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अहसास (Realization)
Realization : हर दिवाली पर हम सभी के घरों में जम कर सफ़ाई होती है। घर को नये सिरे से सजाया जाता है। हम लोग अपने माँ-पापा-चाचा आदि की तस्वीरें भी धूल झाड़ कर, अदल-बदल सजा लेते हैं। मैं अपने पापा से नाराज़ थी। इतनी नाराज़ थी कि ना तो उनसे बात तक नहीं करती थी।
पापा ने मेरा करियर ख़त्म कर दिया था (लड़कियों का करियर मायने नहीं रखता, शादी ज़्यादा ज़रूरी है) उन्होंने सोचा था कि वक़्त के साथ सब ठीक हो जायेगा। बस हमें यही सिद्ध करना था कि कुछ ज़ख़्म वक़्त के साथ नहीं भरते। ख़ैर, अपनी नाराज़गी ज़ाहिर करने के लिये मैं पापा की फ़ोटो नहीं लगाती थी। हालाँकि उससे किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा।
कोई ना कोई हादसा हर किसी की ज़िन्दगी में होता है। हमारे जीवन में भी हुआ। विचित्र किन्तु सत्य बात यह है कि हम इस दुर्घटना को विवाह का नाम देते हैं। पापा हमारे बहुत अच्छे थे। माँ तो बहुत जल्दी हमें छोड़ गयीं थीं। पापा ने ही अकेले हमें पला पोसा और बड़ा किया। फिर भी इस एक हादसे के तहद हम पापा से बेहद नाराज़ रहे। सपनों और आकांक्षाओं के साथ-साथ क्षमता भी थी हमारे अंदर।
लेकिन बहुत कुछ उन्होंने हमें नहीं करने दिया। चित्रकला में माहिर हो सकते थे हम। मगर नहीं! आई ए एस ही बनना था और उसके लिये सिर्फ़ पढ़ना था। पढ़े, आँखों पर चश्मा भी लग गया; और जब सारी तैयारी हो गयी तो अचानक उठा के शादी कर दी। उस ज़माने में विवाहित लड़कियाँ कलक्टर नहीं बन सकती थीं जो हमारा सपना था। ऊपर से करेला और नीम चढ़ा। ससुराल वालों ने परीक्षा देने से भी मना कर दिया कि शादी के बाद घर सम्भालो।
यक़ीन मानिये ऐसा लगा जैसे फूल वालों की बेटी भंगियों के घर आ गयी हो। महक की जगह दुर्गन्ध ने ले ली हो। कोई नहीं समझ सकता था कि हमें परेशानी क्या है। हमनें इस सब के लिए पापा को मुजरिम ठहराया (विडंबना देखिये कि पापा न्यायाधीश थे) । ख़ैर, नाज़ुक मिज़ाज (हम कवि भी थे) होने के साथ हम नाज़ुक शरीर भी थे। इसलिये घर का काम (बिना नौकर के) पहाड़ जैसा लगता था। मुख़्तर-सी बात है कि सामाजिक मापदंड के हिसाब से सबकुछ था बस ख़ुशी नहीं थी।
हमने पापा को कभी माफ़ नहीं किया। शायद पैसा होता, नौकर चाकर होते तो ज़िन्दगी से समझौता कर लेते। ख़ातिर समझौता तो अब भी किया बच्चों की ख़ातिर पर मन ने सुकून नहीं पाया। ज़िन्दगी यूँ भी गुज़र ही जाती (ग़ालिब से माफ़ीनामे के साथ) लेकिन हमारे अंदर जो आग थी-जिसे हमने बुझने नहीं दिउठती या, कभी-कभी लपट बन के जल उठती थी। बच्चे बड़े हो गये। घर के कभी ना ख़त्म होने वाले काम कम हो गये।
हमनें लिखना शुरू कर दिया। हमारा लेखन काफ़ी पसंद किया जाने लगा। एक ग़ज़लों की किताब भी छप गयी। सांझे में छपने वाले हिन्दी-अंग्रेज़ी के सैकड़ों कविता संग्रहों में हमारी कविताओं का शुमार होने लगा। बेरंग जीवन में कुछ रंग बिखर गये। एक पत्नी और माँ के आलावा भी हमारी एक पहचान बन गयी। अब क़दमों को रुकना नहीं था। अंग्रेज़ी के दो संग्रह छप गये।
कुछ पत्रिकाओं तथा ग्रुप्स ने छोटी-छोटी कहानियों की भी मांग की और वह छप भी गयीं। हम कभी अपने परिवार के व्हासएप्प पर भी नहीं जाते। लेकिन एक मज़ेदार याद को लेकर हमनें-एक संस्मरण लिख डाला। दोस्तों वाले ग्रुपों में बहुत पसंद किया गया। सोचा कि चलो पारिवारिक ग्रुप पर भी डाल दें। आख़िर सच्चा वाक़या था वह भी हमारी बड़ी बहन को लेकर। सो डाल दिया। सबको बड़ा मज़ा आया।
अगले दिन हमारे छोटे भाई ने लिख दिया कि हमनें वह आलेख ख़ुद नहीं लिखा बल्कि किसी और का नक़ल कर के लिखा है और अपना बता दिया। ये सरासर चोरी का इलज़ाम था जो हम कतई बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। ख़ैर दीदी के बच्चों ने हमारा समर्थन किया। छोटी बहन ने भी बताया कि उसने हमारा आलेख पढ़ा था। बात आयी गयी हो गयी। हमारे दिल में अभी भी हलचल थी कि हमारा अपना बहुत प्यारा छोटा भाई ऐसा कुछ कर सकता है। हमनें अपने लिखने का प्रमाण देते हुए एक-दो और आलेख पटल पर डाल दिये।
हमारे दिल में जो हलचल थी वह तो थी ही मगर हमें यह अंदाज़ा नहीं था कि हमारे छोटे भैया के दिल में भी खलबली मची हुई है। दो तीन दिनों के बाद भाई ने पटल पर लिखा कि उसका करियर हमनें ख़राब किया है। वह हाई स्कूल में साइंस लेना चाहते थे परन्तु पापा ने ज़बरदस्ती उन्हें आर्ट्स दिलवाया। पापा चाहते थे कि भाई आई ए एस ऑफिसर बने। उनके मुताबिक़ साइंस में नंबर कम आते हैं।
भाई ने शायद हमसे भी फ़रमाईश करवाई थी। हमें तो याद नहीं मगर हो सकता है। यह भी हो सकता है कि हमनेँ पापा का समर्थन किया हो। आखिरकार पापा ख़ुद एक जज थे और भाई का भला ही चाहते थे। ख़ैर भाई की नहीं चली। वह भी ज़िद्दी था। उसे आर्ट्स पसंद भी नहीं था, अतः एक बेहद बुद्धिमान विद्यार्थी टॉप करना तो दूर प्रथम श्रेणी भी ना ला सका। हर काम से उसका मन उचट गया। करियर तो चौपट हो ही गया।
अब, इतने साल के बाद अचानक उसका बोलना बरसों से जमें ज़हर को दिखा गया। ये ज़हर उसकी अपनी कमज़ोरी का नतीजा था। एकाएक हमें अपना ग़ुस्सा और पापा से नाराज़गी याद आ गयी। उस ज़माने में लड़कियों की शादी एक बेहद ज़रूरी मसला होता था। बच्चे तो आदर्शवादी होते हैं। वे सपनों की दुनिया में रहते हैं। माँ-बाप के सर पर किस क़दर ज़िम्मेदारी होती है उसका अंदाज़ा हमें तब होता है जब हम स्वयं माँ या पिता बनते हैं।
पूरे पचास सालों के बाद छोटे भाई के एक छोटे से आरोप ने एक झटके में सारी नाराज़गी ख़त्म कर दी। आज ये अहसास हुआ कि पापा निरपराध थे। काश पापा की बेगुनाही हमनें पापा के रहते हुए महसूस कर ली होती। वह जज थे और हमनें उन्हें मुजरिम बना रखा था और इस बार दिवाली में हमनें पापा की फ़ोटो भी कमरे की दीवार पर सजा ली। मन ही मन क्षमा याचना भी कर ली।
कौन अपना कौन पराया
पति की बीमारी के दौरान रमा की तनख़ाह से ही घर का ख़र्चा चला। पति का इलाज़ और इकलौते बेटे की पढ़ाई दोनों काम पूरे किये। पढ़ाई पूरी करके बेटे की नौकरी लग गयी। फिर शादी भी हो गयी। शुरू-शुरू में सब ठीक चला किन्तु पति की मृत्यु के बाद बहु के रंग ढंग बदलने लगे। एक पोता भी हो गया था जो अब थोड़ा बड़ा हो रहा था। बहु ने शिकायत करनी आरम्भ कर दी कि बेटे को अब अलग कमरा चाहिए।
दो ही कमरों का मकान था इसलिए मुश्किल तो हो ही रही थी। रमा के नौकरी से अवकाश का समय भी नज़दीक आ रहा था अतः वह अपना वक़्त कहानियाँ आदि लिखने में व्यतीत करती थी। उसे भी एक अलग कमरे की ज़रूरत थी। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाये। बेटे ने दबी ज़ुबान से कहा “माँ रीना कह रही थी कि अब तो बाबू जी भी नहीं रहे; क्यों ना आप वृद्धाश्रम में शिफ्ट हो जाओ। टीटू को कमरा मिल जायेगा और आपको लिखने के लिए तन्हाई।” रमा धक से रह गयी लेकिन अपना सामान बाँधने लगी।
लैपटॉप उठाया तो बहु रीना ने हाथ पकड़ लिया, बोली “माँ इसे टीटू के लिए छोड़ दो।” निर्मला निकेतन पहुँच कर रमा ने सामान लगा लिया। कुछ दिन बाद किसी और संस्था से एक महिला वहाँ कुछ दान देने के लिए आयी। रमा को देख कर वह चौंक गयी। वह रमा की स्टूडेंट रही थी। सारी बातें कर वह रमा को अपने साथ ले गयी। उसे अपने बच्चों के लिए एक नायाब शिक्षक और अपने लिए एक हमदर्द बुज़ुर्ग। उसने रमा को लिखने पढ़ने का सब सामान लैपटॉप सहित लेकर दे दिया। उसे लेखन की पूरी सुविधा तथा हौसला प्रदान कर दिया।
वक़्त बीतता गया। बेटे ने कोई खोज ख़बर नहीं ली। रमा एक बड़ी और नामवर लेखिका बन गयी। फिर वह वक़्त आया जब रमा को साहित्य रत्न का पुरस्कार मिला। बहु रीना ने अख़बार में रमा का फ़ोटो ईनाम की घोषणा के साथ देखा। उसकी आँखों में चमक आ गयी। पुरस्कार समारोह के बाद रमा घर आ कर बधाई देने वाले महमानों की आवभगत में लग गयी। अचानक रमा की नज़र बेटे पर पड़ी। बेटा बड़ी ख़ुशी सेअरे आगे आकर बोला “माँ मुबारक हो।
अब आपके टीटू की मनोकामना पूरी हो जाएगी। वह अमरीका जाना चाहता है। हमारे पास तो पैसे हैं नहीं लेकिन अब तो दादी ही टीटू को अमरीका भेजेगी।” रमा ने आश्चर्य से बेटे को देखा और बोली ‘अरे टीटू की दादी तो निर्मला निकेतन में है। उसके पास धन कहाँ?’ बेटा बोला ‘माँ आप?’ रीना भी बोली ‘माँ क्या आप अपने पोते के लिए कुछ नहीं करेंगी क्या?’ रमा ने अपने नए बच्चों के सर पर हाथ रखा और कहा ‘ये हैं मेरे पोते। तुमने तो मेरे लिखने के लिए लैपटॉप भी नहीं छोड़ा था। तो ये ईनाम मुझे कैसे मिलता। जाओ तुम्हारी माँ वृद्धाश्रम में तुम्हारा इंतज़ार रही है।’
सुधा दीक्षित
१- माँ की ममता
२- दीवाली