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समस्या से आत्महत्या तक (From problem to suicide)
आत्महत्या (suicide) एक ख़ौफ़नाक मंज़र होता है, इसके बारे में सोच कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मानव एक विवेकशील प्राणी है, जिसे मौत की भयावहता का अंदाजा इस क़दर होता है कि मौत के बारे में कल्पना मात्र से आंँखों में आंँसू आ जाते हैं। ऐसी भयावह स्थिति तक मनुष्य का पहुंँचना अवसाद की पराकाष्ठा को दर्शाता है। लोग कहते हैं, आत्महत्या करने वाले कायर होते हैं। उन्हें मुकाबला करना चाहिए, किसी समस्या का।
हल मृत्यु नहीं है, इंसान को मनुष्य जन्म मुश्किल से मिलता है। पर शायद यह नहीं समझ पाते कि यह बातें उसे भी पता होगी, जिस ने आत्महत्या की। वास्तव में ना जाने कितनी बार उसने यह बात सोची होगी, कितनी बार समझने की कोशिश की होगी, कितनी बार दिल को समझाया होगा कि नहीं यह ग़लत है।
मनुष्य की सबसे बड़ी ताकत उसके अपने होते हैं। जिनसे वह अपने सुख-दुःख बाँटता है। अवसाद के प्रारंभिक दिनों में व्यक्ति अपने दुख के कारण को बताना शुरु करता है, परंतु अक्सर ऐसा होता है कि लोग अपनी दुनिया में मस्त होते हैं और दूसरे की परेशानी को या तो हल्के में लेते हैं या समझने की कोशिश नहीं करते।
ऐसे में मनुष्य को ऐसा कोई नहीं मिलता जो उसकी समस्या का हल निकाल सके। और वह उस बात को लेकर बेचैन रहने लगता है। शारीरिक रूप से सबके साथ पर मानसिक रूप से अपनी बेचैनी में खोया। अगर समस्या का समाधान निकला तो अच्छा हो जाता है, किंतु यदि ऐसी समस्या है जिसका समाधान ना हो तो उसका अवसाद बढ़ता जाता है।
वह अपनी समस्या का हल प्राप्त करने के लिए सबके समक्ष कहना शुरू कर देता है। शुरू में तो लोग उसकी बातों पर थोड़ा ध्यान देते हैं, फिर ध्यान देना बंद कर देते हैं। जब व्यक्ति देखता है, कि लोग उस पर ध्यान देना बंद कर रहे हैं तो वह चुप रहता है वह एकाकी रहना शुरू कर देता है। यह एकाकीपन उसके चिंतन की पराकाष्ठा होती है और यहीं से शुरू होता है समस्या का भयानक रूप। लोगों के सामने सामान्य व्यवहार करने वाला व्यक्ति उस समस्या से ख़ुद ही अंदर ही अंदर लड़ता रहता है।
यह लड़ाई उसमें, क्रोध, चिड़चिड़ापन और एकाकीपन को बढ़ाती है। वह अपनी समस्या में इस क़दर उलझ चुका होता है, कि किसी का कहा एक भी शब्द से तीर के समान लगता है। वह भी अपनी स्थिति से परेशान रहता है। उसे ऐसा लगता है इस स्थिति से निकलना अब संभव नहीं, अब सारी राहें बंद हो गई हैं, जीवन व्यर्थ है, लोग मुझसे दूर भाग रहे हैं, मैं निरर्थक हूंँ, और यही शुरू होता है, मन में एक ही विचार, आत्महत्या, आत्महत्या।
लोग चाहे कुछ कहे पर मैं कहती हूंँ आत्महत्या करने वाला उपेक्षा का शिकार होता है। वह बच सकता था यदि उसका किसी अपने ने समय रहते साथ दिया होता, उसकी बातों को समझा होता, तो शायद वह इस अवस्था तक पहुँचा ही ना होता। एक इंसान स्वयं नहीं मरता, हजारों उपेक्षाएंँ उसे मार डालती हैं। कोई महत्त्वाकांँक्षा, कोई ख्वाहिश, किसी अपने का धोखा तोड़ देता है, अंदर तक इंसान को। शून्य कर देता है उसकी सोच को।
ऐसे समय में इंसान को सहारे की ज़रूरत होती है, प्रेम सहानुभूति की आवश्यकता होती है। आवश्यकता होती है ऐसे हाथ की जो उसे पकड कर आत्महत्या करने से रोके।
सुमति श्रीवास्तव
जौनपुर
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