभन पर मरहम
लग जाता है।
नहीं चाहिए संवेदना,
नहीं चाहिए कोई प्यार,
कृतज्ञ मैं तेरा,
कर यह इंकार स्वीकार।
भूल कहाँ?
वह एक आम आदमी था।
जो भी चाहिए, जीने के लिए
उसके पास वह सब था
गाड़ी थी, मकान था।
अच्छी नौकरी थी।
एक बीवी थी।
एक अदद भगवान था।
बस, स्वाभिमान से उसका,
न कोई नाता था।
इसीलिए बॉस के आगे-पीछे,
दुम हिलाता था।
बॉस भी अँधा था,
रेवड़ियाँ बाँटता था।
यह हर बार रेवड़ियाँ पा जाता था।
रेवड़ी पा वह,
खीसें निपोरता था।
पीठ पीछे गुर्राता था।
बखूबी दोहरी ज़िंदगी,
निभाता था।
कभी-कभी खुदा से भी,
खौफ़ खाता था।
बोझ बढ़ जाने पर,
अपने पर्सनल भगवान् से
शेयर कर आता था।
जी-हुज़ूरी उसे ख़ूब फल रही थी।
तकदीर उसकी संवर रही थी।
एक और भी था वहाँ,
टाट में लगे रेशमी पैबंद सा,
दूर से ही झिलमिलाता था।
वह आदर्शवाद का प्रोडेक्ट था।
उसने योग्यता के बूते पर,
जॉब पाई थी, निष्ठा और
ईमानदारी की घुट्टी,
उसे गई पिलाई थी।
वह समर्पित भाव से
कर्तव्य निभाता था,
बस इस माहौल में,
खुद को अनफिट पाता था।
आसपास जो घट रहा था,
उस पर उसे विश्वास नआता था।
वह हरिश्चंद्र का पुजारी था,
आदर्शो को जीता था।
अवमूल्यन आदर्शों का,
उसका अंतर भिगोता था।
उसके अगल-बगल के लोग
ऊँची छलाँगे लगा रहे थे।
वह सीढ़ी पकड़े बैठा था,
लोग छज्जे पर जा रहे थे
वह इसे नियति मान,
अपनी चल रहा था।
दौड़ में ज़िंदगी की,
प्रतिपल, पिछड़ रहा था।
एक दिन उसे किसी,
सयाने ने समझाया,
जमाने की फ़ितरत से
अवगत करवाया।
सुन रे बंधु! कहाँ खोया है?
जाग रहा है, या सोया है?
जानता नहीं क्या इतना भी,
सोने वाले का भाग्य सो जाता है।
विपरीत हवा के चलना
औंधे मुँह गिराता है।
छोड़ दे इस सीढ़ी को
उससे न ऊपर जाएगा।
लिफ्ट का सहारा ले
फौरन मंज़िल पाएगा।
लेकिन हाय री विडंबना,
खरी बात यह, उसे समझ न आई,
रहा देता सिद्धांतों की दुहाई।
बात समझ आती भी कैसे,
वह तो सत्य को ढोता था।
हरिश्चंद्र को रोता था।
उसे हर आदमी में,
ईश्वर नज़र आता था।
संवेदनाओं से उसका,
गहरा नाता था।
ज़िंदगी के पेचीदे समीकरण,
वह समझ न पाया था।
उसके लिए सब अपने थे,
न कोई पराया था।
भूल कहाँ हुई,
मन में विचारता था,
एक और एक दो होते हैं,
बस इतना गणित जानता था।
इसीलिए वह,
जिसके पास सब कुछ था,
खुश नज़र आता था,
और यह आदर्शों की,
सलीब पर चढ़ा,
मसीहा बना
मरता जाता था।
मरता ही जाता था।
आचरण
अलग है पहचान अपनी,
आचरण हमारा निराला है
कई कसौटियों पर परखा,
इसे कई सांचों में ढाला है।
चुप्पी हमें रास आती नहीं है।
एकरसता हमें भाती नहीं है
गति है जीवन का लक्षण,
होता रहे हंगामा हरदम,
मान इसे जीवन-दर्शन,
हमने कोलाहल उछाला है।
अलग है पहचान अपनी,
आचरण हमारा निराला है।
उजाले भेद दर्शाते हैं,
इससे सब अलग नज़र आते हैं।
अलगाव न एकता दे पाएगा,
अंधेरा ही भेद मिटाएगा,
अपना-पराया भुलाएगा।
उदार है दृष्टिकोण अपना,
इसीलिए आस-पास अपने,
हमने अंधेरों के पाला है।
अलग है पहचान अपनी,
आचरण हमारा निराला है।
अतीत हमें प्राणों से प्यारा है।
सुनहरा भविष्य सपना हमारा है।
क्षितिज पर आँखे लगी हैं,
ऊँचाइयों की पाँखें बंधी हैं।
वर्तमान की कौन सोचे,
बुलन्द हौंसला हमारा है।
अलग है पहचान अपनी,
आचरण अपना निराला है।
धर्म नहीं संभलता हमसे,
हमने भगवान को संभाला है।
भगवान आदमी के लिए ज़रूरी है।
उसकी कमजोरी है, मजबूरी है।
मोहरा बना लिया उसे जब,
अब हर क़िला हमारा है।
अलग है पहचान अपनी,
आचरण हमारा निराला है।
मानवता हो रही थी बेकाबू
हमने इंसान को संभाला है।
व्यापकता पहचान मिटाती है,
लघुता ही गरिमा लाती है।
जाति, वर्ग औ’ ऊँच-नीच के
छोटे-बड़े पिंजरे में इंसान को,
पहचान के लिए ही तो डाला है।
अलग है पहचान अपनी,
आचरण हमारा निराला है।
इमारतें पुख्ता थीं हिलती नहीं थीं
दरार भी कोई दिखती नहीं थी,
मजबूती उनकी टीसने लगी थी।
प्रगति धीमी पड़ने के भय से,
इतिहास ध्वंस-निर्माण का,
हमने नया रच डाला है।
अलग है पहचान अपनी,
आचरण अपना निराला है।
आत्मसुधार की बातें,
स्वार्थ भरी हैं, बहुत छोटी हैं।
त्याग, प्रेम, परोपकार तो,
अपनी इकलौती बपौती है।
दुहाई दे-देकर इन्हीं की
हमने जन-हित सँभाला है।
अलग है पहचान अपनी,
आचरण अपना निराला है।
दीपक छोटा, हवा से डरता नहीं,
खुद लड़ लेता है, जी लेता है।
युग-युग से रक्षा करते आए
भगवान भी उसकी,
सबल को भी चाहिए मसीहा कोई
यही ठान मन में हमने,
बलवान को सँभाला है।
अलग है पहचान अपनी,
आचरण हमारा निराला है।
जब तक जिए हम
देश के लिए जिए,
नश्वर इस संसार में,
कुछ अनश्वर तो रहे।
ग्रहण कर यह ज्ञान हमने,
कोई समझे या न समझे,
नेकी कर दरिया में डाल,
हमने आचरण में उतारा है
अलग है पहचान अपनी,
आचरण अपना निराला है।
जीवन गीत
जीवन एक गीत है।
इसके अनेक बोल हैं,
अनेक रंग हैं।
कुछ चटकीले, कुछ बदरंग हैं।
पर ये सभी इस गीत के
अपने ही अंग हैं।
सवेरे का गीत समय-गीत है।
जब आलस्य करवट ले जागता है।
व्यस्तता-गीत से मिलकर भागता है।
बर्तनों की खनखनाहट,
पानी की धार,
रोटी की सुगंध,
उफनते दूध की फेनिल खुशी
से छलकता, यह व्यस्तता-गीत
खाने के डिब्बों में सिमट जाता है।
फिर प्रारंभ होता है प्रयाणगीत
, बस्ते उठाए नन्हे, किशोर कदम
मंजिल को समर्पित युवाजन
गृहस्थी का भार ढोते वयस्क,
मोर्चा संभाले चलते हैं।
चाल विश्वास भरी तब
प्रयाणगीत गाती है।
इसके बाद व्यवसाय गीत
गूँजता है अनवरत,
टेक बन गीत की
तनाव, अशांति, त्रास
करूणा, उत्साह, उल्लास के
संचारीभाव भी आते हैं।
जो इसकी बोझिल एकरसता को
रस पूर्ण बनाते हैं।
गोधूलि तक गूंँजता है
यह गीत।
फिर थके-मांदे कदमों की वापसी
इस गीत की लय पर ताल थपकाती है।
थपकते कदमों को भेंटने तब
विश्रांति बेला आती है।
विश्रांति-गीत गुनगुनाती है।
यह गीत, जो ढलती धूप सा,
चारों ओर बिखर जाता है।
छोटे महकते फूल की ख़ुशबू सा
चाय की प्याली में लहराता है।
गरमाहट दे थके मन को,
जल्द ही शून्य में खो जाता है।
और फिर सांझगीत आता है।
सान्ध्यगीत में कर्म है
कोमलता भरे क्षण हैं।
हवा है, सुवास है।
आरती की लौ-सा पावन उजास है।
नीड़ का अपनापन है।
सांध्यगीत सच ही बहुत मनोरम है।
संझागान के बाद का गीत
संतुष्टिगीत है, सपन गीत है।
थके हारे तन-मन को प्यार से,
दुलराता है, स्फूर्ति देता है।
कल के प्रयाणगीत से भेंटने का
आश्वास दिलाता है।
प्रभात गीत गाने का उल्लास दे,
नई सुबह के सपनों में सुलाता है।
जीवन हर क्षण संगीत है,
जो गुंजित-अनुगुंजित होता है
रोज-रोज, अनवरत, युगों तक
इसके अनेक रंग हैं।
कुछ चटकीले, कुछ बदरंग हैं।
पर ये सभी इसी गीत के
अपने ही अंग हैं।
अनुनय विज्ञान का
मुझे मत कांटों में घसीटो,
मैं तुम्हारा आत्मज हूँ।
मैंने कब चाहा,
हरितिमा में इठलाती,
अनगिन सपने सजाती,
रेशम पर करवट लेती,
दुनिया अग्निशय्या पर सो जाए
कब चाहा मैंने
ये कलियांँ मुरझा जाएँ।
अधरों की मुस्कान,
चंचलता शैशव की,
दृढ़ता यौवन की
नि: श्शेष हो जाए।
कब मैंने चाहा
कि निठुर व्याध
फिर से शरसंधान करे।
और आदिकवि का भीगा मानस
अश्रुपूरित अपने गान करे।
अगणित क्रौंच कराह उठें
दानवता जयगान करे।
मैंने तो बनना चाहा था,
मरू में नदिया का प्रवाह
अंधकार में ज्योतित राह,
मानव मन के मृदु भावों का,
करुण-अंतर संदेशवाह।
बुद्धि का संयत जयनाद
शिव-शक्ति का मंगल प्रसाद।
लेकिन ओ मेरे जनक!
तुम क्यों प्रतिबद्ध हो
मेरे नाश को।
अरे पुत्रहंता पिता!
मुझे मत कांटों में घसीटो।
पिता हो पुत्रघाती
यह क्रूर परिहास
सत्य मत होने दो।
मत उठने दो उँगलियाँ
भविष्य की धिक्कार भरी
मेरी ओर।
तुम पिता हो, पूज्य हो।
दिशा ज्ञान दो, भटकाओ मत।
मैं भटकूंगा तो तुम्हारी ही पीढ़ी
अस्तित्वशेष हो जाएगी।
तरस जाएगी मानवता,
मानव के दर्शन को।
अपरिचित हो जाएगी,
हर जानी-पहचानी राह,
अंधकार के खो जाएँगी,
दिशाएँ सभी आलोकभरी।
विनाश का विकराल पारावार बन
लील लेगा तुम्हारा स्वार्थ
तुमको, सबको।
मुझे जीने दो,
बढ़ने दो।
बनने दो अवलंबन
असहायों का।
सँवारने दो, दुनिया का रूप-रंग।
प्रकृति को मुस्कराने को
मेरी गोद में, लहलहाने दो।
मुझे जीने दो, समष्टि हित
अमर हो जाने दो।
प्रार्थी हूँ मैं विज्ञान
तुम्हारा आत्मज,
तुुम्हारी अनुपम उपलब्धि।
तुम्हारा भविष्य।
अब अंगारों की बात करे
गीत फूलों के बहुत रच लिए,
अब अंगारों की बात करो।
मधु-मदिर पलों से मुंँह मोड़ो,
अब प्रलयोत्सव की बात करो।
सिसके-सिसके इन प्राणों को,
ये सपन न बहला पाएँगे।
पल दो पल के सुंदर सपने
चिर पीड़ा क्यों हर पाएँगे?
प्रश्न अनेक शेष हैं सम्मुख
आंँखे मूंद न सुलझ पाएँगे।
पर्वत दुःखों का ढह जाए
अब कुछ ऐसा आघात करो।
गीत फूलों के बहुत रच लिए,
अब अंगारों की बात करो।
कलियाँ बहुत हैं कोमल,
कोयल भी गा रही है।
एक आह लेकिन फिर भी,
मन को अकुला रही है।
कहाँ पीर यह उठी है?
कुछ अंधेरे अभी हैं बाकी।
क्यों खुशनुमा सुबह पर
पसरी हुई उदासी।
ये कालिमा जो हर ले
अब उस प्रभात की बात करो।
गीत फूलों के बहुत रच लिए,
अब अंगारों की बात करो।
स्वार्थ के पंक में क्यों
आदमी धँस रहा है?
खुद उलझनें बुनी थीं,
खुद उनमें फँस रहा है।
मरू की मरीचिका में
जीवन भटक रहा है।
भटकाव से दे जो मुक्ति
उस सौगात की बात करो।
गीत फूलों के बहुत रच लिए
अब अंगारों की बात करो।
बदलेगी जीवन धारा,
आएगा श्यामल किनारा।
कितनी भी हों चट्टानें
बहेगी नदिया की धारा।
लहरों को टकराने दो,
झंझावातों को आने दो,
मन-पाखी को उड़ने दो
मत बंधन की बात करो
गीत फूलों के बहुत रच लिए
अब अंगारों की बात करें।
वीणा गुप्त
नारायणा विहार
नई दिल्ली-२८
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