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३३ करोड़ या ३३ कोटि हिन्दू देवी-देवता?
अक्सर आप ने लोगों को कहते सुना होगा कि कुछ लोग का मानना है कि हिंदू धर्म में कुल ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। तो वहीं कुछ का मानना है कि ३३ करोड़ देवी-देवता नहीं बल्कि हिंदू धर्म में ३३ कोटि देवी-देवता है। हम जानते हैं अब आपके मन में ये प्रश्न आया होगा कि आख़िर इन दोनों में से कौन तथ्य सच है। बहुत से लोग आज तक इसी संदर्भ को लेकर उलझन में है। कुछ लोग तो इस लेकर आपस में बहस करने लग जाते हैं। परंतु सवाल ये है आख़िर इससा सच है क्या।
चलिए आज हम आपको बताते हैं इससे जुड़ी खास जानकारी जिसे पढ़ने के बाद शायद आप में से बहुत से लोगों की असमंजस दूर हो सकती है। दरअसल, हिंद धर्म के ग्रंथों में कोटि देवभाषा संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ है प्रकार। यानि इसका अर्थात हुआ हिंदू धर्म में ३३ करोड़ देवी-देवता नहीं बल्कि 33 कोटि यानि प्रकार के देवी-देवता हैं। तो आप में से जो भी लोग आज तक ये सोचे बैठे हैं कि हिंदू धर्म में ३३ करोड़ देवी-देवता हैं तो इस बात को अपने दिमाग से निकाल दें।
12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और इन्द्र व प्रजापति को मिलाकर कुल 33 देवता होते हैं। कुछ विद्वान इन्द्र और प्रजापति की जगह 2 अश्विनी कुमारों को रखते हैं। प्रजापति ही ब्रह्मा हैं।
12 आदित्य:
1. अंशुमान, 2. अर्यमन, 3. इन्द्र, 4. त्वष्टा, 5. धातु, 6. पर्जन्य, 7. पूषा, 8. भग, 9. मित्र, 10. वरुण, 11. विवस्वान और 12. विष्णु।
8 वसु:
1. आप, 2. ध्रुव, 3. सोम, 4. धर, 5. अनिल, 6. अनल, 7. प्रत्यूष और 8. प्रभाष।
11 रुद्र:
1. शम्भु, 2. पिनाकी, 3. गिरीश, 4. स्थाणु, 5. भर्ग, 6. भव, 7. सदाशिव, 8. शिव, 9. हर, 10. शर्व और 11. कपाली।
2 अश्विनी कुमार:
1. नासत्य और 2. द्स्त्र
कुल : 12 + 8 + 11 + 2 = 33
१२ आदित्य-
- इन्द्र : यह भगवान सूर्य का प्रथम रूप है। यह देवों के राजा के रूप में आदित्य स्वरूप हैं। इनकी शक्ति असीम है। इन्द्रियों पर इनका अधिकार है। शत्रुओं का दमन और देवों की रक्षा का भार इन्हीं पर है।
- धाता : धाता हैं दूसरे आदित्य। इन्हें श्रीविग्रह के रूप में जाना जाता है। ये प्रजापति के रूप में जाने जाते हैं। जन समुदाय की सृष्टि में इन्हीं का योगदान है। जो व्यक्ति सामाजिक नियमों का पालन नहीं करता है और जो व्यक्ति धर्म का अपमान करता है उन पर इनकी नजर रहती है। इन्हें सृष्टिकर्ता भी कहा जाता है।
- पर्जन्य : पर्जन्य तीसरे आदित्य हैं। ये मेघों में निवास करते हैं। इनका मेघों पर नियंत्रण हैं। वर्षा के होने तथा किरणों के प्रभाव से मेघों का जल बरसता है। ये धरती के ताप को शांत करते हैं और फिर से जीवन का संचार करते हैं। इनके बगैर धरती पर जीवन संभव नहीं।
- त्वष्टा : आदित्यों में चौथा नाम श्रीत्वष्टा का आता है। इनका निवास स्थान वनस्पति में है। पेड़-पौधों में यही व्याप्त हैं। औषधियों में निवास करने वाले हैं। इनके तेज से प्रकृति की वनस्पति में तेज व्याप्त है जिसके द्वारा जीवन को आधार प्राप्त होता है।
- पूषा : पांचवें आदित्य पूषा हैं जिनका निवास अन्न में होता है। समस्त प्रकार के धान्यों में ये विराजमान हैं। इन्हीं के द्वारा अन्न में पौष्टिकता एवं ऊर्जा आती है। अनाज में जो भी स्वाद और रस मौजूद होता है वह इन्हीं के तेज से आता है।
- अर्यमन : अदिति के तीसरे पुत्र और आदित्य नामक सौर-देवताओं में से एक अर्यमन या अर्यमा को पितरों का देवता भी कहा जाता है। आकाश में आकाशगंगा उन्हीं के मार्ग का सूचक है। सूर्य से संबंधित इन देवता का अधिकार प्रात: और रात्रि के चक्र पर है। आदित्य का छठा रूप अर्यमा नाम से जाना जाता है। ये वायु रूप में प्राणशक्ति का संचार करते हैं। चराचर जगत की जीवन शक्ति हैं। प्रकृति की आत्मा रूप में निवास करते हैं।
- भग : सातवें आदित्य हैं भग। प्राणियों की देह में अंग रूप में विद्यमान हैं। ये भग देव शरीर में चेतना, ऊर्जा शक्ति, काम शक्ति तथा जीवंतता की अभिव्यक्ति करते हैं।
- विवस्वान : आठवें आदित्य विवस्वान हैं। ये अग्निदेव हैं। इनमें जो तेज व ऊष्मा व्याप्त है वह सूर्य से है। कृषि और फलों का पाचन, प्राणियों द्वारा खाए गए भोजन का पाचन इसी अग्नि द्वारा होता है। ये आठवें मनु वैवस्वत मनु के पिता हैं।
- विष्णु : नौवें आदित्य हैं विष्णु। देवताओं के शत्रुओं का संहार करने वाले देव विष्णु हैं। वे संसार के समस्त कष्टों से मुक्ति कराने वाले हैं। माना जाता है कि नौवें आदित्य के रूप में विष्णु ने त्रिविक्रम के रूप में जन्म लिया था। त्रिविक्रम को विष्णु का वामन अवतार माना जाता है। यह दैत्यराज बलि के काल में हुए थे। हालांकि इस पर शोध किए जाने कि आवश्यकता है कि नौवें आदित्य में लक्ष्मीपति विष्णु हैं या विष्णु अवतार वामन। 12 आदित्यों में से एक विष्णु को पालनहार इसलिए कहते हैं, क्योंकि उनके समक्ष प्रार्थना करने से ही हमारी समस्याओं का निदान होता है। उन्हें सूर्य का रूप भी माना गया है। वे साक्षात सूर्य ही हैं। विष्णु ही मानव या अन्य रूप में अवतार लेकर धर्म और न्याय की रक्षा करते हैं। विष्णु की पत्नी लक्ष्मी हमें सुख, शांति और समृद्धि देती हैं। विष्णु का अर्थ होता है विश्व का अणु।
- अंशुमान : दसवें आदित्य हैं अंशुमान। वायु रूप में जो प्राण तत्व बनकर देह में विराजमान है वही अंशुमान हैं। इन्हीं से जीवन सजग और तेज पूर्ण रहता है।
- वरुण : ग्यारहवें आदित्य जल तत्व का प्रतीक हैं वरुण देव। ये मनुष्य में विराजमान हैं जल बनकर। जीवन बनकर समस्त प्रकृति के जीवन का आधार हैं। जल के अभाव में जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। वरुण को असुर समर्थक कहा जाता है। वरुण देवलोक में सभी सितारों का मार्ग निर्धारित करते हैं। वरुण तो देवताओं और असुरों दोनों की ही सहायता करते हैं। ये समुद्र के देवता हैं और इन्हें विश्व के नियामक और शासक, सत्य का प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन-रात के कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य के निर्माता के रूप में जाना जाता है। इनके कई अवतार हुए हैं। उनके पास जादुई शक्ति मानी जाती थी जिसका नाम था माया। उनको इतिहासकार मानते हैं कि असुर वरुण ही पारसी धर्म में ‘अहुरा मज़्दा’ कहलाए।
- मित्र : बारहवें आदित्य हैं मित्र। विश्व के कल्याण हेतु तपस्या करने वाले, साधुओं का कल्याण करने की क्षमता रखने वाले हैं मित्र देवता हैं। ये 12 आदित्य सृष्टि के विकास क्रम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
कौन थे 8 वसु?
‘वसु’ शब्द का अर्थ ‘वसने वाला’ या ‘वासी’ है। धरती को वसुंधरा भी कहते हैं। 8 पदार्थों की तरह ही 8 वसु हैं। इन्हें ‘अष्ट वसु’ भी कहते हैं। इन आठों देवभाइयों को इन्द्र और विष्णु का रक्षक देव माना जाता है। सभी का जन्म दक्ष कन्या और धर्म की पत्नी वसु से हुआ है। दक्ष कन्याओं में से एक सती भी थी, जो शिव की पत्नी थीं। सती ने दूसरा जन्म पार्वती के रूप में लिया था।
स्कंद पुराण के अनुसार महिषासुर मर्दिनी दुर्गा के हाथों की अंगुलियों की सृष्टि अष्ट वसुओं के ही तेज से हुई थी। रामायण में वसुओं को अदिति पुत्र कहा गया है। हालांकि यह शोध का विषय भी है।
आठ वसुओं के नाम :
वेद और पुराणों में इनके अलग-अलग नाम मिलते हैं। स्कंद, विष्णु तथा हरिवंश पुराणों में 8 वसुओं के नाम इस प्रकार हैं:-
- आप
- ध्रुव
- सोम
- धर
- अनिल
- अनल
- प्रत्यूष
- प्रभाष
वसुओं का इतिहास :
जालंधर दैत्य के अनुचर शुंभ को वसुओं ने ही मारा था। पद्मपुराण के अनुसार वसुगण दक्ष के यज्ञ में उपस्थित थे और हिरण्याक्ष के विरुद्ध युद्ध में इन्द्र की ओर से लड़े थे। भागवत में कालकेयों से इनके युद्ध का वर्णन है। एक कथा के अनुसार पितृशाप के कारण एक बार वसुओं को गर्भवास भुगतना पड़ा, फलस्वरूप उन्होंने नर्मदातीर जाकर 12 वर्षों तक घोर तपस्या की। तपस्या के बाद भगवान शंकर ने इन्हें वरदान दिया। तदनंतर वसुओं ने वही शिवलिंग स्थापित करके स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया।
वसुओं की उत्पत्ति की कथा :
8 वसुओं में सबसे छोटे वसु ‘द्यो’ ने एक दिन वशिष्ठ की गाय नंदिनी को लालचवश चुरा लिया था। वशिष्ठ को जब पता चला तो उन्होंने आठों वसुओं को मनुष्य योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया। वसुओं के क्षमा मांगने पर वशिष्ट ने 7 वसुओं के शाप की अवधि केवल 1 वर्ष कर दी।
‘द्यो’ नाम के वसु ने अपनी पत्नी के बहकावे में आकर उनकी धेनु का अपहरण किया था अत: उन्हें दीर्घकाल तक मनुष्य योनि में रहने तथा संतान उत्पन्न न करने, महान विद्वान और वीर होने तथा स्त्री-भोग परित्यागी होने को कहा। इसी शाप के अनुसार इनका जन्म शांतनु की पत्नी गंगा के गर्भ से हुआ। 7 को गंगा ने जल में फेंक दिया, 8वें भीष्म थे जिन्हें बचा लिया गया था। लेकिन इससे इतर भी उनकी मनुष्य योनि में जन्म से पूर्व की कथा प्राचीन है।
संस्कृत विद्वानों के अनुसार सौर परिवार के प्रमुख सूर्य के एक ओर से 9 रश्मियां निकलती हैं और ये चारों ओर से अलग-अलग निकलती हैं। इस तरह कुल 36 रश्मियां हो गईं। इन 36 रश्मियों के ध्वनियों पर संस्कृत के 36 स्वर बने। इस तरह सूर्य की जब 9 रश्मियां पृथ्वी पर आती हैं तो उनकी पृथ्वी के 8 वसुओं से टक्कर होती है। सूर्य की 9 रश्मियां और पृथ्वी के 8 वसुओं के आपस में टकराने से जो 72 प्रकार की ध्वनियां उत्पन्न हुईं, वे संस्कृत के 72 व्यंजन बन गईं। इस प्रकार ब्रह्मांड में निकलने वाली कुल 108 ध्वनियों पर संस्कृत की वर्ण माला आधारित हैं।
ये हैं भगवान शिव के 11 रुद्र रूप-
सोमवार का दिन भगवान शिव को समर्पित है. ऐसे में कहा जाता है कि अगर सोमवार को भगवान शिव की सच्चे मन से पूजा की जाए तो सारे कष्टों से मुक्ति मिलती है और सभी मनोकामना पूरी होती है. शिव सदा अपने भक्तों पर कृपा बरसाते हैं. मान्यता है कि भगवान शिव को खुश करने के लिए सोमवार को सुबह उठकर स्नान करके भगवान शिव की आराधना करनी चाहिए. ऐसी मान्यता है कि इस दिन सच्चे मन से भोले भगवान की पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं.
भगवान शिव को स्वयंभू कहा जाता है जिसका अर्थ है कि वह अजन्मा हैं. वह ना आदि हैं और ना अंत. भोलेनाथ को अजन्मा और अविनाशी कहा जाता है. भगवान शिव सृष्टि के संहारक हैं. उनके संहारक स्वरूप को रुद्र कहा गया है. रुद्र के 11 रूप की कथा वेदों-पुराणों में वर्णित है. आइए आपको बताते हैं भगवान शिव के रुद्र रूपों के बारे में.
महाकाल- शिव के दस प्रमुख अवतारों में पहला अवतार महाकाल को माना जाता है। इस अवतार की शक्ति मां महाकाली मानी जाती हैं। उज्जैन में महाकाल नाम से ज्योतिर्लिंग विख्यात है। उज्जैन में ही गढ़कालिका क्षेत्र में मां कालिका का प्राचीन मंदिर है और महाकाली का मंदिर गुजरात के पावागढ़ में है।
2. तारा- शिव के रुद्रावतार में दूसरा अवतार तार (तारा) नाम से प्रसिद्ध है। इस अवतार की शक्ति तारादेवी मानी जाती हैं। पश्चिम बंगाल के वीरभूम में स्थित द्वारका नदी के पास महाश्मशान में स्थित है तारा पीठ। पूर्वी रेलवे के रामपुर हॉल्ट स्टेशन से 4 मील दूरी पर स्थित है यह पीठ।
3.बाल भुवनेश- देवों के देव महादेव का तीसरा रुद्रावतार है बाल भुवनेश। इस अवतार की शक्ति को बाला भुवनेशी माना गया है। दस महाविद्या में से एक माता भुवनेश्वरी का शक्तिपीठ उत्तराखंड में है। उत्तरवाहिनी नारद गंगा की सुरम्य घाटी पर यह प्राचीनतम आदि शक्ति मां भुवनेश्वरी का मंदिर पौड़ी गढ़वाल में कोटद्वार सतपुली-बांघाट मोटर मार्ग पर सतपुली से लगभग 13 किलोमीटर की दूरी पर ग्राम विलखेत व दैसण के मध्य नारद गंगा के तट पर मणिद्वीप (सांगुड़ा) में स्थित है। इस पावन सरिता का संगम गंगाजी से व्यासचट्टी में होता है, जहां भगवान वेदव्यासजी ने श्रुति एवं स्मृतियों को वेद पुराणों के रूप में लिपिबद्ध किया था।
4. षोडश श्रीविद्येश- भगवान शंकर का चौथा अवतार है षोडश श्रीविद्येश। इस अवतार की शक्ति को देवी षोडशी श्रीविद्या माना जाता है। ‘दस महा-विद्याओं’ में तीसरी महा-विद्या भगवती षोडशी है, अतः इन्हें तृतीया भी कहते हैं। भारतीय राज्य त्रिपुरा के उदरपुर के निकट राधाकिशोरपुर गांव के माताबाढ़ी पर्वत शिखर पर माता का दायाँ पैर गिरा था। इसकी शक्ति है त्रिपुर सुंदरी और भैरव को त्रिपुरेश कहते हैं।
5. भैरव- शिव के पांचवें रुद्रावतार सबसे प्रसिद्ध माने गए हैं जिन्हें भैरव कहा जाता है। इस अवतार की शक्ति भैरवी गिरिजा मानी जाती हैं। उज्जैन के शिप्रा नदी तट स्थित भैरव पर्वत पर मां भैरवी का शक्तिपीठ माना गया है, जहां उनके ओष्ठ गिरे थे। किंतु कुछ विद्वान गुजरात के गिरनार पर्वत के सन्निकट भैरव पर्वत को वास्तविक शक्तिपीठ मानते हैं। अत: दोनों स्थानों पर शक्तिपीठ की मान्यता है।
6. छिन्नमस्तक- छठा रुद्र अवतार छिन्नमस्तक नाम से प्रसिद्ध है। इस अवतार की शक्ति देवी छिन्नमस्ता मानी जाती हैं। छिनमस्तिका मंदिर प्रख्यात तांत्रिक पीठ है। दस महाविधाओं में से एक मां छिन्नमस्तिका का विख्यात सिद्धपीठ झारखंड की राजधानी रांची से 75 किमी दूर रामगढ़ में है। मां का प्राचीन मंदिर नष्ट हो गया था अत: नया मंदिर बनाया गया, किंतु प्राचीन प्रतिमा यहां मौजूद है।दामोदर-भैरवी नदी के संगम पर स्थित इस पीठ को शक्तिपीठ माना जाता है। ज्ञातव्य है कि दामोदर को शिव व भैरवी को शक्ति माना जाता है।
7. द्यूमवान- शिव के दस प्रमुख रुद्र अवतारों में सातवां अवतार द्यूमवान नाम से विख्यात है। इस अवतार की शक्ति को देवी धूमावती माना जाता हैं। धूमावती मंदिर मध्यप्रदेश के दतिया जिले में स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ ‘पीताम्बरा पीठ’ के प्रांगण में स्थित है। पूरे भारत में यह मां धूमावती का एक मात्र मंदिर है जिसकी मान्यता भी अधिक है।
8. बगलामुख- शिव का आठवां रुद्र अवतार बगलामुख नाम से जाना जाता है। इस अवतार की शक्ति को देवी बगलामुखी माना जाता है। दस महाविद्याओं में से एक बगलामुखी के तीन प्रसिद्ध शक्तिपीठ हैं- 1. हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा में स्थित बगलामुखी मंदिर, 2. मध्यप्रदेश के दतिया जिले में स्थित बगलामुखी मंदिर और 3. मध्यप्रदेश के शाजापुर में स्थित बगलामुखी मंदिर। इसमें हिमाचल के कांगड़ा को अधिक मान्यता है।
9. मातंग- शिव के दस रुद्रावतारों में नौवां अवतार मातंग है। इस अवतार की शक्ति को देवी मातंगी माना जाता है। मातंगी देवी अर्थात राजमाता दस महाविद्याओं की एक देवी है। मोहकपुर की मुख्य अधिष्ठाता है। देवी का स्थान झाबुआ के मोढेरा में है।
10. कमल- शिव के दस प्रमुख अवतारों में दसवां अवतार कमल नाम से विख्यात है। इस अवतार की शक्ति को देवी कमला माना जाता है।
शिव के अन्य ग्यारह अवतार-
कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शम्भू, चण्ड तथा भव का उल्लेख मिलता है।
अन्य अंशावतार-
इन अवतारों के अतिरिक्त शिव के दुर्वासा, हनुमान, महेश, वृषभ, पिप्पलाद, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, अवधूतेश्वर, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, ब्रह्मचारी, सुनटनतर्क, द्विज, अश्वत्थामा, किरात और नतेश्वर आदि अवतारों का उल्लेख भी ‘शिव पुराण’ में हुआ है।
शिव के बारह ज्योतिर्लिंग भी अवतारों की ही श्रेणी में आते हैं।
बारह ज्योतिर्लिंग-
- सौराष्ट्र में ‘सोमनाथ’,
- श्रीशैल में ‘मल्लिकार्जुन’,
- उज्जयिनी में ‘महाकालेश्वर’,
- ओंकार में ‘अम्लेश्वर’,
- हिमालय में ‘केदारनाथ’,
- डाकिनी में ‘भीमेश्वर’,
- काशी में ‘विश्वनाथ’,
- गोमती तट पर ‘त्र्यम्बकेश्वर’,
- चिताभूमि में ‘वैद्यनाथ’,
- दारुक वन में ‘नागेश्वर’,
- सेतुबंध में ‘रामेश्वर’ और
- शिवालय में ‘घुश्मेश्वर’
अश्विनी कुमार:
1. नासत्य और 2. द्स्त्र
हिन्दू धर्म के प्रमुख 33 देवताओं की लिस्ट में अश्विनी कुमारों का नाम भी है। अश्विनी देव से उत्पन्न होने के कारण इनका नाम अश्विनी कुमार रखा गया। इन्हें सूर्य का औरस पुत्र भी कहा जाता है। ये मूल रूप से चिकित्सक थे। ये कुल दो हैं। एक का नाम ‘नासत्य’ और दूसरे का नाम ‘द्स्त्र’ है। इनका संबंध रात्रि और दिवस के संधिकाल से ऋग्वेद ने किया है। उनकी स्तुति ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में की गई है। वे कुमारियों को पति, वृद्धों को तारुण्य, अंधों को नेत्र देने वाले कहे गए हैं।
उषा के पहले ये रथारूढ़ होकर आकाश में भ्रमण करते हैं और इसी कारण उनको सूर्य पुत्र मान लिया गया। निरुक्तकार इन्हें ‘स्वर्ग और पृथ्वी’ और ‘दिन और रात’ के प्रतीक कहते हैं। चिकित्सक होने के कारण इन्हें देवताओं का यज्ञ भाग प्राप्त न था। च्यवन ने इन्द्र से इनके लिए संस्तुति कर इन्हें यज्ञ भाग दिलाया था। दोनों कुमारों ने राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के पतिव्रत से प्रसन्न होकर महर्षि च्यवन का इन्होंने वृद्धावस्था में ही कायाकल्प कर उन्हें चिर-यौवन प्रदान किया था। इन्होंने ही दधीचि ऋषि के सिर को फिर से जोड़ दिया था। कहते हैं कि दधीचि से मधु-विद्या सीखने के लिए इन्होंने उनका सिर काटकर अलग रख दिया था और उनके धड़ पर घोड़े का सिर रख दिया था और तब उनसे मधुविद्या सीखी थी।
देवता विश्वकर्मा को त्वष्टा भी कहा जाता है। उनकी पुत्री का नाम संज्ञा था। संज्ञा को कहीं-कहीं प्रभा भी कहा गया है। विश्वकर्मा ने अपनी इस पुत्री का विवाह भगवान सूर्य से कर दिया। विवाह के बाद संज्ञा ने वैवस्वत और यम नामक दो पुत्रों और यमुना नामक एक पुत्री को जन्म दिया।
संज्ञा बड़े कोमल स्वभाव की थी, जबकि सूर्य प्रचंड स्वभाव के थे। ऐसे में बड़े कष्टों के साथ संज्ञा सूर्यदेव के तेज को सहन कर रही थी। जब यह सब असहनीय हो गया तो वह अपनी छाया को सूर्यदेव की सेवा में छोड़कर अपने पिता के घर लौट गई। बहुत दिनों बाद पिता विश्वकर्मा ने उसे अपने पति के घर लौटने को कहा, लेकिन वह वहां नहीं जाना चाहती थी। तब वह उत्तरकुरु नामक स्थान (उत्तरी ध्रुव के पास) पर घोड़ी का रूप बनाकर तपस्या करने लगी।
इधर सूर्यदेव, संज्ञा की छाया को ही संज्ञा समझते थे। एक दिन छाया ने किसी बात से क्रोधित होकर संज्ञा के पुत्र यम को शाप दे दिया। शाप से भयभीत होकर यम अपने पिता सूर्य के पास गए और माता द्वारा शाप देने की बात बताई। माता ने अपने पुत्र को शाप दे दिया, यह सुनकर सूर्य को छाया पर संदेह होने लगा। तब सूर्य ने छाया को बुलाकर उसकी सच्चाई जाननी चाही।
छाया ने जब कुछ नहीं बताया और वह चुप रह गई, तब सूर्यदेव उसे शाप देने को तैयार हो गए। ऐसे में भयभीत छाया ने सब कुछ सच-सच बता दिया। फिर सूर्यदेव ने उसी क्षण आंखें बंद करके देखा कि संज्ञा उत्तरकुरु नामक स्थान पर घोड़ी का रूप धारण कर उनके तेज को सौम्य और शुभ करने के उद्देश्य से कठोर तपस्या कर रही है। तब सूर्यदेव ने अपने ससुर विश्वकर्मा के पास जाकर उनसे अपना तेज कम करने की प्रार्थना की।
विश्वकर्मा ने उनके तेज को कम कर दिया। तेज कम होने के बाद सूर्यदेव घोड़े का रूप बनाकर संज्ञा के पास गए और वहीं उसके साथ संसर्ग किया। इससे उन्हें नासत्य, दस्त्र और रैवत नामक पुत्रों की प्राप्ति हुई। नासत्य और दस्त्र अश्विनीकुमार के नाम से प्रसिद्ध हुए। तत्पश्चात सूर्य ने प्रसन्न होकर संज्ञा से वर मांगने को कहा। संज्ञा ने अपने पुत्र वैवस्वत के लिए मनु पद, यम के लिए शाप मुक्ति और यमुना के लिए नदी के रूप में प्रसिद्ध होना मांगा। भगवान सूर्यदेव ने इच्छित वर प्रदान किया।
वैवस्वत सातवें मन्वन्तर का स्वामी बनकर मनु पद पर आसीन हुआ। इस मन्वंतर में ऊर्जस्वी नामक इन्द्र थे। अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप, गौतम, भारद्वाज, विश्वामित्र और जमदग्नि- ये सातों इस मन्वंतर के सप्तर्षि थे। इस मन्वंतर में भगवान विष्णु ने महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से वामन नाम से अवतार लेकर तीनों लोकों को दैत्यराज बलि के अधिकार से मुक्त किया।
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