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उपलब्धि (Achievement) :
उपलब्धि (Achievement) : अभी दोपहर का खाना खाकर लेटी ही थी कि दरवाज़े की घंटी बजी देखा तो निर्मला थी। बहुत खुश थी, हाथ में मिठाई का डिब्बा लिए खड़ी थी। मैंने पुछा, ‘क्यों री, क्या तेरी सगाई वगाई हो गयी?’ अरे नहीं, मैं पास हो गयी हूँ। मैंने ओपन बोर्ड से दसवीं की परीक्षा दी थी, आज परिणाम आया है। आपके मार्ग दर्शन से पास हो गयी हूँ। मुझे सुन कर बहुत ख़ुशी हुई। अच्छा, चल अंदर तो आ, नहीं मैडम अभी किसी काम से जाना है, शाम को आकर मिलती हूँ।
आपसे आगे के मार्ग दर्शन के लिए, कह कर वह चली गयी। मैं भी दरवाज़ा बंद कर आकर लेट गयी और दिमाग़ कुछ वर्ष पीछे चला गया। मेरे पति सरकारी नौकरी में हैं, हम तबादला होने पर इस शहर में आये थे। घर में हम दो ही जन-मैं और मेरे पति, वे सुबह दफ्तर चले जाते और मैंने भी पास में एक निजी विद्यालय में नौकरी कर ली। ये शहर का नामी गिरामी विद्यालय है जहाँ शाम को गरीब बच्चों को पढ़ाने की कक्षाएँ भी लगाई जाती हैं। मैंने भी इन बच्चों को पढ़ाने का जिम्मा ले लिया।
ऐसे ही एक दिन कक्षा चल रही थी कि दरवाज़े पर एक बारह तेरह वर्ष की एक लड़की आयी और बहुत मधुर आवाज़ में बोली, ‘मैडम क्या मैं अंदर आ सकती हूँ?’ मैंने अंदर आने का इशारा किया तो वह झट से अंदर चली आई। मुस्कुराते हुए बोली, ‘क्या आप ही बच्चों को पढ़ाती हो?’ मेरे हाँ कहने पर उसने पूछा कि क्या मैं उसे भी पढ़ाऊंगी? तो मैंने कहा, ‘ हाँ, अगर तुम पढ़ना चाहोगी तो ज़रूर पढ़ाऊंगी। मैंने उसे एक ओर बैठने का इशारा करके बाक़ी बच्चों को कुछ काम दिया और फिर इशारे से उसे अपने पास बुलाया तो वह झट से आ गयी। मैंने नाम पूछा तो उसने बताया कि उसका नाम निर्मला है।
कितना प्यारा नाम था और उसका व्यक्तित्व भी उसके नाम के अनुरूप ही था निर्मल और निश्छल। वह बता रही थी कि उसके माँ-बाप बहुत गरीब हैं बिहार के किसी गाँव में रहते हैं। पैसे की तंगी के चलते उन्होंने उसे तथा उसके भाई को बुआ के पास शहर भेज दिया है। भाई गाँव में पढ़ता था इसलिए बुआ ने उसे यहाँ सरकारी स्कूल में भर्ती करा दिया है, उसे भी पढ़ने का शौक है लेकिन बुआ कहती है कि लड़कियाँ तो काम करती हैं। मैं सोचने लगी कि ये ग़रीबी भी कितनी बड़ी समस्या है और उससे भी बड़ी समस्या है लड़की होना।
अपने हिस्से का सब कुछ या तो बांटना या छोड़ना पड़ता है, खैर मैं अपने विचारों में न उलझ कर उसकी बात सुनने लगी बीच-बीच में मैं बच्चों से भी पूछती जाती और उनका काम भी जांच रही थी। उसने भी कॉपी में लिखने की इच्छा जाहिर की तो मैंने उसे भी एक कॉपी और पेंसिल दे दी। उसकी कॉपी में मैंने क, ख, ग लिखा तो उसने झट से लिख कर दिखा दिया। उसका दिमाग़ बहुत तेज़ था और लगन भी थी वह सात आठ महीने में ही एक पांचवी के बच्चे जितना लिखना पढ़ना सीख गई। वह अपने भाई की किताबें लेकर आने लगी उनसे इतिहास, भूगोल विज्ञान पढ़ती।
ऐसे ही डेढ़ साल कैसे निकला पता ही नहीं चला। एक दिन उसने आ कर बताया कि उसकी बुआ ने उसे एक कोठी में रखवा दिया है, एक वृद्ध दम्पति हैं उनके बच्चे विदेश रहते हैं, बेटा स्वीडन में है और बेटी अमेरिका में। दोनों साल के अलग-अलग समय पर आते हैं ताकि दम्पति का मन लगा रहे। वे लोग तो चाहते हैं कि उनके माता पिता उनके साथ जाएँ पर बुज़ुर्ग ही अपना देश छोड़ना नहीं चाहते। भैया ने तो उसकी तनखाह भी अच्छी लगाई है ताकि मैं अच्छे से काम करूँ। मैंने पूछा तो क्या फिर तुम स्कूल नहीं आओगी तो उसने कहा कि नहीं, उसने भैया को सब बता दिया है उन्होंने उसे पढ़ने के लिए मना नहीं किया।
वह यह बता कर अपने काम में लग गई। उसके बाद उसे अचानक जैसे कुछ याद आया, अपने थैले में से एक अख़बार का टुकड़ा निकाल कर मुझे दिखाते हुए बोली कि यह ‘निओस’ क्या है, यह ओपन बोर्ड जिसके माध्यम से दसवीं या बारहवीं की परीक्षा दे सकते हैं तो उसने कहा, ‘मेरा भी दाखला करवा दो मैं भी दसवीं करूंगी।’ मेरी बुआ की लड़की ने भी यहीं से दसवीं पास की है। मैंने कहा, ‘क्या तुम कर पाओगी?’ बहुत मेहनत करनी पड़ती है। उसने कहा आप बस मेरा दाखिला करवा दो बाक़ी सब मैं ख़ुद कर लूंगी। मैंने सारी प्रक्रिया पूछ कर उसका फार्म भरवा दिया वह पूरे उत्साह के साथ तैयारी में जुट गयी, उसने भी पढ़ना लिखना शुरू किया।
ऐसा नहीं कि उसे मुश्किलें नहीं आई, मैं देख रही थी कि वह बहुत संघर्ष कर रही थी, जहाँ वह काम करती थी वह माता जी अचानक बीमार हो गयी और जिसके कारण वह उन्हें छोड़ नहीं पाती और दो-दो तीन तीन दिन कक्षा के लिए नहीं आ पाती थी। एक दिन जब वह पांच दिन बाद आई तो मैंने उसे थोड़ा डाँट कर कहा कि इस तरह से तो उसे भूल जाना चाहिए कि वह कभी परीक्षा में बैठ पायेगी। मैंने उससे कहा कि उसे पढाई के लिए ज़्यादा समय देना चाहिए। उसने कहा, ‘मैडम मैं आपके बताये अनुसार ही पढ़ती हूँ।
इन पांच दिन मैं बीमार हो गयी थी, रात को नींद न आये इसलिए मैं सर्दी के इस मौसम में भी रजाई ओढ़े बिना बिस्तर पर न बैठ कर ज़मीन पर बैठ कर पढ़ती हूँ, जिसके कारण ठण्ड लगने से बुखार आ गया।’ उसकी बात सुन कर मैं स्तब्ध रह गई थी। उसके बाद वह ज़्यादा देर तक कक्षा के लिए नहीं आ सकी। मैं ने उसके आस पड़ोस से पता करवाया, जो नंबर उसने मुझे दिया था वह भी अस्थायी तौर पर बंद आ रहा था। आज इस बात को दो साल होने को आये थे। अभी यह सब सोच रही थी तो घंटी पुनः बजी, देखा तो निर्मला ही थी।
अंदर आकर बैठी तो मैंने कहा कि तुम तो अचानक गायब ही हो गयी थी मुझे लगा कि गाँव चली गयी होगी पढाई वढ़ाई छोड़ कर। तो उसने कहा नहीं समय ने तो बहुत कोशिश की लेकिन मैंने हार नहीं मानी। मैडम आप ही तो कहती हो कि सूरज को ज़्यादा देर तक छिपाया नहीं जा सकता, जैसे सूरज बादल की सारी बाधाएँ तोड़ कर भी निकल आता है उसी तरह मेह्नत और कोशिश करने वालों को भी मंज़िल मिलती ही है। बस अब मुझे और आगे जाना है। उसकी स्वच्छ निर्मल आँखों में मैं बाहर बादलों के पीछे से निकले सूरज की किरणों से निकली चमक देख रही थी।
अनुपमा पाराशर
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